October 31, 2015

प्रसंगवश : राजनीति के पुरस्कार बनाम पुरस्कार की राजनीति



राजनीति के पुरस्कार बनाम पुरस्कार की राजनीति 
प्रसंगवश 
नमस्कार: पुरस्कार लौटाने वालों को समझें !! आजादी के बाद कम्युनिस्टों ने साहित्य ,प्रचार व इतिहास संस्थानों पर काँग्रेस की मदद से कब्जा किया l भारतीय इतिहास को पराजित मानसिकता का बनाया व प्राचीनता और गौरव को नकारा l साहित्य को भारत भक्ति से शून्य व सत्ता का गुलाम बनाया व विदेशी धन, प्रशंसा , तमगों की लालच में भारत को बदनाम करते रहे l इन्होने भारत की अस्मिता, गौरव की अनुभूति से जुड़े हर आंदोलन , साहित्य ,व्यक्ति ,संस्था ,प्रयास पर चोट की l 
2014 के चुनाव में मोदी व भा.ज .पा को हराने की अपील की थी l
.........इन्हें अब लग गया कि अब ये हिंदू संस्कृति, संस्थाओं , विचारो को गाली नहीँ दे सकते , इनका षडयंत्र चल नहीँ सकता तो ये उन तमाम राष्ट्र विरोधी कार्यों , हिंसक कृत्यों , दंगो , हिंदू अपमान के मुद्दों पर चुप रहने वाले कायर लोग अब प्रचार पाने हेतु अवॉर्ड लौटा रहे हैं l अपने व अपनी विचारधारा के अस्तित्व के आखिरी पड़ाव में इनका असली रुप सामने आ ही गया l सारा देश जान रहा है publicity stunt के सहारे जीते आ रहे इन बेईमान लोगों का आखिरी publicity stunt . हम समझते रहें l....
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October 24, 2015

हे शंकर त्रिपुरारी!

आज की कविता
हे शंकर त्रिपुरारी!
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तुम बिन मेरी कौन खबर ले हे शंकर त्रिपुरारी!
तात मात नहि तुम बिन कोऊ, भ्रात-भगिनी, नहि नारी,
नहि घर-बार नहीं धन-संपति, नहि कोऊ मीत हितैषी!
तीन ताप त्रिशूल भये हैं, हे त्रिनेत्र त्रिशूलधारी !
षड्-रिपु मोहे त्रस्त किए हैं, हे प्रिय-शैलदुलारी!
अब तो मुझ पर किरपा कीजे, गंगाधर डमरूधारी!
बिनती है चरनन में लीजे, मोहे हे मदनारी!
तुम बिन मेरी कौन खबर ले हे शंकर त्रिपुरारी!
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October 15, 2015

आज की कविता अकसर

आज की कविता
अकसर
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मुझे अकसर,
आवाजों में रंग दिखाई देते हैं,
रंगों में महक महसूस होती है,
महक में स्वाद,
और स्वाद में नमी भी,
नमी में स्नेह,
स्नेह में प्रेम,
और प्रेम में प्रिय,
किन्तु तब मैं नहीँ होता!
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October 05, 2015

आज की संस्कृत रचना : नाट्यशास्त्रम्

आज की संस्कृत रचना :
नाट्यशास्त्रम् / नाट्यशास्त्रसारम्
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नाट्यम् नटति कोऽपि कोऽपि नटराजो भवेत् ।
कोऽपि नटसूत्रधारको सञ्चालको सूत्रधारो ॥
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और हिन्दी में :
नटनागर नटखट बहुत, जैसे हों नटराज,
नटी भई मैं नट गयी बिसरे सगरे काज ।
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कविता गूँगे का गुड, कविता पैरबिवाई
जो जाने समझा करै, देखे ना समझे कोई ।
(गूँगे केरी सर्करा ...) 
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