August 27, 2014

August 25, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 20

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 20
_____________________________

ध्वंस का उल्लास अभी जारी है,
कल  का सपना भी अभी तारी है,
है यकीं मुझको कि मैं नीचे इसके,
दबके मर जाऊँगा, एहसास बहुत भारी है।
--
कुछ  लिखना है, और बहुत संक्षेप में, लेकिन अभी वक्त है उसके लिए ।
--
अख़बार पढ़ना मेरी मज़बूरी है।  वैसी ही जैसे कि सुबह लैट्रिन जाना। सोचता हूँ कि मज़बूरी और स्वेच्छया करने में क्या फर्क है!  चूँकि मैं भूख और प्यास से तो लड़ सकता हूँ, क्योंकि जब खाने के लिए पास कुछ नहीं होता, और पीने के लिए दूर दूर तक पानी कहीं नहीं होता, तब आप भूख और प्यास से लड़ते हुए या तो जीत जाते हैं या फिर बस हार जाते हैं। भले ही इसे आप सामाजिक  या राजनीतिक रंग दें या न भी दें, सच्चाई पर इससे कोई फर्क कहाँ पड़ता है?
और जब आप इन बुनियादी चीज़ों की फिक्र करने और इनकी मज़बूरियों से ऊपर उठ चुके होते हैं, तब आप मनोरंजन की समस्या, बोरियत की समस्या से दो-चार हो जाते हैं।  मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा जीवन में वस्तुतः कोई समस्या है, हाँ मन के स्तर पर 'भविष्य' की कल्पना जरूर होती है, जो अनहोनी की आशंका या (यथार्थपरक या कल्पनापरक) चाह के पूरे होने संभावना की कल्पना के सिवा और क्या हो सकता है? पहली संभावना को भय कहा जा सकता है, और दूसरी को आशा।
--
फिर  राजनीति और मनोरंजन क्या है?
--
किसी भी विचारशील मनुष्य के मन में शारीरिक जरूरतें और राजनीति / मनोरंजन, इन दो सिरों के बीच एक प्रश्न जीवन की सार्थकता और प्रयोजन, अर्थात औचित्य और महत्त्व  के बारे में अवश्य ही उठता होगा। फिर यह प्रश्न भी अपने और दूसरे इन दो ध्रुवों के इर्द-गिर्द सिमट जाता होगा।
--
अपने और दूसरे, यह वर्गीकरण भी पुनः हर मनुष्य के लिए अनेक स्तरों और उसकी संवेदनशीलता के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप ले लेता है। अक्सर हर मनुष्य अपने की परिभाषा में समय समय पर बदलाव करता रहता है, उसके भाव को संकुचित या विस्तीर्ण भी करता रहता है। और इसलिए कोई व्यक्ति, समाज, समूह, समुदाय, वस्तु, विचार, आदर्श, भाषा, भावना, दृष्टि या दृष्टिकोण, यहाँ तक कि राष्ट्र भी, जो किसी समय अपना कहा जाता है, पलक झपकते ही दूसरा या पराया हो जाता है।
यह अपने-पराये का वर्गीकरण मनुष्य के मन / चेतना में जहाँ जन्म लेता है, क्या वह स्थान हम सब में एक सा और एक ही नहीं है?
--
पिछले पैराग्राफ़ में मैंने जान-बूझकर एक शब्द छोड़ दिया था।  वह शब्द है 'धर्म' । ऐसा ही एक अन्य शब्द जो छूट गया, वह है 'जाति' । शायद परंपरा, रीति-रिवाज, भी इसी तरह के कुछ और शब्द हो सकते हैं।
--
इन सारे शब्दों के वाच्यार्थ भले ही एक प्रतीत होते हों, लक्ष्यार्थ भिन्न भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न भिन्न होते हैं। 'वाच्यार्थ' से मेरा मतलब है उस शब्द का व्यवहारिक तात्पर्य। और 'लक्ष्यार्थ' का मतलब है, जिसे कहने / सुननेवाला समझता है। जैसे जब कहा जाता है, 'आटा पिसवाना है।' तो मतलब होता है 'गेहूँ पिसवाना है।' ऐसे ही जब कहा जाता है, 'नल आ गए?'  मतलब होता है 'नलों से पानी आ रहा है क्या?' 'घर आ गया।' का मतलब होता है, 'हम घर पहुँच गए।'
--
वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ का यह भेद / फर्क अगर हम व्यवहारिक धरातल पर समझ लें, तो भाषा के सम्प्रेषण में होनेवाली त्रुटियों से काफी हद तक बचा जा सकता है। और व्यावहारिक धरातल पर जिस तरह हम हँसकर अपनी भूलों को सुधार लेते हैं,अगर वैसे ही विचारगत होनेवाली संभावित भूलों को भी सुधार सकें तो हमारे अधिकांश मतभेद सरलता से दूर हो सकते हैं।
--
'धर्म','जाति', 'परंपरा', 'रीति-रिवाज', 'ईश्वर' ऐसे ही कुछ शब्द हैं जिनके वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग हुआ करते हैं। अलग अलग लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि भिन्न भिन्न समुदायों के लिए भी। और मजे की बात यह है कि कोई एक व्यक्ति भी इस बारे में स्पष्टता से, निर्विवाद रूप से सुनिश्चित होता हो, कि इनमें से किस शब्द का वह क्या वाच्यार्थ और क्या लक्ष्यार्थ ग्रहण करता है! फिर यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि हम इनके प्रयोजन, सार्थकता और प्रयोग के बारे में एक दूसरे से सहमत हो सकेंगे? ऐसा होने से पहले अपने-आप को ध्वंस से गुजरना होता है। अपने-आप के ध्वंस से गुजरते हुए समुदाय और सम्पूर्ण मानव समाज का यह ध्वंस कोई नकारात्मक नहीं, बल्कि बहुत सार्थक एक प्रक्रिया हो सकती है।
--      
      
                 
   

August 21, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -17

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -17
____________________________

राम (रीतेन्द्र शर्मा) से बहुत समय बाद आज संवाद हुआ।  और फिर आज ही एक कविता लिखी,
It is all in the Stars   
उस वक़्त मैं वह मुलाक़ात याद करने की कोशिश कर रहा था जो डॉ. वेदप्रताप वैदिक तथा हाफिज सईद के बीच 2 जुलाई 2014 को हुई थी।
दरअसल मैं 15 अगस्त के लाल किले पर दिए गए प्रधानमंत्री के भाषण के उस अंश के बारे में सोच रहा था, जिसमें उन्होंने सिद्धार्थ और देवदत्त के बीच हुए संवाद का जिक्र किया था।
'मारनेवाले से बचानेवाला बड़ा होता है'
सिद्धार्थ या देवदत्त की माँ ने निर्णय दिया था, और हंस सिद्धार्थ को मिल गया जिसने उसके शरीर पर देवदत्त के तीर से लगे घाव का उपचार किया।
प्रधानमंत्री ने इस कथा के पात्रों का सीधा उल्लेख तो नहीं किया, लेकिन मैंने इसे इसी रूप में पढ़ा था।
--
हाफिज सईद से मिलने और मिलकर सुरक्षित लौट जाने से यही साबित होता है कि बचानेवाला अवश्य ही मारनेवाले से बड़ा होता है।  खुद डॉ.वेदप्रताप वैदिक को लग रहा था कि उन्हें हाफिज सईद से नहीं मिलना चाहिए था। खैर अंत भला सो सब भला।
--
मुझे लगता है कि इस घटना और इसके समय से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं, मैं नहीं कह सकता कि जब श्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में राजकुमार सिद्धार्थ और देवदत्त के इस प्रसंग का जिक्र किया तो उन्होंने यह डॉ.वेदप्रताप वैदिक और हाफिज सईद की मुलाक़ात के सन्दर्भ में किया था या किसी और वज़ह से किया होगा।
--
ध्वंस का उल्लास अभी जारी है।
-- 
    

August 20, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -16

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -16
_____________________________

सन्दर्भ : 'नईदुनिया', इंदौर, सोमवार 18 अगस्त 2014, पृष्ठ 11

* ये बातें पाकिस्तान जाकर मुंबई हमले के आरोपी हाफिज सईद मिलने वाले वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने रविवार को इंदौर के आनंद मोहन माथुर सभागार में नईदुनिया की शृंखला 'संवाद' में बतौर मुख्य अतिथि कही ।

वह नहीं जानता जेहाद-ए-अकबर 

*उन्होंने बताया कि मैंने हाफिज सईद से कहा कि यह कैसा जेहाद है? मुंबई में बेकसूर लोगों को क्यों मारा ? कौन से इस्लाम में लिखा है कि बेकसूर लोगों को मारो? पैगंबर मोहम्मद साहब ने कहाँ कहा है कि बेकसूरों  पर गोली चलाओ, कौन सी हदीस ने कहा है कि यह एक जेहाद है।  यह सुनकर वह सकते में आ गया। फिर मैंने उससे पूछा 'जेहाद-ए-अकबर' जानते हो, उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखा तो मैंने उसे बताया कि काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ को कम करना और जितेन्द्रिय बनना 'जेहाद-ए-अकबर' है । इसमें हिंसा और पशुत्व की जगह कहाँ है?
--
 'जेहाद-ए-अकबर' के बारे में तो मैं भी कुछ नहीं जानता, हाँ मैं  यह देखकर चकित अवश्य हुआ कि
गीता तथा संस्कृत भाषा में 'जहाति' 'प्रजहाति' शब्द का प्रयोग 'छोड़ने' के अर्थ में, और 'नष्ट करने' के अर्थ में,

तथा,

जहत् अजहत् एवं जहत्-अजहत् लक्षणाओं में प्रचुरता से पाया जाता है ।

मैं नहीं कह सकता कि इस्लाम या अरबी भाषा में इस शब्द का क्या अर्थ होता है, किन्तु डॉ. वेदप्रताप वैदिक के इस विचार से मैं पूर्णतः सहमत हूँ कि 'जेहाद' का वास्तविक अर्थ, निरपराध / बेकसूर लोगोँ को मारना नहीं, बल्कि काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ को कम करना और जितेन्द्रिय बनना अवश्य हो सकता है ।
--
राजनीति में न मेरी रुचि है, न दखल, न क़द्र।  लेकिन ब्लॉग लिखने के लिए मुझे अवश्य एक थीम मिली !
थैंक्स डॉ. वैदिक, हाफिज सईद, नईदुनिया !
यहाँ संक्षेप में उस थीम के बारे में उसकी आउटलाइन :
--
शब्द-सन्दर्भ, ’जहाति’ / ’jahāti’
___________________________

संस्कृत भाषा में ’हा’ धातु का प्रयोग प्रधानतः ’त्यागने’ / ’छोड़ने’ और गौणतः ’नष्ट करने’ / ’मारने’ के अर्थ में पाया जाता है ।
’हा’ जुहोत्यादि गण में परस्मैपदी धातु का स्थान रखती है ।
इससे व्युत्पन्न कुछ मुख्य शब्द इस प्रकार से हैं :
जहाति - त्यागता है, छोड़ता है, प्रजहाति,
जहि - छोड़ो, नष्ट करो, मिटाओ, दूर करो, मार डालो, प्रजहि,
हास्यति - छोड़ देगा, प्रहास्यति,
हास्यसि - तुम छोड़ दोगे, प्रहास्यसि,
जहातु - (वह) छोड़ दे, त्याग दे, उसके द्वारा छोड़ दिया जाना चाहिए, उसने त्याग देना चाहिए,
हीयते - जिसे त्याग दिया जाना चाहिये,
हेयः - तिरस्कृत्य, अस्वीकार्य,
हीनः - से रहित, विना, के बिना,
जहत् - त्यागता हुआ, त्यागते हुए, (शानच् प्रत्यय),
अजहत् - न त्यागता हुआ,
हित्वा - छोड़कर, त्यागकर,
विहाय - छोड़कर, त्यागकर,
हापयति - छुड़ाता है,
जिहासति - छोड़ने की इच्छा रखता है,  
--
अध्याय 2, श्लोक 22, ’विहाय’ -छोड़कर,
अध्याय 2, श्लोक 33, ’हित्वा’ - नाश करते हुए,
अध्याय 2, श्लोक 50, ’जहाति’ - छोड़ देता है, से मुक्त हो जाता है,
अध्याय 2, श्लोक 55, ’प्रजहाति’ - त्याग देता है,
अध्याय 2, श्लोक 71 - ’विहाय’ - त्याग कर, त्यागने से,
अध्याय 3, श्लोक 41, - ’प्रजहि’ - नष्ट कर दो, मिटा दो, समाप्त कर दो,
अध्याय 3, श्लोक 43, - ’जहि’ - (कामरूपी शत्रु को) मार डालो,
अध्याय 11, श्लोक 34, - ’जहि’ - मारो, वध करो, यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने जिस सन्दर्भ में अर्जुन को शत्रु को मारने का निर्देश दिया है वह आश्चर्यजनक है । श्रीकृष्ण भलीभाँति जानते हैं कि अर्जुन अपने स्वजनों को कैसे मार सकता है? वह अत्यन्त व्यथित है, वे उससे कहते हैं कि तुम व्यथित मत होओ क्योंकि वे पहले ही से मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं ।
--
        

आज की कविता / 20 /08 / 2014

आज की कविता / 20 /08 / 2014 
_________________________

शिव तुम सपनों में आते हो,
लेकिन सच में कब आओगे ?
जीते जी चाहे मत आओ,
मौत में तो तुम आ जाओगे .... ? 
--

August 16, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 15

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -15,
_____________________________

बचपन से मुझे (?) अपना यह दोहरा अस्तित्व दिलचस्प लगता रहा था।
अक्सर देखता था, शरीर अपने ढंग से अपना जीवन बिता रहा है और मन का उसे पता हो ऐसा भी नहीं कह सकते।  जबकि मन को शरीर का भी पता होता था, खुद का भी और दुनिया का भी।  लेकिन मन का यह सारा ज्ञान बस उसकी याददाश्त भर होता था।  इसलिए जब मन कुछ कहता था तो वह एक विचार भर होता था। मन सोचता था कि शरीर उसका गुलाम है, लेकिन मन को इसकी कल्पना तक नहीं थी कि वह खुद विचार का गुलाम है ! विचार जो याददाश्त से आते हैं, वहीं जमा रहते हैं, घटते बढ़ते रहते हैं।
और विचार को यह नहीं पता था कि मस्तिष्क ही उसे क्षणिक अस्तित्व देता है।
फिर मस्तिष्क भी दो तरह की याददाश्त रखता है। एक तो विचार के रूप में, दूसरी अनुभव के रूप में।
ये दोनों भी पहला तो इम्पल्स (impulse) के रूप में और दूसरा रासायनिक प्रतिक्रियाओं के रूप में होता है। शरीर भी इन दो तरह की भौतिक और रासायनिक प्रतिक्रियाओं का परिणाम है, और जब तक ये प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं, शरीर को जीवित कहा जाता है।
Conversely,
जब तक शरीर जीवित रहता है, ये प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं।
(शरीर के दूसरे हिस्सों और ) मस्तिष्क में चलनेवाली  ये दोनों भौतिक और रासायनिक प्रतिक्रियाएँ यूँ तो दो तरह की होती हैं, लेकिन जैसे voltaic cell में रासायनिक ऊर्जा बिजली में बदल जाती है, और electrolysis में विद्युत् - ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में बदल जाती है, और हालाँकि होती दोनों एक ही हैं पर दिखलाई देती है दो रूपों में, वैसे ही शरीर में चल रहे impulses और रासायनिक प्रतिक्रियाएँ मूलतः एक ही शक्ति के दो रूप भर होते हैं।
--
मन कुछ नहीं कहता, यह तो विचार होता है जो मन की सतह पर उभर आता है, और फिर डुबकी लगा जाता है। वही, जिसे मस्तिष्क लगातार उगलता रहता है। जो हर बार नए रंग रूप में सामने आता है। 
--
'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
जब यह विचार सतह पर उभरकर आता है, तो ज़ाहिर सी बात है कि शरीर ऐसा कोई ख्याल नहीं कर सकता। इस गूढ विचार की anatomy / physiology पर ध्यान दें तो समझ में आ जाता है कि विचार जो एक impulse का ही शब्दीकरण (verbalization) है, न तो खुद को मार सकता है, न शरीर को।  वह बेचारा तो जैसे ही पैदा होता है, तुरंत ही खो भी जाता है। इसलिए जब
'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
यह विचार मन में आता है तो यह अपने आप में absurd ख्याल ही होता है ! यह विचार 'कौन' करता है? ज़ाहिर है कि 'विचार करनेवाला' कहीं कोई अलग से नहीं होता।  लेकिन मन ही 'मैं' के भ्रम से ग्रस्त हो जाता है और शरीर को और शरीर के सन्दर्भ से  नाम-रूपधारी व्यक्ति को 'मैं' कहा जाता है। जो सिर्फ बस एक ख्याल ही तो होता है!
हृदय  इस सब से अछूता बस देखता रहता है इस नाटक को।  वह न कुछ कहता है, न सोचता है, और न चाहता या करता है।  लेकिन उसे कौन जानता है?  जो जानता है क्या वह हृदय ही नहीं है?
--
इसलिए
'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
का ख्याल मूलतः एक भ्रम का ही परिणाम है। भ्रम से उत्पन्न होनेवाला एक विचार।
जब यह स्पष्ट हो जाता है, तो शरीर और मन की 'जरूरतों' के बीच टकराहट नहीं होती।  दोनों अपना अपना जीवन साथ साथ लेकिन स्वतंत्र भी जीते रहते हैं और जीवन जब चाहता है, हृदय तब देखता है कि अब वे और उनका नाटक समाप्त हो चुका।
--                   



कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 14

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -14
____________________________

बचपन में कभी कभी जब मैं कहता था, :
'मुझे भूख लगी है, लेकिन कुछ खाने का मन नहीं है,'
या,
'मुझे भूख नहीं लगी है, लेकिन कुछ खाने का मन हो रहा है,'
तो लोग मुझे पागल समझने लगते थे।
अब 55 साल बाद जब मैं कहता हूँ,
'मुझे आत्महत्या करने का मन हो रहा है, लेकिन मैं मरना नहीं चाहता,'
या,
'मैं मरना तो चाहता हूँ लेकिन मेरा आत्महत्या करने  का मन नहीं हो रहा,'
तो भी लोग मुझे पागल समझने लगते हैं,
--
इस छोटी सी समझ ने मुझे समझाया कि मन और शरीर की जरूरतें कभी तो एक जैसी होती हैं और कभी कभी ऐसा नहीं भी होता। और जब ऐसा नहीं होता तो जीवन में द्वंद्व / दुविधा पैदा होती है।
लेकिन क्या मन की और शरीर की जरूरतें अक्सर ही अलग-अलग नहीं होती हैं?
हम मन की जरूरतों को 'इच्छा' कहते हैं, और जब शरीर की जरूरतों को इस इच्छा की तुलना में कम महत्व देते हैं, तब शरीर मन का, और मन भी शरीर का ध्वंस करने लगते हैं।
और इस ध्वंस से उबरने का न तो कोई रास्ता होता है, न रास्ते की जरूरत,  यह तो जीवन की जरूरत है, रीत भी, और उल्लास भी है ।
--
बचपन में ही एक गाना सुना था,
आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है, … '
दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू ही तो हैं !
--     

August 15, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 13

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 13
_____________________________

गीता - सन्दर्भ  लगभग पूरा हो चला है।  जब शुरू किया था तो ख्याल नहीं था कि इसे कैसे लिखना है ! फिर एक दिन वह भी आया जब सोच रहा था कि शायद ही आगे और लिख पाऊँगा, लेकिन उस दिन सुबह के वक़्त अश्वत्थ के समीप पहुँचा तो उसने पूछा :
"आजकल silent dialogues     नहीं लिख रहे?"
मैंने कुछ अचरज से उसे देखा ।
"नहीं, …"
"फ़िर मेरे बारे में गीता वाले ब्लॉग में लिख सकते हो !… "
"यह प्रश्न है या सलाह ?"
मैंने परिहास किया।
"न प्रश्न, न सलाह, बस एक अनुरोध भर है !"
मैं सोच में पड़ गया।
"लेकिन कुछ सूझ नहीं रहा कैसे लिखूँ , क्या लिखूँ ?"
"तुम अंत से शुरू करो। "
"मतलब?"
वह इस बीच डिसकनेक्ट हो चुका था।
सुबह का भ्रमण कर लौटा तो देवी अथर्व का पाठ करते हुए एक बीजाक्षर चित्त में अंकुरित हो उठा ।
थोड़ी देर बाद ब्लॉग देख रहा था तो वही बीजाक्षर पुनः चित्त में लहलहा रहा था।  एक अद्भुत उल्लास में विभोर यूँ ही गीता के पन्ने पलटने लगा तो वही बीजाक्षर वहाँ प्रत्यक्ष साक्षात् दर्शन दे रहा था।
दोनों हाथ जोड़कर और सिर झुका कर मैंने प्रणाम किया और गीता बंद करने लगा।  अंतिम पृष्ठ पर पुनः जब उसके ही दर्शन हुए तो मैंने पुनः प्रणाम किया और अपने दूसरे कामों में व्यस्त हो गया।
उसी दिन शाम के भ्रमण के समय अश्वत्थ को देखते हुए मन ही मन मैं उसी बीजाक्षर का ध्यान  कर रहा था कि सोचा अब मैं इसी से गीता की नई पोस्ट्स लिखूँगा।
तब (18 जनवरी 2014) से गीता-सन्दर्भ के ब्लॉग्स सुचारु रूपेण लिखता चला गया हूँ।
--
इस बीच दिल्ली में सत्ता सूत्र दूसरे हाथों में चले गए।
आज  twitter पर नरेंद्र मोदी के लाल किले पर दिए गए स्वतंत्रता दिवस के संबोधन के बारे में लिखे  tweets पर ध्यान गया तो computer बंद कर ट्रांज़िस्टर पर उसे सुनता  रहा।
मुझे लगा कि अब हमने ऐसा प्रधानमंत्री पाया है, जो dreamer नहीं visionary है और जिससे बहुत उम्मीदें की जा सकती हैं।
मुझे मई 2014 लिखी मेरी वो पोस्ट्स भी याद आईं जिनमें मैंने उनका ज़िक्र किया था और स्वामी विवेकानंद से उनकी तुलना की थी, सिर्फ़ मनोरंजन की दृष्टि से।
--
ध्वंस का उल्लास जारी है।
--