September 25, 2015

आज की कविता- सच का सच /2

आज की कविता
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सच का सच /2
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चल अचल के साथ में,
अचल चंचल हो रहा,
चल बँधा यूँ स्नेह में
अब भला जाए कहाँ ?
नेह का बँधन अनोखा,
देह-मन की प्रीत सा,
एक चंचल एक चल,
जग की अनोखी रीत सा!
और यूँ जीवन हरेक,
पल-पल युगों से जी रहा,
अस्तित्व के इस नृत्य में,
जीव हर हर्षा रहा ।
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September 24, 2015

आज की कविता / सच का सच

आज की कविता
सच का सच
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हालाँकि यह,
एकदम सच है कि,
कुछ न कुछ,
’हमेशा’ होता रहता है,
लेकिन फिर,
यह भी,
इतना ही सच है कि,
’हमेशा’ जैसा कुछ कहीं नहीं होता,
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September 21, 2015

नैन भए बोहित के काग.. . . . -सूरदास

नैन भए बोहित के काग.. . . .  
-सूरदास
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सूरदास चर्मचक्षुओं से वंचित थे । और शायद यही कारण है कि अपने अन्तर्चक्षु से उन्हें परमात्मा के दर्शन होते थे । और इस संसार के चर्मचक्षुयुक्त अन्तर्दृष्टिरहित लोगों की उपमा वे गोपिकाओं के रूप में दिया करते थे । उनका एक पद है जिसमें वे कहते हैं :
"मेरो मन अनत कहाँ सुख पावे,
जैसे उड़ि जहाज को पँछी पुनि जहाज पर आवे..."
यहाँ भी जहाज के पँछी के रूप में वे संसार के वैराग्य-विवेक से रहित मनुष्यों के लिए पँछी की उपमा देते हुए कहते हैं कि वे घूम-फिरकर पुनः पुनः इन्द्रिय-सुखों रूपी अपने संसार में लौट आते हैं, जैसे समुद्र में दूर स्थित जहाज पर रहनेवाला पँछी घूम-फिरकर पुनः जहाज पर ही लौट आता है, किन्तु यदि कभी सौभाग्यवश उसका जहाज किसी ऐसे तट पर उसे ले जाता है जहाँ से वह अपने स्वाभाविक परिवेश, जँगल या वन-उपवन में पहुँच जाए, तो भूलकर भी पुनः जहाज पर नहीं लौटता, वैसे ही जिनके नयन श्याम के रूप से बँध जाते हैं वे पुनः भूलकर भी संसार की तुच्छ गर्हित विषय-वासनाओं की ओर नहीं लौटते । सूरदास जी कहते हैं कि मेरे मन को इस संसार में अनत (अनंत) सुख कैसे मिल सकता है, यह तो जहाज के पंछी की मज़बूरी है कि समुद्र पार कर दूर तट पर न जा पाने के ही कारण वह पुनः पुनः जहाज पर लौट आता है । इस पद में भी वही उदाहरण है । हमारे नेत्र-रूपी दो काग घूमफिरकर ’फ़ेसबुक’ / ’ट्विट्टर’ तथा गूगल / याहू पर लौट आते हैं जहाँ अनन्त सुख नहीं मिल सकता । अनन्त सुख तो श्याम के दर्शन में ही है। 
यह ’पोत-कपोत’ का सन्दर्भ तो भाषा-शास्त्रियों के लिए है, हमारे आपके जैसे लोगों के लिए नहीं ।          
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September 19, 2015

आज की कविता : एक चिट्ठी - मृत्यु के नाम,

आज की कविता
एक चिट्ठी - मृत्यु के नाम,
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अतिथि तुम कब आओगे?
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देह पत्थर का बना भारी घर,
साँस बूढ़ी की तरह,
चढ़ती उतरती रहती है,
सीढ़ियाँ काठ की,
डगमगाती काँपती जर्जर,
और भूकंप के अंदेशे हरदम ।
हवा के चलने से,
खड़क जाती हैँ खिड़कियाँ जो कभी,
तुम्हारे आने का वहम होता है,
और इंतज़ार का हर इक लमहा
ख़त्म न होता हुआ तनहा सफ़र होता है ।
सिलसिला यूँ ही चल रहा है यहाँ,
बस यही रोज का है अपना बसर,
और यही आज की भी ताज़ा ख़बर!
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September 15, 2015

हिंदी -दिवस / भाषा-दिवस

हिंदी -दिवस / भाषा-दिवस  
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जैसे हर शहर का अपना एक चरित्र होता है और शहर एक जीवंत इकाई होता है, वैसे ही हर भाषा का एक चरित्र होता है, और हर भाषा अपने-आप में अनेक खूबियों से भरी होती हैं इसलिए भाषाओं का झगड़ा व्यर्थ की नासमझी है, अगर हम अधिक से अधिक, या कम से कम अपनी ही भाषा से ही प्रेम रखें, तो हमें दूसरी भाषाओं से वैर / भय रखने की क़तई ज़रूरत नहीं और इसीलिए सभी भाषाएँ साथ-साथ ही पनपती या नष्ट होती हैं, अलगाव में नहीं! हिन्दी-दिवस को इस भावना से मनाएँ तो शायद हम अधिक सुखी होंगे ।
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September 08, 2015

आज की कविता / क़ाश !

आज की कविता / क़ाश !
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कहीं कोई क़ाश इक ऐसी जगह हो,
बिल्लियाँ ही बिल्लियाँ हों हर तरफ़!
ऊँघती उठती ठिठकती सिमटती सी,
लेके अंगड़ाई गले से लिपटती सी,
देखकर चूहे को डर से काँपती सी,
भागकर तेज़ी से कुछ-कुछ हाँफ़ती सी,
स्याह कजरारी सुरमई चितकबरी,
लाल भूरी रेशमी सी मखमली सी,
हर तरफ़, हाँ हर तरफ़ बिखरी हुईं सी,
बिल्लियाँ ही बिल्लियाँ हों हर तरफ़!
खेलती चूज़ों से मुर्ग़े-मुर्ग़ियों से,
धूप में उस दौड़ती उन गिलहरियों से,
आपके सोफ़े पे बैठी हो सलीके से,
देखती हो आपको बस कनखियों से,
कहीं कोई क़ाश इक ऐसी जगह हो,
...

September 06, 2015

आज की कविता / बेटियाँ,

आज की कविता
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बेटियाँ ...

बूटियाँ, छुई-मुई सी,
सुनते ही आहट स्पर्श की,
सकुचाकर सिमट जाती हैं,
छाया भी छूना मत उनकी,
अपरिचित, उन्मुक्त, चंचल,
बेटियाँ, छुई-मुई सी,
सुनते ही आहट स्पर्श की,
खिलखिला उठती हैं,
पल भर गले लगकर,
हो जाती हैं गद्-गद्,
पवित्र, नाज़ुक, चंचल,
कर देती हैं भावुक,
बूढ़े पिता को,.....
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दिग्विजय

आज की कविता
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यौवन-रथ कब रुका है,
लाँघकर समुद्र-पर्वत,
दिग्विजय करता रहा है,
दिग्-दिगंत तक!
उन्नत पथ लेकिन झुका है,
क़दमों तले उसके,
बिछ-बिछ गया है,
लाल कालीन सा!
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