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© Vinay Vaidya
10072011
चलता चला जाता है,
दूर तक,
कागज की क़श्ती खेते हुए,
तूफ़ान में, सागर में,
अकेले ही,....!
देर तक !
एक-एक कर निकालता है,
सागर से मोती,
डूबकर, उबरकर फ़िर ।
चुन-चुनकर रखता है क़श्ती में ।
मछुआरे हँसते हैं,
पागल समझते हैं !
पहले कभी चीरता था कागज़ का सीना,
बेरहमी से, रहम से,
कर देता था चाक,
लहू छलक आता था कभी-कभी !
जाने अनजाने उकेर देता था कितने घाव !
अब सहलाता है उन्हें !
एक-एक कर अब टाँकता है,
अक्षरों के मोती,
बार बार आँकता है,
कितनी है ज्योति !
मसिधारव्रती,
चलता चला जाता है,
दूर तक, देर तक,
वक़्त के अँधेरे में,
रौशनी खोजता हुआ,
ताज़िन्दगी, ताउम्र ।
असिधारव्रती ।
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