May 22, 2009

उन दिनों / 21

उन दिनों - 21 .
अगले दिन वह कुछ हलके मूड में था । कुछ बोलने की स्थिति में आ चुका था, जबकि दूसरी ओर मैं कुछ-कुछ मौन मन:स्थिति में जा रहा था ।
"आपसे पुरी के सागर-तट की मुलाक़ात के बाद मैं भारत में अनेक स्थानों पर घूमता रहा । उसी दौरान उज्जैन भी जा पहुँचा था, उज्जैन से इंदौर भी जाना हुआ था , क्योंकि मुझे ओंकारेश्वर जाना था । उज्जैन से इंदौर जाते समय, शिप्रा नदी पर एक पुल बना है, जहाँ कोई दूसरी नदी उससे मिलती है । इस दौरान मैं उस पुल पर से गुज़रा, जहाँ संगम पर 'नवग्रह-मन्दिर' है, तो मुझे अचानक नवलक-तंत्र की याद आ गयी । आपके अलावा किसी और ने भी मुझे उस पुल के बारे में बतलाया था । "
"मैंने ?"
"नहीं, शायद किसी दूसरे ने ही कहा होगा, " - वह बोला ।
"लेकिन जब उस पुल पर से मैं गुजरा, तो एक अद्भुत दृश्य देखा । उस पुल पर से मैंने देखा कि एक और बहुत नीचा पुल भी थोड़ी दूरी पर उसी नदी पर बाईं दिशा में भी है, और मेरी दायीं ओर जिस पुल से मैं गुज़र रहा था, उससे लगी हुई सीढियाँ नीचे जिस रास्ते पर पहुँच रहीं थीं, वह पुल के समानान्तर जाकर 'संगम' तक जाता था जहाँ नवग्रह-मन्दिर है । उन सीढियों से उतरते हुए मुझे याद आ रहा था कि जब आपसे मैंने पुरी के समुद्र-तट पर 'सेतु-सोपान-सूत्र' की चर्चा की थी, तो आपने मुझे यह नहीं बतलाया कि ऐसी ही संरचना उज्जैन में है ! तब मैंने आपसे इतना ही कहा था कि आपसे मेरी एक मुलाक़ात और होनी है । जिस व्यक्ति ने आपसे मेरी पहली उस सागर-तट वाली मुलाक़ात के स्थान और समय की अचूक भविष्यवाणी की थी, उसने ही मुझे यह भी बतलाया था । मैंने सोचा भी था कि उज्जैन में आपका पता लगाऊँ, किसी से पूछा भी था, पर तब मेरी आपसे मुलाक़ात न हो पाना भी शायद तय ही था, क्योंकि आपसे पुरी-तट पर होनेवाली मुलाक़ात की भविष्यवाणी करनेवाले ने ही मुझसे यह भी कहा था कि आपसे मेरी एक मुलाक़ात किसी पहाडी तीर्थ-स्थल पर होगी, जहाँ मेरा 'कार्मिक-बैलेंस' शून्य हो जाएगा । यह सब मुझे नवग्रह-मन्दिर के परिसर में तथा शिप्रा-तट की ओर जाते हुए भी याद आया था । 'तब तक तुम भटकते रहोगे।' - मेरे चित्त की अशांत स्थिति को इंगित करते हुए, उसने यह भी बतलाया था ।"
उस पुल से गुज़रते समय मुझे अपना पूर्व-जन्म याद हो आया था । नवग्रह-मन्दिर में एक बड़ा सा वटवृक्ष है, जिसके चारों ओर गोल चबूतरा बना दिया गया है । उस चबूतरे पर बैठकर ध्यान करते समय मुझे सब स्पष्ट हो सका । "
"लेकिन तुम तो कहते हो कि तुम्हें अपने कई पूर्व-जन्मों के बारे में काफी-कुछ स्मरण है ?"
"हाँ, लेकिन उस पुल से गुज़रते हुए, और उस बरगद के वृक्ष के तले बैठकर ध्यान करते समय जो 'स्मरण' मेरे मन में कार्यशील था, वह मेरा बिल्कुल आख़िरी जन्म था, -इस 'अविज्नान' का अन्तिम जन्म था । बरगद तले बैठने पर मेरा मन धीरे-धीरे शांत होने लगा । करीब घंटे भर तक बैठा रहा था । फ़िर मुझे ख़याल आया कि वह वृक्ष 'बोधिवृक्ष' ही था । उसके तले पहले भी कई लोगों को आत्म-ज्ञान हो चुका था, और आगे भी होता रहेगा । "
"लेकिन बोधि-वृक्ष तो 'बोध'गया में ही है !" -मैंने शंका ज़ाहिर की ।
"हाँ , जैसे गंगा सिर्फ़ उत्तर भारत में है, लेकिन दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी है । "
मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था ।
"अच्छा !" -मैंने प्रकटतः कहा ।
"और 'आत्म-ज्ञान' ?" -मैंने पूछा ।
"आत्म-ज्ञान याने यह कि ये सारे जन्म 'मन' के होते हैं, न कि आत्मा के । 'आत्मा' याने 'आत्म-तत्त्व' का न जन्म है, न मृत्यु है, और न पुनर्जन्म है । "
"और 'मन' ?"
"मन सिर्फ़ एक चक्रवात है, जिस पर आत्मा का प्रकाश पड़ता है, और वह 'अपने-आपको' एक स्वतंत्र जीव मान लेता है । उसका कोई केन्द्र तो नहीं होता, लेकिन केन्द्र 'परिभाषित' कर लिया जाता है । चक्रवात की वायु उस 'केन्द्र' के इर्द-गिर्द तेजी से घूमती है, तो चक्रवात को मानो एक 'आभासी' केन्द्र मिल जाता है । लेकिन यह प्रश्न क्या चक्रवात कर रहा है ? " -उसने गंभीरता से पूछा ।
"एक चेतन-सत्ता ही प्रश्न पूछ सकती है । आत्मा के लिए द्वैत नहीं है, और प्रश्न भी नहीं हैं । देह प्रश्न नहीं पूछ सकती । देह का स्वामी अर्थात 'मन', जड़ है या चेतन ?"
मेरे पास उत्तर नहीं था ।
"मेरे पास भी इसका उत्तर नहीं है । एक आभासी सत्ता पर यह प्रश्न लागू ही नहीं होता । " -वह बोला । "फ़िर आत्म-ज्ञान याने ? क्या आत्म-ज्ञान एक नई उपलब्धि नहीं है ?"
"नहीं, आत्म-विस्मरण और आत्म-स्मरण को ही नई उपलब्धि कह सकते हैं । "
" फ़िर पुनः आत्म-विस्मरण नहीं होगा इसकी क्या सुनिश्चितता है ?"
क्योंकि सुनिश्चितता खोजनेवाला वह आभासी अस्तित्त्व ही ढह जाता है, 'असत्य' हो जाता है । -वह शांतिपूर्वक बोला ।
और फ़िर आगे बोला;
"वैसे इसे सिर्फ़ बुद्धि से नहीं समझा-समझाया जाता । "
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