’धर्म’/'अधर्म'
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हमने परंपराओं को ’धर्म’ का नाम दे रखा है । और इस प्रकार ’धर्म’ का जो अभिप्राय इस शब्द का प्रथमतः आविष्कार और प्रयोग करनेवाले ऋषियों का था उससे बिल्कुल भिन्न अर्थ प्रचलित हो गया है । मनुष्य के साथ जो भयंकर दुर्घटनाएँ हुई हैं, उनमें से संस्कृत ग्रन्थों का त्रुटिपूर्ण अनुवाद सबसे बड़ी ऐतिहासिक घटना है । ’धर्मों’ के जिस अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में शिकागो में स्वामी विवेकानन्द गए थे, वहीं से इसकी शुरुआत हुई । क्योंकि इस प्रकार से पाश्चात्य राजनीति से प्रेरित परंपराओं पर ’धर्म’ की मुहर लग गई । मेरा मानना है कि वेदों और वेदान्त का किसी अन्य भाषा में अनुवाद संभव ही नहीं है । वेदों और सनातन धर्म की यह दृष्टि है कि ’धर्म’ का प्रचार, या रक्षा नहीं की जा सकती । हाँ अपने धर्म का पालन और पात्र मनुष्यों को ही उसकी शिक्षा अवश्य ही दी जा सकती है । ’धर्म’ सनातन है, और मनुष्य मात्र को आश्रम और वर्ण तथा (अनाश्रमी और अवर्ण को भी) अनायास प्राप्त होता है । इसलिए स्वामीजी की शिकागो वक्तृता इस दृष्टि से भूल न भी हो तो अवाँछित अवश्य थी । इसके बाद अनेक स्वामी, और ’आध्यात्मिक’ व्यक्ति विदेशों में ’धर्म’ और ’अध्यात्म’ का प्रचार करने गए । किन्तु इस देश में हमने अपने को हिन्दू या अहिन्दू इन दो धर्मों में बँट लिया । मेरी दृष्टि से इनमें से ’धर्म’ कोई भी नहीं है । क्या हमारे बुद्धिजीवी ’धर्म’ क्या है इस बारे में एकमत हैं । यदि उसी पर मत-वैभिन्य हो तो फ़िर ’हिन्दू’ या अहिन्दू (ग़ैर-हिन्दू) पर किस आधार पर चर्चा की जा सकती है ?
संक्षेपतः, जो परंपरा ’राजनीति’ से प्रेरित होती है वह अधर्म है, क्योंकि ’धर्म’ को बलपूर्वक लादना सबसे बड़ा अधर्म है । इसलिए यदि हम तथाकथित ’धर्मों’ के इतिहास को जानें-समझें तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि ’धर्म-निरपेक्षता’ और ’सर्व-धर्म-समभाव’ कितने खोखले और कोरे राजनीतिक हेतु के साधक शब्द हैं ।
सनातन धर्म से ही उद्भूत बौद्ध और जैन धर्म भी हैं, जो अहिंसा को ही धर्म मानते हैं, और वे अनाश्रमी और अवर्ण मनुष्यों के लिए हैं । इस प्रकार वास्तविक धर्म मनुष्यमात्र की निजी स्वतन्त्रता का सम्मान करता है, और उसके ’असहिष्णु या कट्टर होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । स्पष्ट है की 'अनाश्रमी' या 'अवर्ण' शब्द निन्दात्मक नहीं है, क्योंकि शैव दर्शन पर आधारित कुछ परंपराएँ वैदिक न होते हुए भी सनातन धर्म में स्वीकार्य हैं ।
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