June 25, 2009

उन दिनों / 24.

उन दिनों / 24 .
रवि से उसे क्या उम्मीदें थीं ? रवि से उसे कई चीज़ें सीखनी थीं । शास्त्र । कौन से शास्त्र ? ब्रह्म-सूत्र, गीता, त्रिपुरा रहस्य, देवी-कालोत्तर- ज्ञानाचार-विचार-पटलः, मांडूक्य-उपनिषद, उपदेश-सारः, सत्- दर्शनं, रामगीता, श्री दक्षिणामूर्ति-स्तोत्रं, विचार-चंद्रोदय, स्पंद-कारिका, पंचदशी, और भी न जाने क्या-क्या । अब यह बात अलग है कि इनमें से कई के नाम तक रवि ने शायद ही कभी सुने होंगे । -मेरी तरह । और ज़ाहिर है इसमें कई वर्ष लगते । लेकिन अविज्नान बहुत निश्चिंत था । उसे भरोसा था कि जब जो होना है तब वह होकर ही रहेगा ।
बात नाश्ते की हो रही थी । हम सब नाश्ते पर बैठे हुए थे । मेरी दायीं तरफ़ 'सर', बाईं तरफ़ अविज्नान, सामने रवि । रवि ने आज ब्रेड-बटर रखा था । पपीता काट कर रखा था । नाश्ते का समय कुछ ऐसा था कि चाय कभी-कभी कैंसल हो जाती थी , या कहें, घंटे भर लेट हो जाती थी । आज भी ऐसा ही था । यह 'नया-नियम' था ।
-"नया-नियम" ?
वास्तव में यह रवि का अपना बनाया 'नया-नियम' था । उसके अनुसार 'मील्स' या नाश्ते आदि के तुरंत बाद कम-से-कम एक घंटे तक चाय या कॉफी नहीं पीना चाहिए, क्योंकि उससे भोजन पचने में बाधा आती है । हमें मंज़ूर था उसका नियम । क्योंकि चाय बनाना उससे ज़्यादा मुश्किल काम था ।
"लेकिन पहले तो ऐसा नहीं था ! " -अविज्नान ने रोड़ा अटकाया । रवि इस पर बस मुस्कुराया भर ।
अविज्नान के लिए तो ऐसे नियम अनावश्यक अनुशासन ही थे ।
"भइ, चाय तो घंटे भर बाद ही मिलेगी, लेकिन तुम्हें चाहिए तो अभी बना दूँ ?" -वह बोला ।
"नहीं भाई, अनुशासन तो सब पर लागू होना चाहिए । "
लेकिन इस 'नए-नियम' में एक मक़सद छिपा हुआ था, और साफ़ तौर पर उसमें अविज्नान का भी एक उद्देश्य पूरा हो जाता था । चाय के बाद उसे सिगरेट की तलब होती थी और 'सर' के सामने सिगरेट कैसे पीता ? इस बहाने वह चाय के पहले निश्चिंततापूर्वक 'सर' के साथ होनेवाली बातचीत में अच्छी तरह भाग ले सकता था ।
'सर' से तीसरी मुलाक़ात मेरे इसी घर में तब हुई थी, जब वे अचानक ही यहाँ आए थे । तब मुझे यह कल्पना करना भी बहुत मुश्किल था कि उनसे फ़िर कभी मिलना हो सकेगा । खैर वह कहानी फ़िर सही ।
अभी तो नाश्ते की मेज पर 'नया-नियम' था, और यह राजा रवि वर्मा का, या यूँ कहें कि रवीन्द्र वर्मा का नया नियम था । कभी-कभी मैं उसे राजा रवि वर्मा कहा करता था । 'रवि' तो सभी कहते थे । 'रवि-अवि' मेरे घर में रहनेवाले दो पेइंग गेस्ट थे, लेकिन इसका पेमेंट पैसों में नहीं मिलता था ।
"तो यह 'नया-नियम' है कि चाय घंटे भर बाद मिलेगी ?" -'सर' ने मुस्कुराते हुए पूछा ।
किसी ने इस का उत्तर नहीं दिया ।
"एक 'नया-नियम' वह है, -क्या कहते हैं उसे, -शायद न्यू टेस्टामेंट ।" 'सर' ने चर्चा का रुख दूसरी दिशा में मोड़ा । हम सब देख रहे थे ।
"और एक यह 'नया नियम ' है, जिससे अविज्नान को समझौता करना पड़ रहा है । " -रवि ने चुटकी ली ।
"उसे 'नया-नियम' क्यों कहते हैं ?" -'सर' ने प्रश्न किया ।
"ईसाइयत के इतिहास को देखें तो बाइबिल दो हिस्सों में पाई जाती है , एक है, -'ओल्ड टेस्टामेंट', दूसरा है, -'न्यू टेस्टामेंट' -रवि बोला ।
"क्या ईसाइयत और यहूदी मत अलग-अलग हैं ?" -'सर' ने पूछा ।
"क्या मतलब ?" -रवि ने आश्चर्य से पूछा ।
"भाई, मैंने इसलिए पूछा क्योंकि मेरी जानकारी के अनुसार यहूदियों की बाइबिल, जो कि शायद हिब्रू बाइबिल है, वह भी एक धर्मग्रन्थ है, तो क्या ये ओल्ड-टेस्टामेंट, न्यू टेस्टामेंट, और हिब्रू बाइबिल आदि एक ही हैं, या उनमें कोई संबंध है ?"
हममें से किसी को भी इस बारे में ठीक-ठीक कुछ भी नहीं मालूम था । मुझे उम्मीद थी कि अविज्नान ज़रूर इस बातचीत में जोर-शोर से हिस्सा लेगा, लेकिन वह तो खिड़की से बाहर देख रहा था । "चलो यह भी ठीक है " - मैंने सोचा । मुझे उसकी 'सेंसिबिलिटी' को लेकर भी थोड़ी चिंता थी । मैं नहीं जानता कि पश्चिमी 'मतों' के संबंध में उसकी क्या राय थी । वह यहूदी था, कैथोलिक था, क्रिश्चियन था या 'पैगन', -मुझे कुछ पता नहीं था । हाँ वह 'मुस्लिम' नहीं था, इतना मैं कह सकता हूँ ।
"मुझे लगता है कि हमें इस बारे में सावधानी से चर्चा करनी होगी । पहले तो हमें यह तय करना होगा कि 'मान्यता' और 'धर्म' के बीच क्या फर्क हो सकता है । ऐसा इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि जब हम 'मान्यता' को 'धर्म' कहने लगते हैं, तो अनजाने में ही बहुत सी और बहुत बड़ी गलतफहमियों के शिकार हो जाते हैं । विभिन्न समुदायों की भिन्न-भिन्न 'मान्यताएँ' हैं, और वे एक-दूसरे से अलग ही नहीं, बल्कि नितांत विपरीत और विरोधी भी हैं । चाहे स्वर्ग-नरक संबंधी हों, या भौतिक जीवन के क़ानून कायदे, शादी-ब्याह और तलाक़, पाप और पुण्य के बारे में ही क्यों न हो ! और इस आधार पर पूरी मनुष्यता बुरी तरह बँटी हुई भी है । जहाँ तक रीति-रिवाजों की बात है, वे कुछ पूर्व-निश्चित मान्यताओं और परम्पराओं से पैदा हुए हैं, और समय के साथ-साथ उनमें बदलाव आता रहता है । सबसे पहले तो यह देखना होगा कि धर्म का प्रश्न सिर्फ़ मनुष्य जाति के लिए ही कोई अर्थ रखता है । दुर्भाग्य से यथार्थ धर्म को समझे बिना ही, हम धर्म के पक्ष या विपक्ष में होते हैं । जिसे प्रायः धर्म समझा जाता है, वह निश्चित ही किन्हीं मान्यताओं, अनुभवों, और उनसे प्राप्त निष्कर्षों पर आधारित होता है । सामान्यतया धर्म का तात्पर्य यह भी समझा जाता है कि जो सत्य के अनुसार हो । अत: हम कह सकते हैं कि धर्म एक अमूर्त अवधारणा भर है । और भिन्न-भिन्न समुदायों ने धर्म को भिन्न-भिन्न रूपों में अपनाया है । यह तो निर्विवाद सत्य है कि धर्म चाहे परम्परा से आया हो, या खोज से, वह किसी-न-किसी 'दर्शन' पर आधारित होता है । या तो 'दर्शन' अर्थात वैचारिक निष्कर्षों पर आधारित 'सिद्धांत' या 'मान्यताएँ', विश्वास आदि । लेकिन सामान्य मनुष्य तो परम्परा को ही धर्म समझता चला आया है । तात्पर्य यह कि 'धर्म' अपने-आप में कोई ऐसी 'तय' चीज़ नहीं है, जिसे हम एक अथवा अनेक कहें । फ़िर, विभिन्न मत-मतान्तरों को अलग-अलग या समुदाय-विशेष के भेदों सहित 'धर्म' का नाम दिया जाता है । अंग्रेजी में धर्म या 'रिलिजियन' का अर्थ सिर्फ़ परम्परा, रूढ़ि से किए जानेवाले रीति-रिवाज़, कर्म-काण्ड, तथा आस्था, विश्वास, श्रद्घा आदि ही है । हिन्दी या संस्कृत में धर्म का एक व्यापक अर्थ है, लेकिन कामचलाऊ लोक-व्यवहार की भाषा में उसका एक सतही अर्थ भी है, और वह है, - समाज के विभिन्न समुदायों के भिन्न-भिन्न परम्परागत विश्वास, मान्यताएँ, और उन पर आधारित कर्म-काण्ड या रीति -रिवाज़ । हिन्दी या संस्कृत में धर्म का जो अर्थ है, समाज के स्वयंभू कर्णधार धर्म का वह अर्थ शायद ही ग्रहण कर सकें । समाज के ऐसे स्वयंभू कर्णधारों की दृष्टि में धर्म वह है, जो पूरे समाज को आपस में जोड़े रखे । या कम से कम वे ऐसा समझते हैं । उन्हें वास्तविक धर्म क्या है, इसकी खोज में न तो दिलचस्पी होती है, और न उन्हें इसकी ज़रूरत ही महसूस होती है । धर्म उनके लिए एक बोझ होता है, या 'साधन' या मजबूरी । वे अपनी सुविधानुसार धर्म के पक्ष या विपक्ष में होते हैं । सुविधा और स्वार्थ ही उनके लिए 'धर्म' होता है । धर्म उनकी नज़रों में व्यक्तियों, समुदायों, के अपने-अपने आग्रह हैं, जो यूँ तो परस्पर बेमेल होते हैं, लेकिन 'सर्व-धर्म-सम-भाव' रूपी 'चारा' फेंककर वे अलग-अलग तरह की मछलियों को फँसा भी लेते हैं । दूसरी ओर धर्म के धुर विरोधी भी , 'ईश्वर' के अस्तित्व पर प्रश्न उठानेवाले भी अपने-आपको 'धर्म-निरपेक्ष' घोषित करते हुए अपनी सुविधा के अनुसार किसी विशेष धर्म से जुड़े (राजनीतिक)दल पर 'सांप्रदायिक' होने का आरोप मढ़ सकते हैं । ऐसा सिर्फ़ भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के दूसरे स्थानों पर भी है । इसमें वे भिन्न-भिन्न 'धर्मों' को इस्तेमाल भी करते हैं, उन्हें कभी राष्ट्र या मानवता के भिन्न-भिन्न रूप कहते हैं, कभी उन्हें 'समान' बतलाते हैं, लेकिन कभी भी धर्म के मूल स्वरुप पर नहीं सोचते । सर्वहितकारी धर्म क्या हो सकता है , इस पर चिंतन करने के लिए न तो उनके पास दृष्टि है, न समय है, न दिलचस्पी, उत्साह तो बहुत दूर की बात है । और यदि वे इस दृष्टि से सोचने लगेंगे तो उन्हें अपना पूरा नज़रिया ही बदलना पड़ेगा । सतही तौर पर वे सबको खुश रखना चाहते हैं, और येन-केन-प्रकारेण सहिष्णुता, धर्म के नैतिक पक्षों आदि का झूठा गुणगान कर उनके गहरे मूलभूत अंतर्विरोधों और विसंगतियों को नज़रों में नहीं आने देते । यदि धर्म मान्यताओं पर अवलंबित हैं, तो उनमें अवश्य ही परस्पर विरोध होगा यह समझना बहुत आसान है, क्योंकि मान्यताएँ तो अक्सर ही विरोधी हुआ करती हैं , और साधारण मनुष्य इतना विवेकशील और धैर्यवान नहीं होता कि वह धर्म के मूल तत्त्व को जानने की ज़हमत उठाये । हर किसी के लिए तात्कालिक महत्व की दूसरी भी कई चीज़ें होतीं हैं, और धर्म के बारे में कुछ गंभीरता से विचार करनेवालेभी वैज्ञानिक ढंग से उसकी परीक्षा करने से घबराते हैं । भय तथा परंपरा ही उन्हें ऐसा करने से रोकते हैं । वे धर्म को या तो पूरी तरह से पाखण्ड या ढकोसला कहकर नकार देते हैं, या तथाकथित रूप से प्रगतिशील भी होते हैं, तो वैज्ञानिक ढंग से उसके तत्त्वों को जैसा उन्हें समझ आता है, येन केन प्रकारेण सही सिद्ध करने की कोशिश करने लगते हैं । कुछ लोग तो धर्म से चिढ़ जाते हैं, तो दूसरे कुछ उग्र रूप से धर्म के कट्टर हामी हो जाते हैं । फ़िर यहाँ एक और दुर्भाग्य यह है कि जो 'धर्म' कट्टर होता है, उसके प्रति चिढ़े हुए लोग तो अपनी चिढ ज़ाहिर करने से डरते हैं, लेकिन सहिष्णु 'धर्म' से चिढ़नेवाले अपने ही 'धर्म' को जी भरकर गालियाँ भी दे लेते हैं । इसके क्या परिणाम हो सकते हैं , अनुमान लगाना कठिन नहीं है । पर इसमें संदेह नहीं कि ये सभी अपनी-अपनी 'मान्यताओं' के ही अनुसार 'धर्म' के प्रति व्यवहार करते हैं । धर्म की प्रासंगिकता के बारे में सोचने से पहले इस मूल तथ्य की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जा पाता कि धर्म से हम क्या समझते हैं, यह जानना ज़रूरी है ! इस बारे में स्पष्टता होना आवश्यक है । यदि धर्म एक अपरिभाषित, अमूर्त्त, वस्तु या कारक है, तो वह नितांत वैचारिक अस्तित्त्व रखनेवाली एक चीज़ है; -विचार-मात्र है । जैसे जाति, वंश, इतिहास आदि हैं । यदि हम यह समझने की कोशिश करें कि 'इतिहास' क्या है ? तो जो मूल समस्या हमारे सामने आती है, वह यह है : किसका 'इतिहास' ? आप युद्धों का इतिहास, शिक्षा का इतिहास, साहित्य का इतिहास, खेलों का इतिहास, निर्माण-कला और स्थापत्य का इतिहास, विज्ञान के विकास का इतिहास, संगीत का इतिहास, आदि कितने ही क्षेत्रों को सन्दर्भ में रखते हुए, बिल्कुल अलग-अलग नतीजों पर पहुँच सकते हैं । क्या इसी तरह से 'धर्म' के इतिहास का अध्ययन और अनुसंधान, अन्वेषण नहीं किया जाना चाहिए ? हम समझते हैं, कुछ लोगों ने वह भी किया है । हाँ, इने-गिने लोगों ने अवश्य ही किया है, लेकिन जिस प्रकार मानव-इतिहास के साथ तात्कालिक या लाभों (!), या पूर्वाग्रहों आदि के कारण छेड़-छाड़ की गयी है, वैसी ही छेड़-छाड़ 'धर्म' के इतिहास में भी 'अध्ययन' और खोज के बहाने से की गयी है, इसे सिद्ध किए बिना ही देखा जा सकता है । इतिहासकार स्वयं ही अपने आग्रहों, प्रलोभनों, भयों, से बँधे होते हैं । "Sponsered" , किसी राजनैतिक दल या वर्ग , उसके से 'प्रवर्तित' , परिचालित होते हैं । वे इतिहास की वैसी ही 'व्याख्या' और 'खोज' करते हैं, जो उनके प्रवर्तकों द्वारा इंगित किए गए 'निष्कर्षों' का समर्थन और 'पुष्टि' कर सकें । 'धर्म' के मामले में तो यह सौ फ़ीसदी सही है । 'धर्म' का इतिहास जैसा है, वैसा शायद ही कोई खोजना चाहता है । लगभग हर कोई उसे वैसा खोजना चाहता है, जो उसकी रुचियों से मेल खाता हो । फ़िर, इस बारे में सबसे अधिक दिलचस्पी राजनीतिज्ञों की होती है । उनके पास 'talent' नहीं होती, इसीलिये वे राजनीति में जाते हैं । फ़िर वे तथाकथित 'talented' लोगों को 'खरीदने' लगते हैं । वे इतिहास को तोड़-मरोड़कर, अपने लक्ष्यों के अनुकूल उसकी 'व्याख्या' प्रस्तुत करते हैं । यह ऐसा दुश्चक्र है, जिसमें सारी मनुष्यता लगातार अधिक से अधिक अन्धकार की ओर, अशांति व पारस्परिक वैमनस्य की ओर बढ़ती चली जा रही है । इस सबकी जड़ में राजनीतिज्ञों के अपने भय, लोभ और अविवेक, दंभ, और 'मद' हैं । संक्षेप में, -'अविवेक' । पहले तो हमें धर्म और अध्यात्म को अलग-अलग करना होगा । इन्हें एक-दूसरे से अलग कर लेने के बाद यदि यह लगता है, कि उन्हें एक-दूसरे से अलग किया ही नहीं जा सकता, तो हमें धर्म को नए सिरे से समझना होगा । सामान्यतः सब-कुछ इतना गड्ड-मड्ड हो गया है, कि मनुष्य कभी उनके बारे में ठीक से खोजबीन ही नहीं कर पाता । 'ईश्वर', 'पवित्र'-ग्रन्थ, और उनके द्वारा मनुष्य के लिए 'निर्धारित' किया गया 'धार्मिक' आचरण, इन सबकी परीक्षा करना तक निषिद्ध कर दिया गया है । फ़िर उनके 'मतभेदों' के बीच तालमेल कैसे हो ? शिक्षा-संस्थानों में तथाकथित 'दर्शन-शास्त्र' में उस संबंध में 'अध्ययन' ज़रूर किया जाता है, लेकिन वह 'सतही' और पूर्वाग्रह-ग्रस्त होता है । 'तुष्टिकरण' से 'प्रवर्तित' होकर किया जाता है । हो सकता है कि 'अध्ययन-कर्त्ता' अध्यवसाय-शील हो, मेहनती और 'talented' भी हो, लेकिन उसकी सारी 'प्रतिभा' और टेलेंट का दोहन 'प्रवर्तक' के 'लक्ष्यों' की प्राप्ति की दिशा में किया जाता है । जैसे सरकारी योजनाएँ होती हैं ! यह 'अध्ययन' 'तुलनात्मक' , और 'विचारों' से 'विचारों' तक' 'विचारकों' से 'विचारकों' तक सीमित रहता है । उसका 'जीवन' की वास्तविकता से ज़रा भी संबंध नहीं होता । या फ़िर, 'भारतीय दर्शन' के अन्तर्गत मुख्यतः हिन्दू, बौद्ध, और जैन मतों आदि में, योग, वेदान्त, तंत्र आदि परम्पराओं के अनुसार किया जाता है । इस प्रकार का अध्ययन भी आज के तथाकथित 'बुद्धिजीवियों' का वाग्विलास भर है, क्योंकि भारतीय दर्शन में वैचारिक या कोरे बौद्धिक तर्क-वितर्क को सत्य के उदघाटन में बाधक और निष्फल कहा गया है । वहाँ साधना और 'तपस्या' अर्थात् 'तप' पर, और मुख्यतः 'पात्रता' पर, जोर है । लेकिन आज के तमाम बुद्धिजीवी सोचते हैं की बिना 'पात्रता' के सत्य को 'समझ' या 'प्राप्त' कर लेंगे । इस बुनियादी भूल की जान-बूझकर भी उपेक्षा की जाती है । सारे 'धर्मों' की 'समानता' घोषित करनेवाले किसी एक धर्म के तत्त्व तक को जाने बिना ही ऐसे 'आदर्शों' को स्थापित करते हैं, जो कालांतर में एक सर्वमान्य सत्य समझ लिए जाते हैं । भारतीय तत्त्व-दर्शन में अनेक सम्प्रदाय हैं, और उनके अपने-अपने चिंतन-प्रकार हैं । वे किसी मान्यता पर जोर नहीं देते । वे "एकं सत् विप्राः बहुधा वदन्ति " की दृष्टि रखते हैं । पश्चिमी मतवादों से उनकी तुलना तक नहीं है, लेकिन तथाकथित 'सर्व-धर्म-समानता' के विचार से मोहित-बुद्धि लोग, उसके कायल, जानबूझकर तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं । सवाल यह नहीं है कि क्या भारतीय तत्त्व-दर्शन और उसके विभिन्न 'सम्प्रदाय' ही सत्य या धर्म को समझने के एकमात्र सम्यक् साधन हैं ? सवाल यह है कि क्या भारतीय तत्त्व-दर्शन और चिंतन की प्रणालियाँ और पश्चिमी विचार-धाराओं, तथा चिंतन-प्रणालियों की परस्पर तुलना की भी जा सकती है या नहीं ? तमाम भारतीय तत्त्व-दर्शन जीव की मुक्ति / निर्वाण को ही परम लक्ष्य मानते हैं । आत्मा- परमात्मा के संबंध में उनके दृष्टिकोण में अन्तर भी हो सकता है, लेकिन 'मुक्ति' के बारे में कोई मतभेद नहीं हैं । पाश्चात्य दर्शन (?) में तो स्वर्ग-नरक और एक (?) ईश्वर के 'होने' या न-होने के बारे में आग्रहों, और वैचारिक (!) कुश्ती से आगे बात नहीं जाती । इस प्रकार यदि 'मान्यताओं' को ही 'धर्म' कहा जाए, तो भी मोटे तौर पर भी 'धर्म' का स्पष्ट विभाजन पाश्चात्य और पौर्वात्य के रूप में मौजूद है । फ़िर तथाकथित 'पाश्चात्य' 'धर्म' में 'मान्यताओं' के सिवा और क्या है ? सवाल यह नहीं है कि वे मान्यताएँ सत्य हैं या असत्य, सवाल यह है कि सारी परस्पर विरोधी मान्यताएँ एक साथ कैसे सत्य हो सकती हैं ? मैं सोचता हूँ कि मैं अपनी बात कह पाया । अब चाय !"
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