~~~~~~~~~ नाम क्या है ? ~~~~~~~~~~
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सोचता हूँ,
अगर तुम्हारा कोई नाम न होता,
तो क्या तुम्हारा नाम न होता ?
जानता हूँ, कई लोगों को,
जिनकी आँखें बोलती हैं,
कह देती हैं,
बहुत सा अनकहा,
-अकथनीय और अवर्णनीय,
जो अनुल्लेख्य तो कदापि नहीं होता,
किन्तु उसे वैखरी नहीं कह पाती,
और कान नहीं सुन पाते ।
लेकिन आँखें कभी-कभी देख लेती है,
किन्तु कह तो वे भी नहीं पातीं,
फ़िर भी यह भी सच है कि कभी-कभी,
आँखें भी न सिर्फ़ देख लेती हैं,
बल्कि सहेजकर संजोकर भी रख लेती हैं,
-जैसे कैमरे की आँख,
जिसने संजो रखा,
तुम्हारी आँखों की भाषा को !
मैं नहीं जानता क्या नाम है तुम्हारा,
लेकिन पढ़ सकता हूँ,
वह चिट्ठी,
जो कैमरामैन कल ही मुझे दे गया है !
और आज फेसबुक में तुम्हारा चेहरा देखा,
तो यही ख़याल आया,
नाम क्या है ?
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July 31, 2010
July 20, 2010
अगले मौसम में
~~~~~~ अगले मौसम में ~~~~~~~~
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मौसम के अनुकूल होते ही,
धरती में दबा बीज,
जैसे कुनमुना कर जाग उठता है,
और एक नाजु़क कोमल अंकुर,
देखने लगता है सृष्टि को,
अपनी शिशु-दृष्टि से,
पहली-पहली बार !
होता है अपनी सुंदरता में वैसा ही परिपूर्ण,
जैसा होता है,
बाद में विकसित और पल्लवित-पुष्पित होकर,
किसी अगले मौसम में ।
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मौसम के अनुकूल होते ही,
धरती में दबा बीज,
जैसे कुनमुना कर जाग उठता है,
और एक नाजु़क कोमल अंकुर,
देखने लगता है सृष्टि को,
अपनी शिशु-दृष्टि से,
पहली-पहली बार !
होता है अपनी सुंदरता में वैसा ही परिपूर्ण,
जैसा होता है,
बाद में विकसित और पल्लवित-पुष्पित होकर,
किसी अगले मौसम में ।
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July 18, 2010
॥ रूपामुद्रा ॥
~~~~~~~~~~ रूपामुद्रा ~~~~~~~~~~~
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स्वागत तुम्हारा,
रूपामुद्रा !
अवतरित हो गयी तुम,
जगत-पटल पर,
अपनी नई मुद्रा लिए !
देखता हूँ मैं तुम्हें !
बस अद्भुत,
और शायद अलौकिक सी भी !
दो समानांतर आड़ी रेखाएँ,
जिन्हें काटती एक खड़ी रेखा,
नृत्य की भंगिमा में,
एक पैर पर खड़ी तुम,
सचमुच चंचल लगती हो,
लक्ष्मी की ही तरह !
फ़िर देखता हूँ एक बार पुन:,
तो पलकें झपकती हैं .
कभी लगता है कि अपनी पृष्ठभूमि पर तुम,
'र' की मुखाकृति लिए,
मुझसे दूर जा रही हो,
तो कभी लगता है कि नहीं-नहीं,
तुम मेरी ओर आ रही हो !
तुम वैसे तो प्रकट हुई हो,
-किसी रचयिता की कल्पना के साकार रूप में,
किन्तु,
निराकार रूप में तुम,
सदा से ही रही हो,
-सृष्टि की रचना के समानांतर !
कोई कहता है कि तुम्हारी आकृति में,
कौन सा श्रेष्ठ तत्त्व है,
-कला का ?
बस 'र' लिखकर,
उसे एक आड़ी रेखा से काटा ही तो है,
उस रूपांकनकार ने,
जिसकी सूझ पर सब उसकी वाहवाही कर रहे हैं !
हाँ, ठीक ही तो है,
जब पहली बार,
किसी कवि ने,
अपनी प्रेयसी के मुख की उपमा चाँद से की होगी,
तब भी जलनेवालों ने ऐसा ही कहा होगा .
और सोचा होगा,
कि इतनी सरल बात उन्हें क्यों नहीं सूझी !?
और जब न्यूटन ने,
सेब को जमीन पर गिरते देखकर,
गुरुत्त्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया,
तब भी कई लोगों ने ऐसा ही सोचा होगा !
किन्तु मैं तो भाव-विभोर हूँ,
-तुम्हारे इस रूप के प्राकट्य से .
रूपामुद्रा !!
यूँ ही खिलखिलाती रहो,
नृत्यरत रहो,
चंचल रहो,
छा जाओ जगत पर !!
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स्वागत तुम्हारा,
रूपामुद्रा !
अवतरित हो गयी तुम,
जगत-पटल पर,
अपनी नई मुद्रा लिए !
देखता हूँ मैं तुम्हें !
बस अद्भुत,
और शायद अलौकिक सी भी !
दो समानांतर आड़ी रेखाएँ,
जिन्हें काटती एक खड़ी रेखा,
नृत्य की भंगिमा में,
एक पैर पर खड़ी तुम,
सचमुच चंचल लगती हो,
लक्ष्मी की ही तरह !
फ़िर देखता हूँ एक बार पुन:,
तो पलकें झपकती हैं .
कभी लगता है कि अपनी पृष्ठभूमि पर तुम,
'र' की मुखाकृति लिए,
मुझसे दूर जा रही हो,
तो कभी लगता है कि नहीं-नहीं,
तुम मेरी ओर आ रही हो !
तुम वैसे तो प्रकट हुई हो,
-किसी रचयिता की कल्पना के साकार रूप में,
किन्तु,
निराकार रूप में तुम,
सदा से ही रही हो,
-सृष्टि की रचना के समानांतर !
कोई कहता है कि तुम्हारी आकृति में,
कौन सा श्रेष्ठ तत्त्व है,
-कला का ?
बस 'र' लिखकर,
उसे एक आड़ी रेखा से काटा ही तो है,
उस रूपांकनकार ने,
जिसकी सूझ पर सब उसकी वाहवाही कर रहे हैं !
हाँ, ठीक ही तो है,
जब पहली बार,
किसी कवि ने,
अपनी प्रेयसी के मुख की उपमा चाँद से की होगी,
तब भी जलनेवालों ने ऐसा ही कहा होगा .
और सोचा होगा,
कि इतनी सरल बात उन्हें क्यों नहीं सूझी !?
और जब न्यूटन ने,
सेब को जमीन पर गिरते देखकर,
गुरुत्त्वाकर्षण के सिद्धांत का आविष्कार किया,
तब भी कई लोगों ने ऐसा ही सोचा होगा !
किन्तु मैं तो भाव-विभोर हूँ,
-तुम्हारे इस रूप के प्राकट्य से .
रूपामुद्रा !!
यूँ ही खिलखिलाती रहो,
नृत्यरत रहो,
चंचल रहो,
छा जाओ जगत पर !!
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July 03, 2010
चाय का ठंडा हो जाना
~~~~ चाय का ठंडा हो जाना ~~~~
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कैसी विडम्बना है,
कितनी क्रूर यंत्रणा है,
किसी उपलब्धि तक पहुँचते-पहुँचते,
स्थितियों का एकदम बदल जाना,
-सर्वथा अप्रासंगिक हो जाना .
उपलब्धि को अर्थहीन बना देना,
बल्कि हद से परे तक,
-अवांछित बना डालना !
उपहास, व्यंग या व्यंग्य ही बना देना !
चाय का पड़े-पड़े ठंडा हो जाना भी,
उतना अप्रासंगिक नहीं होता,
जितना कि भावनाओं की ऊष्मा का,
जब बहुत ज़रूरत हो तभी,
ठीक उसी पल,
एकाएक, अनपेक्षित ढंग से ठंडा हो जाना .
आप कुछ नहीं कर सकते, महसूस करने के सिवा !
आप चाय को ज़रूर फ़िर एक बार गर्म कर सकते हैं,
-और कभी-कभी तो करते ही होंगे !
लेकिन भावनाओं के ठन्डे पड़ जाने पर,
अपने या किसी दूसरे के शब्दाडम्बर से,
भावुक तो हो सकते हैं,
और आत्म-निंदा, आत्म-गौरव और आत्म-दया की,
मिली जुली भावना से शायद अभिभूत भी !
लेकिन आप संवेदन-शीलता की बुझ चुकी लौ को,
कहाँ से प्रज्वलित कर सकेंगे पुन: ?
किस आगदार तीली से ?
और उसके अभाव में,
भावनाओं को उभारने की कोशिश,
एक दुष्टता ही होगी,
-अपने-आपके साथ !
-अपने-आपको ही यंत्रणा देना,
और अपना या दूसरों का,
भावनात्मक शोषण ही होगा वह !
लेकिन तब शायद वही एकमात्र बाध्यता,
-या औपचारिकता रह जाती है,
जिसे आप करते हैं .
-क्योंकि आप बच भी तो नहीं सकते !
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कैसी विडम्बना है,
कितनी क्रूर यंत्रणा है,
किसी उपलब्धि तक पहुँचते-पहुँचते,
स्थितियों का एकदम बदल जाना,
-सर्वथा अप्रासंगिक हो जाना .
उपलब्धि को अर्थहीन बना देना,
बल्कि हद से परे तक,
-अवांछित बना डालना !
उपहास, व्यंग या व्यंग्य ही बना देना !
चाय का पड़े-पड़े ठंडा हो जाना भी,
उतना अप्रासंगिक नहीं होता,
जितना कि भावनाओं की ऊष्मा का,
जब बहुत ज़रूरत हो तभी,
ठीक उसी पल,
एकाएक, अनपेक्षित ढंग से ठंडा हो जाना .
आप कुछ नहीं कर सकते, महसूस करने के सिवा !
आप चाय को ज़रूर फ़िर एक बार गर्म कर सकते हैं,
-और कभी-कभी तो करते ही होंगे !
लेकिन भावनाओं के ठन्डे पड़ जाने पर,
अपने या किसी दूसरे के शब्दाडम्बर से,
भावुक तो हो सकते हैं,
और आत्म-निंदा, आत्म-गौरव और आत्म-दया की,
मिली जुली भावना से शायद अभिभूत भी !
लेकिन आप संवेदन-शीलता की बुझ चुकी लौ को,
कहाँ से प्रज्वलित कर सकेंगे पुन: ?
किस आगदार तीली से ?
और उसके अभाव में,
भावनाओं को उभारने की कोशिश,
एक दुष्टता ही होगी,
-अपने-आपके साथ !
-अपने-आपको ही यंत्रणा देना,
और अपना या दूसरों का,
भावनात्मक शोषण ही होगा वह !
लेकिन तब शायद वही एकमात्र बाध्यता,
-या औपचारिकता रह जाती है,
जिसे आप करते हैं .
-क्योंकि आप बच भी तो नहीं सकते !
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