March 29, 2023

इन गर्मियों में!

कविता : 29-03-2023

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अब की इन गर्मियों में हमने तो ये तय माना है,

पानी पैसे की तरह, पैसा पानी की तरह बहाना है! 

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नया रास्ता!

 कविता 29-03-2023

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वो पुराने रास्ते सब खो गए,

वो पुरानी मंज़िलें नहीं रही, 

हमसफ़र भी अब नहीं कोई, 

हाँ अभी तो हूँ मैं अकेला ही!

किसी हमसफ़र की तलाश नहीं,

और मंजिल की भी तलाश नहीं!

न डर है और न उम्मीद ही कोई,

कोई भी चाह नहीं, आस नहीं!

बस है कौतूहल और उत्सुकता,

किससे मिलना है, कौन मिलना है, 

मिलने से या न मिलने से भी,

क्या मुझे खोना है, या मिलना है!

भूख लगती है, प्यास लगती है, 

थकान, नींद, अनायास आती है,

सहर होती है, शाम होती है,

मगर चिन्ता, फ़िक्र नहीं होती है,

वक्त ठहरा हुआ है या चलता है,

वक्त है भी, या नहीं, नहीं पता है!

मन नहीं बस पुर-सुकून अमन है,

चैन है, बस शान्तिपूर्ण जीवन है! 

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March 28, 2023

पातञ्जल योगसूत्र

मेरा स्वाध्याय ब्लॉग 

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मेरे इस ब्लॉग का अवलोकन अभी तक कुल 108000 बार से अधिक हुआ है, जबकि यह मेरा सर्वप्रथम ब्लॉग था। इसके बाद मेरे स्वाध्याय और दूसरे ब्लॉग जैसे गीता और श्री रमण महर्षि के बारे में,  तथा मेरा  vinaykvaidya  ब्लॉग भी हैं, किन्तु स्वाध्याय ब्लॉग का अवलोकन सर्वाधिक लगभग 338000 बार हुआ है। इसी स्वाध्याय ब्लॉग में कुछ समय पूर्व पातञ्जल योग सूत्र पर अंग्रेजी भाषा में कुछ पोस्ट्स क्रमबद्ध लिखना प्रारंभ किया था, जो कि आज पूर्ण हो गया। जानकारी के लिए यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ। मेरे प्रोफ़ाइल पर मेरे सभी ब्लॉग्स की लिंक देख सकते हैं। 

 @ swaadhyaaya.blogspot.com 

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March 23, 2023

अहंकार और कृपा

फिर क्या करें? 

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वृत्ति और प्रत्यय

दृष्टा तु दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।

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वृत्ति चेतना की गतिविधि है।

प्रत्यय प्रतीति है -

प्रतीयते विधीयते इति प्रत्ययः।।

वृत्ति समय के साथ बदलती रहती है,

प्रत्यय तात्कालिक होता है। 

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पाँच वृत्तियाँ

वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।। 

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प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

प्रमाण -प्रतीतिः जैसा प्रतीत होता है, किन्तु वह अनित्य होने से  appearance है न कि वास्तविकता।

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

विपर्ययः मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।। 

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यह जो है समय!

 अहसास / कविता २३-०३-२०२३

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कैसा भी हो समय, 

ग़ुजर ही जाएगा!

पर ये ठहरा हुआ

सा लगता है!!

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March 17, 2023

आवत ही हरषे नहीं

नैनन नहीं सनेह,

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भौतिकता और बुद्धिवाद आज की वैश्विक संस्कृति के दो ध्रुव हैं जिनके चुम्बकीय क्षेत्र में लौह-कण इधर उधर खिंचते रहते हैं। और यही है आज की विश्व राजनीति का सार। सतही भावुकता से मुग्ध, महत्वाकांक्षा से अभिभूत, स्वार्थबुद्धि से ग्रस्त मनुष्य इस मरुस्थल में जल की आशा से क्षितिज पर दिखलाई पड़ती मृग-मरीचिका की दिशा में सर्वत्र दौड़ रहे हैं। यही उनकी नियति और उपलब्धि है।

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March 14, 2023

March 13, 2023

पता नहीं था!

डर! 

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जल्दी ही सब खो जाएगा पता नहीं था,

खोने को तो कुछ भी वैसे बचा नहीं था!

खोने को तो कुछ भी वैसे बचा नहीं था,

खोने का डर भी खो जाएगा, पता नहीं था!

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March 12, 2023

उन दिनों -७८

उन दिनों -७८
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अधूरी कहानी 

नर्मदा के किनारे, परिक्रमा-पथ पर चलते हुए, जब आप नर्मदा कावेरी के पुनर्संगम पर पहुँचते हैं, तो कुछ दूर तक कावेरी के किनारे-किनारे चलने के बाद बारहवीं शताब्दी का एक भवन नज़र आता है, यह एक-मंजिला भवन देखते ही मुझे मुक्तिबोध की कहानी 'ब्रह्मराक्षस का शिष्य' याद आती है। लगता था कि क्या मुक्तिबोध को इसी स्थान पर उस रचना के लिए प्रेरणा हुई होगी, रोचक बात यह कि वहाँ पड़े पत्थरों के ढेर में मुझे कई ऐसे पत्थर नज़र आये जिनमें संभवतः Akkadian भाषा में कुछ लिखा था। उस स्थान से गुज़रते हुए आगे जाने पर कुछ ऐसा दिखलाई देता है जो मूलतः किसी साधक की समाधि पर पहले कभी बना छोटा सा शिवालय रहा होगा।
अमावस्या, पूर्णिमा या सावन में यहाँ कोई स्थानीय आदिवासी थोड़ा सा सामान बिक्री के लिए रखता है, उस दिन वह भिक्षुक यहाँ नहीं दिखलाई पड़ता जो कि बाकी सभी दिनों में अक्सर एक अंगोछा सामने बिछाए बैठा हुआ दिखलाई देता था। लोग कभी उसे कुछ दे देते, या उस समाधि पर बने शिवलिंग को कुछ चढ़ा जाते थे। धीरे-धीरे वह भिक्षु एक 'कल्ट-फ़िगर' बनने लगा था, लेकिन वह भूमि आदिवासियों  के स्वामित्व की थी और वह उस पर कब्ज़ा नहीं कर सकता था, क्योंकि वह कोई बड़ा साधु / 'स्वामी' या किसी परम्परा से सम्बद्ध नहीं था। वह मुझे अक्सर ध्यान से देखा करता था, लेकिन पहचान बनाने के लिए उसने कभी पहल नहीं की। उसके रहन-सहन से नहीं लगता था कि वह हिन्दू रहा होगा।
एक दिन मंदिर से लौटते हुए उसके साथ चलते हुए उसने पहल की।
वह भिक्षु यद्यपि किसी से कुछ मांगता नहीं था, लेकिन उस दिन उसने मुझसे माचिस मांगी। चूँकि मैं बीड़ी या सिगरेट नहीं पीता, इसलिए उसे मुझसे निराशा हुई. फ़िर एक दिन मैंने उसके पास किसी दूसरे मज़हब की कोई किताब देखी। तब खयाल आया कि वह भिक्षु पारिव्राजक या साधु-संन्यासी नहीं, फकीर है।
बरसों बीत गए! 
2016 में पुनः ओंकारेश्वर रोड बड़वाह में कुछ मास रुका था तो देखा कि नर्मदा के किनारों पर एक दो भग्न मूर्तियाँ मरियम की, किसी दूसरे बाबा की भी थीं। तब मुझे उस फकीर का स्मरण हुआ। 
तब से नर्मदा में बहुत पानी बह चुका है। बाद के कई वर्षों में भी, और अभी तक देखा है कि उज्जैन में जब शिप्रा का पानी सूख जाता है, तो नर्मदा से ले लिया जाता है।
कहानी सचमुच अब भी अधूरी ही है। क्या पता कभी पूरी होगी भी या नहीं!
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आनन्द क्या है ? - 2

आनन्द क्या है ? -2
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वेद जो नित्य वाणी है, अस्तित्व का अधिष्ठान है ।
किन्तु जब हम वेद को कोई पुस्तक या ग्रन्थ मात्र समझते हैं तो उस नित्य वाणी से विच्छिन्न होने लगते हैं।
नित्य वाणी के रूप में वेदों को ऋषियों के द्वारा ही जाना जाता है, और परम्परा से उनका परिचय जगत को प्राप्त होता है। यह परम्परा भी मनुष्य की पात्रता के अनुसार असंख्य रूपों में व्यक्त होती है।
इसलिए चार वेदों का विभाजन भी औपचारिक है। लक्षणों और परम्परा के प्रमुख और गौण तत्वों के आधार पर ऐसा विभाजन उपयोगी भी है।
ऋक्, साम, यजुः में क्रमशः ज्ञान भक्ति तथा कर्म को प्रधानता दी गयी है, इसलिए कहीं कहीं (जैसे गीता अध्याय 9 श्लोक 17) में तीन ही वेदों का उल्लेख है। इसका यही कारण है कि अथर्ववेद में जो तत्व है वही प्रकारांतर से इन तीनों में भी है और परम्परा के आधार पर इन तीनों से पृथक् होने पर भी यह उन तीनों से अभिन्न है। इसी आधार पर पुराण यद्यपि वेदों से बहुत भिन्न जान पड़ते हैं जबकि वे वस्तुतः सिर्फ वेद का विस्तार और अलंकार ही हैं।
ब्रह्म को सत्-चित् तथा आनंद कहा गया है।  ये तीनों ब्रह्म के 'लक्षण' हैं जिनसे उसे इंगित किया और ग्रहण किया जाता है। ये तीनों लक्षण वाच्यार्थ की दृष्टि से तीन वस्तुएँ प्रतीत होते हों, तो भी लक्ष्यार्थ की दृष्टि से केवल ब्रह्म ही हैं। जब वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ में प्रतीत होनेवाले अंतर का निवारण / निराकरण कर दिया जाता है और उनमें  विद्यमान उभयरूप से एकमेव तत्व पर ध्यान दिया जाता है, तो उस तत्व का अनुमान, ग्रहण और संशयरहित निश्चय हो जाता है। इसलिए आनंद मूलतः उसका ही नाम है, जिसके अन्य नाम सत्-चित् भी हैं। सत्-चित् को सीधे समझ पाना तो कठिन है ही, समझाना तो और कठिन है।
सत्-चित् या ब्रह्म अथवा ईश्वर / आत्मा / परमात्मा जैसे शब्दों और उनके अभिप्राय के बारे में विद्वानों में भी मतभेद पाए जाते हैं, जबकि 'आनन्द क्या है?' इसे कोई न भी जानता हो, तो भी हर कोई उसे प्राप्त करना चाहता ही है, और इस बारे में कहीं कोई मतभेद नहीं है। इसका एक अर्थ (निहितार्थ) यह भी है कि प्रत्येक प्राणी आनंद को अनायास जानता ही है और उसे इसका अभाव प्रतीत होते ही वह व्याकुल हो जाता है। दूसरी ओर, -- इसके प्राप्त होते ही मनुष्य इसकी नित्य विद्यमानता भूल बैठता है। तात्पर्य यह कि जब मनुष्य का शरीर और मन स्थिर और शांत, स्वस्थ और प्रसन्न होता है, तब उस स्थिति में उस सम्पूर्ण स्थिति अर्थात् अनायास सहज प्राप्त आनंद से भी अधिक कुछ चाहने लगता है। निद्रा में मनुष्य जैसे कोई अपेक्षा न करते हुए भी शान्ति से सोए हुए उस आनंद का उपभोग करते हुए यद्यपि  संतुष्ट होता है, किन्तु जाग जाने के बाद धीरे धीरे भूल जाता है। इसका ही परिणाम यह होता है कि वह उस स्थिति को फिर से प्राप्त करने की ज़रूरत महसूस करने लगता है.
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स्मृतियाँ

आवश्यक सूचना --

"उपन्यास उन दिनों" और "उन दिनों" के सभी पात्र काल्पनिक हैं, और यदि किसी पात्र से किसी का नाम मिलता जुलता प्रतीत हो, तो इसे केवल संयोग ही माना जाए।

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यात्रा और पदयात्रा

फुटपाथ और पुल पर, 

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गुजरात का एक शहर है सूरत। नौ वर्षों तक क्लर्की करते रहने के बाद जब मेरा प्रमोशन / प्रमोचन हुआ और मैं "अधिकारी" बन गया, उस समय मेरे पास 'एटलस' की एक हल्की-फुल्की बाइसिकल थी, जिसे मैंने उज्जैन में एटलस-चौराहे पर स्थित 'एटलस' की रहीम-भाई भूरा-भाई की दुकान से वर्ष 1985 में खरीदा था। "उन दिनों" मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए अपनी मोपेड को भी बेच दिया था। इसी समय में मैंने उज्जैन छोड़ने का निर्णय किया और उज्जैन से स्थानान्तरण के लिए अपने दफ्तर में अर्जी दे दी। मुझसे पूछा गया कि राजकोट या थाँदला (म. प्र. में स्थित आदिवासी-बहुल अविकसित क्षेत्र) इनमें से किस जगह जाना चाहूँगा। तो तुरन्त ही मैंने राजकोट को चुन लिया। स्थानान्तरण मैंने स्वेच्छा से चाहा था, इसलिए न तो जॉइनिंग-पीरियड और न यात्रा भत्ता आदि की पात्रता मुझे थी। मेरी आकस्मिक छुट्टियों (casual leave) का बैलेंस भी शून्य था, इसलिए मुझे उसी दिन 14 दिसंबर को शाम के समय राजकोट के लिए रवाना होना पड़ा। उज्जैन से इन्दौर, और वहाँ से विजयन्त ट्रैवल्स की बस से राजकोट दूसरे दिन रात के समय पहुँचा। स्टेशन पर जे. के. गेस्ट हाउस में रात बिताई और दूसरे दिन जॉइन किया। फिर किसी समय 1986 में उज्जैन में रखी उस साइकल को राजकोट ले आया। 1986 में ही संभवतः 19 फरवरी 1986 के दिन सुबह जब चाय पीने के लिए पास में ही स्थित 'रेकड़ी' पर पहुँचा और जब स्थानीय दैनिक "ફૂલછાબ" में : "જે. કૃષ્ણમૂર્તિ નો બુઝાયેલો જીવનદીપ" पढ़ा, तो स्तब्ध रह गया। यह भी एक संयोग ही था कि जब सुबह सुबह 7 बजे घर से निकल रहा था, मेरे हाथ से रिस्टवॉच जमीन पर गिर गई थी, और बंद हो गई थी। थोड़ा सा हिला-डुला कर देखा भी, फिर भी चालू नहीं हुई। इससे भी मन खिन्न था। दो - तीन दिनों तक मन की स्थिति बहुत विचित्र थी। दफ्तर में बॉस ने भी जब अनुभव किया, मुझसे पूछा कि क्या बात है? मैंने कहा - हाँ सर! कुछ गड़बड़ है। बात वहीं खत्म हो गई। राजकोट में बड़ी मुश्किल से कालावड-रोड पर "ए जी सोसाइटी नी पाछळ" में रहने के लिए अच्छा सा एक मकान किराए पर मिला। दो साल वहाँ अत्यन्त सुख से बीते। उसी साइकल पर दफ्तर आता - जाता, छुट्टी के दिन या वैसे भी प्रायः रोज ही रामकृष्ण आश्रम में "ध्यान" करने के लिए भी जाता रहता था।

सूरत में मेरा घर तापी नदी के पार राँदेर रोड पर  स्थित "शिल्पी सोसाइटी" में था, मैं अकसर उसी साइकिल पर चौक बाज़ार के अपने दफ्तर जाया करता था। पुल पर जब छोटे-बड़े वाहनों की भीड़ होती, तो मैं अपनी साइकल फुटपाथ पर चढ़ाकर आराम से सबको टेक-ओव्हर कर आगे निकल जाता था।

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March 07, 2023

आकाश में!

सूराख हो नहीं सकता! 

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स्व. दुष्यन्त कुमार का एक शे'र है :

कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता,

एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों!

मुझे लगता है कि आकाश तो पहले से ही क्या वैसे भी सबसे बड़ा एक सूराख या खाली स्थान ही नहीं है? यह अलग बात है कि शायद किसी को आज तक यह खयाल क्यों नहीं आया कि उसे गिनी'ज़ बुक आफ वर्ल्ड रेकार्ड में दर्ज किए जाए! पत्थर कितनी भी दूर तक जाए, इस सूराख के दूसरे सिरे तक शायद ही पहुँच सके! 

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वे कह रहे हैं कि अगर आपका दृढ विश्वास है, तो आप अवश्य ही पानी पर चल सकते हैं!

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मुझे ये दोनों ही बातें शायराना सच महसूस होती हैं। पहली बात की सच्चाई की जाँच ही नहीं की जा सकती, और दूसरी बात की सच्चाई की जाँच करने की जरूरत ही नहीं है! इसका यह मतलब नहीं कि वह सच्चाई से परे है। इसका मतलब सिर्फ यह है कि क्या किसी को इसकी सच्चाई पर शक नहीं होता? और जब तक शक है तब तक विश्वास कैसे हो सकता है? और यदि विश्वास ही नहीं है तो दृढ विश्वास का तो सवाल ही नहीं उठता। 

यह वैसा ही है, जैसे कोई कहे कि अगर आपका दृढ विश्वास है तो आप आकाश में उड़ सकते हैं। यह तो हो सकता है कि हम किसी दिन हवाई जहाज में बैठकर आकाश में उड़ सकें। लेकिन इसी तरह क्या नाव या पानी के जहाज पर चढ़कर हम पानी पर नहीं चल सकते !

अब रही बात आकाश में सूराख करने की, तो जितने भी पिण्ड या भौतिक वस्तुएँ हैं, क्या वे सभी आकाश में छोटे-बड़े सूराख ही नहीं हैं? सूराख का क्या मतलब है? सूराख अभाव ही है न! जैसे जमीन के भीतर कोई सुरंग होती है वहाँ जमीन का अभाव ही तो होता है! वैसे ही आकाश में जहाँ कोई पिण्ड या कोई वस्तु जितना स्थान घेरती है, उतने स्थान पर आकाश का अभाव हो जाता है, यह भी तो मान सकते हैं! अगर इस ऐंगल से देखें तो आकाश में तो वैसे ही अनगिनत सूराख हैं ही! तो और कुछ सूराख नये हो जाने से क्या होना जाना है!

फिर भी यदि पातञ्जल योगसूत्र पर विश्वास करें तो विभूतिपाद नामक अध्याय में वर्णित सूत्र:

कायाकाशयोःसंबंधसंयमाल्लघुतूलसमापत्तेश्चाकाशगमनम्।।

से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शरीर और आकाश के पारस्परिक संबंध पर "संयम" करने से, (विभूतिपाद --सूत्र २ -- त्रयमेकत्र संयमः।।२।।) और लघु तथा लघुतर की तुलना के आधार पर "समापत्ति" करने से (तथा साधनपाद --सूत्र ३६--सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।।३६।। के माध्यम से) ऐसी आकाशगमन की सिद्धि क्यों नहीं प्राप्त हो सकती है? क्योंकि स्थूल भौतिक विज्ञान भी तो स्थूल प्रकृति पर विजय पाने की ही चेष्टा कर रहा है, जबकि योगशास्त्र सूक्ष्म प्रकृति अर्थात् मन पर, और योग की शक्ति और सामर्थ्य तो स्थूल विज्ञान की शक्ति से अवश्य ही कहीं अधिक है। महर्षि पतञ्जलि विभूतिपाद नामक अध्याय में  सचेत करते हैं कि दिव्य और सूक्ष्म अनुभव समाधि में उपसर्ग (विघ्न) हैं, जबकि व्युत्थान (समाधि से उठने) की दशा में वे ही सिद्धियाँ होते हैं :

सर्वार्थैकाग्रतयोः क्षयोदयो चित्तस्य समाधिपरिणामः।।११।।

ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः।। ३८।।

और भगवान् श्री रमण महर्षिकृत "सद्दर्शनम्" के अनुसार तो ये सिद्धियाँ भी ज्ञानी की दृष्टि से स्वप्न ही हैं, और अनित्य तो हैं ही। ज्ञान-रूपी सिद्धि तो ज्ञानी की वास्तविक संपत्ति है क्योंकि वह नित्य और शाश्वत अविकारी सत्य है, जहाँ सुख-दुःख का भी पूर्ण अभाव है, और शान्ति रूपी स्वाभाविक नित्य-स्थिति है :

सिद्धस्य वित्तिः सत एव सिद्धिः 

स्वप्नोपमानाः खलु सिद्धयोऽन्याः।।

स्वप्नः प्रबुद्धस्य कथं नु सत्यः

सति स्थितः किं पुनरेति मायाम्।।३७।।

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March 03, 2023

असंपादित मूल कविता

और, एक मन यह भी!

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एक मन! (कविता-चित्र)

याद करता है, भूल जाता है!

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अकेले होने का अर्थ ...

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।
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विचार, भावना, क्रिया, और स्मृति कैसे परस्पर आश्रित हैं !
नींद में, स्वप्न में, जागृति में, कल्पना में ....
क्या सभी वृत्तिमात्र ही नहीं है? 
वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।५।।
प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।६।।
(पातञ्जल योग-सूत्र) 
अकेले होने का अर्थ क्या है?
यदि अकेले होने का अर्थ है वृत्तिमात्र का विलीन होना, तो यह स्थिति क्या अनुभवगम्य, भावगम्य, बुद्धिगम्य या इन्द्रियगम्य है?
क्या निद्रा में भी कोई सुखवृत्ति प्रत्यक्ष ही विद्यमान नहीं होती? और क्या जागने पर इसकी स्मृति ही इसका प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होती है? निद्रा में अपना अस्तित्व और अपने उस अस्तित्व का भान क्या कोई वृत्ति है? अवश्य ही यह भान मूलतः कोई वृत्ति नहीं होता है, किन्तु जागते ही इसे स्मृति के रूप में जान लिया जाता है। इस प्रकार अपने अस्तित्व का भान अपने ही अन्तर में अन्तर्धारा की तरह आधारभूत है। क्या उसे जाननेवाला उससे भिन्न कोई दूसरा है, या हो भी सकता है? जागते ही अपने होने का यह जो सहज भान अनायास होता है उसकी इसलिए कोई पहचान नहीं की जा सकती, क्योंकि पहचान का अर्थ है स्मृति और स्मृति का अर्थ है पहचान। दोनों अन्योन्याश्रित हैं, किन्तु उनके अन्योन्याश्रित होने की यह मान्यता उनके परस्पर भिन्न भिन्न होने का भ्रम मात्र है। इसलिए यह जाननेवाला जो नित्य ही अपने आपको ही जानता है, जो अविकारी immutable  है, वृत्ति नहीं है। वृत्ति के द्वारा, वृत्ति के माध्यम से जो कुछ भी जाना जाता है वह वस्तुतः केवल / जानकारी / अज्ञान है, जहाँ विषयी (subject) किसी विषय (object) को वृत्तिविशेष के माध्यम से जानता है। यह विषयी, जिसे भूल से 'मैं' कहा जाता है, विषय के साथ अविच्छिन्न है, और एक के अभाव में दूसरा भी नहीं होता।
विषय "क्षेत्र" है और विषयी "क्षेत्रज्ञ" है। किन्तु इन "क्षेत्र" और "क्षेत्रज्ञ" दोनों को जिस भान में जाना जाता है वह भान नित्य ही अविकारी है। सभी विषय और सभी विषयी उस अविकारी भान में ही व्यक्त और अव्यक्त होते रहते हैं, जबकि वह भान न तो कभी व्यक्त होता है न कभी अव्यक्त, क्योंकि विषय-विषयी रूपी जो ज्ञान व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है, अवश्य और सतत ही विकार-शील है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय १३ में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं -

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदुः।।१।।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत।। 
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।२।।

उस अविकारी ज्ञान को श्रीकृष्ण कहा जा सकता है या श्रीकृष्ण को उस अविकारी ज्ञान से अभिन्न कहा जा सकता है, और इसी तरह जिसे श्रीराम कहा जाता है, वह भी उस अविकारी ज्ञान से वैसे ही अभिन्न है, जैसे कि वह अविकारी ज्ञान भगवान् श्रीराम से अभिन्न है -
सर्वभूतात्मभूतात्मा।। 

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विश्व-हिन्दी-सम्मेलन :2015

विश्व-हिन्दी-सम्मेलन :2015
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आज सुबह ही ’रेडिफ़्’ के एक समाचार पर यह टिप्पणी मैंने की थी :
अभी 4:00 बजे आकाशवाणी की एस्-एम्.एस्. सेवा में पढ़ा :
"हिन्दी आनेवाले समय में विश्व की 3 सर्वाधिक प्रचलित और स्वीकृत भाषाओं में से एक होगी। ..."
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वैसे इसमें उल्लेखनीय बस यह है कि ड्राफ्ट में पड़े इस पोस्ट की मुक्ति का दिन आज आ ही गया। 
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