June 09, 2009

उन दिनों / 23.

उन दिनों / 23 .
उस दिन अविज्नान हमें 'वहाँ' ले गया था, जहाँ वह था । "कहीं और", -रवि की दृष्टि में ।
रवि और अविज्नान आपस में हँसी-मज़ाक करते थे । रवि की नज़रों में अविज्नान योगी, तांत्रिक, दार्शनिक, और 'जासूस' (spy) था, जबकि अविज्नान की दृष्टि में रवि कलाकार, बुद्धिजीवी, और विद्वान् था । एक संघर्ष-शील आध्यात्मिक विभूति । लेकिन सारा हँसी-मजाक निश्छल था, क्योंकि दोनों के बीच कहीं कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी । दोनों में एक गहरी ट्यूनिंग हो गयी थी । अविज्नान जब किसी परम्परा का उल्लेख करता तो उसका सन्दर्भ विभिन्न विषयों से ग्रहण करता था , -जैसे पुनर्जन्म, तंत्र, ज्योतिष, अध्यात्म, साहित्य और दर्शन आदि, और सीधे ही चर्चा या चिंतन के द्वारा वैज्ञानिक दृष्टि से उसकी सत्यता या संदिग्धता पर विचार करता था । रवि अध्ययनशील था, और भिन्न-भिन्न परम्पराओं को समझने का उसका तरीका अविज्नान से काफी हद तक अलग था । लेकिन एक बात दोनों के बारे में एक जैसी थी । दोनों किसी भी पूर्वाग्रह से रहित थे । दोनों सभी चीज़ों को तौलते, समझने की चेष्टा करते, यदि उन्हें कहीं भी ज़रा भी अविश्वास होता, तो वे अपना संदेह सामने रख देते । अविज्नान अध्ययनशील तो नहीं था लेकिन किसी कारण से उसमें एक ऐसी अलौकिक क्षमता थी जो हममें से बहुत कम के पास होती है, जिसे हम 'अंतर्दृष्टि' भी कह सकते हैं । और उस अंतर्दृष्टि के सहारे वह जीवन के गहरे रहस्यों को भी समझ या देख तो लेता ही था । उदाहरण के लिए, 'सत्य' की प्राप्ति के लिए अतीत में मनुष्य ने क्या-क्या प्रयास किए, इसे समझने के लिए वह शास्त्रों का अध्ययन तो करता ही था, लेकिन उस गंभीरतापूर्वक नहीं जिस गंभीरता और उत्कंठा से रवि किया करता था । रवि के मन में यह गहरा विश्वास (निष्ठा?) था कि शास्त्रों में जो कुछ कहा गया वह उस तत्त्व को जाननेवालों ने ही कहा है, (हालाँकि मैं नहीं कह सकता कि ख़ुद रवि ने इतनी बारीकी से इस बारे में सोचा होगा कि ऐसा उसके साथ है ), जबकि अविज्नान का दृष्टिकोण यह था कि सिर्फ़ कुछ ही शास्त्र ज्ञानियों के कहे गए प्रत्यक्ष वचनों का संग्रह हैं और 'शास्त्र' के नाम पर जो अनेक सम्प्रदाय पैदा हो गए हैं, उनमें से अधिकाँश तो मनुष्य को और भी भ्रमित कर रहे हैं, और स्पष्ट है कि उनके बारे में पर्याप्त सावधानी से उनकी जाँच-परख के बाद ही उनकी प्रामाणिकता स्वीकार की जानी चाहिए ।
"या फ़िर ?" -एक बार मैंने उससे प्रश्न किया था ।
"Do away with them, forget them abandon them abolish them।" -उसका जवाब था ।
"कैसे ? "
"यही तो, ....."
" क्या हम नए सिरे से इस पर नहीं सोच सकते ?"
"philosophy ? "
"नहीं ।"
"फ़िर ? "
"यथार्थ, तथ्य के अवलोकन से । "
"तो उसके लिए कहीं कोई शुरुआत तो हमें करना होगी ! "
"हाँ ।"
"कहाँ से ? पूरे समाज को, राष्ट्र को, संसार को प्रेरणा कहाँ से मिलेगी ? कोई तो सहारा, guiding line, तो ज़रूरी होगी ही ।"
"क्या समाज, राष्ट्र, संसार एक 'तथ्य' है , 'यथार्थ है ? " -उसने पूछा ।
"नहीं है ? "- मैंने हैरत से उसे देखा ।
"नहीं है ।" -उसने शांतिपूर्वक उत्तर दिया ।
" तथ्य, यथार्थ का मन में बना चित्र 'यथार्थ' कभी नहीं होता । और इसलिए मुझे नहीं लगता कि हम समाज या राष्ट्र या संसार के लिए कुछ कर सकते हैं । "
"फ़िर ? "
"क्या हम तथ्य को सीधे नहीं जान सकते ? "
"तथ्य को सीधे ही जाना जा सकता है, 'विचार' के माध्यम से नहीं ! "
"क्या 'विचार' स्वयं भी एक तथ्य नहीं होता ? "
"कभी नहीं, विचार तथ्य का शब्दीकरण भर होता है, जिससे हमें झूठा भरोसा हो जाता है कि हम 'तथ्य' को जानते हैं । "
"फ़िर तुम शास्त्र क्यों पढ़ते हो ? "
"यही तो । शास्त्रों से मुझे स्पष्ट हो जाता है कि कौन से शास्त्र ज्ञानियों के वचन हैं, और कौन से अज्ञानियों और भ्रमित लोगों के । "
"कैसे ? "
वह बहुत देर तक चुप रहा था । क्या वह झूठ बोल रहा था ?
"यदि कोई 'विचार' के उद्गम की खोज करे, तो वह 'बुद्धि' को समझ सकेगा । लेकिन 'बुद्धि' भी न तो तथ्य है, न यथार्थ, यह भी एक उपकरण है । क्या हम स्वाभाविक रूप से ही नहीं जानते कि कभी हमारी बुद्धि काम करती है, और कभी-कभी नहीं भी करती ? यह 'जानना' क्या 'बुद्धि' से होता है ? या 'बुद्धि' ही इस 'जानने' के प्रकाश में अपना काम करती है ?"
"... ... ... "
" इस सीधे, सच्चे 'जानने' को हम 'तथ्य' / यथार्थ क्यों न कहें ? "
" क्या शास्त्रों में इस 'जानने' के बारे में कुछ नहीं कहा गया है ? "
"बहुत कुछ कहा गया है, लेकिन किन शास्त्रों में ? "
आगे रास्ता कहाँ से गुजरेगा, इसका अनुमान मुझे था । आगे हम उस रास्ते से गुज़रे भी थे, लेकिन अभी तो मैं रवि और अविज्नान की विशेषताओं पर कह रहा था ।
अविज्नान बुद्धि की सीमा को समझता था, और उसे लगता था कि बुद्धि के सम्यक् प्रयोग से ही उस सत्य तक पहुंचा जा सकता है, जिसका वर्णन कुछ इने-गिने शास्त्रों में ही है । उसका कहना था कि यदि सत्य हमारे भीतर नहीं है, तो उसे शास्त्रों या किसी अन्य माध्यम से नहीं पाया जा सकता ।
"मतलब ? " -प्रश्न किया था रवि ने ।
"मतलब यह कि हमारी अपनी बुद्धि से यदि सत्य पाया जा सकता है, तो शास्त्र, गुरु, मार्गदर्शक अनावश्यक हैं, और न सिर्फ़ अनावश्यक, बल्कि शायद सत्य के आविष्कार में बाधक भी हो सकते हैं । दूसरी ओर हम यह कैसे तय करेंगे कि सच्चा गुरु, शास्त्र कौन है ? यदि हम इतने सक्षम हैं कि यह तय कर सकें, तो भी गुरु / शास्त्र अनावश्यक हैं । तीसरी बात, हम किसी गुरु या शास्त्र की परीक्षा लेना चाहें भी, और यदि हमें सत्य की प्राप्ति नहीं हुई है, तो उसकी कसौटी हम कैसे तय करेंगे ? और यदि सत्य की प्राप्ति हम कर चुके हैं तो, ..... ... ... ! अन्तिम बात , और ज्यादातर तो यही होता है कि हम इस बहाने से सत्य से पलायन का एक 'सुंदर', 'प्रतिष्ठित' तरीका ज़रूर खोज लेते हैं । "
"लेकिन अगर तुम्हें ख़ुद ही रास्ता निकालना हो तो शास्त्रों के ज्ञान और गुरुओं के अनुभवों का लाभ भी तो मिल सकता है ! " -रवि का तर्क था यह ।
अविज्नान निरुत्तर था । नहीं, निरुत्तर तो नहीं, मौन ज़रूर था । जब संप्रेषनीयता संभव नही रहती तो मौन ही उसका वह उत्तर होता है, जिससे वह अपनी बात कहने की कोशिश करता है । हम ऐसे वक्त मौन हो जाते हैं, और उस मौन में 'विचार' भी ठहरा रहता है । यदि आप इस खूबसूरत एहसास से गुज़रे हैं, तो आपने देखा होगा कि मन की उस शान्ति में कोई ऐसी चीज़ एकाएक 'कौंध' सकती है, जिसे हम अंत:प्रज्ञा या अंतर्दृष्टि कह सकें । और यदि उसके बावजूद बात न भी बने, तो क्या हर्ज़ है ?
अविज्नान के लिए संप्रेषनीयता सबसे अधिक महत्वपूर्ण थी । इसके बाद था संवाद, और यदि संवाद नहीं हो पा रहा, या उसकी ज़रूरत न हो, तो संप्रेषनीयता के लिए जो कुछ भी किया जा सकता है, वह उसे करने से पीछे नहीं हटता था । लेकिन वह उसकी समस्या थी भी नहीं । वह घंटों सबसे अलग अकेला रह सकता था, बिना किसी occupation, involvement, या व्यस्तता के । और रहता भी था । हाँ, भूख, प्यास, सर्दी-गरमी के लिए ज़रूर उसे किसी सहारे की ज़रूरत होती थी । वह हेल्थ-कांशस भी था । लेकिन सिगरेट ? क्या यह विरोधाभास नहीं था ? वह कोई उत्तर नहीं देता था । इस बारे में उसे शायद कोई द्वंद्व नहीं था ।
"अविज्नान, सिगरेट के बारे में कुछ पूछना चाहता हूँ । क्यों पीते हो ? " -मैंने उससे पूछा था ।
"There are so many reasons and causes . " -उसने कहा था ।
"इस पर कभी सोचा नहीं ? "
" हाँ ज़रूर सोचा था । "
" ... ... ... "
"जब मैंने पहली सिगरेट पी थी उस समय मुझे इसका धुँआ, सुगंध अच्छे लगे थे । वास्तव में सिगरेट बनानेवाली कंपनियाँ उसकी टोबैको में ऐसी चीज़ें मिलाती भी हैं । फ़िर मुझे आदत लग गयी । बहुत बाद में ख़याल आया कि मैंने गलती की है । मेरे 'genes' में ही दर-असल 'addiction-susceptibility' थी / है । क्योंकि मेरे माता-पिता दोनों स्मोकिंग करते थे । तो यह तो हुआ एक और कारण । दूसरा ख़ास कारण है , कि मैं छोड़ना नहीं चाहता । "
" क्यों ? " मैंने हैरत से पूछा ।
" क्योंकि मुझे इसमें कोई खराबी नज़र नहीं आती । "
" लेकिन क्या यह स्वास्थ्य के लिए घातक नहीं है ? "
" शायद है । "
"शायद ? "
"हाँ, कई ऐसे लोग हैं , जो हैवी-स्मोकर रहते हुए भी लम्बी आयु तक जिए । "
उसके इस तर्क का मेरे पास कोई जवाब नहीं था ।
"मैं मानता हूँ कि सिगरेट न पीना स्वास्थ्य के लिए ज्यादा ठीक है, लेकिन एक समस्या और भी है, एक बार 'शरीर' सिगरेट का या निकोटीन का आदी हो जाता है, तो छोड़ना बहुत मुश्किल हो जाता है । " - वह बोला ।
"लेकिन अगर आदमी दृढ़ इच्छा-शक्ति से तय कर ले तो ? "
"तो भी नहीं, क्योंकि 'शरीर' निकोटीन की ज़बरदस्त माँग करने लगता है ,और उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती । "
"क्यों ? "
"आपने 'withdrawl-symptoms' के बारे में तो सुना ही होगा ! "
"हाँ, ज़रूर सुना है "
" बस वही एक चीज़ है, जो आदमी को परास्त कर देती है । जब किसी को ड्रग-एडिक्शन हो जाता है, तो इसका कारण सिर्फ़ सतह पर ही नहीं होता । यह इंसान के अवचेतन पर भी असर करता है । मनुष्य के मन का अवचेतन-स्तर, उसके चेतन-स्तर से कई गुना अधिक शक्तिशाली होता है । जब तक उस स्तर पर पहुँचकर एडिक्शन के कारण को नहीं समझा जाता तब तक सतह पर कुछ 'तय' कर लेने का कोई मतलब नहीं है । "
" तो क्या स्मोकिंग या ड्रग को छोड़ने की कोशिश ही न करें ? "
"ज़रूर करें, लेकिन पूरी-पूरी । "
"और तुम्हारे बारे में ? "
"मैं कह चुका हूँ कि अवचेतन तक जाने में मेरी कोई उत्सुकता नहीं, हाँ अगर किसी कारणवश मुझे सिगरेट या टोबैको मिलना बंद हो जाए, तो मुझे कुछ दिनों तक बहुत तकलीफ उठानी पड़ेगी और फ़िर शायद मेरी आदत छूट जाए । "
"शायद क्यों ? "
"क्योंकि मैंने करके नहीं देखा है । "
यह तो कोई संतोषजनक उत्तर नहीं था ।
"कभी सोचना ! " -मैंने कहा ।
"सवाल यह है की आख़िर कोई टोबैको की आदत में क्यों फँसता है ? क्या उसे समझ लेने पर इस आदत को शुरू होने ही से रोकना क्या बेहतर तरीका नहीं हो सकता ? "
"हाँ उस दिशा में भी मेहनत करना ज़रूरी है, लेकिन जिन्हें आदत हो गयी है, उनके बारे में क्या ? "
"तो इस सवाल को दो स्तरों पर समझना पड़ेगा । पहला यह कि कोई जब इस जाल में फँसता है, तो किन परिस्थितियों में ऐसा होता है । दूसरा यह कि जब कोई इसका आदी हो जाता है, तो उस मूल कारण को अवचेतन से कैसे हटाया जा सकता है, जिसकी वज़ह से अब शरीर भी 'निकोटीन' का अभ्यस्त हो गया है । साधारणतया तो 'शौक' या दोस्तों की देखा-देखी, या कौतूहल, कोरी 'शान' दिखलाने के लिए कोई-कोई सिगरेट पीने लगता है । कोई-कोई 'ट्रॉमा', अवसाद, थकान,से भागने के लिए, ताजगी , एनर्जी, या 'जोश' जगाने के लिए, डिप्रेशन की स्थिति में, कोई-कोई सोचता है कि इससे 'खाना' 'हज़म' होने में मदद मिलेगी, कोई सोचता है कि इससे मुँह का 'जायका' ठीक होता है, तो लोगों की अपनी अपनी दलीलें होतीं हैं, और 'निकोटीन' शरीर में एक ज़बरदस्त हलचल तो पैदा कर ही देता है । यहाँ तक कि कुछ लोग 'रिलैक्स' होने के लिए, या 'मूड' चेंज करने के लिए सिगरेट पीने लगते हैं । तो मैं सोचता हूँ कि बहुत बाद में उस ट्रैक को फ़िर से खोजना बड़ा मुश्किल काम है । फ़िर भी, अगर कोई चाहे तो सही ढंग के 'मेडिटेशन' से इस बुरी लत से निजात पा सकता है । "
"कैसे ? "
"इरादा होना चाहिए, -मेरा मतलब है जिद नहीं, गंभीरता, एक ख़याल होना चाहिए कि क्या मैं इसके बिना नहीं रह सकता ? ख़ुद को टटोलने की ज़रूरत है । मैं इसके बिना क्यों नहीं रह सकता ? तब पता चलेगा कि मैं डरता हूँ, -किसी भी एक या कई बातों से । आत्म-विश्वास की कमी, असफलता का डर, हीन-भावना, इन सब चीज़ों को छिपाने के लिए, नकली आत्म-विश्वास दिखाने के लिए, मैं सिगरेट पी रहा हूँ, या मुझे एक 'सहारा' महसूस होता है सिगरेट पीने में , तो ये सब वज़हें देखनी होंगीं । यदि इन्हें देखे बिना किसी 'दवाई' या 'alternative' तरीके से सिगरेट छोड़ने की कोशिश की जाए, तो वह समस्या कोई दूसरा रूप लेकर बनी रहेगी । आपकी हीन-भावना कहाँ जायेगी ? 'डर' कहाँ जाएगा ? बहुत बाद में 'आदत' रह जाती है, जिसे आदमी देख पाता है, वह उस वज़ह को भूल जाता है जो आदत में तब्दील हो गयी । " क्या उसे फ़िर से खोजकर उसका पता नहीं लगाया जा सकता ?
उसकी विवेचना सुनकर हैरान रह गया । और यह भी समझ में आया कि वह सिगरेट छोड़ने के बारे में ख़ुद गंभीर क्यों नहीं है ।
"तो यह किस किस्म के मेडिटेशन से हो सकेगा ? "
"हाँ, पहले तो आदमी को यह तय करना होगा कि वह इस बुरी लत में फँसा है । फ़िर हो सके तो ठीक-ठीक उस वज़ह का पता लगाना पडेगा जिसकी वज़ह से उसे यह आदत लगी , और फ़िर 'इरादे' के साथ उसके लिए मेहनत करनी होगी । इसका मतलब है कि उसे उस ख़ास वज़ह को दूर करना होगा । क्या यह सारा काम मेडिटेशन नहीं है ? अंग्रेजी में बोलेंगे -
"In a pre-meditated way"
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