January 14, 2011

यदि तुमने सचमुच प्रेम किया है !

~~ यदि तुमने सचमुच प्रेम किया है ! ~~
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 मेरी अंग्रेज़ी कविता :
"If you have really loved...." का हिन्दी अनुवाद 

यदि तुमने सचमुच प्रेम किया है,
तो तुम अपने प्रिय की मृत्यु को उत्सव की तरह मना सकोगे ।
क्योंकि उसकी मृत्यु नहीं हुई,
बल्कि वह तो उन पाशों को तोड़ चुका है,
जिसने उसे ’स्व’ के सीमित अस्तित्त्व में जकड़ रखा था ।
और यह ’स्व’ ही तो होता है,
-वास्तविक दुःख !
अब तो वह लीन हो चुका है,
उस असीम प्रेम में,
उस शाश्वत आनन्द में,
जो कि प्रभु है,
वास्तविक आत्मा है,
-परमात्मा है,
नाम के अनुरूप,
यथार्थतः परब्रह्म,
और तुम खुद भी ।
पर हाँ !
किसी सुह्रद की मृत्यु,
गहन दुःख का एक आघात तो अवश्य होती ही है ।
एक गहरी पीड़ा भी ।
किन्तु यदि तुमने सचमुच उसे प्रेम किया है,
तो तुम्हारे हृदय में इसके बने रहने तक,
तुम इस आघात के दुःख को भी जियोगे,
सहोगे उतनी ही सहृदयता से,
इस दुःख के पल्लवित-पुष्पित होने,
और फ़िर झर जाने तक,
पत्ते या फूल की तरह ही,
’जीवन-वृक्ष’ से इसके सूखकर झर जाने तक ।
और अथाह अविनश्वर प्रेम में, 
इसके समाहित हो जाने तक ।
क्योंकि मन की सभी चीज़ें,
अपनी मौत आप ही मर जाती हैं,
जीवन मरता नहीं,
प्रेम मरता नहीं ।

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8 comments:

  1. मन की सभी चीज़ें,
    अपनी मौत आप ही मर जाती हैं,
    जीवन मरता नहीं,
    प्रेम मरता नहीं

    saargarbhit utkrisht kavita
    bahut sundar
    aabhaar

    aapko makar sankranti ki shubh kamnayen

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  2. मोह ,, मोह से दूर होने का दुःख ,, और प्रेम और मोह में अंतर ही कि जानकारी ना होना ही हमें दुखी कराती हैं

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  3. अल्पनाजी,
    आपको भी मकर संक्रान्ति की हार्दिक बधाईयाँ,
    और शुभकामनाएँ,
    शुक्रिया ।
    सादर,

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  4. सुनीताजी,
    सचमुच मोह और प्रेम के बीच का फ़र्क समझ लेना
    प्रज्ञा ही तो है !
    धन्यवाद और आभार,
    सादर,

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  5. सार्थक दर्शन, जिसे सराहना आसान लेकिन आत्‍मसात करना उतना ही कठिन.

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  6. राहुलजी,
    आपकी ईमानदार टिप्पणी के लिये साधुवाद ।
    मुझे लगता है कि यदि हमने उस अमूर्त तत्त्व के दर्शन
    अपने भीतर कर लिये हैं, तो इस पर न चलना ही
    कठिन हो जाता है । फ़िर आप उससे आँखें मिला चुके
    होते हैं,जिसे ’मृत्यु’ कहा जाता है ! इसलिये ’कविता’
    मुझे एक सर्वाधिक उपयुक्त माध्यम नज़र आता है,अपनी
    बात लोगों से ’शेयर’ करने का । क्योंकि तब हमारी
    ’बुद्धि’ और तथाकथित ’अहं’ संप्रेषण में आड़े नहीं आते।
    वैसे इस ओर मैंने इन पँक्तियों में कहा भी है,
    "... ...क्योंकि मन की सभी चीज़ें,
    अपनी मौत आप ही मर जाती हैं,
    जीवन मरता नहीं,
    प्रेम मरता नहीं ।"

    सादर,

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  7. प्रेम मरता नहीं - मन के अन्दर उतर गयी. आभार.

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  8. प्रिय श्री सुब्रमण्यन्‌,
    आपको रचना अच्छी लगी, यह जानकर खुशी हुई !
    सादर,

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