निरपेक्ष-सापेक्ष
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कल रात्रि जब यहाँ क़रीब 9:00 से 9:30 के बीच का वक़्त था,
स्वीडन स्थित किसी पाठक ने इस ब्लॉग का अवलोकन किया।
वहाँ तब शायद संध्या के 4:00 से 6:00 के बीच का वक़्त रहा होगा।
जब मेरे किसी ब्लॉग पर व्यूअर्स अचानक बढ़ जाते हैं तो मेरा ध्यान
इस तरफ जाता है। कल अचानक 87 page-views स्वीडन से ही इस
ब्लॉग के हुए ऐसा गूगल का कहना है।
पिछले 2 माह से अधिक समय से मेरे स्वाध्याय ब्लॉग के प्रतिदिन
500 से 1000 तक 'व्यूज़' दिखाई देते हैं। पाठक कितने होंगे, कहना
मुश्किल है।
फेसबुक अकाउंट डिलीट हुए एक साल हो रहा है।
twitter करीब दो साल पहले डिलीट कर चुका था।
सबसे बड़ी बात यह है कि किसी व्यक्ति-विशेष से जुड़ने / जुड़ाव की
आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। इसका यह अर्थ नहीं कि किसी से
अलगाव है।
शायद उदासीनता है।
सोशल साइट्स से पूरी तरह दूर हो जाने बाद भी लिखने का शगल इस
तरह हावी है कि ब्लॉग एक सुविधाजनक सहारा है।
मैं नहीं जानता कि मैं कितना सारार्थक, सार्थक, निरर्थक या व्यर्थ लिखता हूँ,
लेकिन जब कोई मेरे लिखे को पढ़ने लायक समझता है तो थोड़ा आश्चर्य तो
होता ही है। और कौतूहल तो हमेशा ही होता है।
शायद कोई सूत्र होता है, जो जुड़ाव की वजह होता हो।
इसीलिए अब 'labels' का उपयोग करने की भी ज़रूरत नहीं रही।
क्योंकि किसी का ध्यान आकर्षित करना मेरे लेखन का लक्ष्य भी नहीं है।
और इसलिए मेरे लेखन में किसी की अनायास दिलचस्पी हो, तो वह मेरे
पुराने पोस्ट्स भी देख ही सकता है। 'labels' का प्रयोग मुझे किसी हद तक
अनावश्यक आत्म-प्रचार जैसा लगता है।
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कल रात्रि जब यहाँ क़रीब 9:00 से 9:30 के बीच का वक़्त था,
स्वीडन स्थित किसी पाठक ने इस ब्लॉग का अवलोकन किया।
वहाँ तब शायद संध्या के 4:00 से 6:00 के बीच का वक़्त रहा होगा।
जब मेरे किसी ब्लॉग पर व्यूअर्स अचानक बढ़ जाते हैं तो मेरा ध्यान
इस तरफ जाता है। कल अचानक 87 page-views स्वीडन से ही इस
ब्लॉग के हुए ऐसा गूगल का कहना है।
पिछले 2 माह से अधिक समय से मेरे स्वाध्याय ब्लॉग के प्रतिदिन
500 से 1000 तक 'व्यूज़' दिखाई देते हैं। पाठक कितने होंगे, कहना
मुश्किल है।
फेसबुक अकाउंट डिलीट हुए एक साल हो रहा है।
twitter करीब दो साल पहले डिलीट कर चुका था।
सबसे बड़ी बात यह है कि किसी व्यक्ति-विशेष से जुड़ने / जुड़ाव की
आवश्यकता महसूस ही नहीं होती। इसका यह अर्थ नहीं कि किसी से
अलगाव है।
शायद उदासीनता है।
सोशल साइट्स से पूरी तरह दूर हो जाने बाद भी लिखने का शगल इस
तरह हावी है कि ब्लॉग एक सुविधाजनक सहारा है।
मैं नहीं जानता कि मैं कितना सारार्थक, सार्थक, निरर्थक या व्यर्थ लिखता हूँ,
लेकिन जब कोई मेरे लिखे को पढ़ने लायक समझता है तो थोड़ा आश्चर्य तो
होता ही है। और कौतूहल तो हमेशा ही होता है।
शायद कोई सूत्र होता है, जो जुड़ाव की वजह होता हो।
इसीलिए अब 'labels' का उपयोग करने की भी ज़रूरत नहीं रही।
क्योंकि किसी का ध्यान आकर्षित करना मेरे लेखन का लक्ष्य भी नहीं है।
और इसलिए मेरे लेखन में किसी की अनायास दिलचस्पी हो, तो वह मेरे
पुराने पोस्ट्स भी देख ही सकता है। 'labels' का प्रयोग मुझे किसी हद तक
अनावश्यक आत्म-प्रचार जैसा लगता है।
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