शब्द ब्रह्म
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सबद अनन्ता सबद नियन्ता
सबद अमरता सबद रमन्ता।।
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दिन भर प्रखर धूप और गर्मी थी। रात्रि में भी दस-ग्यारह बजे तक गर्मी थी। शाम से ही आराम करने का मन था, लेकिन इस परिसर में कुछ भजन-प्रेमी ढोलक, तम्बूरा, करताल, मंजीरा आदि लेकर कीर्तन कर रहे थे। मैं न तो उनकी भाषा, और न ही उनके भजनों की भाषा समझ पा रहा था। इसलिए उनके पास बैठा रहा। मैं सिर्फ सुन रहा था, क्योंकि मुझे न तो उन शब्दों और पंक्तियों का अर्थ पता था और न ही संगीत की बारीकियों की समझ मुझे है। इसलिए एक लाभ यह हुआ कि उन भजनों में अभिव्यक्त विचार / विचारों का मैं न तो मूल्याँकन ही कर सकता था, न समर्थन या विरोध। वैसे वे कबीर और दादू जैसे विभिन्न सन्तों के उद्गार ही थे, जिन्हें कभी न कभी मैंने पढ़ा और सुना तो था, लेकिन उन पर चिन्तन मनन या किसी से विचार-विमर्श आदि कभी नहीं किया था। मेरी समझ में इसका कारण यह भी था कि यद्यपि ज्ञान (होने का भ्रम) तो प्रायः हर किसी को ही होता है, और अपने इस भ्रम से हर कोई अपनी इस कल्पना / विश्वास से अत्यन्त अभिभूत / आश्वस्त भी होता है, किन्तु अपने इस भ्रम का ज्ञान किसी बिरले मनुष्य को ही हो पाता है। अपने इसी भाषा-ज्ञान के आधार पर विचार की दृष्टि से उन भजनों में निहित तात्पर्य की विभिन्न और अनेकों ही सैद्धान्तिक व्याख्याएँ की जा सकती हैं, और तब तो यह भ्रम और भी सुदृढ हो जाया करता है। भजन सुनते हुए मेरे लिए मेरे सौभाग्य से वह रास्ता तो चूँकि पहले से ही बन्द हो चुका था। इसलिए बस शान्तिपूर्वक बैठा हुआ, उन्हें सुनता रहा।
ध्यान के अपने पहले के अभ्यास के कारण उन्हें सुनते हुए, वे मन में प्रविष्ट हुए और धारणा के रूप में उन पर मेरा ध्यान स्थिर हो गया। इससे पहले ही मन का अर्थात् उन सभी वृत्तियों का निरोध हो चुका था, जो प्रमादयुक्त मन / चित्त का किसी भी विषय से संग होने का परिणाम होती हैं। चित्त का निरोध, फिर चित्त की एकाग्रता, इसके बाद भजन-रूपी इस नई वृत्ति का उद्भव होने पर उसमें अनायास निमग्नता से अनायास ही प्राण भी निरुद्ध हो गए। लगभग आधे घंटे तक यही स्थिति रही। छिटपुट विचार अवश्य ही आ-जा रहे थे, जिनकी उपेक्षा कर दिए जाने से वे भी क्षीण होते होते अंततः विलीन ही हो गए। भजनों का एक क्रम पूर्ण हो चुका, तो लगा कि अब उठा जाए। उठ खड़ा हुआ और अगला एक कदम उठाने से भी पहले ही गिर पड़ा। ऐसा अनुभव पहले भी कभी होने से यह भी स्पष्ट था कि प्राणों के निरुद्ध होने पर ही ऐसा होता है। जैसे कि निम्न रक्तचाप होने पर हुआ करता है। कोई ऐसा व्यक्ति सोकर उठने के बाद यदि सहसा उठ खड़ा हो तो गिर भी सकता है। फिर धीरे-धीरे उठ खड़ा हुआ, और कमरे से निकल कर बाहर खुले में आकर कुर्सी पर बैठ गया। इस घटनाक्रम से यह भी पुनः स्पष्ट हो गया कि निरोध-परिणाम, एकाग्रता-परिणाम और समाधि-परिणाम क्या हैं। और यह भी, कि धारणा, ध्यान और समाधि के एकत्र होने पर संयम कैसे सिद्ध होता है।
चूँकि समाधि अभ्यास-सहित और अनायास भी होती है, और निर्विकल्प समाधि को भी इसी आधार पर क्रमशः केवल-निर्विकल्प तथा सहज-निर्विकल्प कहा जाता है, इसलिए भजन से किस प्रकार उस स्थिति का साक्षात्कार हो सकता है, जिसे योगी अनेक प्रयासों के करने के बाद भी कठिनाई से प्राप्त कर पाते हैं, यह समझ में आ गया।
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