January 09, 2011

~~देर आयद, दुरुस्त आयद ~~

~~~~~~देर आयद, दुरुस्त आयद~~~~~
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बहुत दिनों तक मेरे साथ चलते रहने के बाद,
खयाल आया था उसे,
कि वह बस भटकता ही तो रहा है, अब तक !
"कहाँ जाना / पहुँचना चाहते थे / हो तुम ?"
-पूछा मैंने ।
कोई उत्तर नहीं था उसके पास ।
"मुझे लगता है कि मैं चाहता था / हूँ, 
अपनी ’अस्मिता’ की एक पहचान ’स्थापित’ करना ।"
-वह बुद्धिजीवियाया ।
"चलो, ठीक है, मुझे माफ़ करो,
और अपना रास्ता नापो"
-सोचा मैंने ।
लेकिन प्रकटतः यही कहा,
"चलो इक बार फ़िर से,
अजनबी बन जाएँ हम दोनों ।"
हमने अच्छे दोस्तों की तरह हाथ मिलाये,
-शेकहैन्ड किया,
और अपनी अपनी राह पर चल पड़े ।
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3 comments:

  1. दिल को छूने वाली रचना विनय जी ,,
    काश हम अपने विरोधाभासों से भी इसी तरह अलग हो पाते

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  2. सुनीताजी,
    आपकी टिप्पणी पढ़कर आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई !
    व्यक्तिगत रूप से मुझे आपकी टिप्पणी बहुत अच्छी भी लगी ।
    वास्तव में अक्सर लोग मुझे साहित्यकार समझ बैठते हैं, लेकिन
    सच्चाई यह है कि साहित्यकारों से मेरा लगाव कभी नहीं रहा ।
    तथाकथित ’स्थापित’ या ’मूर्धन्य’ साहित्यकारों से भी नहीं ।
    मानता हूँ कि कुछ तो अवश्य ही ’सिद्धान्तवादी’ रहे हैं, और उसके
    लिये उन्होंने जीवन भर संघर्ष भी किया । आज ही कवि और शिक्षक
    के बारे में आपका ’स्टेटस’ पढ़कर कुछ लिखना चाहता था, लेकिन
    फ़िर रुक गया ।
    गीता में कहा गया है,
    किं कर्म किं अकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
    तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌ ॥
    तात्पर्य यह कि काव्य-कौशल में निपुण होने भर से कोई महान्‌ या
    ’टीचर’ नहीं हो जाता ।
    सादर,
    (अ.४,श्लोक-१६)

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  3. बिलकुल विनय जी काव्य कौशल में निपुणता कभी भी महानता का प्रतीक नहीं है ,,पर एक कवि जब अपने मन को शुद्ध करके लिखता है और एक स्वच्छ सन्देश समाज को देता है तो वह एक अच्छा *टीचर * हो सकता है ,, पर सिर्फ निपुणता नहीं ,, बल्कि भावों में सच्चाई और सुंदरता

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