इस शहर से जाते हुए
0502000
© Vinay Vaidya
#200.*
इस शहर से जाते हुए,
मैं बहुत उदास सा हूँ ।
हाँ मानता हूँ,
बहुत से दोस्त और महबूब थे यहाँ,
जिनकी यादें लगभग वक़्त-बेवक़्त,
खटखटाती रहेंगी,
दिल के किवाड़,
कभी धीमे से, कभी तेज़ी से,
देती रहेंगी दस्तकें,
उँगलियाँ हवाओं की,
और मैं समझूँगा ’कोई’ है ।
खोलकर देखूँगा,
तो ’कोई’ नहीं वहाँ होगा ।
लौटकर सो जाऊँगा,
ओढ़कर अँधेरे का लिहाफ़,
मिलेगा ’कोई’ कहीं,
सपनों की मेरी दुनिया में,
दो घड़ी बातें दो-चार करके,
फ़िर नये शहर में खोलूँगा आँखें,
फ़िर नये दोस्त, नये महबूब होंगे,
फ़िर नई महफ़िलें सज़ेंगी मग़र,
भूल पाऊँगा न इस शहर को मैं ।
इस शहर से जाते हुए,
मैं बहुत उदास सा हूँ ।
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( * इस पृष्ठ पर यह मेरी ’२०० वी’ ’प्रविष्टि’ है ।
यह कविता मैंने 5 फ़रवरी सन् 2000 की रात्रि में
लिखी थी । जिसमें लिखी थी, वह डायरी तो अब
मेरे पास नहीं है, लेकिन आज मुझे याद आयी,
तो स्मृति में जैसी थी, यथावत् लिख रहा हूँ ।)
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."फ़िर नई महफ़िलें सज़ेंगी मग़र,
ReplyDeleteभूल पाऊँगा न इस शहर को मैं ।
इस शहर से जाते हुए,
मैं बहुत उदास सा हूँ ।"
बहुत ही सुन्दर रचना. आपकी स्मृति की दाद देनी होगी. आभार.
आदरणीय पी.एन.सर,
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी के लिये आभार,
एवं धन्यवाद,
विनय