May 24, 2009

उन दिनों / 22

उन दिनों - 22
आज लंच के बाद हम अपने-अपने में, -व्यक्तिगत कार्यों में व्यस्त थे । बाई के न आने से भोजन रवि ने बनाया था, अविज्नान ने सहयोग ज़रूर दिया था । खाने के बाद अविज्नान ने ही लंच का टेबल साफ़ किया था खाना 'सर्व' भी उसी ने किया था , सर ने और मैंने पहले खाना खाया था, फ़िर उन दोनों ने । इस बारे में सारी 'प्लानिंग' उन दोनों ने कर रखी थी । कभी-कभी ऐसा भी होता है । खाने के बाद हम तो आराम करते रहे, उन दोनों ने किचन साफ़ किया, बर्तन धोये, और फ़िर दोनों चुप ड्राइंग-रूम में बैठे रहे।
शाम साढ़े चार बजे चाय तैयार थी ।
आज मैं सोच रहा था की अविज्नान के उस दिन के क्रम को आगे बढ़ाया जाए ।
चर्चा की शुरुआत मैंने ही की थी ।
"अविज्नान कहता है कि जीवन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, -'आत्म-ज्ञान' । उससे बढ़कर महत्वपूर्ण और कुछ नहीं हो सकता । "-क्यों अविज्नान ? " -मैंने उसकी ओर देखकर अपने वाक्य की पुष्टि चाही ।
"हाँ, " -वह सकुचाकर बोला ।
"दर-असल इस शब्द के इर्द-गिर्द इतना कुहासा है कि मैं किसी से भी बातचीत करते समय कभी-कभी ही, और बिरले ही इस शब्द का इस्तेमाल करता हूँ ।" -वह आगे बोला ।
"क्यों ? "
"देखिये इसे इस्तेमाल करने भर से, यह सचमुच क्या चीज़ है, इसका कोई आभास, या अनुमान तक हमें हो पाता है ? "
"मतलब ? "
"मतलब यही कि जब हम आत्मा परमात्मा, मुक्ति, आदि शब्दों का धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं, तो हम उनके बारे में अपनी 'कल्पनाओं' के ही बारे में कुछ इस तसल्ली के साथ बोलते हैं, जैसे हमने उन्हें सचमुच 'अनुभव' किया हो । वे सिर्फ़ सुनी सुनाई बातें होतीं हैं, जैसे साधारण बातचीत में हम अपनी परिचित कुछ चीज़ों के बारे में बोलते हैं, उदाहरण के लिए जब हम भौतिक चीज़ों के बारे में, स्थानों और लोगों के बारे में बोलते हैं, राजनीतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, आर्थिक, आदि 'गतिविधियों' के बारे में बोलते हैं, तब उस भौतिक 'वस्तु' अथवा 'गतिविधि' के बारे में हमें उसके 'मूर्त्त' या 'अमूर्त्त'-रूप में सुनिश्चित पता होता है । सारा 'विज्ञान' इसी का विकास है । विज्ञान, गणित, मेडिकल-साइंस, आदि । ऐसा ही व्यक्तियों के संबंध में भी सच है । जैसे मैं 'सर' के बारे में 'कुछ' ऐसा जानता हूँ जिसका मुझे अनुभव भी है, और जिसकी पुष्टि भी लगातार, अनायास होती रहती है । क्या हम आत्मा या परमात्मा, भगवान आदि के बारे में ऐसा कुछ सचमुच जानते हैं ? यदि नहीं जानते तो उन शब्दों को इस्तेमाल करने से यही होता है कि हमें 'वहम' हो जाता है कि हमने उन्हें 'अनुभव' किया है । फ़िर भी उनके बारे में हमारा 'अनिश्चय' भीतर ही भीतर कुलबुलाता रहता है । क्या यह 'अनिश्चय' मूलत: हमारे उनसे 'अपरिचय' का ही द्योतक नहीं होता ? इसी प्रकार, लोगों की आकृति, कद, स्वभाव रंग-रूप आदि से हम उनकी एक 'इमेज' बना लेते हैं, और सोचने लगते हैं कि हम उन्हें 'जानते' हैं । और इसी प्रकार हर व्यक्ति अन्य वस्तुओं, जीवों, आदि की एक 'इमेज' अपने मस्तिष्क में बना रखता है , और इसे वह 'परिचय' या 'पहचान' कहता है । क्या हम 'आत्मा' या 'परमात्मा' के बारे में ऐसा कुछ 'जानते' हैं, जिससे उनकी कोई 'पहचान' अपने मस्तिष्क में बनती हो ? ज़ाहिर है इसलिए आत्मा या परमात्मा की सारी बातें 'संदेह' के दायरे में होती हैं । फ़िर उन शब्दों का इस्तेमाल फायदे की जगह नुक्सान ही ज़्यादा करता है , क्योंकि तब हम 'वहम' में ही जीते रहने के आदी हो जाते हैं । हमें पता ही नहीं होता कि जिस बारे में हम इत्मीनान से, या उग्रतापूर्वक, आवेश के साथ, आग्रहपूर्वक बोल रहे हैं, वह हमारे ख्यालों के अलावा कहीं है ही नहीं । इसलिए मैं इसे दूसरे ढंग से कहना चाहता हूँ । जब मैं स्वयं अपने बारे में विचार करता हूँ, कि मैं क्या हूँ ?, -या मैं फलाँ-फलाँ हूँ, यह मेरा समाज है, ये मेरे नाते-रिश्ते हैं, मेरा राष्ट्र-भाषा आदि हैं, तो इसे क्या कहा जाए ? " - कहकर वह चुप हो गया ।
हम सभी चुप थे । दो मिनट तक सन्नाटा छाया रहा । बाहर सूरज की रौशनी धीमी पड़ने लगी थी । सूर्यास्त होने जा रहा था । मेरे घर की पूर्वाभिमुखता के कारण धूप बस सामने डी आर पी लाइन के उस पुराने खँडहर हो रहे बंगले पर ही थी, जो इस कमरे की खिड़की से दिखाई देता है ।
"मैं अपने-आप को जानता हूँ , ऐसा हम समझते हैं । लेकिन जैसे हम दूसरी हज़ार चीज़ों को जानते हैं, क्या उसी तरह से ? शायद हाँ । हम 'अपने' बारे में 'अपनी' एक 'इमेज' बना लेते हैं, जिसे हम ज़रूर जानते भी हैं । फ़िर हम कभी-कभी सोचते हैं, मुझे 'बदलना' होगा, मुझे ज़्यादा होशियार होना चाहिए, मुझे 'भला' या चालाक होना चाहिए, मुझे धनवान होना चाहिए, मुझे आगे बढ़ना है, मैं कमज़ोर हूँ, मुझे ताकतवर होना होगा । सवाल यह है, कि यह मैं अपने बारे में जानता हूँ, या 'मेरे' बारे में 'मस्तिष्क' ने जानकारियों के आधार पर जो एक प्रतिमा मेरी बना रखी है, उस प्रतिमा के बारे में जानता हूँ ? यह 'जानना' क्या है ? क्या जानकारी होना, सूचना होना ही 'जानना' /ज्ञान है ? यदि मेरे मस्तिष्क में 'अपने' बारे में कोई सूचना न हो, तो क्या मैं 'अपने' को नहीं जानता ? क्या वैसा 'जानना' बाहर से सीखा जाता है ? मुझे भूख लगती है, प्यास लगती है, इन्हें भी तो मैं जानता हूँ । हो सकता है कि मुझे भाषा न आती हो, क्या भाषा न आने से मेरा 'जानना' बाधित हो जाता है ? तो क्या मैं बिना 'अपनी' 'प्रतिमा' का सहारा लिए भी अपने को नहीं जानता ? क्या मेरा वह जानना वैसा ही जानना है, जैसे मैं दूसरी हजारों बातें, चीज़ें आदि जानता हूँ ? "
किसी ने इस पर कोई प्रतिक्रया नहीं दी । एक जर्मन / यूरोपीय व्यक्ति की इतनी साफ़-सुथरी हिन्दी सुनना भी अपने-आपमें ही वैसे भी एक अद्भुत अनुभव था, फ़िर वह जितनी सरलता से अपनी बात रखता था उसका वह तरीका भी कम दिलचस्प नहीं होता था ।
"पहले तो हमें 'जानने' का ठीक-ठीक अर्थ हमारी दृष्टि में क्या है, हमें इस पर ध्यान देना होगा । 'जानने' को हम सिर्फ़ 'जानकारी'-मात्र समझते हैं । -'सूचनाओं' का संग्रह कर लेना ही हमें 'जानना' प्रतीत होता है । यदि वैसा ही हो, तो एक मनुष्य तथा एक कम्प्युटर में क्या फर्क रह जाता है ? " -कहकर वह कुछ क्षणों तक चुप हो रहा ।
हम सब बस सुन रहे थे ।
"बेहतर हो कि हम इस चर्चा में सक्रीय भागीदारी करें । " -उसने अनुरोध किया । हम सभी राजी थे । राजी ही नहीं, बल्कि उसके अनुरोध से पहले ही से कर भी रहे थे क्योंकि हममें से किसी में उसकी बात के प्रति कोई प्रतिरोध या विरोध तक नही था । हममें कोई पूर्वाग्रह नहीथे । लेकिन उसमें ही थोडा संकोच था । निश्चित ही कहने के लिए उसके पास कुछ दुर्लभ वस्तु थी । हम उसके संकेत समझ रहे थे , हम खुले हृदय से उस चर्चा में शामिल थे, लेकिन वह इस बारे में आश्वस्त होना चाहता था ।
"जानना और जानना, " -उसने कहा -
"केवल जानना और 'कुछ' जानना, क्या इन दोनों में कोई फर्क नहीं होता ?"
वह पुन: कुछ पलों के लिए खामोश हो गया ।
"देखिये हम सामान्यत: इस 'जानना' शब्द का इस्तेमाल भी बहुत लापरवाही से करते हैं, और इसलिए यह तक ख़याल नहीं आता कि इसका वास्तविक मतलब तलाश लें । हम समझते हैं कि 'जानना', सूचनाओं को इकट्ठा करना ही ज्ञान है । हम समझ बैठते हैं कि 'भगवान' या 'आत्मा'-'परमात्मा' आदि का ज्ञान भी हम किताबों से पढ़कर 'प्राप्त' कर लेंगे । और हमें अपनी इस बुनियादी भूल का पता शायद ही कभी चल पाता है । "
"एक तो जानकारी होती है, अर्थात् 'सूचना', 'information' , जो कि मेरे द्वारा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से ग्रहण किए गए तथ्यों का जोड़ होता है, -और वह भी 'तथ्यों' का नहीं, बल्कि उनकी जो 'प्रतिमा' मेरा मन बनाता है, उन प्रतिमाओं का जोड़-भरहोता है । इसे थोडा और भी सावधानी से समझें । उदाहरण के लिए हम देख रहे हैं कि सूर्यास्त हो रहा है शाम की रौशनी कुछ ही मिनटों में विलीन हो जायेगी । यह सूर्यास्त, सुबह होना, शाम होना एक तथ्य है । यह 'घटना' और घटनाओं की समष्टि भी है । लेकिन इसे अपने इन्द्रिय-ज्ञान के माध्यम से हम जानते हैं, -हमें 'पता' चलता है । क्या यह 'पता' चलना 'सूचना' या 'जानकारी' होता है ?"
हमारा मौन रहकर ध्यानमग्न होकर उसे सुनना ही उस चर्चा में हमारा सहयोग था । यदि उसके प्रश्नों पर कब उत्तर देना है, और कब चुप रहकर 'जिज्ञासा' का प्रदर्शन करना है, यह हमें न पता होता तो शायद वह बोलना ही बंद कर देता ।
"यह नि:शब्द ज्ञान क्या एक स्वाभाविक स्थिति नहीं है ? वहाँ 'तथ्य' है, लेकिन तथ्य का शब्दीकरण नहीं है । क्या तथ्य में शब्द है ? यह ज़ाहिर सी बात है कि 'तथ्य' और तथ्य को इन्द्रियों से जानना, दोनों ही नि:शब्द यथार्थ हैं । इसके बाद यदि हम नि:शब्द ही रहते हैं, तो एक असाधारण गतिविधि का पता चलता है, -शायद इसे मैं 'ध्यान' कह सकता हूँ, और यह 'ध्यान' 'किया' नहीं जा सकता । इसे तो 'खोजना' होता है । यह अत्यन्त स्वाभाविक होता है, -इतना स्वाभाविक, कि अगर मस्तिष्क या स्मृति हस्तक्षेप न करे, तो इसे अनायास देखा, महसूस किया जाता है । यह कोई रोमांच या उत्तेजना नहीं है, यह सुख, दु:ख, या उद्विग्नता नहीं है, विस्मरण या नशा नहीं है, मूर्च्छा या उन्माद नहीं है, -यह बस 'है' । है भर । और इसे जानना भी, बस 'है' भर ! 'जानना' ही 'है' है, और 'है' ही है जानना । क्या इसे हम ध्यान कह सकते हैं ? "
हम सब प्रशंसा भरी नज़रों से, मुग्ध-भाव से उसे देख रहे थे । ज़रूरी नहीं कि हमारी नज़रें उसके चेहरे पर ही रही हों, हालाँकि बीच-बीच में उससे हमारी नज़रें मिल भी जातीं थी, लेकिन हम 'सुन' अधिक रहे थे । यह 'सुनना' भी तो 'ध्यान' ही था । चित्त एक सहज-स्वाभाविक नि:शब्दता में उतर आया था , जहाँ से 'विचार' अपने सारे लाव-लश्कर सहित 'विदा' हो चुका था । अविज्नान का मौन हम सबको संक्रमित कर चुका था । लेकिन, क्या यह 'मौन' उसका व्यक्तिगत 'मौन' था ? क्या वह 'मौन' से पृथक् था, और क्या हम लोग, उस 'मौन' से पृथक्, 'विशेष'-कोई व्यक्ति रह गए थे ? लेकिन यह सब उस समय नहीं सोचा जा रहा था, -यह सब तो अब लिख रहा हूँ । अब शब्द दे रहा हूँ ।
"तो इस 'जाननेके बाद एक 'जानना' और भी होता है, जहाँ 'काल' और 'स्थान' है, इस शुद्ध जानने में क्या 'काल' व स्थान कहीं हैं ? क्या 'काल-स्थान' का इस नि:शब्द 'जानने' से कोई लेना-देना है ? 'जानना एक बिल्कुल स्वाभाविक चीज़ है, जबकि 'अनुभव' एक 'तथ्य', जो 'जानने' के ही अर्न्तगत होता है , 'जानने' पर ही अवलंबित भी होता है, न कि उससे स्वतंत्र । लेकिन 'अनुभव' ही बाद में 'निष्कर्ष' बन जाता है । तथाकथित 'वैज्ञानिक' या 'अवैज्ञानिक' रूप ले लेता है । लेकिन क्या अनुभव स्वयं भी , 'जानने' की ही एक गतिविधि नहीं होता ? 'निष्कर्ष' के जन्म के साथ अनुभवों में 'क्रम' और भेद/भिन्नता तय होने लगती है , -वे सुखद, दु:खद, कटु, मधुर, तिक्त, क्षोभकारी, भयावने, या आशा-भरे, होने लगते हैं । क्या इन 'अनुभवों' में, जो कि 'जानने'-मात्र के ही अलग-अलग प्रकार भर हैं, सचमुच कोई अनुभवकर्ता कहीं होता भी है ? क्या यह 'अनुभवकर्त्ता' भी इस 'निष्कर्ष' के बाद का ही एक और अनुमान-मात्र ही नहीं होता ? क्या कहेंगे आप ?"
वह प्रश्न कर रहा था लेकिन हममें से कोई भी अक्षरशः कुछ भी नहीं सोच रहा था । और उसके प्रश्न में किसी उत्तर की कोई अपेक्षा कदापि नहीं थी । यह वाकई 'मौन'-संवाद था । और यदि हम भूले से भी कोई उत्तर दे देते तो वह अद्भुत मौन-संवाद वहीं रुक जाता ।
"हम इसे और विस्तार दें । इस 'जानने' में काल-स्थान रूपी, या किसी अन्य प्रकार का, जड़-चेतन आदि का, या 'मैं'-तुम'-वह' रूपी कोई विभाजन कहीं नहीं पाया जाता । यह बस 'है'-भर । और 'जानना' ही है, -'है', तथा 'है' ही है -जानना । वे एक ही सत्य के दो पहलू हैं । -हमारी भाषा की सुविधा के लिए । लेकिन 'दो पहलू' कहते ही 'विभाजन' अनचाहे ही बीच में आ टपकता है । है न ?"
अतएव 'जानना' और 'जानना' दो बिल्कुल अलग चीज़ें होती हैं, लेकिन हमारी लापरवाही से हमने दोनों को आपस में गड्ड-मड्ड हो जाने दिया है । इसके बाद आता है, निष्कर्ष और अनुमान । अनुभवों के संग्रह की 'फाइल' बना ली जाती है, उस 'फाइल' का नामकरण कर दिया जाता है । अनुभवों को सुखद, दु:खद, अच्छा, बुरा, गहरा, उथला, उत्तेजक, रोमांचक, रोचक आदि शब्द देकर 'जानकारी' का रूप दे दिया जाता है । यह होता है अनुभवों का कब्रिस्तान जहाँ हर कब्र पर एक 'पत्थर' (tomb-stone) होता है । 'विचार' हर अनुभव पर जाकर फूल चढाता है, 'अकीदत' पेश करता है, और 'अनुभवी' व्यक्ति को हम बहुत सम्मान देने लगते हैं । "
अविज्नान की भाषा में थोडा साहित्यिक 'पुट' आ गया था । इससे वातावरण और भी उत्फुल्ल हो उठा । उस मौन में आनंद की लहर तैर गयी थी ।
"शुरुआत यहीं से होती है , इसे देख लेना शायद उतना मुश्किल नहीं है जितना कि सत्य या धर्म के ठेकेदारों ने इसे बना रखा है । और यह बहुत आसान है, ऐसा कहना भी शायद ग़लत होगा । यह आसान है, या मुश्किल, इस बारे में अपना-अपना सोच हो सकता है , लेकिन इसमें संदेह नहीं कि यही 'आत्म-ज्ञान' है । "
चर्चा, जो अविज्नान के भाषण (?) में सिमट आई थी, उस दिन वहीं समाप्त हो गयी थी ।
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