February 26, 2009

उन दिनों / 5.

"हमारे भाषागत अभ्यास और सुविधा के लिए भले ही हम पुनः पुनः 'मैं' या 'मेरा' पर लौटते रहते हैं, लेकिन यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हमारा पूरा व्यक्तित्व (या चेतना) इस मैं की छाया में गतिमान रहता है । यदि 'मैं' नहीं, तो क्या व्यक्तित्व का कोई आधार कहीं मिलता है ? इस प्रकार उस 'मैं' का एक संभावित रूप इस तरह से भी हो सकता है । क्या व्यक्तित्व 'मैं' की इस छाया के अभाव में भी कार्य कर सकता है ? किंतु जैसा कि हम देख चुके हैं, मन, बुद्धि, विचार, अनुमान आकलन और कुछ हद तक भावनाएं भी निरंतर इस 'मैं' से जुड़े प्रतीत होते हैं, -बल्कि हम बहुत आग्रहपूर्वक उन सबका 'अपना' या 'मेरा' होना मान्य भी करते हैं । इस प्रकार अनजाने ही हम यह भी कहना चाहते हैं कि वे मेरे / मेरा / मेरी / आदि हैं , और इसका एक तात्पर्य यह हुआ कि 'मैं' (जो भी कुछ होता हो) इन सबका स्वामी या मालिक है । अर्थात्, यह सब विचार, बुद्धि, भावनाएँ, संस्कार , कर्म, स्मृतियाँ, आदि 'मैं' नहीं । क्योंकि जो आज 'मेरा' है, वह किसी भी क्षण 'मेरा नहीं' या किसी और का हो सकता है । विचार, बुद्धि, भावनाएँ, संस्कार, कर्म, प्रवृत्तियाँ, स्मृतियाँ, संशय, इच्छाएँ, आदि निश्चित ही एक अस्थिर और निरंतर बदलते रहनेवाला समूह या समुच्चय ही तो है ! कोई दुर्घटना, ज़रूरत, बाध्यता, इनमें से किसी को भी विलुप्त कर सकती है । क्या इन सबके विलुप्त होने या बदलते रहने में उनमें विद्यमान किसी ऐसे तत्त्व का संकेत नहीं दिखलाई देता जो समय के साथ नहीं बदलता ? क्या वह तत्त्व ही 'मैं' का यथार्थ स्वरुप, 'वास्तविकता' है ? और उसे किस प्रकार 'जाना' जाता है ? क्या वह 'जानना' इन्द्रिय-ज्ञान या सूचनापरक ज्ञान (जानकारी) है ? बुद्धि, विचार, भावनाओं, शारीरिक भूख, प्यास, कष्ट, निद्रा,आदि का ज्ञान भी हमें होता है । क्या यह ज्ञान 'शब्द-गत' होता है ? भूख लगने पर भूख का बोध हमें जिस रीति से होता है, उसमें मूलतः क्या कोई 'जानकारी' होती है ? या वह महज़ एक शारीरिक प्रवृत्ति और उसके फलस्वरूप होनेवाली शारीरिक प्रतिक्रिया मात्र होती है ? और यदि उस गतिविधि को (भूख का) नाम न दें, तो क्या उसका होना रुक जाता है ? क्या उस गतिविधि में कहीं 'मैं' होता है ?
क्या ऐसा कहा जा सकता है कि 'मैं' एक कल्पित / अनुमानित वस्तु है, जिसका अनुमान मन / मस्तिष्क / विचार / बुद्धि करती है ?
जिस तरह से भूख का संशय-रहित बोध होता है, क्या हमें 'मैं' का वैसा बोध होता है ? तो फ़िर 'मैं' क्या है ? विचार,/ मन,/ मस्तिष्क,/ बुद्धि, को सातत्य में रखकर कहीं स्मृति ही तो इसे नहीं गढ़ लेती ? कहीं स्मृति ही तो इस 'स्वतंत्र' 'मैं' को निर्धारित / अनुमानित नहीं कर लेती ? क्या कहेंगे आप ?"
-वह इतना कहकर चुप हो गया । गेंद अब मेरे पाले में थी ।

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