July 03, 2010

चाय का ठंडा हो जाना

~~~~ चाय का ठंडा हो जाना ~~~~
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कैसी विडम्बना है,
कितनी क्रूर यंत्रणा है,
किसी उपलब्धि तक पहुँचते-पहुँचते,
स्थितियों का एकदम बदल जाना,
-सर्वथा अप्रासंगिक हो जाना .
उपलब्धि को अर्थहीन बना देना,
बल्कि हद से परे तक,
-अवांछित बना डालना !
उपहास, व्यंग या व्यंग्य ही बना देना !
चाय का पड़े-पड़े ठंडा हो जाना भी,
उतना अप्रासंगिक नहीं होता,
जितना कि भावनाओं की ऊष्मा का,
जब बहुत ज़रूरत हो तभी,
ठीक उसी पल,
एकाएक, अनपेक्षित ढंग से ठंडा हो जाना .
आप कुछ नहीं कर सकते, महसूस करने के सिवा !
आप चाय को ज़रूर फ़िर एक बार गर्म कर सकते हैं,
-और कभी-कभी तो करते ही होंगे !
लेकिन भावनाओं के ठन्डे पड़ जाने पर,
अपने या किसी दूसरे के शब्दाडम्बर से,
भावुक तो हो सकते हैं, 
और आत्म-निंदा, आत्म-गौरव और आत्म-दया की,
मिली जुली भावना से शायद अभिभूत भी !
लेकिन आप संवेदन-शीलता की बुझ चुकी लौ को,
कहाँ से प्रज्वलित कर सकेंगे पुन: ?
किस आगदार तीली से ? 
और उसके अभाव में, 
भावनाओं को उभारने की कोशिश,
एक दुष्टता ही होगी, 
-अपने-आपके साथ !
-अपने-आपको ही यंत्रणा देना,
और अपना या दूसरों का,
भावनात्मक शोषण ही होगा वह !
लेकिन तब शायद वही एकमात्र बाध्यता,
-या औपचारिकता रह जाती है,
जिसे आप करते हैं . 
-क्योंकि आप बच भी तो नहीं सकते !

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2 comments:

  1. baat sahi hai...lekin confuse manah: sthiti lagti hai

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  2. हाँ,
    कविता इसीलिए कुछ कहने का प्रयास भर होती है ।
    धन्यवाद और आभार !

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