May 09, 2009

उन दिनों / 19.

उन दिनों बिलासपुर में रेलवे के किसी जोनल या रीजनल ऑफिस को रखने की माँग के समर्थन में उग्र उपद्रव हुए थे । रेल-संपत्ति को बहुत नुक्सान भी पहुँचाया गया था, और मैं सिर्फ़ राउरकेला तक ही जा सका था की ट्रेन निरस्त कर दी गयी थी । स्वास्थ्य तो ख़राब था ही, एक होटल में जाकर कमरा लिया, सौभाग्य से मुझे दूसरे दिन बिलासपुर के लिए ट्रेन मिल गयी, याने रिज़र्वेशन हो गया । वैसे भी उस दिन बिलासपुर की ओर कोई गाड़ी नहीं जा रही थी । तीन-चार दिनों बाद मैं घर (उज्जैन) में था ।
इस बीच मैं काफी बदल गया था । (वैसे यह वाक्य मुझे हमेशा से विरोधाभासी लगता रहा है, लेकिन उस बारे में फ़िर कभी ।)
तंत्र के बारे में अविज्नान की जानकारी ने मुझे बाध्य किया कि मैं इस बारे में नये सिरे से खोज-बीन करुँ , इन्हीं दिनों एक मित्र ने अचानक एक नई बात बतलाई, - उज्जैन में त्रिवेणी-संगम नामक तीर्थ-स्थल है, अवन्तिका-पुराण में उज्जयिनी-खंड में उसका वर्णन भी है, ऐसा उसने बतलाया । उससे चर्चा के दौरान पता चला कि उस स्थान पर बहुत पहले एक पुल था, जो बरसात में पानी बढ़ने पर बंद हो जाता था । फ़िर १९६० -७० के आसपास इंदौर-रोड पर वहाँ एक नया पुल बना, उसके एक ओर सीढियाँ हैं, जो शिप्रा-तट पर स्थित नव-ग्रह-मन्दिर तक जाने के लिए पुल के मध्य से भूमि-तल तक हैं । वाकई अविज्नान की बातें मन में कौंध गईं । वैसे तो इसे संयोग ही कहा जा सकता है कि अविज्नान ने जैसा वर्णन उसकी डायरी से पढ़कर सुनाया था, हू भी ब हू वैसा ही लोकेशन यहाँ था , मैं अनेक बार वहाँ जाता भी रहा हूँ । सीढियों से उतरकर सीधे संगम तक पैदल, कच्ची पगडंडी है । नवग्रह-मन्दिर वहीं है । वहाँ संगम होने के कारण पौराणिक काल से ही लोग तिथि-पर्वों पर स्नान आदि के लिए जाते रहे हैं, लेकिन अविज्नान से मिलने के बाद मैं इसे नए नज़रिए से देखने लगा था । मेरा मित्र शायद मजाक में उन सीढियों को 'उन्नति की सीढियाँ' कहा करता है , मुझे इस पर कौतूहल अवश्य होता है । थोडा रोचक भी लगता है, मनोरंजक तो लगता ही है ।
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