April 25, 2011

~~हरेक सिम्त,...~~


© Vinay Vaidya 
25042011

~~हरेक सिम्त,...~~

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पहले कभी लिखा था, :


"हरेक सिम्त से देखता रहता हूँ तुझे,
ये बात और है कि जानता नहीं मैं  ।"


और आज लिख रहा हूँ, :


"हरेक सिम्त से तू देखता रहता है मुझे,
तेरी नज़रों से छुपकर बता कहाँ जाऊँ ?"


देर आयद, दुरुस्त आयद !!
ज़वाब आया तो सही !! 

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A comment added on 29-04-2011 :
बृजमोहनजी,
दर असल ये पंक्तियाँ ईश्वर को प्रियतम समझकर
लिखी गईं हैं, और यह वाकई दो-तरफ़ा है । पहले 
जब यह महसूस हुआ था कि अस्तित्व की हर वस्तु
एक ही अद्भुत्‌ ’प्रेरणा’ से संचालित है, तो ’उसे’ हर
वस्तु में अनायास ही देखने लगा । यह एक ’दर्शन’
था । बहुत समय बाद फ़िर ऐसा हो गया कि वह
’प्रेरणा’ मानों मेरा ध्यान अपनी ही ओर ले जा रही
हो । मतलब यह, कि ’वह’ भी मुझे देख रहा है, ....
टिप्पणी के लिये सादर धन्यवाद.
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April 23, 2011

~~वसुधा-सूक्तम्~~पृथ्वी-दिवस~~( The Earth-Day.)~~



~~पृथ्वी-दिवस~~
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(22042011)
© Vinay Vaidya 
~~~~~~~~वसुधा-सूक्तम् ~~~~~~~~
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22042011 
© Vinay Vaidya 




भूमे ! त्वं भूमा ! यो भूमा वै तत् सुखम् ।
भूयिष्ठा, अचला, प्रचला, जननी, जन्मभूमि ॥
त्वं ज्येष्ठा, मेदिनी, संमोदिनी, प्रमोदिनी ।
त्वं लीला, च कृति, संस्कृति च संप्रवृत्ति ॥
त्वत्तःऽवतीर्णौ श्रीरामकृष्णौ, श्री रमारमणो ।
त्वं प्रकटिता भूमिजा, जनकसुता, शिवसुता ॥
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श-क्षमस्व मे !! 
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धरती, धरित्री !
’त्वं भूमा यो भूमा वै तत् सुखम् ।’
तुम ’भूमा’ हो, और जो भूमा (परिपूर्ण) है, 
वही सुख है ।
तुम महीयसी, गरीयसी, अचला, प्रचला, 
-जननी, जन्मभूमि !
तुम ज्येष्ठा, विभवा, आनन्ददात्री, सुखप्रदात्री !
तुम लीला, और ’कृति’, ’संस्कृति’ और सृष्टि-प्रवृत्ति !
तुम से ही अवतीर्ण होते हैं, श्रीराम और श्रीकृष्ण, 
-श्रीरमारमण !
तुम ही साक्षात् जनकनन्दिनी, जनकसुता श्रीसीता, 
-शिवसुता (नर्मदा) !
समुद्ररूपी वस्त्रों में आवेष्टिता, पर्वतरूपी वक्षस्थलयुक्ता,
हे विष्णुपत्नि ! तुम्हें प्रणाम् !
क्षमे ! 
लज्जित हूँ कि अपने चरणों से मैं तुम्हें स्पर्श करता हूँ,
हे माता, 
मुझे क्षमा कर दो, 
क्योंकि यह तो तुम्हारा स्वभाव ही है माँ !
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April 16, 2011

"तुम को देखा तो ये ख़याल आया ।"


~~"तुम को देखा तो ये ख़याल आया ।"~~
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16042010

© Vinay Vaidya 

बहुत से रंग खिले हैं तुम्हारे चेहरे पर,
बहुत से ख़्वाब नुमायाँ तुम्हारी आँखों में ।
लबों से लफ़्ज़ कोई बस निकलनेवाला है,
छुपा हुआ है संजीदगी के पर्दों में ।

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April 11, 2011

~~अनजाने दोस्त / अतिथि-हवाएँ ~~

~~  अनजाने दोस्त / अतिथि-हवाएँ ~~
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11042011.
© Vinay Vaidya 

कभी-कभी अनजान हवाएँ,
छूकर मुझे ग़ुजर जाती हैं,
मानों खेल रहीं हो मुझसे
आँख-मिचौली जैसा खेल ।
आती हैं किस ओर से वे,
और जाती हैं किस ओर,
नहीं देख पाता हूँ उनका,
मैं, यह या वह छोर !
केवल रह जाती हैं उनकी,
स्मृति में, कोई पहचान,
जिसे पकड़ नहीं सकता मैं,
रहती हैं वे अनजान !
साँसों में वे आकर लेकिन
रूह तलक भी जाती हैं,
कभी-कभी अनजान हवाएँ,
छूकर मुझे ग़ुजर जाती हैं ,...
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