August 11, 2013

फ़िर एक बार ॥ नाग-लोक ॥

फ़िर एक बार,


फ़िर एक बार 
~~~~~~~~~~ ॥ नाग-लोक ॥~~~~~~~~~~~
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© विनय कुमार वैद्य, द्वारा सर्वप्रथम
vinaysv.blogspot.com पर,
15 नवंबर 2010 को प्रकाशित ।
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वे अनेक थे,
हर एक-दो साल में केंचुल बदल लिया करते थे ।
अकसर तब,
जब केंचुल उनकी आँखों पर चढ़ने लगती थी ।
कभी-कभी वे बाहर आ जाते थे ।
-जब उनके बिलों में गरमी या उमस बढ़ जाती थी,
या जब बारिश में पानी भरने लगता था ।
और कभी कभी अपने अन्धेरों से बाहर इसलिये भी आ जाते थे,
क्योंकि बाहर शिकार मिल सकता था ।
अकसर तो वे एक दूसरे को ही खा जाया करते थे,
और कोई नहीं जानता था कि कौन कब किसका ग्रास बन जाएगा ।
खुले में आने पर वे कभी किसी जानवर या मनुष्य के पैरों तले दब जाते, 
तो बरबस उन्हें काट भी लेते थे ।
इसलिये सभी को खतरनाक समझा जाता था ।
अन्धेरों से आलोकित उनके लोक में,
उनकी अपनी-अपनी 'व्यवस्थाएँ' थीं !
उनके अपने ’दर्शन’ थे, ’नैतिकताएँ’ थीं,
’मान्यताएँ’, और ’आदर्श’ भी थे ।
’राष्ट्र’ और ’भाषाएँ’ थीं,
जिनके अपने अपने ’संस्करण’ थे ।
और इस पूरे समग्र ’प्रसंग’ को वे,
'सभ्यता', ’धर्म’ तथा ’संस्कृति’ कहते थे ।
सब अनेक समूहों में......।
अकसर तो यही होता था, कि किसी एक 
'सभ्यता, ’दर्शन’,’धर्म’, ’भाषा’, या ’सँस्कृति’ का अनुयायी,
किसी दूसरे के समूह में,
या उसके विरोधी समूह में भी होता ही था,
और अकसर नहीं,
बेशक होता ही था । 
और फ़िर अन्धेरे भी इस सबसे अछूते कैसे हो सकते थे ?
उनके अपने रंग थे, अपने स्पर्श, अपने स्वाद,
और अपनी ध्वनियाँ ।
वे वहाँ थे -
उनकी भावनाओं में,
उनके विचारों में,
उनकी संवेदनाओं में ,
उनकी संवेदनशीलताओं में ।
उन अँधेरों के अपने विन्यास थे,
’विचार’,
राजनीतिक विचार,
’प्रतिबद्धताएँ’
और यह सब उनका अपना ’लोक’ था,
-अपनी दुनिया,
जिसे वे लगातार बदलना चाहते थे,
एक ’बेहतर दुनिया’ में तब्दील करना चाहते थे ।
इसलिये उनके पास हमेशा एक ’कल’ होता था,
एक बीता हुआ,
एक आगामी ।
उनके आज में वे दोनों आलिंगनबद्ध होते ।
’विचार’ अपने रास्ते तय करते थे,
अन्धेरों से अन्धेरों तक,
अकसर वे एक से दूसरे अंधेरों में चले जाते थे,
और भूल जाते थे कि यह ’निषिद्ध’ क्षेत्र है उनके लिये,
’वर्जित’ ।
फ़िर वे केंचुल छोड़ देते थे ।
’नये’ अन्धेरे के अभ्यस्त होने तक वे लेटे रहते थे,
एक अद्भुत्‌ अहसास में ।
लाल, रेशमी, गर्म, मादक सुगंधवाले,
मीठी ध्वनिवाले अंधेरे से निकलकर,
हरे-भरे, मखमली, शीतल, कोमल सुगंधवाले अंधेरे तक
पहुँचने का सफ़र,
एक ऐसा समय होता था,
जब ’समय’ नहीं होता था ।
और वे जानते थे,
कि ऐसा भी कोई वक़्त हुआ करता है !
लेकिन उस वक़्त में अपनी मरज़ी से आना-जाना,
मुमकिन नहीं था,
उनके लिए । 

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