May 09, 2009

उन दिनों / 20.

इन सीढ़ियों का ज़िक्र करते हुए मुझे अविज्नान से अपनी वह मुलाक़ात भी ज़रूर याद आ जाती है, जो बिल्कुल ही अनपेक्षित ढंग से हुई थी ।
बहुत दिनों बाद कहीं यात्रा करने के लिए पाँव कुलबुला रहे थे । कहाँ ? इस बार अरविन्द-आश्रम (पॉण्डिचेरी) जाया जाए, -मन ने कहा । अरविन्द-आश्रम जाने का विचार मुझे पहले कभी नहीं सूझा था । श्री रमण-आश्रम तो तीन बार जा चुका हूँ, और वहाँ जाते हुए श्री अरविन्द-आश्रम जाने का ख़याल तो आना स्वाभाविक भी है, लेकिन न जाने क्यों इससे पहले कभी ऐसा ख़याल क्यों नहीं आया ! ठीक है, इस बार श्री अरविन्द -आश्रम । दक्षिण । मद्रास (अब चेन्नई) होकर जाना होगा । पिछली बार की तरह मद्रास का रिजर्वेशन कराया था । अहिल्यानगरी सुपर-फास्ट आजकल बुधवार को चलती है । तीसरे दिन, याने शुक्रवार की सुबह/दोपहर तक चेन्नई । चेन्नई से पॉण्डिचेरी । वहाँ मैं रहना तो हफ्ते भर चाहता था, लेकिन श्री रमण-आश्रम जाने की अदम्य इच्छा ने मजबूर कर दिया, और तीसरे ही दिन सुबह ट्रेन से तिरुवण्णामलै के लिए चल पड़ा । जनवरी-फरवरी में वहाँ रहने के लिए स्थान जरूर मिल जाता है ।
दोपहर ग्यारह बजे भोजन के बाद विश्राम किया और कुछ पढता रहा । फ़िर बाहर जाने के कपड़े पहने, और रवि के रूम पर गया । हिन्दीभाषी होने के कारण उससे पहचान हो गयी थी । वह भी हिन्दीभाषी था, इसलिए भी हमारी कंपनी बन गयी, दोस्ती सी हो गयी थी ।
पहली बार (१९८५) में जब मैं श्री रमण आश्रम गया था, तो आश्रम के सामने की भूमि खाली पड़ी थी । दिन-रात सन्नाटा रहता था । लेकिन इस बार वहाँ अनेक छोटी-बड़ी दुकानें थीं ।
रवि के रूम पर अकस्मात् ही उससे मुलाक़ात हो गयी । मैं तो उसे देखते ही पहचान गया था ।
"मुझे मालूम था कि आपसे पुनः मिलना होगा । " -वह बोल पड़ा ।
"हाँ भाई, संयोग ही तो है । " -मैंने कहा ।
"आप इसे संयोग कहें, लेकिन मैं इसे 'नियति' कहता हूँ । " - वह निश्चिन्ततापूर्वक बोला ।
"आप दोनों एक-दूसरे से परिचित हैं ?" -रवि को आश्चर्य हुआ ।
"संयोगवश," -मेरे मुँह से निकला ।
अविज्नान चुपचाप मुस्कुराता रहा ।
फ़िर हम कॉफी पीने चले गए । थोड़ी देर तक इधर-उधर (आश्रम में तथा बाहर भी ) घूमते रहे, ऑटो में बाज़ार तथा श्री अरुणाचलेश्वर मन्दिर गए, और रात्रि के भोजन के समय तक लौट आए ।
भोजन के बाद रवि अपने रूम पर चला गया, और मैं अविज्नान के साथ मेरे कमरे पर आ गया ।
"बैठो !" - मैंने उससे कहा । इस सिंगल-रूम में एक ही पलंग, एक टेबल-कुर्सी, और एक डस्ट-बिन भर है । खिड़की से अरुणाचल पर्वत दिखलाई देता है, और दीवार पर श्री रमण महर्षि (जिन्हें 'भगवान्' कहा जाता है,) की बड़े साइज़ की लगभग एक फुट बाय डेढ़ फुट की फोटो टँगी है । कमरे में सामने एक छोटी खिड़की और एक ही दरवाजा है । दूसरी तरफ़ की खिड़की से पर्वत-शिखर दिखलाई देता है ।
"हाँ," कहकर वह उस एकमात्र कुर्सी पर बैठ गया ।
"कहाँ-कहाँ घूम आए हमारे भारतवर्ष में ? " - मैंने अपने देश के प्रति गौरव अनुभव करते हुए कुछ नाटकीय ढंग से कहा ।
"वैसे तो जितना घूमना था घूम लिया, मुख्य जगह जो रह गयी थी वहाँ तो अंततः समय पर आ ही गया न ?" "और शादी वगैरह ? "
नहीं, अभी तो इस झंझट से दूर हूँ । "
"अच्छा ?" इन विदेशियों की माया यही जानें, मैं सोच रहा था ।
हम दोनों काफी देर तक चुपचाप बैठे रहे । फ़िर वह बोला, -"मैं बस आता हूँ थोड़ी देर में " । उसने जेब में रखे सिगरेट के पैकेट को हाथ से ठकठकाते हुए इशारा किया, और गायब हो गया ।
करीब आधे घंटे के बाद वह सचमुच लौटा तो मुझे आश्चर्य हुआ, भरोसा नहीं था की अब इतनी रात गए, (ग्यारह बजे) वह लौटेगा भी । मैं शायद सो गया था या तंद्रा जैसी कच्ची नींद में था, कमरे का दरवाजा भी खुला ही था । आते ही वह बोला, : "मैं चुपचाप यहाँ कुर्सी पर बैठा हूँ, आप चाहें तो आराम से सो सकते हैं । "
"कब तक ?' -मैंने थोड़ा हँसते हुए पूछा ।
"जब तक अपने आप जाग न जाएँ । "
" मैं तो सुबह तक सोता रहूँगा । " -मैंने असमंजस दिखलाते हुए कहा ।
" ठीक है, यदि मुझे जाना होगा तो आपको जगह दूंगा । "
मैंने कौतूहल से उसे देखा । "क्या वह सारी रात उस कुर्सी पर बैठा रहेगा ? ठीक है, वही जाने !" -सोचकर मैं आराम से सो गया । सीलिंग-फैन चल रहा था इसलिय गरमी नहीं के समान थी । मैं जल्दी ही गहरी नींद सो गया । फरवरी में यहाँ पंखे चलाने पड़ते हैं ।
रात्रि में उसने मेरे सोते समय ही मरकरी लाईट ऑफ़ कर दी थी । वह कुर्सी को खिड़की की दिशा में लगाकर, उस पर बैठ गया । वहाँ से अरुणाचल के शिखर को और पर्वत के भी बड़े हिस्से को देखा जा सकता है ।
रात्रि में करीब ढाई-तीन बजे आँख खुली, तो उसका ख़याल आया, सोचा, 'क्या वह चला गया ?' रात्रि की मद्धम रौशनी में उसे कुर्सी पर स्थिर 'पद्मासनस्थ' मुद्रा में बैठे देखा । धीरे-धीरे उसके पास गया , वह निर्निमेष दृष्टि से पर्वत को देख रहा था । उसकी आँखें खुली थीं । शायद मेरे पदचाप की आहट से उसने आँखें खोल दी होंगीं । उसे बाधा न देते हुए मैं वापस पलंग पर चला आया, और पुनः सो गया । सुबह रोज़ की तरह लगभग पाँच बजे मेरी नींद खुली, तब भी वह उसी मुद्रा में पद्मासन में बैठा था । शौचादि से निवृत्त होकर जब बाहर आया, तब भी वह वैसे ही सुस्थिर बैठा हुआ था । मैं सोचने लगा कि ये विदेशी वाकई सनकी होते हैं , और कुछ हद तक जिद्दी और पागल भी । मैं उसके समीप गया, उसकी आँखें बंद थीं । धीरे से उसके कंधे पर हाथ रखा, हाथ के स्पर्श से उसका ध्यान भंग नहीं हुआ । मैं फ़िर बाहर चला आया । विस्मित भी हुआ । मन्दिर में जाकर 'प्रसाद' ग्रहण किया और नाश्ते की घंटी बजते ही आश्रम के भोजन-कक्ष में पहुँच गया । नाश्ता कर जब लौटा, तो वह खडा हुआ, 'स्ट्रेचिंग' करता हुआ अपने शरीर की अकड़न दूर कर रहा था । उसने मेरी तरफ देखा । मैं समझ सकता था कि वह बहुत थका होगा ।
"तुम्हारे लिए मैं कुछ लेकर आता हूँ, " -मैंने कहा । मुझे अफ़सोस हुआ कि नाश्ता करते समय ही मैंने उसके बारे में कुछ क्यों नहीं सोचा ।
"नहीं, मैं भी चलता हूँ, बस पाँच मिनट और । "
थोड़ी देर में वह 'फ्रेश' होकर आया और हम ब्रेकफास्ट लेने चल दिए, -खासकर उसके लिए । मैंने तो अभी ही आश्रम के भोजन-कक्ष में डटकर खाया था ।
इस बीच वह मौन ही था । मुझे भी उसके मौन को बाधित करना अशोभनीय लगा ।
उसके मुख पर उस समय संसार से कहीं अत्यन्त 'दूर' होने, बाहर और 'परे' होने की शान्ति का जो भाव दिखलाई दे रहा था, वह अद्भुत और अवर्णनीय था ।
जब हम नाश्ता कर लौटे, तो वह बोला, "अब मैं चलूँगा । " और वह उसके रूम पर जो पास के ही किसी भवन में रहा होगा, (शायद मोरवी चौल्ट्री में था,) चला गया ।
दो-तीन दिनों तक वह दिखलाई नहीं दिया, सोचा, वह कहीं चला तो नहीं गया ! रवि से पूछा तो पता चला कि उससे भी नहीं मिला है ।
चौथे दिन कॉफी के समय लगभग चार बजे वह आश्रम में मुझे दिखलाई पड़ा । मुझे देखकर वह मुस्कुराया । उसके चेहरे पर अब भी पिछली बार की तरह की संसार से 'परे' की अवर्णनीय आभा जगमगा रही थी , जो चार दिन पहले दिखाई दी थी । हमने दो प्याले लिए और कॉफी लेकर चले आए । आश्रम में कप-प्लेट या क्रोकरी का इस्तेमाल नहीं होता, हाँ स्टील के बर्तन ज़रूर काम में लाए जाते हैं ।
"क्या हाल-चाल हैं ?" -मैंने पूछा ।
उत्तर में वह बस मुस्कुराया । उस मौन मुस्कुराहट की स्वाभाविकता और निश्छलता पर संदेह नहीं उठ सकता था , मैं भी फ़िर चुप ही रहा ।
कॉफी पी चुके, तो साथ-साथ टहलते-घूमते हुए पुनः मेरे रूम पर आ गए ।
मैं उसे कुरेदना चाहता था, लेकिन शांत रहा । "कल पूछूँगा," -मैंने सोचा ।
उस शाम हम साथ ही रहे । मैंने उससे अरुणाचल प्रदक्षिणा "गिरिवलम" के बारे में पूछा। अरुणाचल की परिक्रमा करना एक शास्त्रोक्त महत्पुण्य माना गया है । चूँकि यह पर्वत भगवान शिव का ही प्रकट स्वरुप है, इसलिए ।
"हाँ, हाँ, - अवश्य । " - वह बोला । तय हुआ कि अगले दिन सुबह पाँच बजे हम यहाँ से 'गिरिवलम' के लिए निकलेंगे । दूसरे दिन सुबह ठीक पाँच बजे वह मेरे रूम पर हाज़िर था ।
हम आश्रम से निकले, और मौन परिक्रमा करते हुए करीब साढ़े ग्यारह आश्रम वापस लौटे । चूँकि आश्रम में भोजन का समय ग्यारह बजे का है, अतः हम बाहर बाज़ार में ही भोजन करने चले गए। दक्षिण-भारत का यही तो मजा ही, किसी भी वक्त कहीं भी, खाने के लिए उचित मूल्य पर साफ़-स्वच्छ, पेट भर खाना मिल सकता है, चाहे इडली हो, वडा-सांभर, या सिर्फ़ चांवल हों, जिसके साथ रसम, आदि मिल जाता है ।
उसका मौन था कि टूटने का नाम ही नहीं ले रहा था, लगता था जैसे कभी बोलना सीखा ही नहीं होगा ।
इस मौन में एक संक्रामकता थी । उसके नेत्रों को देखते ही आप भी मौन हो जाते थे । और ज़रा भी अस्वाभाविक या भयावना नहीं लगता था । इस मौन में हमने अनुभव किया कि वाणी का प्रयोग करना एक अस्वाभाविकता थी । हमने पाया कि एक ही दिग्-दिगंत तक छाया हुआ मौन था वह मौन । सारी दिशाएं भगवान् अरुणाचल की चैतन्य-ज्योति का विस्तार थीं, और वहाँ 'शब्द' नहीं था । बस एक प्राणवान चेतन प्रकाश था, जिसका केन्द्र सर्वत्र था लेकिन परिधि कहीं नहीं थी । उस मौन ने हम दोनों के वैयक्तिक अस्तित्त्व को लील लिया था । और इसमें भय नहीं था, एक उल्लास था । हम वही थे, जिसमें हम विलीन हो गए थे । हाँ, लेकिन हमारी 'वैयक्तिक' पहचान ज़रूर मिट गयी थी । मानों उस दिव्य सत्ता ने हमें अपने अंक में भर लिया था । अपने आलिंगन में समेट लिया था ।
अब सोचता हूँ, तो मुझे उस "Otherness" (*) का स्मरण हो आता है । चूँकि हम 'नहीं' थे, इसलिए यह भी दावा नहीं कर सकते, कि हमें कोई 'अनुभूति-विशेष' हुई थी । बस एक दिव्य तत्त्व 'था', -अलौकिक और अवर्णनीय सौन्दर्य, निराकार प्रेम, जो स्वयं ही स्वयं में 'रमण' कर रहा था । तब जहाँ काल, और स्थान तक विदा हो चुके थे, वहाँ 'व्यक्तित्त्व' की भला क्या हैसियत हो सकती थी ? अत: वह कोई 'वैयक्तिक' अनुभूति होती हो ऐसा कहनेवाला कोई 'व्यक्ति' भी कैसे हो सकता था ? लेकिन वहाँ 'सत्तामात्र' तो अवश्य ही होती है, जिसे अतीत या भविष्य का, और इसलिए वर्त्तमान तक का सन्दर्भ देना धृष्टता ही कहा जाएगा । वहाँ 'जानना' अर्थात् जिसे वेदान्त की भाषा में 'शुद्ध-चैतन्य' कहा जाता है, वह भी अबाध रूप से विद्यमान होता है । लेकिन इसलिए वह किसी 'पहचान' से रहित था/है, होता है । या कहें वह स्वयं ही अपनी पहचान होता है । हाँ लेकिन 'मेरी' अपनी 'काल्पनिक', स्मृति पर आधारित 'पहचान' ज़रूर 'मिट' गयी थी, या कहें, की 'काल' और 'स्थान' के साथ-साथ पिघलकर 'उस' सत्ता में घुल-मिल गयी थी । इस 'व्यक्तित्व' का नामों-निशाँ' तक बाकी नहीं रहा था । लेकिन अब वह सब 'स्वप्न' लगता है, और 'मैं', और 'मेरा' 'व्यक्तित्त्व', एक कठोर चट्टान सी वास्तविकता प्रतीत होते हैं !
यह हृदय की अनुभूति थी, गूगल के हिन्दी ब्लॉग की सर्विस में 'हृदय' शब्द को 'edit' करते समय एक 'विकल्प' मिलता है; "हृद्य", वैसी अनुभूति थी, हृदय-गत । गीता का श्लोक याद आता है,
"रस्या स्निग्धा स्थिरा हृद्या आहारा: सात्त्विका प्रिया: "
वैसी कुछ अनुभूति थी । वह मस्तिष्क या बुद्धि का विषय नहीं हो सकती । बुद्धि या मस्तिष्क उसके उपकरण अवश्य हो सकते हैं और होते भी हैं, -उसी से 'प्रकाशित' होकर, 'प्रेरित' होकर अपना कार्य कर पाते हैं , ..... ।
ऐसे ही कुछ और मन्त्र याद आते हैं, :
"तन्नो हंसो प्रचोदयात्" , "तन्नो दंती प्रचोदयात्", तथा विश्व-प्रसिद्ध, :
"धियो यो न: प्रचोदयात् " भी,
जो गायत्री मन्त्र का अंश है ।
"क्या 'ज्ञान' ऐसे ही होता है ?" -मैं अब सोचता हूँ ।
लेकिन तब तो बुद्धि और मस्तिष्क की सारी गतिविधियाँ ही ठिठकी हुईं थीं । 'अनुभवकर्त्ता' (the 'experiencer') कहीं न था । और न ही वहाँ पर अनुभव किया जानेवाला 'विषय' (the experienced 'object'), या द्वैत-गत 'अनुभवन' जैसी ही कोई चीज़ ही थी । क्योंकि वहाँ समय या काल ही अनुपस्थित था । यह तो 'विचार' है, जो अब सर पटक-पटककर उस स्थिति को व्याख्यायित करने की कोशिश कर रहा है, जो तब वहाँ नदारद था ! हाँ यह तो समझ पाया की सब कुछ एक ही चैतन्य है, 'अरुणाचल भगवान्' ही हैं । नाम न दें तो भी । क्योंकि 'होना-जानना' अर्थात् 'सत्-चित्' तो तब भी अविच्छिन्न थे / हैं / होते हैं ! सर्वदा !
हम उसी सम्मोहित सी 'दशा' में 'जागृत-दशा' में, रात्रि के नौ बजे तक (भोजन के बाद तक) बस 'बैठे' ही रह गए थे । शायद कुछ इनी-गिनी बातें आपस में की होंगीं, लेकिन वे महत्वहीन रही होंगीं । फ़िर उसने मेरे चरण छुए और विश्राम के लिए चला गया । मुझ पर उसके 'मौन' का 'राज़' खुल चुका था, लेकिन मैं किसी से क्या कहता ?
( *J. Krishnamurti : "Krishnamurti's Notebook".) ***********************************************************************************









No comments:

Post a Comment