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कितना आसाँ है कहना,
’अजनबी बन जाएँ हम दोनों’,
कितना मुश्किल है,
सिलसिले खत्म कर देना ,
काश वो शुरु ही न हुए होते,,
वर्ना बनता ही कैसे अफ़साना ?
भुला देने से अफ़साने खत्म नहीं होते,
सिलसिले टूटते नहीं ऐसे,
अजनबी दोस्त तो बन जाते हैं,
दोस्त पर अजनबी बनें कैसे ?
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अजनबी तो कई बार अपने आप से हो जाते हैं हम.
ReplyDeleteअजनबी दोस्त तो बन जाते हैं,
ReplyDeleteदोस्त पर अजनबी बनें कैसे ?
waah
bahut sundar
aabhaar
वाह राहुल सिंह जी !
ReplyDeleteक्या बात कही है आपने,
लेकिन कहना चाहूँगा कि ’कई बार’ नहीं,
बल्कि अक्सर ही होते हैं ।हाँ कभी-कभी
हमें समझ में आता ज़रूर है ।
वैसे तो बड़ा मुश्किल मामला है, लेकिन
क्या ऐसा ही नहीं है ?
सादर,
क्रिएटिव मंच,
ReplyDeleteजी, सही कहा आपने,
सच्चे दोस्त कभी चाहें तो भी अजनबी नहीं बन सकते ।
शुक्रिया ।