February 22, 2009

उन दिनों / 3.

"क्या यहाँ यह आवश्यक नहीं है कि इस वक्तव्य को पर्याप्त सावधानीपूर्वक विश्लेषित किया जाए ? " -मैंने प्रश्न उठाया ।
"हाँ", वह थोड़ा सा झेंप सा गया ।
"हाँ, और नहीं, वास्तव में यह एक वक्तव्य विमर्श का एक नया आयाम प्रशस्त करता है । " -उसने आगे कहा ।
"मैं यही सोच रहा था । " -मेरा प्रत्युत्तर ।
"लेकिन जब हम बोध-क्षमता , संवेदन-क्षमता, संवेदनशीलता, चेतना , अवबोध आदि के परिप्रेक्ष्य में बात करते हैं, तो संवेदन (perception) के तथ्य को किसी भी तर्क से अस्वीकृत नहीं किया जा सकता । 'perception' नामक अमूर्त तत्व, वस्तु, या घटना तो स्वयंसिद्ध, स्वतःप्रमाणित तथ्य है । इसका तो किसी काल या स्थान (देश-काल) में अभाव नहीं हो सकता । क्योंकि इसके अभाव में तो जीवन ही नहीं रहता । यदि रहता भी हो तो उसका क्या प्रमाण ? जो कहता है कि जीवन तो तब भी रहता है, उसे ही बतलाना होगा कि उस जीवन का क्या सवरूप, रंग-रूप, बनावट आदि है, और क्या वह अपना अस्तित्व घोषित करता है ? और यदि उसे नहीं जाना गया तो उसके अस्तित्व का क्या प्रमाण ? अतः 'जानना' तो जीवन का स्वरूपगत घटक है । हम कहें कि 'जानना' या 'पता चलना' या सामान्यतः consciousness का जो अर्थ किया जाता है उसके अभाव में, अभाव को तो जाना ही जाता है । 'जानना' स्वयं ही अपना प्रमाण है । 'कोई' 'जाननेवाला', वहाँ मौजूद होता है । अतः जो 'है', याने अस्तित्व-मात्र का एक घटक / आयाम है, -'जानना', और अस्तित्व भी अंततः और स्वाभाविक रूप से 'जानने' का एक घटक / आयाम है । अतः जो 'है', उसे दो दृष्टियों से समझा जा सकता है - पहला, 'Consciousness' is one aspect of 'Being'. और दूसरा, -'Being' is another aspect of 'Consciousness' । यहाँ 'Being' से मेरा तात्पर्य है, -जो भी 'है', -याने 'अस्ति', 'अस्तित्व', जिसका भी अस्तित्व है, वह । और 'Consciousness' से मेरा अभिप्राय है, -'acquaintance', याने बोध, 'पता चलना' ।
हालाँकि ये दोनों एक ही वस्तु के दो पक्ष हैं, लेकिन इन्हें दो भिन्न चीज़ें समझा जाता है । 'जानने' को, ज्ञान का नाम दे दिया जाता है, व उसे मस्तिष्क से , शाब्दिक सूचनाओं से सम्बंधित किसी वस्तु की तरह देखा जाता है । जो 'है', वह तो निर्विवाद रूप से है ही । उसके मूल स्वरुप के बारे में मतभेद हो सकते हैं, लेकिन उसके 'होने' पर कौन संदेह कर सकता है ? तब कम से कम उस संदेहकर्ता का अस्तित्व है, यह तो मानना ही होगा । इस प्रकार 'यह है, / वह है, /मैं हूँ, / तुम हो, / आप हैं, /हम हैं,' आदि में 'होने' डीके ज्ञान तो सर्वनिष्ठ, आधारभूत तत्व होता ही है ।
समस्या तब होती है, जब मस्तिष्क-गत जानकारी, (जो स्मृति पर ही अवलंबित होती है) को 'ज्ञान' समझ लिया जाता है । यह जानकारी तो मस्तिष्क में बनी उस 'है' की भाषागत / शब्दगत प्रतिमाएँ मात्र होती हैं, जिसे हमने वस्तु (जो 'है') के विकल्प के रूप में चुना होता है ।
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