September 28, 2022

व्यक्तिगत और सामाजिक

संकल्प, धर्म और स्वतंत्रता 

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क्या मनुष्य स्वतंत्र है? क्या मनुष्य और जिस समाज से मनुष्य का संबंध है वह समाज एक दूसरे से भिन्न और स्वतंत्र दो भिन्न वस्तुएँ हैं? व्यावहारिक सत्य की दृष्टि से कोई मनुष्य समाज के अभाव में भी जीवन बिता सकता है, किन्तु समाज चूँकि ऐसे ही कुछ मनुष्यों का समूह होता है, इसलिए मनुष्य के अभाव में ऐसे किसी समाज के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती । समाज और मनुष्यों के बीच की व्यवस्था और उन दोनों के बीच का संबंध ही सामाजिक धर्म है। यह व्यवस्था जितनी सरल और जितनी अधिक सुचारु होगी, व्यक्ति और समाज के बीच उतना ही अधिक सामञ्जस्य होगा। किन्तु फिर भी मनुष्य के वैयक्तिक और सामूहिक आवश्यकताओं और हितों के बीच कुछ न कुछ नीतिगत मतभेद तो होंगे ही। राजनीतिक धर्म, -वह व्यवस्था है, जो कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के आधार पर इन नीतिगत मतभेदों को यथासंभव कम किए जाने का प्रयास करे। जिसमें सभी का और प्रत्येक मनुष्य का ही अधिकतम हित संभव हो। इस राजनीतिक धर्म का आधार पुनः समाज के कुछ शक्तिशाली लोग तय कर सकते हैं और यह पुनः उन लोगों की महत्वाकांक्षा और मनुष्यमात्र के सार्वजनिक हित की कल्पना से प्रेरित उनका दृष्टिकोण हो सकता है। ऐसी शक्ति भी उनके विवेक से प्रेरित नीति, या फिर उनके विश्वासों, मान्यताओं, पूर्वाग्रहों, और स्वार्थ-बुद्धि आदि से उत्पन्न उनका हठ भी हो सकता है। पूरे मनुष्य के संदर्भ में कहें तो जब तक ऐसा कोई आधार नहीं प्राप्त हो जाता जिसके सहारे सामाजिक और राजनीतिक रूप से प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त का पालन सुनिश्चित किया जा सके तब तक स्वतंत्रता अपूर्ण ही रहेगी और व्यक्ति तथा समाज के बीच का संघर्ष समाप्त नहीं हो सकता। प्राकृतिक न्याय वह न्याय है, जो प्राकृतिक रूप से मनुष्य और समाज में विद्यमान होता है, और मनुष्य और उसके समूह के आचरण और तौर तरीकों को तय करता है। इसे प्राकृतिक धर्म या न्याय भी कहा जा सकता है।समूह या सामाजिक रूप से यह धर्म या न्याय भी पुनः शक्ति से परिचालित और नियंत्रित हो सकता है, या / और यह शक्ति भी पुनः किन्हीं उच्चतर आदर्शों और ध्येयों से निर्देशित हो सकती है। संक्षेप में इस आदर्श और ध्येय को :

"सभी सुखी हों और कोई भी दुःख का भागी न हो",

इन शब्दों में सूत्रबद्ध किया जा सकता है। 

संसार में परंपरागत धर्म मुख्यतः दो प्रकार के हैं, एक है उपरोक्त सूक्ति से प्रेरित सनातन धर्म, दूसरा है राजनीतिक महत्वाकांक्षा से प्रेरित सामूहिक आचरण के सूचीबद्ध नियमों पर आधारित वे धर्म जो उनका पालन यंत्रवत किए जाने की अपेक्षा समाज से करते हैं। ऐसे धर्मोंं के बीच परस्पर कलह और विसंगतियाँ और मतभेद न हों तो यह एक आश्चर्य की ही बात होगी। सिद्धान्ततः वे किसी एक ही मत के अनुयायी हों तो भी व्यवहारिक रूप से उनके बीच मतभेद होंगे ही और इतिहास भी इसका प्रमाण है।

इस प्रकार वास्तविक धर्म वही है जिसे कि अर्थ और आशय की दृष्टि से भी चिरन्तन, शाश्वत और सनातन कहा जा सके। इसी का आविष्कार और संग्रह वेद और वैदिक धर्म है। यह धर्म इस अर्थ में प्राकृतिक भी है कि यह मनुष्य को उसके अपने अपने गुणों और कर्मों के आधार पर उनके अनुसार उन्हें चार वर्णों में वर्गीकृत करता है। यहाँ यह कहा जाना भी आवश्यक है कि यह वर्ण व्यवस्था मनुष्यों के वंश या कुल नहीं, बल्कि उन गुणों और कर्मों के आधार पर उन्हें चार प्रधान वर्णों में वर्गीकृत करती है। इसी व्यवस्था का एक उतना ही महत्वपूर्ण पक्ष और भी है, जो है, -प्रकृतिप्रदत्त आश्रम-व्यवस्था, जो कि न केवल मनुष्यों ही, बल्कि प्रायः सभी प्राणियों के लिए भी प्रकृति से ही निर्धारित उनकी जीवन-शैली ही है।

यदि धर्म को इस आधार पर वर्गीकृत किया जाए तो यह प्रतीत होगा कि अब्राहमिक धर्मों को प्रगतिशील और उन्नतिशील धर्म कहा जा सकता है क्योंकि अभी उसमें टकराहट और अनिश्चय विद्यमान है। अभी उनके परिपक्व और विकसित तथा उन्नत होने की संभावनाएँ हैं, और जब तक उनमें अपरिपक्वता और  अनिश्चय विद्यमान हैं, तब तक समय की माँग है कि वे स्वयं ही अपने आपको विकसित और परिमार्जित कर सुधार लें, और अपने यथार्थ स्वरूप को सुनिश्चित कर लें । जब तक ऐसा नहीं होता है, तब तक मनुष्य और मनुष्यों के समुदायों के बीच सतत संघर्ष होते रहना स्वाभाविक और अवश्यंभावी भी है ही। और इसीलिए तो उनके बीच अपने वर्चस्व को स्थापित करने का सतत अनवरत प्रयास भी लगातार निरंतर ही चल भी रहा है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता है। 

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September 27, 2022

वात्याचक्र (Vortex)

सोलर फ्लेयर / Solar Flair

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दिनांक 06 सितम्बर 2022 को इसी ब्लॉग में "सोलर फ्लेवर" शीर्षक से एक पोस्ट मेंने लिखा था, जिसमें इस संभावना पर विचार किया था कि क्या 28-29 सितंबर 2022 के आसपास सौर ज्वालाएँ (Solar Flair) धरती तक आ सकती हैं! मुझे नहीं पता कि आनेवाले तीन चार दिनों में क्या हो सकता है, या होने जा रहा है। यद्यपि शायद ही कोई और भी इस पर गंभीरता से मेरी तरह ध्यान दे रहा हो! किन्तु इस सप्ताह वैश्विक स्तर पर हो रही राजनैतिक घटनाओं पर यदि दृष्टिपात करें तो लगता है कि धरती पर इस आकाशीय घटना का परिणाम अन्य रूपों में अवश्य ही हो रहा है। चीन, भारत, अमेरिका, ईरान, रूस, फ्रांस, जर्मनी, और अरब राष्ट्रों में जिस प्रकार की उथल-पुथल हो रही है, उससे तो यही लगता है कि धरती पर सूर्यदेवता के कोप का प्रभाव सर्वत्र ही देखा जा सकता है। 

भारत की बात करें तो पी. एफ. आई. के विभिन्न ठिकानों पर पड़े एन. आई. ए. के छापों में बरामद दस्तावेज, और उससे जुड़े लोगों की गिरफ्तारी अवश्य ही स्थिति की गंभीरता का द्योतक है। अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगा, लेकिन यह तय है कि देश में उपद्रव और उत्पात हो सकते हैं, साम्प्रदायिक सौहार्द की स्थिति बिगड़ सकती है, जिसे नियंत्रित कर पाना विभिन्न राज्यों की और देश की सरकार के लिए भी एक बड़ी चुनौती होगा।

ईरान में हिजाब के बहाने स्त्रियों का दमन और स्त्री-स्वातंत्र्य के समर्थकों का आन्दोलन भी वहाँ की सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है। रूस, यूरोप और चीन में जनता शासन के दमन-चक्र से त्रस्त है। श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान भी चीन की ऋण-नीति के चंगुल में फँसे हुए हैं। और स्वयं चीन में भी जनता का प्रखर असंतोष चरम पर है।

क्या इसे सौर ज्वालाओं के प्रभाव का ज्योतिषीय आकलन कहा जा सकता है? 

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September 20, 2022

गौसेवा : सबसे बड़ा पुण्य

अष्टावक्र, श्वेतकेतु और कहोळ 

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कहोळ वेदज्ञ और वैदिक विधि-विधान में पारंगत और निष्णात थे। वे राजा जनक के पुरोहितों में से एक प्रमुख पुरोहित थे।

उनकी पत्नी का नाम था सुजाता, और सुजाता से उत्पन्न उनके पुत्र का नाम था अष्टावक्र । यह कथा तो विख्यात ही है कि जब अष्टावक्र अभी माता के गर्भ में ही थे, और उनके पिता कहोळ नित्य-प्रति किया जानेवाला वेदपाठ कर रहे थे तब पाठ करते समय कुछ मन्त्रों के उच्चारण में त्रुटि कर बैठे।

अष्टावक्र का ध्यान उस समय उन मन्त्रों को सुनते हुए जब उन त्रुटियों पर गया, तो वे वहीं से बोल उठे :

"पिताजी! वेदमन्त्रों के उच्चारण में त्रुटि अनिष्टसूचक है। आप ऐसी त्रुटि न करें।"

पुत्र के वचन सुनकर कहोळ क्रोधित हो उठे, और उन्होंने माता के गर्भ में स्थित अपने अजन्मे पुत्र को शाप दे दिया, जिसके प्रभाव से जन्म के समय से ही उसके शरीर के आठ अंग टेढ़े हो गए अर्थात् वक्र हो गए। इसीलिए उनका नाम अष्टावक्र हो गया। अष्टावक्र की माता सुजाता के भाई का नाम श्वेतकेतु था। उनके  पिता विद्या ग्रहण करने के लिए उन्हें लेकर जब गुरुकुल गए तब उनके आचार्य ने उन्हें आश्रम की गौओं की देखभाल और सेवा करने की आज्ञा दी। श्वेतकेतु पूरी निष्ठा से इस कार्य में संलग्न हो गए और  युवा होने तक उनका मन, बुद्धि आदि इतने शुद्ध हो चुके थे कि वे ब्रह्मविद्या के पात्र हो गए। 

यह है गौसेवा का फल।

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September 19, 2022

देवता !

कविता : 19-09-2022

फूल तुम्हारे हाथों में!!

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September 15, 2022

नींद कभी...!

नींद और फ़िक्र  : कविता 

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नींद कभी रहती थी आँखों में,

अब कहीं और रहा करती है!

फ़िक्र जो रहती थी कहीं और,

अब वो दिल में रहा करती है!

याद रहा करती थी, सपनों में,

सपनों के साथ हो गई विदा, 

उम्र जो रहती थी साँसों में, 

जल्दी ही हो जाएगी जुदा! 

और फिर वक्त ही वक्त है!

बस मैं हूँ, और है मेरा खुदा!! 

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September 14, 2022

परिवर्तन और स्थायित्व

सापेक्ष और निरपेक्ष 

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परिवर्तन और स्थायित्व की पृष्ठभूमि में किसी ऐसे आधार को मानना ही होता है जो अपरिवर्तनशील है। यह पृष्ठभूमि अवश्य ही अप्रकट और अव्यक्त होते हुए भी प्रकट और व्यक्त रूप में सतत परिवर्तनशील आभास की तरह भी विद्यमान है, इस बारे में कोई प्रश्न ही नहीं उठाया जा सकता है। यद्यपि चेतना और संसार सतत ही परिवर्तित हो रहे हैं, और इसीलिए संसार को अनित्य सत्य, तथा संसार की तुलना में चेतना को नित्य सत्य कहना त्रुटिपूर्ण नहीं होगा। संसार (जिसमें एक व्यक्ति विशेष की तरह हमारा शरीर, मन, बुद्धि, इच्छाएँ, भावनाएँ इत्यादि भी हैं) सतत परिवर्तित हो रहा है और उस परिवर्तन का अनुमान समय की मान्यता से किया जाता है। प्रश्न उठता है कि क्या समय की यह मान्यता भी अनुमान मात्र नहीं है? परिवर्तन समय पर निर्भर होता है, या समय परिवर्तन पर? फिर ऐसा भी कहा जाता है कि समय परिवर्तित हो रहा है, या हो गया है! परिवर्तन और समय दोनों ही क्या परस्पर आश्रित कल्पनाएँ ही नहीं हैं? क्या बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही विचार सक्रिय नहीं होता? इस प्रकार से समय और परिवर्तन दोनों को एक ही साथ एक दूसरे से भिन्न और एक दूसरे पर आश्रित भी मान लिया जाना क्या तर्कसम्मत है? किन्तु इस मौलिक प्रश्न पर शायद ही किसी का ध्यान कभी जा पाता है। फिर स्थायित्व और नित्यता क्या है? क्या समय और परिवर्तन, जो कि एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, की पृष्ठभूमि में विद्यमान उनका संवेदन जिसे होता है, वह चेतना उनकी तुलना में स्थायी सत्य नहीं है? क्या यह चेतना ही नित्यता और निजता भी नहीं है? क्या इस चेतना को जाननेवाला दूसरा, इससे कोई अन्य है? क्या यह चेतना स्वयं ही संसार का और अपनी निजता का प्रमाण नहीं है? चेतना और निजता, चेतना और नित्यता एवं निजता और नित्यता स्वरूपतः एकमेव यथार्थ वास्तविकता नहीं हैं? क्या इस सत्यता को 'मैं', 'तुम', 'यह', 'वह', 'हम', 'आप' 'ये' या 'वे' की तरह से इंगित किया जाना संभव है?

क्या इसके अस्तित्व को अस्वीकार किया जाना संभव है? 

न तो किसी तर्क, न अनुभव से, और न किसी उदाहरण से ऐसा किया जा सकता है। इसे कोई नाम दिया जाना भी इसी तरह से व्यर्थ ही है, क्योंकि इससे उसकी कोई पहचान नहीं बनती और न उसे पहचाना ही जा सकता है। आश्चर्य की बात यह भी है कि यह यद्यपि सभी की और हर किसी की अत्यन्त घनिष्ठ, अन्तरंग और अन्तर्यामी वास्तविकता भी है, फिर भी इसकी ओर कभी किसी का ध्यान भी नहीं जाता। और यह इसलिए भी असंभव है, क्योंकि यह किसी से भिन्न भी नहीं है, सभी में समान रूप से अवस्थित आत्मा ही है! कोई अपने आपको अपने से भिन्न की तरह से जाने, यह कैसे हो सकता है! किन्तु जैसे ही संसार को या संसार की कल्पना को सत्यता प्रदान कर दी जाती है, और उस संसार के अपने आपसे भिन्न होने की तथा अपने आपके उससे भिन्न और पृथक होने कल्पना उठती है, वैसे ही, तत्काल ही सारा प्रपञ्च ठोस सत्य और वास्तविक प्रतीत होने लगता है। तब नित्यता, निजता और चेतना पृष्ठभूमि में विलुप्त हो जाती है और जीवन एक अंतहीन, दुरूह और दुर्गम अरण्य जैसा जान पड़ता है।

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September 11, 2022

क्या जीवन एक संघर्ष है!?

क्या जीवन एक तपस्या है!

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यह इस पर निर्भर करता है, कि जीवन के प्रति हमारी क्या दृष्टि है। 'जीवन' शब्द को अनेक सन्दर्भों में, अनेक और भिन्न भिन्न  अर्थों में ग्रहण किया जा सकता है, और न तो यह संभव है, न जरूरी है, कि सभी की इस बारे में एक जैसी दृष्टि हो। 'जीवन' शब्द के साथ मेरा, हमारा, तुम्हारा, सबका, आदि विशेषणों के सन्दर्भ में देखते ही इसे अनेक और अत्यन्त भिन्न और विचित्र रूपों में समझ लिया जाता है। तब हम सोचने लगते हैं कि क्या पेड़-पौधों, घास में जीवन होता है या नहीं! और, क्या पशुओं में भी जीवन होता होगा? 'जीवन' का समानार्थी शब्द 'आत्मा' भी हो सकता है। तब यह समझ लिया जाता है, कि जिसमें 'आत्मा' है, उसमें ही जीवन है, और जिसमें आत्मा नहीं है, उसमें जीवन नहीं होता। इसलिए पशु-पक्षियों, वनस्पति, वृक्ष आदि में जीवन या 'आत्मा' नहीं होती। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि तब कभी कभी स्त्री को भी ऐसी ही वस्तु मान लिया जाता है, जो पुरुष के लिए उपभोग और संतान उत्पन्न करने का एक साधन भर होती है। इस प्रकार से 'जीवन' को परिभाषित कर लेने के बाद, बस अपने आपको ही, अपने शरीर को ही 'जीवन' मान लिया जाता है, और इसे बनाए रखना ही एकमात्र आवश्यक कर्तव्य होता है, जिससे अनंत काल तक हमेशा और निरंतर ही संसार के सुखों को प्राप्त करते रहा जा सके। किन्तु मूढ से मूढ भी यह समझ सकता है, और यदि न भी समझना चाहे तो 'जीवन' उसे समझा ही देता है, कि किसी न किसी दिन इस शरीर का नष्ट हो जाना ऐसा एक सत्य है, जिसका सामना, एक न एक दिन हर किसी को करना ही होता है। यह भी देखा जाता है कि शरीर का अन्त निकट होने पर भी, अन्त हो जाने की संभावना प्रत्यक्षतः स्पष्ट हो जाने पर भी, कोई उम्मीद, यह आशा तो बनी ही रहती है कि 'जीवन' अर्थात् यह शरीर जीवित ही  रहे। जो मर जाता है, उसे क्या अनुभव होता होगा, यह तो उसे ही पता होता होगा, लेकिन उसे मरता हुआ देखनेवाले, -इस बारे में अपने अपने अनुमानों, कल्पनाओं, धारणाओं के अनुसार ही उसके बारे में सोचने लगते हैं। कभी किसी का ध्यान इस सच्चाई पर नहीं जा पाता है, कि मरनेवाला, और उसके बारे में हमारी यह धारणा कि वह कोई जीवित है, केवल हमारी स्मृति के होने से और स्मृति होने तक ही सत्य प्रतीत होते हैं। और यह स्मृति भी कितनी भंगुर, आधी अधूरी, सतत बनती, टूटती और बदलती रहनेवाली वस्तु होती है! उसके बारे में सोचते हुए हम कभी यह नहीं देखते हैं कि यह 'सोचना' क्या है? क्या किसी भाषा के न होने पर जिसे 'सोचना' कहते हैं, क्या वह "सोचा जाना" संभव है भी? भाषा क्या है? क्या यह किसी वस्तु के लिए प्रयुक्त किया जानेवाला कोई शब्द और ऐसे अनेक शब्दों का एक समूह ही नहीं होता है, जिससे विशिष्ट भावना या भाव जाग्रत होता है और जो किसी समूह में सर्वमान्य होता है? भावना या भाव भी क्या हर क्षण ही आते और जाते ही नहीं रहते? फिर "मैं", -जो मेरा "जीवन" है, यह क्या है? क्योंकि "मैं" और "मेरा" के बिना कहीं कोई 'जीवन' नहीं हो सकता, और न ही 'जीवन' की अनुपस्थिति या अभाव में कोई "मैं" या "मेरा" कहीं हो सकता है! किन्तु क्या कभी न कभी हर किसी को ऐसा भी नहीं लगता, कि 'जीवन' में ऐसे भी  पल आते हैं, जब "मैं" और / या "मेरा" तो नहीं होता है, लेकिन  'जीवन' अवश्य ही होता है! जब हम आश्चर्य-चकित होते हैं, जब मन मौन हो जाता है, किसी सुखद, दुःखद या शोक या हर्ष की स्थिति में, अचानक ही 'जीवन' तो होता है, लेकिन उसे "मैं" या "मेरा" कहना संभव ही नहीं होता, जब आप बस मुग्ध या मंत्र-मुग्ध होते हैं, जब आप अचानक किसी अप्रत्याशित संकट में होते हैं, या ख़तरे से घिर जाते हैं! उस पल के बीत जाने के बाद ही "मैं" और "मेरा" भी पलक झपकते लौट आते हैं, और उस पल की स्मृति को सहेज लिया जाता है। उसी स्मृति के सहारे से "मैं" और "मेरा" जीवित हो उठते हैं, और "मैं" और "मेरा" से जुड़ी वह स्मृति भी लौट आती है। फिर "मैं" और "मेरा" ऐसी ही असंख्य स्मृतियों की श्रंखलाओं में अपने आपको जकड़ लेते हैं। क्या यही 'जीवन' है?

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September 06, 2022

सोलर फ्लेयर

सौर ज्वाला

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सूरज पर हुआ सौर विस्फोट, जिससे उठा सौर तूफ़ान शुक्र के समीप से गुजर चुका है। सूर्य से सबसे समीप का ग्रह बुध चूँकि तूफा़न की दिशा से बहुत दूर था, इसलिए बुध ग्रह उसकी चपेट में नहीं आ पाया। और यदि आ भी जाता तो वह उससे शायद ही प्रभावित होता, क्योंकि बुध ग्रह पर धरती जैसा कोई जीवन वैसे भी नहीं है, जिसे कोई ख़तरा हो सकता था। 20 अगस्त को उठा यह तूफ़ान शुक्र के समीप से 4 सितम्बर 2022 को गुजरा। नासा का (या दूसरा कोई अंतरिक्ष-यान) सैटेलाइट उससे बाल बाल बचा। अब वह तूफ़ान धरती की ओर बढ़ रहा है। अनुमान लगाया जा रहा है कि 28-29 सितम्बर तक यह हमारी धरती के सर्वाधिक निकट पहुँच सकता है। यह धरती को छू सकता है, या वैसे ही निगल सकता है जैसे जलती आग किसी मच्छर को। यदि यह धरती के समीप से होकर गुजर गया तो भी धरती को भीषण ताप का सामना करना होगा। यह भी हो सकता है कि धरती इस संकट से किसी हद तक बच भी जाए।

अगर किसी कारण से दुनिया खत्म हो जाए तो हमारे सपनों का क्या होगा? घर, जमीन, बैंक-बैलेंस, प्रियजनों आदि का क्या होगा? जो लोग भाग्य या संयोग से बच जाएँगे, उनकी हालत क्या होगी!

उम्मीद तो यही है कि ऐसा कुछ नहीं होगा, लेकिन हो ही गया तो यह पोस्ट लिखने का मौका फिर न मिलेगा! 

तो क्यों न अभी ही इसका लाभ ले लिया जाए!

वैसे सारी चिन्ताएँ और योजनाएँ भी ईश्वर की ही तो हैं । पक्का पता नहीं है कि अगर कोई ईश्वर है तो वह हमारी प्रार्थना सुनेगा भी कि नहीं, या सुनकर अपनी योजना में कोई फेरबदल करेगा भी या नहीं! 

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September 03, 2022

क्या डर एक मानसिक रोग है??

।। द्वितीयाद्वै भयम् ।। 

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डर क्या है? 

योगदर्शन के अनुसार डर / भय भी अन्य वृत्तियों की तरह की ही एक वृत्ति ही है। और समस्त वृत्तियाँ जिस चेतना / मन में आती और जाती हैं, उन्हें जो जानता भी है, वह उनसे नितान्त अछूता दृष्टा मात्र है।

दृष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः।।२०।।

(पातञ्जल योग-सूत्र, समाधिपाद)

इस तरह वृत्तियाँ, -प्रत्यय का ही पर्याय हैं। 

चेतन मन, जो जाग्रति, स्वप्न और सुषुप्ति की तीन अवस्थाओं से गुजरता रहता है, या यह कहें कि मन की ये तीनों अवस्थाएँ जो कि चेतन मन अर्थात् चेतना से गुजरती रहती हैं, यह स्वरूपतः वैसे तो दृष्टा या दर्शनमात्र है, उसमें एक विशिष्ट आधारभूत वृत्ति सदैव विद्यमान होती है, जिसे अहंकार या अहंवृत्ति कहते हैं। अहंकार की अपनी कोई वैसी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती, जैसी कि भय, हर्ष, शोक, क्रोध, काम, ईर्ष्या, द्वेष, घृणा आदि भिन्न भिन्न  वृत्तियों की होती है। इसी प्रकार से चिन्ता, विश्वास, संदेह आदि भी वृत्तिमात्र ही हैं, जबकि अहंकार या अहंवृत्ति किन्हीं भी दो वृत्तियों के बीच आभासी अस्तित्व ग्रहण करती है। इसीलिए तो  हम कह पाते हैं :

"पहले मैं चिन्तित था, अब मेरी चिन्ता दूर हो गई है, इसलिए मैं प्रसन्न हूँ।"

इस प्रकार दो मानसिक स्थितियों के बीच अहंकार अपने रूप में प्रकट होता, और पुनः पुनः विलुप्त होता रहता है।

यह अहंकार या अहंवृत्ति यद्यपि मन में उत्पन्न एक तात्कालिक प्रतिक्रिया, विचार होता है, किन्तु क्षण क्षण उत्पन्न और विलीन होते रहने-वाला यह विचार दो वृत्तियों के बीच आधार ले लेता है और फिर स्वयं को सभी वृत्तियों का स्वामी मान बैठता है। इस प्रकार स्वतंत्र अस्तित्वमान प्रतीत होनेवाला विचार / अहंकार ही कर्ता, भोक्ता, ज्ञाता और स्वामी के रूप में दृष्टा के विकल्प की तरह व्यक्ति-विशेष का रूप धारण कर लेता है, जिसे "मैं" समझा जाता है।

चूँकि यह व्यक्ति, अर्थात् अहंकार सतत ही उत्पन्न और विलीन होता रहता है, इसलिए अपने-आपको व्यक्ति माननेवाला यह अहंकार सदैव मिटने की आशंका से ग्रस्त भी रहा करता है। इस मूल भय को अभिनिवेश कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि शरीर के नष्ट हो जाने की कल्पना, संभावना और यह आशंका ही "मैं मर जाऊँगा" के रूप में सत्य प्रतीत होने पर मनुष्य भय से ग्रस्त हो जाता है।

विवेक और सामान्य तर्कबुद्धि से देखें तो भी स्पष्ट होगा कि यह विचार जो अभी ही उठा, अनायास ही उठता है, और चाहते या न चाहते हुए भी विलीन भी हो जाता है। तब कोई दूसरा विचार उसका स्थान ले लेता है। इस सम्पूर्ण विचार श्रँखला को देखने या जाननेवाला इसकी पृष्ठभूमि में अवस्थित दृष्टा न तो किसी भी विचार से प्रभावित होता है, न किसी विचार को प्रभावित ही करता या कर सकता है। सभी विचारों का आगमन परिस्थितियों और स्मृति से ही होता है। चेतन मन जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति की दशा के अनुसार ही उसके समक्ष उपस्थित प्रसंग को ग्रहण करता है।

जैसे जाग्रत दशा में विचारों का क्रम अलगअलग समय पर हममें भिन्न भिन्न भावनाएँ जाग्रत करता है, वैसे ही जाग्रत दशा से स्वप्न की दशा, पुनः स्वप्न से स्वप्नरहित सुषुप्ति की दशा, उस दशा से लौट कर स्वप्न दशा, तथा फिर से स्वप्न की उस दशा से जाग्रत आदि दशाओं का क्रम से आना और जाना, उनके बीच अपने आपके कल्पित व्यक्ति-विशेष होने के विचार / स्मृति के जन्म का कारण होता है।

यद्यपि भय केवल कल्पना है, कल्पना के सिवा कुछ नहीं, फिर भी अपने आपके एक व्यक्ति विशेष होने की स्मृति ही भय का एकमात्र कारण है।

इसलिए यद्यपि भय अनेक हो सकते हैं, किन्तु जिसे भय लगता है वह निर्विवाद रूप से एकमेव / स्वयं ही होता है। और सभी भय निरपवादतः इस एक के ही सन्दर्भ में होते हैं।

सभी भय दूसरे या द्वितीय होते हैं - अर्थात् अपने स्वयं से अन्य; 

इसलिए जब तक संसार और मैं एक दूसरे से अलग जान पड़ते हैं, तब तक भय दूर कैसे हो सकता है! 

और इसीलिए : 

"द्वितीयाद्वै भयम्"

की उक्ति पूर्णतः सुसंगत और सत्य है।

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आराम, विश्राम और अवधान

संवाद और विवादास्पदता

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पिछले दोनों पोस्ट्स डिलीट कर दिये,  हालाँकि मन नहीं था। 

ऐसा प्रायः होता है। 

जब संवादहीनता की स्थिति होती है तब विवादास्पद होने से अच्छा यही है कि वहाँ से दूर हट जाया जाए। हालाँकि विवाद की उपेक्षा भी की जा सकती है।

मुझे उन पोस्ट्स के माध्यम से जो कहना था वह कह दिया।

उनके बाद उस क्रम में आगे और भी लिखूँगा ही, अभी विश्राम करना अच्छा लग रहा है! 

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