~~~~~~~~~~ रूपामुद्रा ~~~~~~~~~~~
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स्वागत तुम्हारा,
रूपामुद्रा !
अवतरित हो गयी तुम,
जगत-पटल पर,
अपनी नई मुद्रा लिए !
देखता हूँ मैं तुम्हें !
बस अद्भुत,
और शायद अलौकिक सी भी !
दो समानांतर आड़ी रेखाएँ,
जिन्हें काटती एक खड़ी रेखा,
नृत्य की भंगिमा में,
एक पैर पर खड़ी तुम,
सचमुच चंचल लगती हो,
लक्ष्मी की ही तरह !
फ़िर देखता हूँ एक बार पुन:,
तो पलकें झपकती हैं .
कभी लगता है कि अपनी पृष्ठभूमि पर तुम,
'र' की मुखाकृति लिए,
मुझसे दूर जा रही हो,
तो कभी लगता है कि नहीं-नहीं,
तुम मेरी ओर आ रही हो !
तुम वैसे तो प्रकट हुई हो,
-किसी रचयिता की कल्पना के साकार रूप में,
किन्तु,
निराकार रूप में तुम,
सदा से ही रही हो,
-सृष्टि की रचना के समानांतर !
कोई कहता है कि तुम्हारी आकृति में,
कौन सा श्रेष्ठ तत्त्व है,
-कला का ?
बस 'र' लिखकर,
उसे एक आड़ी रेखा से काटा ही तो है,
उस रूपांकनकार ने,
जिसकी सूझ पर सब उसकी वाहवाही कर रहे हैं !
हाँ, ठीक ही तो है,
जब पहली बार,
किसी कवि ने,
अपनी प्रेयसी के मुख की उपमा चाँद से की होगी,
तब भी जलनेवालों ने ऐसा ही कहा होगा .
और सोचा होगा,
कि इतनी सरल बात उन्हें क्यों नहीं सूझी !?
और जब न्यूटन ने,
सेब को जमीन पर गिरते देखकर,
गुरुत्त्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया,
तब भी कई लोगों ने ऐसा ही सोचा होगा !
किन्तु मैं तो भाव-विभोर हूँ,
-तुम्हारे इस रूप के प्राकट्य से .
रूपामुद्रा !!
यूँ ही खिलखिलाती रहो,
नृत्यरत रहो,
चंचल रहो,
छा जाओ जगत पर !!
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July 18, 2010
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"बहुत बेहतरीन और कविता...आपने उन समस्त मनोभावों को प्रदर्शित कर दिया जो लोगों ने सोचा होगा रूपए का चिह्न देखकर..."
ReplyDeleteवाह...रुपये के नये रूप का सुंदर वर्णन.
ReplyDeleteरुपये के लिए स्वीकृत संकेत चिन्ह के स्वागत में अद्भुत रचना. बहुत ही सुन्दर. आभार.
ReplyDeleteप्रिय श्री विजयप्रकाश, अमृतघट और पी एन सुब्रह्मण्यन् !
ReplyDeleteआप सभी मित्रों को कविता अच्छी लगी, तथा आपने टिप्पणी
लिखकर मेरा उत्साह बढ़ाया, इसके लिए आभारी हूँ,
धन्यवाद,
सादर !
बहुत बेहतरीन ...
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