October 01, 2019

सोच बदलिए,

....
और,
जीवन में आगे बढ़िए !
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्ते पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
(ईशावास्य-उपनिषद्)
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हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष दैत्य-भाई थे।
हिरण्यकशिपु का अर्थ होता है स्वर्ण का तकिया।
कश अर्थात् निकष -- कसौटी, कोष, तिजोरी, संग्रह।
कशि-पु का अर्थ हुआ स्वर्ण की लालसा।
हिरण्य का अर्थ है स्वर्ण।
हि रणं यत् हिरण्यं तत् ..
के अनुसार जिसके कारण रण (युद्ध) होता है, वह (स्वर्ण) अवश्य ही रण है। 
हिरण्याक्ष का अर्थ हुआ जिसकी आँख स्वर्ण पर है।
पूषन् सूर्य का वह रूप है जिसमें पौष मास (दिसंबर तथा जनवरी माह) के आदित्य (सूर्य), पृथ्वी को अपनी रश्मियों से पोषित करते हैं। यही सूर्य स्वरूपतः अग्नि तथा यम हैं जो क्रमशः जीवन के लिए सहायक और जीवन तथा मृत्यु के नियंता के रूप में मृत्यु भी हैं। किन्तु वे इन तीनों रूपों में प्राणिमात्र के लिए कल्याण के लिए ही कार्य करते हैं।
पूषन् के आशीर्वाद से जीवन में मनुष्य को समृद्ध तथा ऐश्वर्य (संपत्ति तथा धन का स्वामित्व) प्राप्त होता है,
तो दूसरी ओर इसी स्वामित्व के साथ मनुष्य में गर्व तथा सुख की लालसा प्रबल होने लगते हैं ।
इस प्रकार सत्य का मुख एक आवरण से ढँका होता है, जिसे सामान्य मनुष्य नहीं देख पाता, -उसे इसकी कल्पना भी नहीं उठती। केवल अपनी या किसी दूसरे की मृत्यु आने पर ही कभी-कभी मनुष्य के सोच में बदलाव आता है, और जीवन में क्या पाया-खोया या क्या पाया-खोया जा सकता है, इस ओर उसका ध्यान जाता है।
हिरण्यकशिपु स्वर्ण  के तकिए पर सर रखकर सोता या उसे मसनद की तरह सहारा बनाकर बैठता था, ताकि कोई उसे चुरा न सके।
हिरण्याक्ष संसार में यत्र-तत्र स्थित स्वर्ण की खोज में लगा रहता था।
दोनों प्रायः अपने-अपने कर्तव्य की क्रमशः अदला-बदली करते थे।
इस प्रकार वे अपनी सोच तो निरंतर बदलते रहते थे और निरंतर आगे बढ़ते जा रहे थे।
इस बीच हिरण्यकशिपु को पुत्र-प्राप्ति हुई, तो उसने उसका नाम प्रह्लाद रखा।
आह्लाद तात्कालिक होता है,
प्रह्लाद अपेक्षाकृत स्थायी होता है।
जब हिरण्यकशिपु को पुत्र प्राप्त हुआ, तो उसे आह्लाद भी हुआ।
किन्तु यह सोचकर उसे भय हुआ कि मृत्यु अंततः उससे उसकी धन-संपत्ति और ऐश्वर्य (संपत्ति तथा धन का स्वामित्व) छीन लेगी।
इसलिए उसने तपस्या कर ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और उनसे अपने लिए अमर होने का वरदान माँगा।
तब ब्रह्माजी ने कहा :
"मैं स्वयं भी इस दृष्टि से अमर नहीं हूँ कि अनंत काल तक बना रहूँ।
मैं स्वयं भी उपाधि-मात्र हूँ और वस्तुतः अमर तो श्री नारायण हरि हैं और तुम उनसे प्रार्थना कर यदि उन्हें प्रसन्न कर सको तो अमर होने का वरदान प्राप्त कर सकते हो।"
तब हिरण्यकशिपु के मन में श्री नारायण हरि से वैरभाव उत्पन्न हुआ।
फिर हिरण्यकशिपु ने ब्रह्माजी से वरदान माँगा कि कोई मनुष्य अथवा पशु उसे न मार सके,
उसकी मृत्यु न तो दिन के समय हो और न रात्रि के समय हो।
ब्रह्माजी ने हँसकर तथास्तु कहा और अंतर्धान हो गए।
उधर हिरण्यकशिपु के पुत्र प्रह्लाद के मन में भगवान् श्री नारायण हरि की अहैतुक कृपा होने से उनके प्रति अगाध भक्ति का उदय हुआ और हिरण्यकशिपु के मन में अपने पुत्र के प्रति इसीलिए वैरभाव बढ़ने लगा।
तब हिरण्याक्ष तो हिरण्यकशिपु की सारी धन-संपत्ति (स्वर्ण) छीनकर समुद्र में जाकर पाताल चला गया, 
किन्तु हिरण्यकशिपु प्रह्लाद को मार डालने के यत्न में जुट गया।
एक दिन इसी प्रकार उसने क्रोध के आवेश में प्रह्लाद से कहा :
"आज मैं इस तलवार से तुम्हारा वध कर दूँगा, कहाँ हैं तुम्हारे भगवान् श्री नारायण हरि जो तुम्हारी रक्षा करेंगे?"
तब प्रह्लाद ने हँसकर उत्तर दिया :
"पिताजी आप मेरा वध करना चाहें तो मेरा शीश सहर्ष आपके सामने झुका हुआ है क्योंकि मेरे और त्रैलोक्य के एकमात्र परमेश्वर और स्वामी भगवान् श्री नारायण हरि सर्वत्र हैं, और आपमें तथा आपकी आज्ञा में, आपकी तलवार में भी हैं।"
तब हिरण्यकशिपु क्रोध से अंधा हो गया और महल के एक खम्भे की ओर संकेत कर प्रह्लाद से पूछा :
"क्या वे इस स्तम्भ में भी हैं ?"
तब प्रह्लाद ने सहजता से उत्तर दिया
- "अवश्य !"
तब हिरण्यकशिपु बोला :
"ठीक है, मैं इसका ही वध कर देता हूँ। "
जैसे ही उसने अपनी तलवार का एक आघात खम्भे पर किया, वैसे ही वह खम्भा बीच से टूट गया, और उसके मध्य से भगवान् श्री नारायण हरि  मनुष्य के धड़ पर सिंह के मुख और हाथ-पैरों को लेकर प्रकट हुए।
उस समय सूर्य अस्ताञ्चल को जा रहे थे। तब न दिन का समय था न रात्रि का समय था।
सिंह के मुख और हाथ-पैरों, तथा मनुष्य के धड़ के रूप में प्रकट भगवान् श्री नारायण हरि की नृसिंह आकृति न तो किसी पशु की थी, न किसी मनुष्य की।
प्रह्लाद ने देखा कि उसके पिता को उस नृसिंह-आकृति भगवान् श्री नारायण हरि ने अपनी गोद पर रखकर अपने तीक्ष्ण नखों से उसके पेट को विदीर्ण किया और उसकी आँतें बाहर निकालकर उन्हें चीर दिया।
तब प्रह्लाद ने भगवान् श्री नारायण हरि के रूप में आए यमराज की वन्दना कर अपने पिता की मृत्यु के अनन्तर उनकी आत्मा की सद्गति के लिए इस प्रकार से प्रार्थना की :
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह।
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि।।      
(ईशावास्य-उपनिषद्)
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इसे मैं अपने स्वाध्याय ब्लॉग में लिखना चाहता था, फिर सोच बदला और यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। जीवन तो स्वयं ही आगे ही आगे बढ़ता है इसलिए समय के साथ सोच बदलना तो स्वाभाविक ही है, लेकिन हमारा सोच किस प्रयोजन से प्रेरित है इस बारे में ध्यान देना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। यदि वह लोभ, भय या निरंतर सुख की कामना और किसी विशिष्ट क्षेत्र में सफलता के आकर्षण से प्रेरित है तो उससे आगे बढ़ने के लिए ज़रूरी है कि हम उन तमाम तथाकथित महान लोगों के जीवन पर गौर करें और देखेँ कि क्या केवल अत्यंत अधिक सुख, सफलता, समृद्धि आदि पा लेना ही जीवन का अंतिम और पर्याप्त एकमात्र ध्येय हो सकता है?
या हमें जीवन में कुछ और चाहिए, और वह कैसे और कहाँ से मिलेगा?  
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(कल्पित)
  

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