June 01, 2009

उन दिनों / भूमिका.

भूमिका : /'अविज्नान'
यह मूलतः वही है, जो इस उपन्यास का पहला अध्याय था / होना चाहिए था । किसी अज्ञात तकनीकी त्रुटि के कारण वह हटा दिया गया ।
------------------------------------------------------------------------------------------------
"तुम कुछ लिखते हो ? " - मैंने पूछा ।
"हाँ, पहले लिखता था, शुरू में 'रिपोर्टिंग' करता था, फ़िर आलोचना लिखने लगा, फ़िर कविता, और बाद में कहानी भी । एक बुखार है, जो चढ़ता-उतरता रहता था । "
" फ़िर उपन्यास ? "-मैंने चुटकी ली ।
"हो-हो-हो..." -वह हँस पड़ा ।
थोड़ी देर तक हम दोनों चुप बैठे रहे ।
टेबल पर आज का अखबार रखा था , जिस पर उसने अपने दोनों पैर फैला रखे थे । मैं मुस्कुरा रहा था ।
"कुछ याद नहीं आता, अखबार पर नज़र पड़ने पर ?" -मैंने कुरेदा ।
"हाँ, थोड़ा-थोड़ा । उन दिनों हमारे यहाँ संगीत-सभाएँ होतीं थीं । आज भी होतीं हैं, लेकिन चीज़ें बहुत बदल गयी हैं । लड़के-लड़कियाँ डान्स करते थे । 'एक्सटैसी' का चलन था । "
"अच्छा !"
"हाँ, हम सभी 'सुखी' थे । जीवन में उत्तेजनाएँ थीं । 'भारत' था । हमारी संस्कृति का फैलाव हो रहा था । और हम 'युवा' लोग, तंत्र, योग, और पूर्वी संस्कृति के रंगों को अपने जीवन में भर रहे थे । 'मेडिटेशन' और पैरा-साइकोलोजी हमें बहुत आकर्षित करता था । हम इसे विकास समझते थे । "
"क्या लभी ?" -मैंने पूछा ।
"नहीं, मेरे आसपास के लोग , बाकी तो लगभग ज़िंदगी की दौड़ और सपनों में डूबे रहते थे । "
जब वह काफी देर तक कुछ नहीं बोला तो मैंने ही पूछा,
"तो क्या वह विकास नहीं था ?"
"था, लेकिन नहीं था । " एक बार फ़िर वह चुप हो रहा ।
"क्यों ? "
"देखिये हमारी सारी उठापटक उसी दायरे के भीतर थी । -divisive, बुद्धिपरक, intellectual ."
" analytical ? "
"हाँ , फ़िर ओरोबिन्दो थे , 'समन्वय-दर्शन' था, लेकिन वह, ... " उसने पुन: मौन धारण कर लिया था ।
"अच्छा, यह बतलाओ कि जब कहीं कुछ न था, न ज़ेन, न ताओ, न स्पिरिचुअल हीलिंग, तो फ़िर वह क्या था जिसके पीछे तुम पागल थे ?"
"मीनिंग !, मीनिंग इन दि लाइफ, यह बात हमें कौंधती थी । "
"क्या 'सामाजिक, राजनीतिक यथार्थ' तुम्हें आंदोलित नहीं करता था ?"
उसने संदेह की दृष्टि से मुझे देखा । फ़िर बोला,
"नहीं, हम, या कहूँ कि 'मैं' 'यथार्थ' के यथार्थ के बारे में सोचता था । "
उसने मुझे भी मौन कर दिया था ।
"फ़िर ? "
"फ़िर क्या , मैंने महसूस किया कि , 'something is basically wrong with us.' और मैं खोजने-समझने की कोशिश करने लगा । "
"भारत में ? "
"हाँ, भारत में , और भारत से बाहर भी । "
"कहाँ ?"
"साहित्य में नहीं ।" -उसने दो टूक जवाब दिया ।
"फ़िर कहाँ ?"
"अध्यात्म/दर्शन/धर्म/आदि में भी नहीं । विज्ञान/मनोविज्ञान/इतिहास/में भी नहीं । "
"?"
"उन दिनों मैंने जे. कृष्णमूर्ति का नाम ही सुना था, और मुझे लगा कि हमारे साथ मूलतः क्या ग़लत है । "
मैं इंतज़ार करने लगा । थोड़ी देर के मौन के बाद उसने कहा,
" conditioning of the human consciousness . मैं मानता हूँ कि कृष्णमूर्ति ने मेरे जीवन का एक बिल्कुल नया पन्ना खोला । मैं नहीं समझ पाया कि अब तक किसी ने इस बारे में क्यों कुछ नहीं कहा !"
वह फ़िर एक बार मौन हो गया ।
"हम 'कविता' के बारे में बातें करें ?" -उसने प्रस्ताव रखा । शायद वह विषयांतर करना चाह रहा था ।
"काव्य-विमर्श ?" -मैंने पूछा । शायद उसने मेरे चेहरे की मुस्कान पढ़ ली थी । वह भी मुस्कुराने से ख़ुद को रोक नहीं सका ।
"जी । "
"कहाँ से शुरू करें ? "
"मुझे लगता है कि कविता मूलतः अनुभूति और अभिव्यक्ति का जोड़ होती है । अनुभूति किसी जीव में या किसी चेतन में ही घटित होती है । जड़ या निर्जीव वस्तुएँ अनुभूति नहीं कर सकतीं । और उनके द्वारा अभिव्यक्ति किए जाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता । "
मैं सुन रहा था ।
वह मुस्कुराने लगा ।
"आपने मेरी बात मान ली ? " -उसने पूछा ।
"नहीं तो !" -मैंने उत्तर दिया ।
"वही तो, मुझे उम्मीद थी कि आप असहमत होते हुए भी धैर्यपूर्वक सुनेंगे । लेकिन मैंने अभी-अभी जो कहा, वह मेरी उस समय की समझ थी, जब मैंने कुछ लिखना आदि बस शुरू ही किया था ।
"फ़िर ?"
"अब मैं कह सकता हूँ कि जिन्हें मैं 'निर्जीव' अथवा 'जड़' वस्तुएं कहता हूँ, उनकी 'अनुभव-क्षमता' के बारे में मैं कैसे कुछ कह सकता हूँ ? मेरे पास इसका भी कोई प्रमाण नहीं है , कि उनमें अनुभूति क्षमता होती ही नहीं ! "
"क्यों ?"
"क्योंकि हमें यह भी कहाँ पता है कि सजीव और निर्जीव के विभाजन का आधार क्या हो ?"
"हम व्नुभूति की बात कर रहे थे । " मैंने दिशा बदली ।
"हाँ । अनुभूति के लिए एक 'अंतःकरण' का होना आवश्यक है । 'अन्तःकरण' के अभाव में अनुभूति कैसे संभव होगी ? "
"और 'अंतःकरण' तो किसी सजीव वस्तु में ही हो सकता है । "
"हम अंतःकरण' किसे कहेंगे ? "
"अंतःकरण अर्थात् हृदय या मस्तिष्क की वह क्षमता (faculty) , जिससे अपने आस-पास की अन्य वस्तुओं के बारे में कोई कल्पना या प्रतीति / विचार ग्रहण किया जाता है । यह शब्द-गत हो सकता है, या भावगत / अमूर्त्त हो सकता है । यह किसी स्मृति या चित्र /छवि के रूप में भी 'अंतःकरण' में 'स्थिर', जमा / दर्ज हो सकता है । तब इसे अनुभूति कहेंगे । "
" क्या बोध-क्षमता (aware-ness) और अनुभूति-क्षमता एक ही वस्तु है ? "
"ज़ाहिर है कि वे दोनों बहुत अलग-अलग चीज़ें होती हैं । अनुभूति होने के लिए बोध-क्षमता का होना आवश्यक है, बोध-क्षमता न हो तो अनुभूति होने की कोई संभावना नही बनती ।
"और "
"अनुभूति आने-जानेवाली, बदलते-रहनेवाली वस्तु होती है, जो बोध-क्षमता के होने पर बनती-मिटती रहती है । " और "
"दूसरी तरफ़ बोध-क्षमता एक स्वाभाविक वस्तु है, -मेरा मतलब है एक 'स्वतंत्र-सत्ता', जो अपने अस्तित्व के लिए किसी और पर अवलंबित नहीं होती । "
" जीवन पर भी नहीं ? "
"हाँ, लेकिन क्या जीवन और बोध-क्षमता क्या दो अलग-अलग चीज़ें होतीं है ? जहाँ जीवन है, वहाँ बोध-क्षमता अनिवार्य रूप से विद्यमान होगी, और जहाँ बोध-क्षमता है, वहाँ जीवन भी अनिवार्यत: होगा ही ।"
"क्या पेड़-पौधों को इस आधार पर जीवित कह सकते हैं ?"
"इसीलिये मैंने कहा था कि 'सजीव' और 'निर्जीव' के बीच विभाजन करने का कोई आधार हमारे पास है ही कहाँ ?"
"अच्छा, क्या इस बोध-क्षमता को जागृत किया जा सकता है ? "
"नहीं । "
"फ़िर ? "
इसका आविष्कार ज़रूर हो सकता / होता है । "
"मतलब ? "
"यह कोई आने-जानेवाली, प्रकट या विलुप्त होनेवाली चीज़ तो नहीं है ! लेकिन यह 'है' भर । हाँ यदि कोई गंभीर और इसके प्रति उत्कंठित हो, तो इसकी स्वाभाविक पूर्व-अवस्थिति (pre-existence) के प्रति ज़रूर 'जाग' सकता है ।"
" 'कोई' -मतलब ? "
"कोई 'मन', कोई अंतःकरण, कोई चेतना, ... ! "
"और 'विचार' ? "
" 'विचार', -जैसा कि मैंने कहा, अनुभूति है । 'विचार' को भी दो दृष्टियों से समझा जा सकता है । एक तो वह जिसे अभिव्यक्ति या भाषागत शब्द-विन्यास के रूप में प्रयुक्त किया जाता है , वह किसी तात्पर्य को इंगित तो करता है, लेकिन 'बोध-क्षमता' नहीं होता । दूसरी ओर, बोध-क्षमता के प्रकाश में देखे गए 'सत्य' को प्रकट करने के लिए भी एक शब्द-विन्यास इस्तेमाल किया जा सकता है, और यह अलग बात है कि वह सफलतापूर्वक 'सत्य' को संप्रेषित कर पाटा है या नहीं, क्योंकि संप्रेषण की सफलता कई बातों पर निर्भर होती है । इसलिये यह भी स्पष्ट ही है कि ऐसे किसी 'विचार' को सार्थक होने हेतु सबसे ज़रूरी चीज़ होती है, -संप्रेषनीयता । "
"लेकिन संप्रेषनीयता तो अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने और किसी दूसरे मनुष्य की अभिव्यक्ति को यथावत ग्रहण कर सकने के लिए भी उतनी ही ज़रूरी होती है । "
"हाँ, होती तो है, लेकिन इसे मैं एक उदाहरण से समझाना चाहूँगा । क्या आपको कभी मेरी याद आती है ? "
"हाँ, कभी-कभी आती है । "
"कभी-कभी क्यों ? "
"जैसे अन्य लोगों की, घटनाओं की, वस्तुओं , स्थितियों, आदि की याद कभी-कभी आती है, उस तरह से । "
"अच्छा, आप मेरे बारे में सोचते हैं ? "
"हाँ, ज़रूर सोचता हूँ । " -कहकर मैं मुस्कुराने लगा था ।
"ग़लत ! आप मेरे बारे में कभी कुछ नहीं सोचते, और न सोच ही सकते हैं, और सच तो यह भी है की मैं भी आपके बारे में कुछ भी नहीं सोचता । "
मैं मौन था, वह भी मौन हो गया था ।
"आगे कहो ! " -मैंने ही मौन तोड़ा ।
"पहले बतलाइये कि मेरे वक्तव्य से आप सहमत हैं या असहमत ?"
"सहमत हूँ । "
"ठीक है, अर्थात् आप 'मेरे' बारे में नहीं, बल्कि मेरे विषय में जो जानकारी, कल्पनाएँ, आदि आपके पास हैं, और उनके आधार पर आपने मेरी जो प्रतिमा अपने मन में बना रखी है, उस प्रतिमा के बारे में सोचते हैं, -न कि जो मैं वास्तव में हूँ, उस बारे में ! और इसी प्रकार हम सभी एक दूसरे की स्मृतियों, कल्पनाओं आदि से बनी एक-दूसरे की प्रतिमा के बारे में अनुमान लगाते हैं, उन प्रतिमाओं को निरंतर बदलते, संशोधित करते रहते हैं । "
"ठीक है । संप्रेषनीयता के बारे में क्या कहोगे ? " -मैंने प्रश्न किया ।
" तात्पर्य यह हुआ कि किन्हीं भी दो मनुष्यों की अनुभूतियों , विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, आदि से उनके द्वारा निर्मित की जानेवाली जगत्-प्रतिमाएँ परस्पर बिल्कुल भिन्न होती हैं । "
" ठीक है । "
" अतः अनुभूति की अभिव्यक्ति जिस शैली, विन्यास, माध्यम आदि से की जा रही है, और उसे जिस शैली, विन्यास और माध्यम में ग्रहण किया जा रहा है, यदि उनमें समरूपता नहीं है तो संप्रेषनीयता बाधित होगी । "
अब कविता के बारे में बातें करने हेतु आधार-भूमि तैयार हो चुकी थी ।
"कविता, -जैसा कि मैंने शुरू में कहा था, अनुभूति और अभिव्यक्ति का जोड़ होती है । "
" क्या कविता के लिए कोई श्रोता या पाठक हो, यह ज़रूरी होता है ? "
"मुझे लगता है , वैसे तो कविता अपने-आप में ही एक अद्भुत 'सृष्टि' होती है, -जैसे बहुत बड़े सरोवर में खिला अकेला कमल, लेकिन यदि प्रशंसक उस के सौन्दर्य को अनुभव कर सकता है, परख सकता है, तो उस कमल-पुष्प से उसका 'संवाद' स्थापित हो जाता है ।"
"शायद इसे ही तुम संप्रेषनीयता कहोगे ?"
"जी । "
"अब हम कथ्य पर आएं । "
"कविता में कथ्य तो होता ही है, कथा न हो तो भी चलेगा । कथ्य तो अपरिहार्यतः होता ही है । उसके अभाव में तथ्य अनुभूति तक सिमटकर रह जाएगा, वह संवाद तक न पहुँच सकेगा । "
"और कथ्य ? "
"हाँ, कथ्य के ही बारे में कहने जा रहा हूँ । कथ्य ही अभिव्यक्ति की शैली, विन्यास, माध्यम आदि तय करेगा । "
"जैसे ? "
"जैसे अपनी अनुभूति को मैंने मान लीजिये कि एक कविता के रूप में प्रस्तुत किया, तो मेरी अनुभूति की विशेषताओं के अनुसार वह गहन, उथली, स्तरीय, या अधकचरी बन जायेगी । इसलिए जैसा मैंने कहा, कविता तो अपने-आप में एक अद्भुत सृष्टि होती है । और कोई वस्तु कभी 'अकेली' ही अद्भुत कैसे हो सकती है ? उसे अद्भुत समझने-कहनेवाला कोई होगा तभी तो वह अद्भुत होगी ! "
"इसे दूसरे ढंग से समझाओ । "
" एक पेंटिंग का उदाहरण लें । चित्रकार अपने द्वारा तय किए गए प्रतिमानों, आदि से पेंटिंग का विशिष्ट भाव और प्रभाव सुनिश्चित करता है । एक रेखा या बिन्दु का विन्यास, रंग का शेड, माध्यम, जल-तैल, या अन्य कोई, एक्रिलिक या ऑइल, आदि यह तय करता है कि वह पेंटिंग में जो कुछ अभिव्यक्त करना चाह रहा था वह किस हद तक वैसा हो पाया है । यहाँ तक कि कैनवस का आकार भी महत्वपूर्ण होता है । किस समय और किस प्रकाश में उसे देखा जाए, इसका भी फर्क पड़ता है । लेकिन यदि 'सम्प्रेषनीयता' नहीं है, या दर्शक नहीं है, तो वह पेंटिंग चित्रकार की नज़रों में भले ही बहुत अद्भुत हो, 'अद्भुत' प्रमाणित नहीं होती । "
" लेकिन फ़िर भी शायद वह 'स्वान्तः-सुखाय' तो हो ही सकती है । "
"हाँ, कवि या कलाकार अपनी सृष्टि को अपनी कल्पना की सर्वोत्तम प्रस्तुति के रूप में देखकर एक गहन आत्म-संतुष्टि ज़रूर अनुभव करता होगा । "
अभी हमें इस बारे में बहुत सी बातें करनी थीं । मसलन, समयगत और समय से अछूती कविता, कविता और बौद्धिकता, कविता और आदर्शवाद, कविता और यथार्थवाद, कविता और प्रतिबद्धता, ... आदि-आदि । लेकिन मैं यह ज़रूर सोचने लगा था कि जे . कृष्णमूर्ति पर बात करते-करते वह मुझे यहाँ क्यों ले आया था !
************************************************************************************






No comments:

Post a Comment