January 27, 2009

अक्षर-ब्रह्म

अर्ध-नारीश्वर ,
सत् और चित्
सत् , -पुरूष पक्ष,
चित्, -स्त्री पक्ष,
दोनों अस्ति भाति की तरह,
एक में दो, और दो में एक,
अपने ही चित् में, चित्दर्पण में ,
सत् ने चेहरा देखा अपना ।
उसे 'गहराई' का आभास हुआ,
और 'स्थान' प्रकट हो उठा ।
चेहरा ?
-या चेहरे का प्रतिबिम्ब ?
जो भी हो, देखा ।
'सत्' ने 'सत्य' को ,
'सत्' ने ही 'असत्य' को ,
'अस्ति' ने 'भाति' को ,
'जो है' ने 'जो है' को, तथा 'जो नहीं है', उसे भी !
और एक और युगल उभरा ।
'तथ्य' और 'मिथ्या' का,
'काल' और 'स्थान' का ।
'जगत' और 'जगत्प्रतिमा' का ।
दोनों अस्थिर, -निरंतर कम्पित ।
एक काल -स्थान में, -जगत,
और दूसरे में जगत्प्रतिमा,
एक काल-स्थान में अनंत विस्तार,
दूजे में अनंत विस्तार का 'आभास' ।
सब में देखा सत् ने , -चेहरा अपना !
या देखा चेहरे का प्रतिबिम्ब ।
चित्दर्पण में उसे गहराई का आभास हुआ,
और, उसकी अपनी ही अनंत प्रतिमाएं विमूढ़ हो उठीं ।
मूर्त्त हो उठीं , चंचल छायाएं ,
जागृत हो उठा एक प्रपंच,
एक जादू, एक तिलिस्म,
अस्तित्व ।
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