~~-बया का घोंसला -2-~~
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उस शाम ख़ालिद मेरे साथ नहीं था । मैं अकेला ही उस नदी
के किनारे घूम रहा था । उस नदी की रेत में कुछ ऐसे रेतीले
पीले पत्थर थे जिन्हें आसानी से तराशा जा सकता था । लोग
कहते थे कि उस नदी की रेत में सोने के बारीक कण हैं, लेकिन
हमें तो बस ऐसे पीले पत्थर ही मिले थे, जिन्हें मैं घर ले आया
करता था, घर पर हर हफ़्ते ऐसे दो तीन पत्थर ले आता था,
जिन्हें बाद में दीदी या माँ उठाकर दूर फ़ेंक आया करती थी ।
उस दिन जब मैं अकेला ’प्रसादी बाबा’ की कुटिया पर पहुँचा,
तो वे एक किस्सा सुनाने लगे थे :
’बेटा, बइठो ! तुमने उस बुढ़िया की वह कहानी सुनी है,
जिसके पास पाँच बैल थे ?’
उन्होंने पूछा ।
’नहीं तो, ....’
'ऐसा है, एक गाँव में एक बुढ़िया रहती थी जो अकसर अकेली
रहती थी, बेटे-बहुएँ, वगैरे खेत-खलिहान के और दूसरे कामों
में लगे होते थे, और घर पर वह अकेली रह जाती । शाम को
गाय-बैलों को सानी-पानी देकर सोने से पहले एक बार सबकी
हाज़िरी लेती, पुचकार कर दुलारती, और फ़िर सो जाती । ऐसे
ही रोज की तरह एक रात को जब वह सोने से पहले बैलों के पास
आई तो उन्हें उनका नाम लेकर सहलाने लगी । उस दिन एक चोर
घात लगाये बैठा था थोड़ी दूर पर छिपकर, उसने सोचा कि जब
बुढ़िया लौट जायेगी, तो वह आराम से एक-दो बैलों को चुरा ले
जायेगा । तभी उसे बुढि़या की करारी आवाज़ सुनाई दी :
’ऐ ऽ ! को खड़ा ऽऽऽऽ !!’
उसे लगा कि बुढि़या ने उसे देख लिया है, इसलिये वह धीरे से धरती
पर बैठने लगा । अभी बैठ भी न पाया था कि बुढ़िया की दूसरी कड़क
आवाज़ सुनाई पड़ी, पहले जैसी ही तेज़ :
’ऐ ऽ ! को बईठा ऽऽऽऽ !!’
चोर घबरा गया और उठने लगा कि बुढ़िया की तीसरी कड़क तेज़
आवाज़ उसके कानों पर पड़ी :
’ऐ ऽ ! को उठा ऽऽऽऽ !!
अब चोर ने भागना ही ठीक समझा और दौड़ने लगा । तभी एक और
तेज़ आवाज़ सुनकर घबराकर गिर ही गया । इस बार बुढ़िया ने कहा
था, :
ऐ ऽ ! को भगा ऽऽऽऽ!
और जब जैसे-तैसे वापस उठने लगा कि आखि़री आवाज़ सुनते हुए
उसका मुँह सूखने लगा । बुढ़िया कह रही थी, :
ऐ ऽ ! को गिरा रे ऽऽऽऽ !’
तब तक चोर की आहट पाकर कुत्ते भौंकने लगे थे, आसपास के दूसरे
लोगों ने उसे धर दबोचा था । वास्तव में उस बुढ़िया के बैलों के नाम थे,
कोखड़ा, बईठा, कोउठा, कोभगा और कोगिरा,...’
वाह !! मुझे तो मज़ा आ गया ।
’अब कथा के बाद प्रसाद भी तो लो !’
कहकर वे उठे और कुछ गरी चिरौंजी मेरी हथेली पर रख दिया ।
घर लौटा और दीदी को यह कहानी सुनाई तो बोली,
’तू कहीं भी भटकता रहता है, पढ़्ता-लिखता नहीं, फ़ेल हो जायेगा,
फ़िर रामचरितमानस पढ़ते रहना !!’
’हाँ, मैं तो चिलम भी पिया करूँगा तब तो,....’
मैं उन्हें चिढ़ाने लगा ।
वो नाराज़ होकर अपनी पढ़ाई करने लगीं ।
लेकिन उस कहानी पर मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा । फ़िर जब
कॉलेज से निकला ही था, कि एक दिन मुझे ख़ालिद मिल गया था ।
उसके हाथों में ’श्री रमण महर्षि से बातचीत’ पुस्तक देखी तो चौंक
पड़ा । प्रसादी बाबा ने मुझे जो कहानी सुनाई थी, वह कहानी उन्होंने
क्या इस पुस्तक में पढ़ी थी ? ख़ालिद मुझे बतला रहा था कि उसने
तो यह कहानी इसी पुस्तक में पढ़ी है, उन्होंने कहाँ पढ़ रखी होगी,
उसे नहीं पता ।
मेरा दिमाग़ बिल्कुल काम नहीं कर रहा था, उस पुस्तक के सारे पन्ने
पलटकर ध्यान से, बारीकी से देख लिया था लेकिन वह कहानी मुझे
वहाँ कहीं नज़र नहीं आई ।
फ़िर जब खालिद मिला, तो मैंने उससे पूछा तो वह बोला, शरद ने इसमें
पढ़ी है । अगले दिन जब शरद से मुलाकात हुई तो वह हँसने लगा । बोला,
’अरे नहीं, ख़ालिद तो मज़ाक कर रहा है,....’
बहुत दिनों तक शरद ने इस राज़ को राज़ ही रहने दिया, और मैं ऐसे ही
कभी-कभी उस पुस्तक को पढ़ने लगा था । बारम्बार ’कोऽहम्’ पढ़ते पढ़ते
एक दिन अचानक दिमाग की घंटी बजी और 'कोखडा' की कहानी स्मरण हो
उठी ।
एक ऐसी कुँजी हाथ लग गयी जो आगे चलकर अध्यात्म की कुल जमा पूँजी
साबित हो गयी ।
तो क्या प्रसादी बाबा ने उस दिन मुझे अनजाने ही कोई 'दीक्षा' दी थी ? या
'शक्तिपात' किया था ? मैं सोचने लगा । सोचते ही सोचते मेरी आँखें मुंदने लगीं,
और मैं अपने आपको प्रसादी बाबा की कुटिया में महसूस करने लगा । वे कह
रहे थे,
'ये जो पांच बैल थे, वे वास्तव में पाँच प्रकार की वृत्तियाँ हैं मन की । जिन्हें
'अहम्-वृत्ति'-रूपी चोर चुराकर ले जाता है । जब बुढ़िया पूछती है, :
'कोखडा', 'को बईठा'... तो वह प्रश्न करती है, की यह 'वृत्ति-विशेष' किसमें जागी ?
इस प्रकार से यहाँ जानो कि सभी वृत्तियाँ 'मैं-वृत्ति' पर आश्रित होती हैं, और
इसलिए पृथक से कोई 'मैं-वृत्ति' कहीं नहीं होती । .....'
मुझे उनका एक-एक शब्द स्पष्ट सुनाई दे रहा था, और उसका आशय भी पूरी
तरह समझ में आ रहा था । तभी अचानक शरद ने डोरबेल बजाई । मेरा मन
सन्नाटे में था....