दिसंबर 25, 2020, समय 12:45 पर लिखी थी!
और इसका दूसरा हिस्सा -उसी दिन शाम 5:20 पर!
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इस नदी पर एक पुल था,
आज वह भी ढह गया,
मिलन का सुख,
बिछोह का दुःख,
इस नदी में बह गया।
इस नदी का पाट भी,
विस्तीर्ण इतना हो गया,
क्षितिज तक वह पार है,
इस पार यह तट हो गया।
हाँ, कभी उस पार से,
नौका कोई आती तो है,
पर न कोई प्रिय, न प्रियजन,
आज तक आया कभी।
और इस तट से भी कोई,
उस तट नहीं गया कभी।
हो गए विस्मृत-अपरिचित,
स्नेही सभी, प्रेमी स्वजन,
स्नेह भी विस्मृत हुआ,
निःस्तब्ध सुस्थिर हुआ मन ।
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दूसरा हिस्सा :
फिर भी क्षितिज पर जब कभी,
आँखें मेरी ठहरती हैं,
आह! मेरे हृदय में बन,
हूक सी उभरती है।
और कोई स्मृति पुरानी,
चीर देती है हृदय,
जैसे निर्झरिणी कोई,
हृदय से निकलती है!
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