September 23, 2019

कविता / 23.09.2019

मिलना / कविता 
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किसी भी शख़्स से कभी,
जब एक बार मिलता हूँ,
होता है वो पहला मिलना,
होता है आख़िरी मिलना।
और भूल जाता हूँ उसको,
पर कोई याद नहीं बनती,
यूँ कि पहचान नहीं बनती,
जैसे अपनी भी नहीं है मेरी।
क्या ये याद, ये पहचान भी,
सिर्फ हादसा ही नहीं होता?
जो अगर हो ही न कभी तो,
कोई पहचान भी नहीं होता।
उस अजनबी से फिर मिलना,
क्या अजीब दासताँ नहीं है ?
और, राहत है कितना सुकून,
कि उससे कोई वास्ता नहीं है।
फिर ज़रूरत कहाँ पहचान की,
कोई तय शक्ल भी इंसान की,
क्योंकि हर शक्ल उसकी सूरत है,
जो कि सूरत भी है ईमान की।
कोई दुश्मन नहीं जहाँ कोई,
ऐसा होता हो ग़र जहाँ कोई,
क्या ज़रूरत किसी ख़ुदा की,
ख़ुद की पहचान नहीं, जहाँ कोई।
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