कविता : 29-03-2023
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अब की इन गर्मियों में हमने तो ये तय माना है,
पानी पैसे की तरह, पैसा पानी की तरह बहाना है!
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कविता : 29-03-2023
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अब की इन गर्मियों में हमने तो ये तय माना है,
पानी पैसे की तरह, पैसा पानी की तरह बहाना है!
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कविता 29-03-2023
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वो पुराने रास्ते सब खो गए,
वो पुरानी मंज़िलें नहीं रही,
हमसफ़र भी अब नहीं कोई,
हाँ अभी तो हूँ मैं अकेला ही!
किसी हमसफ़र की तलाश नहीं,
और मंजिल की भी तलाश नहीं!
न डर है और न उम्मीद ही कोई,
कोई भी चाह नहीं, आस नहीं!
बस है कौतूहल और उत्सुकता,
किससे मिलना है, कौन मिलना है,
मिलने से या न मिलने से भी,
क्या मुझे खोना है, या मिलना है!
भूख लगती है, प्यास लगती है,
थकान, नींद, अनायास आती है,
सहर होती है, शाम होती है,
मगर चिन्ता, फ़िक्र नहीं होती है,
वक्त ठहरा हुआ है या चलता है,
वक्त है भी, या नहीं, नहीं पता है!
मन नहीं बस पुर-सुकून अमन है,
चैन है, बस शान्तिपूर्ण जीवन है!
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मेरा स्वाध्याय ब्लॉग
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मेरे इस ब्लॉग का अवलोकन अभी तक कुल 108000 बार से अधिक हुआ है, जबकि यह मेरा सर्वप्रथम ब्लॉग था। इसके बाद मेरे स्वाध्याय और दूसरे ब्लॉग जैसे गीता और श्री रमण महर्षि के बारे में, तथा मेरा vinaykvaidya ब्लॉग भी हैं, किन्तु स्वाध्याय ब्लॉग का अवलोकन सर्वाधिक लगभग 338000 बार हुआ है। इसी स्वाध्याय ब्लॉग में कुछ समय पूर्व पातञ्जल योग सूत्र पर अंग्रेजी भाषा में कुछ पोस्ट्स क्रमबद्ध लिखना प्रारंभ किया था, जो कि आज पूर्ण हो गया। जानकारी के लिए यहाँ उल्लेख कर रहा हूँ। मेरे प्रोफ़ाइल पर मेरे सभी ब्लॉग्स की लिंक देख सकते हैं।
@ swaadhyaaya.blogspot.com
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दृष्टा तु दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।
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वृत्ति चेतना की गतिविधि है।
प्रत्यय प्रतीति है -
प्रतीयते विधीयते इति प्रत्ययः।।
वृत्ति समय के साथ बदलती रहती है,
प्रत्यय तात्कालिक होता है।
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वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टाः।।
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प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।
प्रमाण -प्रतीतिः जैसा प्रतीत होता है, किन्तु वह अनित्य होने से appearance है न कि वास्तविकता।
प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।
विपर्ययः मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।।
अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।।
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अहसास / कविता २३-०३-२०२३
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कैसा भी हो समय,
ग़ुजर ही जाएगा!
पर ये ठहरा हुआ
सा लगता है!!
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नैनन नहीं सनेह,
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भौतिकता और बुद्धिवाद आज की वैश्विक संस्कृति के दो ध्रुव हैं जिनके चुम्बकीय क्षेत्र में लौह-कण इधर उधर खिंचते रहते हैं। और यही है आज की विश्व राजनीति का सार। सतही भावुकता से मुग्ध, महत्वाकांक्षा से अभिभूत, स्वार्थबुद्धि से ग्रस्त मनुष्य इस मरुस्थल में जल की आशा से क्षितिज पर दिखलाई पड़ती मृग-मरीचिका की दिशा में सर्वत्र दौड़ रहे हैं। यही उनकी नियति और उपलब्धि है।
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डर!
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जल्दी ही सब खो जाएगा पता नहीं था,
खोने को तो कुछ भी वैसे बचा नहीं था!
खोने को तो कुछ भी वैसे बचा नहीं था,
खोने का डर भी खो जाएगा, पता नहीं था!
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आवश्यक सूचना --
"उपन्यास उन दिनों" और "उन दिनों" के सभी पात्र काल्पनिक हैं, और यदि किसी पात्र से किसी का नाम मिलता जुलता प्रतीत हो, तो इसे केवल संयोग ही माना जाए।
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फुटपाथ और पुल पर,
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गुजरात का एक शहर है सूरत। नौ वर्षों तक क्लर्की करते रहने के बाद जब मेरा प्रमोशन / प्रमोचन हुआ और मैं "अधिकारी" बन गया, उस समय मेरे पास 'एटलस' की एक हल्की-फुल्की बाइसिकल थी, जिसे मैंने उज्जैन में एटलस-चौराहे पर स्थित 'एटलस' की रहीम-भाई भूरा-भाई की दुकान से वर्ष 1985 में खरीदा था। "उन दिनों" मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी इसलिए अपनी मोपेड को भी बेच दिया था। इसी समय में मैंने उज्जैन छोड़ने का निर्णय किया और उज्जैन से स्थानान्तरण के लिए अपने दफ्तर में अर्जी दे दी। मुझसे पूछा गया कि राजकोट या थाँदला (म. प्र. में स्थित आदिवासी-बहुल अविकसित क्षेत्र) इनमें से किस जगह जाना चाहूँगा। तो तुरन्त ही मैंने राजकोट को चुन लिया। स्थानान्तरण मैंने स्वेच्छा से चाहा था, इसलिए न तो जॉइनिंग-पीरियड और न यात्रा भत्ता आदि की पात्रता मुझे थी। मेरी आकस्मिक छुट्टियों (casual leave) का बैलेंस भी शून्य था, इसलिए मुझे उसी दिन 14 दिसंबर को शाम के समय राजकोट के लिए रवाना होना पड़ा। उज्जैन से इन्दौर, और वहाँ से विजयन्त ट्रैवल्स की बस से राजकोट दूसरे दिन रात के समय पहुँचा। स्टेशन पर जे. के. गेस्ट हाउस में रात बिताई और दूसरे दिन जॉइन किया। फिर किसी समय 1986 में उज्जैन में रखी उस साइकल को राजकोट ले आया। 1986 में ही संभवतः 19 फरवरी 1986 के दिन सुबह जब चाय पीने के लिए पास में ही स्थित 'रेकड़ी' पर पहुँचा और जब स्थानीय दैनिक "ફૂલછાબ" में : "જે. કૃષ્ણમૂર્તિ નો બુઝાયેલો જીવનદીપ" पढ़ा, तो स्तब्ध रह गया। यह भी एक संयोग ही था कि जब सुबह सुबह 7 बजे घर से निकल रहा था, मेरे हाथ से रिस्टवॉच जमीन पर गिर गई थी, और बंद हो गई थी। थोड़ा सा हिला-डुला कर देखा भी, फिर भी चालू नहीं हुई। इससे भी मन खिन्न था। दो - तीन दिनों तक मन की स्थिति बहुत विचित्र थी। दफ्तर में बॉस ने भी जब अनुभव किया, मुझसे पूछा कि क्या बात है? मैंने कहा - हाँ सर! कुछ गड़बड़ है। बात वहीं खत्म हो गई। राजकोट में बड़ी मुश्किल से कालावड-रोड पर "ए जी सोसाइटी नी पाछळ" में रहने के लिए अच्छा सा एक मकान किराए पर मिला। दो साल वहाँ अत्यन्त सुख से बीते। उसी साइकल पर दफ्तर आता - जाता, छुट्टी के दिन या वैसे भी प्रायः रोज ही रामकृष्ण आश्रम में "ध्यान" करने के लिए भी जाता रहता था।
सूरत में मेरा घर तापी नदी के पार राँदेर रोड पर स्थित "शिल्पी सोसाइटी" में था, मैं अकसर उसी साइकिल पर चौक बाज़ार के अपने दफ्तर जाया करता था। पुल पर जब छोटे-बड़े वाहनों की भीड़ होती, तो मैं अपनी साइकल फुटपाथ पर चढ़ाकर आराम से सबको टेक-ओव्हर कर आगे निकल जाता था।
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सूराख हो नहीं सकता!
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स्व. दुष्यन्त कुमार का एक शे'र है :
कैसे आकाश में सूराख हो नहीं सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों!
मुझे लगता है कि आकाश तो पहले से ही क्या वैसे भी सबसे बड़ा एक सूराख या खाली स्थान ही नहीं है? यह अलग बात है कि शायद किसी को आज तक यह खयाल क्यों नहीं आया कि उसे गिनी'ज़ बुक आफ वर्ल्ड रेकार्ड में दर्ज किए जाए! पत्थर कितनी भी दूर तक जाए, इस सूराख के दूसरे सिरे तक शायद ही पहुँच सके!
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वे कह रहे हैं कि अगर आपका दृढ विश्वास है, तो आप अवश्य ही पानी पर चल सकते हैं!
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मुझे ये दोनों ही बातें शायराना सच महसूस होती हैं। पहली बात की सच्चाई की जाँच ही नहीं की जा सकती, और दूसरी बात की सच्चाई की जाँच करने की जरूरत ही नहीं है! इसका यह मतलब नहीं कि वह सच्चाई से परे है। इसका मतलब सिर्फ यह है कि क्या किसी को इसकी सच्चाई पर शक नहीं होता? और जब तक शक है तब तक विश्वास कैसे हो सकता है? और यदि विश्वास ही नहीं है तो दृढ विश्वास का तो सवाल ही नहीं उठता।
यह वैसा ही है, जैसे कोई कहे कि अगर आपका दृढ विश्वास है तो आप आकाश में उड़ सकते हैं। यह तो हो सकता है कि हम किसी दिन हवाई जहाज में बैठकर आकाश में उड़ सकें। लेकिन इसी तरह क्या नाव या पानी के जहाज पर चढ़कर हम पानी पर नहीं चल सकते !
अब रही बात आकाश में सूराख करने की, तो जितने भी पिण्ड या भौतिक वस्तुएँ हैं, क्या वे सभी आकाश में छोटे-बड़े सूराख ही नहीं हैं? सूराख का क्या मतलब है? सूराख अभाव ही है न! जैसे जमीन के भीतर कोई सुरंग होती है वहाँ जमीन का अभाव ही तो होता है! वैसे ही आकाश में जहाँ कोई पिण्ड या कोई वस्तु जितना स्थान घेरती है, उतने स्थान पर आकाश का अभाव हो जाता है, यह भी तो मान सकते हैं! अगर इस ऐंगल से देखें तो आकाश में तो वैसे ही अनगिनत सूराख हैं ही! तो और कुछ सूराख नये हो जाने से क्या होना जाना है!
फिर भी यदि पातञ्जल योगसूत्र पर विश्वास करें तो विभूतिपाद नामक अध्याय में वर्णित सूत्र:
कायाकाशयोःसंबंधसंयमाल्लघुतूलसमापत्तेश्चाकाशगमनम्।।
से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि शरीर और आकाश के पारस्परिक संबंध पर "संयम" करने से, (विभूतिपाद --सूत्र २ -- त्रयमेकत्र संयमः।।२।।) और लघु तथा लघुतर की तुलना के आधार पर "समापत्ति" करने से (तथा साधनपाद --सूत्र ३६--सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम् ।।३६।। के माध्यम से) ऐसी आकाशगमन की सिद्धि क्यों नहीं प्राप्त हो सकती है? क्योंकि स्थूल भौतिक विज्ञान भी तो स्थूल प्रकृति पर विजय पाने की ही चेष्टा कर रहा है, जबकि योगशास्त्र सूक्ष्म प्रकृति अर्थात् मन पर, और योग की शक्ति और सामर्थ्य तो स्थूल विज्ञान की शक्ति से अवश्य ही कहीं अधिक है। महर्षि पतञ्जलि विभूतिपाद नामक अध्याय में सचेत करते हैं कि दिव्य और सूक्ष्म अनुभव समाधि में उपसर्ग (विघ्न) हैं, जबकि व्युत्थान (समाधि से उठने) की दशा में वे ही सिद्धियाँ होते हैं :
सर्वार्थैकाग्रतयोः क्षयोदयो चित्तस्य समाधिपरिणामः।।११।।
ते समाधावुपसर्गा व्युत्थाने सिद्धयः।। ३८।।
और भगवान् श्री रमण महर्षिकृत "सद्दर्शनम्" के अनुसार तो ये सिद्धियाँ भी ज्ञानी की दृष्टि से स्वप्न ही हैं, और अनित्य तो हैं ही। ज्ञान-रूपी सिद्धि तो ज्ञानी की वास्तविक संपत्ति है क्योंकि वह नित्य और शाश्वत अविकारी सत्य है, जहाँ सुख-दुःख का भी पूर्ण अभाव है, और शान्ति रूपी स्वाभाविक नित्य-स्थिति है :
सिद्धस्य वित्तिः सत एव सिद्धिः
स्वप्नोपमानाः खलु सिद्धयोऽन्याः।।
स्वप्नः प्रबुद्धस्य कथं नु सत्यः
सति स्थितः किं पुनरेति मायाम्।।३७।।
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