May 31, 2011
May 27, 2011
अतिथि, तुम... ... ?
~~~~~~ अतिथि, तुम... ...? ~~~~~~
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© Vinay Vaidya
27052011
अचानक किसी दिन,
अप्रत्याशित रूप से,
जब किसी बात का,
कोई मतलब नहीं महसूस होता,
लोग,
जो कभी भाव-विभोर कर देते थे,
एकाएक ही पर्दे पर दौड़ती तस्वीरों से,
आँखों के सामने से गुजरते प्रतीत होते हैं,
और उनके शब्द,
किसी नामालूम लिपि में लिखे अक्षर,
उनकी भाषा,
अबूझ बोली,
हृदय जब इतना रिक्त होता है,कि वहाँ दु:ख तक नहीं होता,
कोई व्यथा, स्मृति, या अहसास तक नहीं होता,
लेकिन कोई 'ऊब' या अकुलाहट,
व्यस्तता या अन्यमनस्कता भी नहीं होती,
कोई बेहोशी या तंद्रा,
कल्पना, या निद्रा भी नहीं होती,
जब कोई 'सुख', चाह, भय या प्रतीक्षा भी नहीं होती,
और आशा-आकाँक्षा तो दूर-दूर तक कहीं नहीं,
और, न ही कहीं कोई स्वप्न,
जब अपने होने का भी कोई मतलब, मक़सद,या औचित्य तक नहीं नज़र आता,
जब, ख़ुदक़ुशी का तक खयाल नहीं उठता,
उठ भी नहीं सकता,
और न उसकी ज़रूरत ही होती है ।
एक मौन अनायास खिलखिला उठता है ।
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May 24, 2011
~~ इरा ! तुम कहाँ हो ?? ~~
~~~~~ इरा ! तुम कहाँ हो ?? ~~~~~
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© Vinay Vaidya
२४०५२०११
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इरा !
’यहाँ’ मैं टूट जाता हूँ,....।हर अन्धेरे में,
हर उजाले में,
गुरुत्वाकर्षण से रहित,
अन्तरिक्ष में,
डरता हूँ,
एक भी क़दम (?) आगे रखने से,
गोकि लगता है,
क्योंकि लगता है,
कि हर बढ़ा हुआ क़दम,
मुझे खींच ले जाएगा,
तीर की तरह,
दूर, बहुत दूर,
नीहारिकाओं की,
सुदूर अनंत तक फ़ैली,
सर्पिल पथ-दीर्घाओं में ।
संकीर्ण पग-डन्डियों में,
विस्तीर्ण उपत्यकाओं में ।
कितने सितारे, ठंडे,
बर्फ़ की मानिन्द,
कितने, धधकते अंगारे,
आँखों को चौंधियाते हुए,
अंधा कर देने वाले ।
कितने ही अन्ध-विवर,
कितने ही धूमकेतु,
कितनी ही उल्काएँ,
कर रहे / रही हैं,
मुझे लील लेने की प्रतीक्षाएँ !!
यहाँ ’ऊपर’ ’नीचे’ वैसे ही अर्थहीन हैं,
जैसे पूरब-पश्चिम या उत्तर-दक्षिण ।
बस रुका हुआ हूँ मैं यहाँ किसी तरह,
धरती पर लौटने की एक आतुर उत्कट,
पागल, व्यग्र, व्याकुल, अधीर उत्कठा में ।
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*१. इरा : पानी, पेय, भोज्य, ख़ुराक, धरती ।
*२. अन्ध-विवर : ब्लैक-होल
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May 20, 2011
"प्रभु की प्राप्ति कैसे हो सकती है?"
~~ "प्रभु की प्राप्ति कैसे हो सकती है?" ~~
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हमें लगता है कि हम प्रभु शब्द का अर्थ जानते हैं ।
तभी तो उसकी प्राप्ति कैसे होगी इस बारे में पता लगाने की कोशिश करते हैं ।
लेकिन क्या सचमुच हमें प्रभु का ज्ञान है ?
तो पहले हमें यह पता लगाना होगा कि ’प्रभु’ से हमारा क्या मतलब है !
आप तुरंत बोलेंगे, वही, जिसके बारे में शास्त्रों में कहा गया है,...
अगर आप इसे ’प्रभु’ का ज्ञान समझते हैं तो ऐसे ज्ञान से जो प्रभु मिलेगा,
उसके बारे में कुछ कहना कठिन है, कि उसकी प्राप्ति कैसे होगी ?
लेकिन अगर ’प्रभु’ को आप किसी भौतिक वस्तु के अर्थ में ग्रहण करते हैं,
जैसे टेबल, मकान, धन-संपत्ति, पानी, जमीन, या किसी भौतिक, शारीरिक या
मानसिक ज़रूरत की पूर्ति के साधन के रूप में ग्रहण करते हैं, जैसे भूख-प्यास,
आश्रय, सुरक्षा, आदि, तो इस रूप में जो प्रभु प्राप्त होगा, वह स्वयं ही अस्थायी
होगा, क्या आप ऐसे प्रभु की प्राप्ति करना चाहते हैं ? यदि ’प्रभु’ से आपका तात्पर्य
है मानसिक शान्ति, तो क्या मानसिक शान्ति वास्तव में कोई ऐसी भौतिक
वस्तु है जिसे प्राप्त कर आप जेब में या पूजाघर में, या लॉकर में रख सकेंगे, या
मिल-बाँटकर ’शेयर’ कर सकेंगे ? तो मतलब यह हुआ कि हम ’प्रभु’ या ’शान्ति’
से अपरिचित हैं किन्तु उस बारे में किसी ’विचार’ को उसके विकल्प में ग्रहण
कर बैठते हैं । क्या ’प्रभु’ या ’शान्ति’ का ’विचार’, ’प्रभु’ या ’शान्ति’ का
वास्तविक विकल्प हो सकता है ? और जब तक हम ’विचार’ को ’वस्तु’
समझने की भूल को नहीं देख लेते तब तक ’वस्तु’ की प्राप्ति एक स्वप्न ही
बनी रहती है ।
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May 07, 2011
॥ श्रीरामचन्द्रस्तुतिः ॥
॥ श्रीरामचन्द्रस्तुतिः ॥
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नमामि भक्तवत्सलं कृपालुशील कोमलं,
भजामि ते पदाम्बुजं अकामिनां स्वधामदं ।
निकाम श्याम सुंदरं भवांबुनाथ मंदरं,
प्रफ़ुल्ल कंज लोचनं मदादि दोष मोचनं ॥१॥
~~
भक्तों के हितकारी, कृपालु और अतिकोमल स्वभाववाले !
आपको मैं नमस्कार करता हूँ । जो निष्काम पुरुषों को
अपना धाम देनेवाले हैं, ऐसे आपके चरण-कमलों की मैं
वन्दना करता हूँ ।
जो अति सुन्दर श्याम शरीरवाले, संसार-समुद्र के मंथन
के लिये मन्दराचलरूप, खिले हुए कमल के-से नेत्रोंवाले
तथा मद आदि दोषों से छुडानेवाले हैं ।
~~
प्रलंब बाहु विक्रमं प्रभोऽप्रमेय वैभवं,
निषंग चाप सायकं धरं त्रिलोकनायकं ।
दिनेशवंश मंडनं महेश चाप खण्डनं,
मुनींद्र संत रजनं सुरारि वृन्द भंजनं ॥२॥
~~
मनोज वैरि वंदितं अजादि देव सेवितं
विशुद्ध बोध विग्रहं समस्त दूषणापहं ।
नमामि इंदिरापतिं सुखाकरं सतां गतिं,
भजे सशक्ति सानुजं शची पति प्रियानुजं ॥३॥
~~
जिनकी भुजाएँ लंबी-लंबी और अति बलिष्ठ हैं, जिनके वैभव का
कोई परिमाण नहीं है, जो धनुष, बाण और तरकश धारण किये
हैं, त्रिलोकी के नाथ हैं, सूर्यकुल के भूषण हैं, शंकर के धनुष को
तोड़नेवाले हैं, मुनिजन तथा महात्माओं को आनंदित करनेवाले हैं,
दैत्यों का दलन करनेवाले हैं, कामारि श्रीशंकरजी से वंदित हैं, ब्रह्मा
आदि देवगणों से सेवित हैं, विशुद्ध बोधस्वरूप हैं, समस्त दोषों को
दूर करनेवाले हैं, श्रीलक्ष्मीजी के पति हैं, सुख की खानि हैं, संतों
की एकमात्र गति हैं, तथा शचीपति इन्द्र के प्यारे अनुज (उपेन्द्र)
हैं; हे प्रभो ! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ और सीताजी तथा
भाई लक्ष्मण के साथ आपको भजता हूँ ।
~~
त्वदंघ्रि मूल ये नराः भजन्ति हीन मत्सराः
पतंति नो भवार्णवे वितर्क वीचि संकुले ।
विविक्त वासिनः सदा भजंति मुक्तये मुदा,
निरस्य इंद्रियादिकं प्रयांति ते गतिं स्वकं ॥४॥
~~
जो लोग मद-मत्सरादि से रहित होकर आपके चरणों को भजते
हैं, वे फिर इस नाना वितर्क-तरंगावलिपूर्ण संसार-सागर में नहीं पड़ते
तथा जो एकान्तसेवी महात्मागण अपनी इन्द्रियों का संयम करते हुए,
प्रसन्न-चित्त से भवबन्धविमोचन के लिये आपका भजन करते हैं, वे
अपने अभीष्ट पद को पाते हैं ।
~~
तमेकमद्भुतं प्रभुं निरीहमीश्वरं विभुं,
जगद्गुरुं च शाश्वतं तुरीयमेव केवलं ।
भजामि भाव वल्लभं कुयोगिनां सुदुर्लभं
स्वभक्त कल्प पादपं समं सुसेव्यमन्वहं ॥५॥
~~
जो अति निरीह, ईश्वर और सर्वव्यापक हैं, जगत् के गुरु, नित्य, जागृत्
आदि अवस्थात्रय से विलक्षण और अद्वैत हैं, केवल भाव के भूखे हैं, जो
कुयोगियों के लिये अति दुर्लभ हैं, अपने भक्तों के लिये कल्पवृक्षरूप हैं,
तथा समस्त (पक्षपातरहित) और सदा सुखपूर्वक सेवन करने योग्य हैं,
ऐसे उन (आप) अद्भुत् प्रभु को मैं भजता हूँ ।
~~
अनूप रूप भूपतिं नतोऽहमुर्विजापतिं
प्रसीद मे नमामि ते पदाब्ज भक्ति देहि मे ।
पठंति ये स्तवं इदं नरादरेण ते पदं
व्रजंति नात्र संशयं त्वदीय भक्ति संयुताः ॥६॥
~~
अनुपम रूपवान राजराजेश्वर जानकीनाथ को मैं प्रणाम करता हूँ ।
मैं आपकी बार-बार वन्दना करता हूँ; आप मुझ पर प्रन्न होइये और
मुझे अपने चरण-कमलों की भक्ति दीजिये । जो मनुष्य इस स्तोत्र का
आदरपूर्वक पाठ करेंगे, वे आपके भक्ति-भाव से भरकर आपके निज पद
को प्राप्त होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं ।
~~
इति श्रीमद्गोस्वामितुलसीदासकृता श्रीरामस्तुतिः सम्पूर्णा ।
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स्तोत्रं
"सृजन......"
~~
"सृजन......"
!!~~
© Vinay Vaidya
07052011
आप बहुत श्रेष्ठ लिखते हैं, और मौलिक भी, लेकिन आपकी रचना में
बोधगम्यता का अभाव खटकता है । आपकी रचना ’सूत्रवाक्य’ जैसी
जान पड़ती है । इसका एक परिणाम यह होता है, कि संवादभूमि नहीं
बन पाती । यदि आपकी रचना बहुत अधिक ’चिंतन’ के लिये प्रेरित
करती है, तो जहाँ यह एक ओर आपकी प्रतिभा और साहित्य-कर्म की
आपकी गंभीरता को इंगित करता है, वहीं पाठक समय के अभाव के
कारण, या आपकी रचना को प्रथमदृष्ट्या कोरा-बौद्धिक, ऊब भरा, या
नितांत वैयक्तिक, या फ़िर शुद्ध ’कचरा’ ही समझने की भूल भी कर सकता
है । हाँ, यदि आप अपनी योग्यता से, अथवा येन केन प्रकारेण ’स्थापित’
हो चुके हैं, तो अलग बात है । लेकिन यदि आप सचमुच ’सृजनशील’ हैं,
तो आप सृजनशीलता के इस नैसर्गिक और पवित्र आनंद को, ’स्थापित’
होने के उपक्रम के ’विष’ से दूषित न होने देने के प्रति अनायास ही
जागरूक भी रहेंगे । आप शायद यह भी पता लगायेंगे, कि क्या आपके
’विषय’ ’विचार’ और लेखन के प्रयोजन से पाठक किस प्रकार से और
किसी हद तक जुड़ाव महसूस करता है, और किन्हीं कारणों से यह जुड़ाव
नहीं पैदा होता, या पाठक की भावनाओं तथा संवेदनशीलता पर आपके
लेखन से आघात पहुँचता है ? और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है वह संदर्भ
/ परिप्रेक्ष्य, जिसकी पार्श्वभूमि में आपकी रचना साकार हुई । क्या पाठक
उस पार्श्वभूमि को आपकी ही भाँति देखता-चीन्हता है ?
तब आप शायद ही इस बारे में जानना चाहेंगे कि आपकी रचना को कौन
पढ़ता है, कौन नहीं पढ़ता, और क्यों ! हाँ यदि आप के कुछ घनिष्ठ मित्र हैं,
जिनके बारे में आप सोचते हैं कि उनके विचार आपके लिये महत्त्वपूर्ण हैं,
तो आप शायद अपनी रचनाओं को कुछ ’सरल-तरल’ बनाने की चेष्टा
अवश्य ही करेंगे ।
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Also @ http://www.facebook.com/notes/vinay-vaidya/-%E0%A4%B8%E0%A5%83%E0%A4%9C%E0%A4%A8-/213112972046800
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May 06, 2011
॥ श्रीरामाष्टकं ॥
~~~~~॥ श्रीरामाष्टकं ॥~~~~~
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भजे विशेष सुन्दरं,
समस्त पापखन्डनम् ।
स्वभक्तचित्तरन्जनं,
सदैव राममद्वयम् ॥१॥
जटाकलाप शोभितं,
समस्तपापनाशकम् ।
स्वभक्तभीतिभंजनमं,
भजेः राममद्वयम् ॥२॥
निजस्वरूपबोधकं,
कृपाकरं भवापहम् ।
समं शिवं निरञ्जनं,
भजेः राममद्वयम् ॥३॥
सहप्रपञ्चकल्पितं,
ह्यनामरूपवास्तवं ।
निराकृतिं निरामयम्,
भजेः राममद्वयम् ॥४॥
निष्प्रपञ्च-निर्विकल्प,
निर्मलं-निरामयम् ।
चिदेकरूपसंततं,
भजेः राममद्वयम् ॥५॥
भवाब्धिबोधरूपकं,
ह्यशेषदेहकल्पितम् ।
गुणाकरं कृपाकरं,
भजेः राममद्वयम् ॥६॥
महावाक्यबोधिकैः,
विराजमान-वाक्पदैः ।
परब्रह्म व्यापकं,
भजेः राममद्वयम् ॥७॥
शिवप्रदं सुखप्रदं,
भवश्चितं भ्रमापहम् ।
विराजमान देशिकं,
भजेः राममद्वयम् ॥८॥
रामाष्टकं पठति यः सुखकरं सुपुण्यम्,
व्यासेनभाषितमिदं शृणुते मनुष्य ।
विद्यां श्रीं विपुलासौख्यमन्ता-कीर्तीम्,
सम्प्राप्यदेहविलये लभते च मोक्षम् ॥
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May 04, 2011
~~मेरे शहर में, आजकल~~
~~~ मेरे शहर में, आजकल ~~~
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© Vinay Vaidya
04052011
© Vinay Vaidya
04052011
आजकल,
इस शहर में,
’रास्ते’ बन्द हैं,
’सड़कें’ बन रही हैं ।
’घर’ टूट रहे हैं,
’मकान’ बन रहे हैं ।
’रिश्ते’ खो रहे हैं,
’दोस्त’ बन रहे हैं ।
’तरक्की’ हो रही है,
’ज़िन्दगी’ बीत रही है ।
वृक्ष कट रहे हैं,
जंगल उग रहे हैं,
आजकल मेरे शहर में !!
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