"मैं चाहता हूँ कि हम बोध-क्षमता (awareness), संवेदन-क्षमता (perceptivity), संवेदनशीलता (sensitivity), चेतना (consciousness), अवबोध (sensibility), आदि पर विस्तार से बातें करें ।"
"अभी हम मनुष्य के सन्दर्भ में इस पर बात करें तो कुछ आसानी होगी । "
"हाँ, ऐसा लगता है कि अपनेआपको हम मनुष्य के अधिक नज़दीक महसूस करते हैं । "
इन सारी चीज़ों में जिस बारे में सर्वाधिक सहमति हो सकती है, वह है -चेतना । मुझे जो कुछ भी पता चलता है उसे बोध-वृत्ति कहें तो हममें 'पता चलना' याने बोध-वृत्ति, दो तरह से कार्य करता है । पहला तो मुझे मेरी ज्ञानेन्द्रियों (त्वचा, आँखों, नाक, जीभ, कानों ) के माध्यम से कुछ पता चलता है, 'जिसे' पता चलता है, वह शरीर के भीतर ही कहीं स्थित है । 'जो' पता चलता है, वह मस्तिष्क और ह्रदय या शरीर में अन्यत्र 'कहीं' पता चलता है । उसे शब्द का आवरण न दें तो भी वह अनायास ही पता चलता रहता है । उस इन्द्रिय-गम्य वृत्ति-विशेष पर मेरा ध्यान कभी-कभी होता है, और कभी कभी नहीं भी होता । इस प्रकार का मेरा ध्यान एक समय में प्रायः एक ही संवेदन-विशेष में संलग्न रहता है । उदाहरण के लिए, यदि मैं कुछ पढ़ रहा होता हूँ, तो मेरा ध्यान या मेरे चित्त की स्वाभाविक एकाग्रता सामने दृष्टिगत होनेवाले अक्षरों-शब्दों आदि पर होती है । इस दौरान, मेरे ध्यान का एक अंश विभिन्न ध्वनियों पर भी होता है, लेकिन ध्यान का मुख्य अंश तो आँखों के माध्यम से पढ़ी जा रही सामग्री पर ही स्थिर रहता है ।
इसी समय यदि कोई ऐसी आवाज़ अचानक होती है, जो ध्यान की इस धारा में बाधा बन रही हो, तो मेरा ध्यान उन शब्दों, उनके तात्पर्य आदि से हटकर उस दिशा में चला जाता है, जहाँ से वह आवाज़ आ रही होती है । यदि उस आवाज़ से मेरे कार्य में खलल नहीं पड़ता, तो मेरा ध्यान पुनः पढ़ने में लग जाता है । जब मैं पढ़ता हूँ, तो एकाग्रता शब्दों / वाक्यों पर होती है । इसी प्रकार, यदि मैं आँखें बंद रखकर संगीत का आनंद ले रहा होता हूँ, तो मेरा ध्यान प्रमुखतः उस संगीत की विशिष्टताओं / बारीकियों पर लगा होता है । इन दोनों क्रियाओं में यह भी सम्भव है,(और प्रायः तो यह होता ही है) कि इसके साथ साथ मेरे मस्तिष्क में विचारों का भी कोई क्रम चल रहा हो । ये विचार निश्चित ही मेरी स्मृति से उठ रहे होते हैं, जो बात स्मृति में न हो, उसके बारे में विचार भी नहीं आ सकते । विचारों की जोड़-तोड़ से मैं कल्पना ज़रूर कर सकता हूँ, कि मैंने कुछ'नया' सोचा, पर वह 'नया' काल्पनिक ही होता है । कोई नया 'आइडिया' भी पुराने के ही विशिष्ट प्रतिफल के रूप में स्मृति से ही आया होता है, लेकिन चूँकि किसी दूसरे के मस्तिष्क में वह अभी तक नहीं आया होता, इसलिए मैं उसे 'नया' समझने लगता हूँ । किसी भी क्षण, किसी भी दूसरे मस्तिष्क में, इरर एंड ट्रायल या विचारों के मैनिपुलेशन से वह आ सकता है । अतः विचार (स्वरूपतः) कभी 'नया' नहीं हो सकता ।
इसी प्रकार,यह भी सम्भव है कि पुस्तक पढ़ते समय या संगीत सुनते समय मैं चाय या काफ़ी की चुस्कियाँ या सिगरेट के कश ले रहा होऊँ, तब मुझे जो 'लगता' है, उसमें मेरा ध्यान एक से अधिक 'विषयों' से जुडा होता है । और ध्यान की इस वृत्ति-विशेष में बंटाव हो जाता है । एकाग्रता दो-तीन में बँट जाती है । इस प्रकार मेरा चित्त, एक बहु-आयामी माध्यम है, जिसके द्वारा भिन्न-भिन्न विषयों को ग्रहण किया जाता है । और जाहिर है कि 'मैं' और 'मेरा चित्त' एक ही वस्तु हैं । "
February 21, 2009
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