February 02, 2009

उन दिनों .-1.

उन दिनों - 1.
"तुम कुछ लिखते हो ?" -मैंने पूछा ।
"हाँ", पहले लिखता था, , शुरू में रिपोर्टिंग करता था, फ़िर आलोचनाएँ लिखने लगा, और बाद में कविताएँ, कहानियाँ आदि भी । "
"फ़िर उपन्यास नहीं ? -मैंने चुटकी ली ।
"हो-हो-हो- , वह हंसने लगा ।
थोड़ी देर तक हम चुप बैठे रहे ।सामने टेबल पर अखबार रखा हुआ था,जिस पर उसने अपने पैर फैला रखे थे, और वह बड़े आराम से बैठा था । मैं मुस्कुरा रहा था ।
"कुछ याद नहीं आता अखबार पर नज़र पड़ने पर ?" - मैंने कुरेदा ।
"हाँ, लेकिन कुछ ख़ास नहीं । उन दिनों हमारे यहाँ संगीत सभाएँ हुआ करती थीं , "पार्टीज़" । लड़के-लड़कियाँ डान्स किया करते थे । 'एक्सटेसी' का चलन था ।"
"अच्छा !"
"हाँ, सब सुखी थे । जीवन में उत्तेजनाएँ थीं । भारत था, हमारी संस्कृति का विस्तार हो रहा था । और हम युवा लोग तंत्र, योग और पूर्वी संस्कृति के रंगों में अपने आप को रंग रहे थे । 'मेडिटेशन' और 'पेरासायकोलोजी' हमें बहुत आकर्षित करता था । इसे हम विकास समझते थे ।"
जब वह काफी देर तक चुप ही बैठा रहा, तो मैंने उसे पुनः झकझोरा ,
"तो क्या वह विकास नहीं था ?"
"था । पर नहीं था । " - कहकर वह चुप हो गया ।
"क्यों ?"
"देखिये हमारी सारी उठापटक उसी दायरे में बँधी हुई थी , -"डिव्हिजिव" , बुद्धिपरक । "
"एनेलिटिकल" ?
"हाँ, फ़िर औरोबिन्दो थे ,उनका 'समन्वय-दर्शन' था, पर वह , ... " - उसने वाक्य को वहीं विराम दे दिया ।
"अच्छा, यह बताओ कि जब कहीं कुछ नहीं था, न ज़ेन , न ताओ, न स्पिरिचुअल हीलिंग, तो फ़िर वह क्या था जिसके पीछे तुम पागल थे ? "
"मीनिंग, परपज इन लाइफ, " -कहते हुए वह हँसने लगा ।
"तुम हँसे क्यों ? "
"स्पिरिचुअल हीलिंग को मैं स्पिरिचुअल व्हीलिंग कहा करता था उन दिनों , -सो याद आ गया । "
-उसने कारण बतलाया ।
" तो फ़िर टर्निंग-प्वाइंट कहाँ आया ?
"हमने महसूस किया कि समथिंग इज बेसिकली रोंग विथ अवर अप्रोच । जे कृष्णमूर्ति की बातें अपील होतीं थीं , लेकिन , ... " मौन उसकी सहज मुद्रा थी ।
"हम कविता के बारे में बात करें ?"
"जी । "
"कहाँ से शुरू करें ? "
"मुझे लगता है कि कविता मूलतः अनुभूति और अभिव्यक्ति का जोड़ होती है । अनुभूति किसी जीवित अथवा चेतन-सत्ता में ही सम्भव होती है । जड़ या निर्जीव वस्तुएँ अनुभूति नहीं कर सकतीं । और अभिव्यक्ति करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । " मैं सुन रहा था । वह मुस्कुराने लगा ।
"आपने मेरी बात ऐसे ही मान ली ?" -उसने पूछा ।
"नहीं तो , मैं सुन रहा हूँ । " -मैंने उत्तर दिया ।
"वही तो ! मुझे यही उम्मीद थी कि आप असहमत होते हुए भी धैर्यपूर्वक सुनेंगे । लेकिन मैंने अभी-अभी जो कहा वह मेरी तब की समझ थी जब मैंने कुछ लिखना बस शुरू ही किया था । "
"फ़िर ?"
"अब मैं कह सकता हूँ कि जिन्हें मैं निर्जीव वस्तुएँ कहता हूँ उनकी अनुभूति-क्षमता के बारे में मैं अधिकारपूर्वक कुछ तय नहीं कर सकता । मेरे पास इसका भी कोई प्रमाण नहीं है, कि उनमें अनुभूति-क्षमता नहीं होती । "
"क्यों ?"
"क्योंकि सजीव तथा निर्जीव के बीच विभाजन का कोई आधार कैसे तय किया जा सकता है ?"
"हम अनुभूति की बात कर रहे थे । " -मैंने दिशा बदली ।
"अनुभूति के लिए एक अन्तःकरण का होना भी आवश्यक होता है, अंतःकरण के अभाव में अनुभूति कैसे हो सकती है ? "
"और अंतःकरण तो किसी सजीव वस्तु में ही हो सकता है । "
"हम अंतःकरण किसे कहेंगे ?"
"अंतःकरण अर्थात् ह्रदय या मस्तिष्क की वह क्षमता जिससे अपने आसपास की अन्य वस्तुओं के बारे में कोई कल्पना या विचार ग्रहण किया जाता है । यह विचार शब्दगत भी हो सकता है , भावगत या अमूर्त भी हो सकता है । यह किसी स्मृति अथवा चित्र के रूप में भी अंतःकरण में संचित / दर्ज हो सकता है । तब इसे अनुभूति कहेंगे । "
"क्या बोध-क्षमता अर्थात् अवेयरनेस और अनुभूति-क्षमता एक ही वस्तु हैं ?"
"ज़ाहिर है कि वे दोनों बहुत अलग-अलग चीजें हैं । अनुभूति के लिए बोध-क्षमता होना जरूरी होता है, बोध-क्षमता न हो तो अनुभूति होने की कोई संभावना नहीं रह जाती , लेकिन अनुभूति न हो तो भी बोध-क्षमता अबाध रूप से बनी रह सकती होगी । "
"और ?"
"अनुभूति आने-जानेवाली वस्तु है , जो बोध-क्षमता के होने पर ही अस्तित्व में आती और मिटती रहती है । "
"और ?"
"दूसरी तरफ़ बोध-क्षमता एक स्वाभाविक वस्तु है , मेरा मतलब यह है कि वह एक ऐसी स्वतंत्र सत्ता है जो अपने अस्तित्व के लिए किसी दूसरे पर आश्रित नहीं होती । "
" क्या इस बोध-क्षमता को जागृत किया जा सकता है ?"
"नहीं । "
"फ़िर ?"
"इसका आविष्कार ज़रूर हो सकता है । "
"मतलब ? "
"यह कोई आने-जानेवाली , प्रकट या विलुप्त होनेवाली चीज़ तो नहीं है । लेकिन यह है ,-बस है भर । "हाँ यदि कोई इसके प्रति गंभीर और उत्कंठित हो तो इसकी स्वाभाविक पूर्व-अवस्थिति के प्रति जागृत हो सकता है, उससे अवगत हो सकता है । "
"कोई," मतलब ? -मैंने पूछा ।
" मन, कोई अंतःकरण , कोई चेतना । "
"और 'विचार' ?"
"विचार, जैसा कि मैंने कहा , अनुभूति है । विचार को भी दो रूपों में समझा जा सकता है, -एक तो वह जो अभिव्यक्ति या भाषागत शब्द-विन्यास के रूप में हुआ करता है, -वह किसी तात्पर्य को इंगित तो करता है लेकिन वह 'बोध-क्षमता' नहीं होता । दूसरी ओर बोध-क्षमता के प्रकाश में देखे गए सत्य को प्रकट करने के लिए भी किसी शब्द-विन्यास का इस्तेमाल किया जा सकता है और इस विचार को सार्थक होने के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ होती है, - सम्प्रेषनीयता । "
"लेकिन सम्प्रेषनीयता तो अपनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने और किसी दूसरे मनुष्य की अभिव्यक्ति को यथावत ग्रहण करने के लिए भी उतनी ही ज़रूरी चीज़ होती है ! "
"हाँ, होती तो है , लेकिन इसे मैं एक उदाहरण के द्वारा समझाना चाहूंगा । क्या आपको कभी मेरी याद आती है ?"
"हाँ, कभी-कभी आती है ।"
"कभी-कभी क्यों?"
"जैसे अन्य लोगों की , घटनाओं की, वस्तुओं, स्थितियों, आदि की याद कभी-कभी आया करती है, उसी तरह से । "
"अच्छा, आप मेरे बारे में सोचते हैं ?"
"हाँ, ज़रूर सोचता हूँ । " -मैं मुस्कुराने लगा था । "
"ग़लत ! आप मेरे बारे में कभी कुछ नहीं सोचते, और सच तो यह है कि मैं भी आपके बारे में कभी भी बिल्कुल नहीं सोचता । "
मैं मौन हो गया था उसकी इस बात पर । वह भी मौन था ।
"आगे कहो ! " -मैंने क्रम को आगे बढाया ।
"पहले यह बतलाइये कि मेरे वक्तव्य से आप सहमत हैं या असहमत हैं ?"
"सहमत हूँ, सौ फीसदी । "
"ठीक है , अर्थात् आप मेरे बारे में नहीं, बल्कि मेरे विषय में आपके पास जो जानकारी , कल्पनाएँ आदि हैं, और उनके माध्यम से आपने मेरी जो 'प्रतिमा' बनाई है , उस प्रतिमा के बारे में सोचते हैं । और इसी प्रकार हम सभी एक-दूसरे की स्मृतियों, कल्पनाओं,आदि से बनी एक-दूसरे की प्रतिमा के बारे में अनुमान करते हैं, उन प्रतिमाओं को निरंतर बदलते, संशोधित करते रहते हैं । "
" ठीक है, और सम्प्रेषनीयता के बारे में क्या कहोगे ? " -मैंने प्रश्न किया ।
"तात्पर्य यह हुआ कि किन्हीं भी दो मनुष्यों की अनुभूतियों , विचारों, कल्पनाओं, स्मृतियों, आदि से उनके द्वारा निर्मित की गयी जगात्प्रतिमाएं एक दूसरे से काफी भिन्न होती हैं । "
"ठीक है । "
"अतः अनुभूति की अभिव्यक्ति जिस शैली, विन्यास, माध्यम आदि से की जा रही है, और उसे जिस शैली, विन्यास, और माध्यम में ग्रहण किया जा रहा होता है, यदि उनमें समरूपता नहीं है, तो सम्प्रेषनीयता बाधित होती है । "
अब 'कविता' के बारे में कुछ बातें करने हेतु आधार तैयार हो चुका था ।
"कविता, जैसा कि मुझे लगता है, अनुभूति एवं अभिव्यक्ति का जोड़ होती है । "
"क्या कविता के लिए कोई श्रोता या पाठक हो, यह ज़रूरी होता है ?"
"मुझे लगता है कि वैसे तो कविता अपने-आप में ही एक अद्भुत सृष्टि होती है, -जैसे किसी बहुत विस्तीर्ण सरोवर में खिला हुआ एक कमल-पुष्प होता है । वह किसी प्रशंसक की प्रशंसा का मोहताज़ नहीं हुआ करता , लेकिन यदि प्रशंसक सौन्दर्य की परख रखता है, तो अवश्य ही उस पुष्प से उसका संवाद स्थापित हो जायेगा । "
"शायद इसे ही सम्प्रेषनीयता कहेंगे !"
"जी । "
"अब हम कथ्य पर आयें । "
"कविता में कथ्य तो होता ही है, कथा न भी हो तो भी चलेगा ,लेकिन कथ्य का होना तो अपरिहार्य ही होता है । उसके अभाव में तथ्य अनुभूति तक सिमटकर रह जाएगा । "
"और कथ्य ?"
"हाँ, कथ्य के ही बारे में कह रहा हूँ । कथ्य ही अभिव्यक्ति की शैली, विन्यास माध्यम, अर्थ आदि तय करेगा । "
"जैसे ?"
"जैसे अपनी अनुभूति को मैंने मान लीजिये कि एक कविता के रूप में प्रस्तुत किया तो मेरी अनुभूति की विशेषताओं के अनुसार वह गहन, या उथली, स्तरीय या अधकचरी बन जायेगी । इसलिए जैसा कि मैंने कहा कविता तो स्वयं में एक अद्भुत सृष्टि होती है पर तब वह सिर्फ़ मेरे लिए ही अद्भुत होगी । और, कोई वस्तु अकेली ही अद्भुत नहीं हो सकती, उसे अद्भुत समझनेवाला , कहनेवाला कोई होता है, तभी वह अद्भुत हो सकती है । "
"इसे दूसरे उदाहरण से समझाओ । "
"एक पेंटिंग का उदाहरण देखें । चित्रकार अपने द्वारा तय प्रतिमानों आदि से पेंटिंग का विशिष्ट भाव (थीम), और प्रभाव सुनिश्चित करता है । एक रेखा या बिन्दु का विन्यास, रंग का शेड, या माध्यम, जल-तैल , या कोई अन्य, एक्रिलिक, या ऑइल, आदि यह तय करता है कि वह पेंटिंग में जो कुछ अभिव्यक्त करना चाह रहा था, वह किस हद तक वैसा हो सका है । यहाँ तक कि कैनवास का आकार भी महत्वपूर्ण होता है। उसे किस समय और किस प्रकाश में देखा जाए यह भी महत्वपूर्ण हो सकता है ! लेकिन यदि सम्प्रेषनीयता नहीं है, तो वह पेंटिंग चित्रकार की दृष्टि में भले ही अद्भुत हो, अद्भुत प्रमाणित नही हो सकेगी । "
"लेकिन फ़िर भी वह स्वान्तः-सुखाय तो हो ही सकती है । "
"हाँ, कवि या कलाकार अपनी सृष्टि को अपनी कल्पना की सर्वोत्तम प्रस्तुति के रूप में देखकर एक आत्मसंतुष्टि ज़रूर अनुभव कर सकता है । "
"अभी हमें इस बारे में बहुत सी बातें करनी थीं , मसलन, समयगत और समय से अछूती कविता, कविता और बौद्धिकता, कविता और यथार्थवाद, कविता और आदर्शवाद, कविता और प्रतिबद्धता इत्यादि - इत्यादि । **********************************************************************************



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