कठोपनिषद्, अध्याय २,
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वल्ली १,
प्राणिमात्र के हृदय में विद्यमान परमेश्वर --
यः पूर्वं तपसो जातमद्भयः पूर्वमजायत।।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत।। एतद्वै तत्।।६।।
यः पूर्वं तपसः जातं अद्भयः पूर्वं अजायत। गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यः भूतेभिः व्यपश्यत।। एतत् वै तत्।।
अर्थ --
जो सर्वप्रथम (परमात्मा) के तप से उत्पन्न हुआ, जो जल आदि पञ्चमहाभूतों से भी पूर्व उत्पन्न हुआ। जो अप्रकट और अदृश्य रहकर गुह्य होकर छिपा हुआ, भूतमात्र के भीतर अवस्थित है, और उन भूतों के माध्यम से इस जगत् को जिसने देखा। यही है वह (परमात्मा)।
यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यतः।।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते।।६।।
(ईशावास्योपनिषद्)
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या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी।।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत।। एतद्वै तत्।।७।।
या प्राणेन संभवति अदितिः देवतामयी। गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिः व्यजायत।। एतत् वै तत्।।
प्रश्नोपनिषद् -- प्रश्न २,
देवानामसि वह्नितमः पितृ'णां* प्रथमा स्वधा।।
ऋषीणां चरितं सत्यमथर्वाङ्गिरसामसि।।८।।
(*जैसा कि यह शब्द गीता 10/29 में है, यहाँ उसे यथावत् शुद्ध रूप में मुद्रित करना मेरे लिए संभव नहीं है।)
इन्द्रस्वत्वमसि प्राण तेजसा रुद्रोऽसि परिरक्षिता।।
त्वमन्तरिक्षे चरसि सूर्यस्त्वं ज्योतिषां पतिः।।९।।
या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रे या च चक्षुषि।।
या च मनसि सन्तता शिवां तां कुरु मोत्क्रमीः।।१२।।
प्रश्न ३ --
अथ हैनं कौसल्याश्चायनः पप्रच्छ भगवन्कुत एष प्राणो जायते कथमायात्यस्मिञ्शरीरे आत्मानं वा प्रविभज्य कथं प्रातिष्ठते केनोत्क्रमते कथं बाह्यं अभिधत्ते कथं अध्यात्ममिति।।१।।
तस्मै स ह्योवाचातिप्रश्नान्पृच्छसि ब्रह्मिष्ठोऽसीति तस्मात्तेऽहं ब्रवीमि।।२।।
आत्मन एष प्राणो जायते यथैषा पुरुषे छायैतस्मिन्नेतदाततं मनोकृतेनायात्यस्मिञ्शरीरे।।३।।
अर्थ --
संदर्भ --
देवी-अथर्वशीर्षम् :
ते देवा अब्रुवन् -- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।।८।।
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नायित्र्यै ते नमः।।९।।
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु।।१०।।
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्।।११।।
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।।
तन्नो देवी प्रचोदयात्।।१२।।
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।१३।।
दैवी, देवतामयी प्राणमयी यह जो अदिति है, और देवताओं द्वारा जिसका पुनः सृजन किया जाता है, वह अदिति जिसका प्रयोग पशुओं के द्वारा वाणी के रूप में किया जाता है (धेनुर्वाक्) और वही अदिति, जो पुनः देवताओं का संस्कार करती है, जिससे वे यज्ञ की आहुतियों को प्राप्त कर अपनी भूमिका का वे निर्वाह करते हुए अपना अपना कार्य करते हैं। वह अदिति ही भूतों में बसती हुई संचरती और विचरती है।
यही वह (परमात्मा / परमेश्वरी) है।।
पुनः कठोपनिषद् अध्याय २,
वल्ली १,
अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः।।
दिवे दिव ईड्यो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः।।
एतद्वै तत्।।८।।
अरण्योः निहितः जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः। दिवे दिव ईड्यः जागृवद्भिः हविष्मद्भिः मनुष्येभिः अग्निः। एतत् वै तत्।।
अर्थ -- जिस प्रकार से गर्भिणी स्त्रियाँ अपनी भावी सन्तान को गर्भ में सुरक्षित रखते हुए उनका पोषण करती हैं, और वह गर्भ दिन प्रतिदिन अभिवृद्धि को प्राप्त करता है, वैसे ही जागृत और हवन सामग्रियों से उस अग्नि को मनुष्यों द्वारा अनुष्ठान-उपासना से क्रमशः परिपुष्ट और परितुष्ट किया जाता है, और जो मनुष्य में वैसे ही अन्तर्भूत है, जैसे कि वह अग्नि दो अरणियों के मध्य में भी अप्रकट रहते हुए विद्यमान होती है। यह (अग्नि) ही वह परमात्मा है।
यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति।।
तं देवाः सर्वे अर्पितास्तु नात्येति कश्चन।। एतद्वै तत्।।९।।
यतः च उदेति सूर्यः अस्तं यत्र च गच्छति। तं देवाः सर्वे अर्पिताः तु न-अत्येति कश्चन। एतत् वै तत्।।
अर्थ --
जिस दिशा (स्थान) से सूर्य उदय होता है, और अस्त होते समय जिस दिशा (स्थान) की ओर सूर्य जाता है, उसी स्थान (धाम) में समस्त देवता समर्पित हैं, और कोई भी उसका अतिक्रमण नहीं करता। यही वह (परमात्मा) है।।
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