~~पृथ्वी-दिवस~~
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(22042011)
© Vinay Vaidya
~~~~~~~~वसुधा-सूक्तम् ~~~~~~~~
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22042011
© Vinay Vaidya
भूमे ! त्वं भूमा ! यो भूमा वै तत् सुखम् ।
भूयिष्ठा, अचला, प्रचला, जननी, जन्मभूमि ॥
त्वं ज्येष्ठा, मेदिनी, संमोदिनी, प्रमोदिनी ।
त्वं लीला, च कृति, संस्कृति च संप्रवृत्ति ॥
त्वत्तःऽवतीर्णौ श्रीरामकृष्णौ, श्री रमारमणो ।
त्वं प्रकटिता भूमिजा, जनकसुता, शिवसुता ॥
समुद्रवसने देवि पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि ! नमस्तुभ्यं पादस्पर्श-क्षमस्व मे !!
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धरती, धरित्री !
’त्वं भूमा यो भूमा वै तत् सुखम् ।’
तुम ’भूमा’ हो, और जो भूमा (परिपूर्ण) है,
वही सुख है ।
तुम महीयसी, गरीयसी, अचला, प्रचला,
-जननी, जन्मभूमि !
तुम ज्येष्ठा, विभवा, आनन्ददात्री, सुखप्रदात्री !
तुम लीला, और ’कृति’, ’संस्कृति’ और सृष्टि-प्रवृत्ति !
तुम से ही अवतीर्ण होते हैं, श्रीराम और श्रीकृष्ण,
-श्रीरमारमण !
तुम ही साक्षात् जनकनन्दिनी, जनकसुता श्रीसीता,
-शिवसुता (नर्मदा) !
समुद्ररूपी वस्त्रों में आवेष्टिता, पर्वतरूपी वक्षस्थलयुक्ता,
हे विष्णुपत्नि ! तुम्हें प्रणाम् !
क्षमे !
लज्जित हूँ कि अपने चरणों से मैं तुम्हें स्पर्श करता हूँ,
हे माता,
मुझे क्षमा कर दो,
क्योंकि यह तो तुम्हारा स्वभाव ही है माँ !
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परम पवित्र पाठ.
ReplyDeleteप्रिय राहुलजी,
ReplyDeleteचूँकि यह कोई वैदिक-सूक्त नहीं है,
यह मेरा स्व-रचित है, (अन्तिम श्लोक
को छोड़कर) इसलिये मैं सोचता हूँ
कि इसमें व्याकरण या छन्दशास्त्र
के अनुसार कोई भूल हो यह भी हो
सकता है, और इस बारे में विद्वानों
की टिप्पणी का स्वागत है । किन्तु
मेरे लिये उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण
है आप जैसे मित्रों की एक आत्मीय
सी प्रतिक्रिया,......धन्यवाद !
सादर !!