January 09, 2011

~~ चलो इक बार फ़िर से,.... ~~

~~~~~ चलो इक बार फ़िर से,.... ~~~~~
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कितना आसाँ है कहना,
’अजनबी बन जाएँ हम दोनों’,
कितना मुश्किल है,
सिलसिले खत्म कर देना ,
काश वो शुरु ही न हुए होते,,
वर्ना बनता ही कैसे अफ़साना ?
भुला देने से अफ़साने खत्म नहीं होते,
सिलसिले टूटते नहीं ऐसे,
अजनबी दोस्त तो बन जाते हैं,
दोस्त पर अजनबी बनें कैसे ?
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4 comments:

  1. अजनबी तो कई बार अपने आप से हो जाते हैं हम.

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  2. अजनबी दोस्त तो बन जाते हैं,
    दोस्त पर अजनबी बनें कैसे ?

    waah
    bahut sundar
    aabhaar

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  3. वाह राहुल सिंह जी !
    क्या बात कही है आपने,
    लेकिन कहना चाहूँगा कि ’कई बार’ नहीं,
    बल्कि अक्सर ही होते हैं ।हाँ कभी-कभी
    हमें समझ में आता ज़रूर है ।
    वैसे तो बड़ा मुश्किल मामला है, लेकिन
    क्या ऐसा ही नहीं है ?
    सादर,

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  4. क्रिएटिव मंच,
    जी, सही कहा आपने,
    सच्चे दोस्त कभी चाहें तो भी अजनबी नहीं बन सकते ।
    शुक्रिया ।

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