October 08, 2025

SAT-ADHARA

Sat-dhARA 

सत्-धारा / सात-धारा

चार सितंबर 2024 की सुबह नर्मदा तट पर स्थित इस स्थान पर आकर वर्ष 2025 में एक वर्ष और एक माह पूरा हो चुका है। पिछले वर्ष के अंतिम चार और इस वर्ष के पहले दो माह बहुत सुख से बीते। आशा है कि इस वर्ष के शेष तीन माह भी शायद यहीं पर सुखपूर्वक बीत सकेंगे। ब्लॉग लिखने, यू-ट्यूब पर छोटे बड़े वीडियो देखने में समय कभी कम पड़ता है, कभी बहुत धीमी गति से चलता हुआ महसूस होता है। अपने हाथ से और  अपनी सुविधानुसार अपने समय पर खाना बनाना और खाना भी अच्छा लगता है। किसी भी समय, कितने भी समय तक सोना भी इसी तरह है। कुछ समय तक बीच में कुछ लोगों से बातचीत हो पाने में कठिनाई हो रही थी। अब वह कठिनाई दूर हो गई है ऐसा लगता है। यह कठिनाई सिर्फ परिचितों से ही नहीं, अपरिचितों को भी मुझसे और शायद मुझे भी उनसे होती रही थी। धीरे धीरे लोग एक दूसरे से अनुकूल हो जाते हैं।

संबंध, संपर्क, संवाद और बातचीत तब सुनियोजित और स्वाभाविक हो जाती है, या बस औपचारिक रह जाती है, तब यह समझ में आ जाता है कि अनावश्यक बातचीत से मनोरंजन तो हो सकता है, बाद में ऊब भी हो सकती है। और हर कोई अकेलेपन से भागने की कोशिश किया करता है और इसलिए यह भी थोड़ा विचित्र है कि इतना परिपक्व होने से पहले, उसे यह नहीं समझ में आता है कि अकेलापन ईश्वर प्रदत्त वरदान ही है न कि एक ऐसी समस्या जिसका हल उसके पास नहीं होता है। यहाँ तक पहुँचने से पहले प्रायः हर किसी को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग तो जल्दी समझ लेते हैं, किन्तु अधिकांश लोग बहुत देर से, या शायद अंत तक भी समझ तक नहीं पाते।

संसार और संसार के समस्त विषयों का संवेदन / perception चेतना / consciousness में ही होता है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ स्वभाविक रूप से बहिर्मुख होती हैं। बाह्य विषयों का संवेदन भिन्न भिन्न प्रकार का होते हुए भी चेतनारूपी पर्दे / interface पर उन्हें ही दृश्य, श्रव्य, गंध, स्वाद तथा स्पर्श के रूप में स्मृति में संग्रहित कर उनमें तारतम्य स्थापित करने के लिए अपने आपको ही आधार बना लिया जाता है और इस प्रकार स्वयं को परिभाषित कर लिया जाता है। यद्यपि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से संसार को जाना जाता है किन्तु जिस बुद्धि नामक यंत्र से यह जाना जाता है वह स्वयं स्मृतिजनित हो सकती है, या बुद्धि नामक यंत्र ही स्मृति के उत्पन्न होने का कारण और आधार भी हो सकता है। यह एक दुष्चक्र है क्योंकि बुद्धि से स्मृति और उसका सातत्य पैदा होता है और स्मृति होने से बुद्धि कार्य करने में समर्थ हो पाती है। इस प्रकार एक विशिष्ट और वैयक्तिक "संसार" का संचार स्मृति / बुद्धि में ऐसे व्यक्ति-सापेक्ष वैचारिक संसार को सत्यता देता है, जो हर किसी के लिए उसका अपना अपना और अलग अलग होता है। व्यक्तियों के समूह या समुदाय के लिए भी ऐसा सामूहिक संसार अस्तित्वमान हो उठता है, और फिर स्मृति / बुद्धि पर आधारित चेतना (perception) में व्यक्ति और उसके संसार की एक कामचलाऊ पहचान और उस पहचान के अपने आपके होने की भावना उत्पन्न होती है। यह सब केवल वैयक्तिक और मानसिक कल्पना होती है।

चेतना के दो अवयव बुद्धि / स्मृति और पराक्रम हैं। भावना इन दोनों के बीच पुल की तरह है। समस्त संवेदन बुद्धि / स्मृति और भावना के माध्यम से ही संभव होते हैं और किसी भी संवेदन की अनुभूति इन्हीं दो में से किसी एक या एक साथ दोनों के ही मिश्रित रूप में होती है।

बुद्धि से किसी वस्तु के मात्रात्मक गुण को जाना जाता है, जबकि भावना से अनुभूति अर्थात् विषय संवेदन के प्रकार को। जैसे फूल की सुगंध अच्छी लगती है, किसी अस्वच्छ या गंदी वस्तु की गंध बुरी लगती है। अच्छा या बुरा लगना स्थूल भावनात्मक अनुभूति का उदाहरण है। इसकी स्मृति और स्मृति से उत्पन्न प्रतिक्रिया पुनः एक और भावनात्मक अनुभूति होती है, जिसे कोई शब्द देते ही "भाषा" नामक एक कृत्रिम साधन उपलब्ध होता है। इस साधन का और अधिक विस्तार तथा विकास होने पर यही बौद्धिक ज्ञान (intellect) का रूप ले लेता है। बुद्धि के कार्य का प्रकार वैज्ञानिक, गणितीय, या तार्किक हो सकता है या अनुभूति पर आधारित कलात्मक। जैसे फूल की गंध को भिन्न भिन्न फूलों के गंध की भिन्नता के तरह भी जाना जा सकता है, या मधुर, कटु, तीक्ष्ण आदि रूपों में भी उसकी पहचान की जा सकती है। यह सब ज्ञान का सूक्ष्म / आधिदैविक रूप है, जबकि स्थूल ज्ञान आधिभौतिक रूप होता है।

गणना करना स्पष्टतः गुणों को गणों में विश्लेषण करने पर निर्भर है, जबकि भावना किसी भावनात्मक संवेदन के प्रकार विशेष पर निर्भर होती है। भावना को गणित या तर्क की कसौटी पर और बुद्धि को भावना की कसौटी पर नहीं समझा या समझाया जा सकता है।

गणपति, या गणेश इसलिए बुद्धि के अधिष्ठाता देवता हैं, जबकि सरस्वती, विद्या की अधिष्ठात्री देवता हैं। संस्कृत भाषा में 'देवता' शब्द / पद को पुल्लिंग या स्त्रीलिंग दोनों ही तरह से प्रयुक्त किया जाता है। इसी तरह, 'अधिष्ठाता' शब्द को भी। अंग्रेजी भाषा में इस शब्द का अनुवाद   'Presiding'  किया जाता है, और प्रचलित रूप में अधिष्ठाता देवता को त्रुटिवश  Presiding Deities कहा जाता है, जो भ्रामक है। क्योंकि  Deity  शब्द  "दिति" से व्युत्पन्न सज्ञात या सजात  cognate  है। दिति और अदिति दोनों बहनें ऋषि कश्यप की पत्नियाँ हैं। दिति से दैत्यों और अदिति से १२ आदित्य / देवताओं का उद्भव हुआ। यह पौराणिक विवेचना है, जबकि वेद और वैदिक आधार पर दैत्य, देवता, यक्ष, गंधर्व, दानव, मनुष्य, राक्षस, किंनर, विद्याधर, अप्सरा आदि भिन्न भिन्न प्रजातियाँ हैं जो दस प्रजापतियों की संतानें हैं। सुर और असुर गुण-कर्म रूपी संपत्तियाँ हैं जिनका दैवासुर संपत्ति के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेख है।

गणपति और सरस्वती के अतिरिक्त पराक्रम के रूप में जिन देवता का उल्लेख वेदों और पुराणों में पाया जाता है उनका नाम है स्कन्द, कुमार, कार्तिकेय, या षडानन। वैदिक ज्यौतिष् के अनुसार स्कन्द को 'षाण्मातुर' कहा जाता है। जब पृथ्वी तारकासुर नामक असुर से त्रस्त थी तो पृथ्वी के उद्धार के कार्य के लिए भगवान् शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार / स्कन्द का अवतार होने का विधान ब्रह्मा ने सुनिश्चित किया था और तब देवताओं ने भगवान् शिव और माता पार्वती को संतानोत्पत्ति के कार्य में प्रवृत्त करने के लिए कामदेव को नियोजित किया। तब कामदेव को शिव ने तृतीय नेत्र खोलकर जलाकर भस्म कर दिया। और भगवान् शिव और माता पार्वती ब्रह्मा के विधान के अनुसार कितने ही दिव्य वर्षों तक सुरत क्रीडा में संलग्न हो गए। जब अत्यन्त देर तक वे इस क्रीडा में संलग्न रहे तो उनकी क्रीडा को किसी ने बाधित किया और  भगवान् शिव के तेजस् वीर्य के उत्सर्जन होने पर पार्वती ने उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया। तब गंगा के जल से कुमार का जन्म हुआ। जन्म लेते ही उछलकर वह खड़ा हो गया। उस दिव्य संतान के छः मुख थे और तब कृत्तिका नक्षत्र की छः तारकाओं / मातृकाओं ने उसे स्तनपान कराया। इसलिए उसका नाम 'कार्तिकेय' हुआ। दिव्य आधिदैविक  घटना का उल्लेख स्कन्द-पुराण और  (संभवतः) श्रीरामचरितमानस में भी है। 

महाकवि कालीदास ने इसी विषय पर "कुमारसंभव" नामक कृति की रचना की जिसमें भगवान् शिव और माता पार्वती के बीच की सुरत क्रीडा का श्रँगारात्मक  वर्णन किया जिससे उन्हें शाप प्राप्त हुआ। 

एक छोटा सा प्रश्न सुबह किसी ने पूछा था :

क्या स्कन्द के षडानन नाम को खड़ानन कहने में कोई दोष है? 

इसका उत्तर यही होगा कि कथा के वाचन में जिस भाषा में कथा है, उस भाषा में प्रयुक्त शब्द को उस तरह कहने में कोई दोष नहीं है, किन्तु वेद में वर्णित भगवान् स्कन्द के मंत्र में इस प्रकार से प्रयुक्त करने में अवश्य दोष है। उदाहरण के लिए -

शिव अथर्वशीर्ष और गणपति अथर्वशीर्ष में स्कन्द को ही गणपति, रुद्र, इन्द्र, वरुण, बृहस्पति, अग्नि, सूर्य, वायु आदि भी कहा गया है। किन्तु षडानन शब्द का अन्यत्र जहाँ प्रयोग किया गया है, वहाँ इस शब्द का उच्चारण इसी प्रकार से किया जाना चाहिए, न कि खड़ानन के रूप में।

Y H V H  य ह्वः

प्रकारान्तर से ऋग्वेद में जहाँ यह्व पद का प्रयोग है और जिसे उसी प्रकार से यहूदी मत में यथावत् स्वीकार कर लिया गया है, षडानन या स्कन्द ही यह्व हैं, इसमें कोई संशय नहीं हो सकता है। यहूदी राष्ट्र इसरायल और उस परंपरा  के उद्भव को इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो इससे भी इसकी पुष्टि हो जाती है। इसरायल के राष्ट्रीय ध्वज पर षट्कोणीय चिह्न भी इसका ही द्योतक है। इस विषय पर पहले भी अनेक पोस्ट्स में विस्तार से लिख चुका हूँ। 

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October 03, 2025

2 X 3 = 6.

कर्म का उद्भव कहाँ से होता है? / कर्म-मूल क्या है? 

Where from arises the Action / कर्म?

The Origin and the roots of :

The Action / कर्म

अध्याय १८ के श्लोक १८ के अनुसार 

ज्ञान ही कर्म का मूल है, अर्थात् ज्ञान का उन्मेष होने के अनन्तर ही कर्म घटित होता है। 

ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना। 

करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसङ्ग्रहः।।

और ज्ञान के व्यक्त रूप में आने के बाद ही कर्म भी व्यक्त हो उठता है जिसका फल अर्थात् कर्मफल भी कर्म का ही विस्तार है।

कर्तुराज्ञया प्राप्यते फलम्। 

कर्म किं परं कर्म तज्जडम्।।१।।

कृति महोदधौ पतनकारणम्।

फलमशाश्वतम् गतिनिरोधकम्।।२।।

ईश्वरार्पितं नेच्छया कृतम्।

चित्तशोधकं मुक्तिसाधकम्।।३।।

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The Two / Three Kinds

यज्ञ-त्रयी, दान-त्रयी, त्याग-त्रयी, कर्ता-त्रयी,  and तप-त्रयी

In the last post, श्रद्धा-त्रयी and ज्ञान-त्रयी  were explained.

Before the Chapter 17, the emphasis was given upon the  निष्ठा  that is synonymous with  श्रद्धा  as elaborated in the verse 1, 2, 3  of Chapter 17 - viz. :

अर्जुन उवाच 

ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः।

तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्वमाहो रजस्तमः।।१।।

Shrikrishna answers in the next verse :

श्रीभगवानुवाच :

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। 

सात्विकी राजसी चैव तामसी तां इति शृणु।।२।।

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। 

श्रद्धामयः अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।३।।

In this way the words  

श्रद्धा  and  निष्ठा 

Convey the same sense, but श्रद्धा  is the foundamental, निष्ठा is of the secondary kind and importance. 

It's like say, the three birds for example - sparrow, crow and parrot. All the three are birds but of three different kinds.

In the 18th Chapter of The Gita, in the verse the root cause, the basic and the secondary nature of manifestation of all Action / कर्म has been dealt with.

यज्ञ, दान, तप, त्याग  are different kinds of Action / कर्म and as has been pointed out before, all are performed accompanied with the kind of determination, faith and belief that could be any of the kind of  सात्विक, राजस  or the तामस.

श्रद्धा is the natural, hereditary nature of the mind, स्वाभावजा - one is born with, is either of the सात्विक, राजस  or the तामस kind, while निष्ठा  is the intrinsic nature. The different kinds of Action / कर्म like the  यज्ञ, दान, तप, त्याग  are of the different kinds of activities one performs and is convinced that it will result in achieving the desired / expected goal example like the health, wealth, power, pleasures in this life or the life one believes that one attains after the death.

The same point has been dealt with in much detail in the Chapter 18.

In the next post with this considerations, the way different people exercise Action / कर्म, will be explained, with the focus of attention on the difference between the one who has attained either the

sAmkhya niShThA / सांख्य  / ज्ञान निष्ठा

Or, the karma niShThA  /  कर्म निष्ठा.

लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ। 

ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।

(गीता अध्याय ३, Gita chapter 3)

Summarily; निष्ठा is of two kinds - 

ज्ञान / सांख्य  / Wisdom, 

and, 

कर्म / Action.

While the  श्रद्धा  is of three kinds -

sAtwikI / सात्विकी, rAjasa / राजस, or tAmasa / तामस.

ईशावास्योपनिषद्  deals with the same point of view  -

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। 

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।।१।।

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः। 

एवं त्वयि नान्यथेतोस्ति न कर्म लिप्यते नरे।।२।।

Again,  the Chapter 2 of Gita is devoted to sAmkhya / ज्ञानयोग, the Chapter 18 is devoted basically to Action / कर्मयोग, and to the conclusion of the Scripture of the Yoga as the essence and the whole.

(UN-EDITED)

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October 02, 2025

THE QUEER

What's What,  Who's  Who!

The Queer and the rest. 

Google Translate told me that there are about 80 words to describe the sense of this word, and there are 9 synonyms too.

This word is far more important to me as it greatly helps me in explaining the greatest (open) secret of all things and everything about Life.

In the broader sense I think I can define all and everything on this earth and in this world through my understanding of so many verses of Gita.

The two most important words I found in English could be :

The Futurist and The Extempore. 

I think this is enough for me. There may be a few other words to explain further what I mean by the word "Extempore".

I could say it means such a someone or something that is spontaneous, now, in this very moment without the hindrance caused by the interference of Thought  which is indicative of some imaginary or hypothetical "Past or Future"  where in an contemplative state of mind, the

In-attention (प्रमाद),

and the  Abstraction (कल्पना), the mind tends to ruminate, begins thinking and there arises subject to the situation,  -a "Thinker",  who assumes an apparent, independent and different existence of oneself, other than the

"Thought and Thinking".

This very "Thinker" though stems from "Thought and Thinking" owns the center stage and declares itself the whole and sole Lord of all and everything, and may be nicknamed "Ego".

This "Ego" or the most Queer  incidence is what is :

What's What and Who's Who

In his own imaginary, hypothetical world centred around "Thought".

It is verily the "Futurist" who is ever so totally and absolutely alienated from the "Now, here and ever,

and everywhere". 

Now the verses referred to the above :

अध्याय ४

अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति। 

नायं लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः।।४०।।

अध्याय १७

त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। 

सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु।।१।।

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयो अयं पुरुषः यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।२।।

यजन्ते सात्विका देवान्यक्षरक्षांसि तामसाः।

प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यक्षरक्षांसि राजसाः।।

(इति श्रद्धात्रयी व्याख्याता।)

इदानीं तु ज्ञान-कर्म-कर्त्तात्रयी विवेच्यते -

अध्याय १८

सर्वभूतेषु येनेकं भावमव्ययमीक्षते।

अविभक्तं विभक्तेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विकम्।।२०।।

पृथक्त्वेन तु यज्ज्ञानं नानाभावान्पृथग्विधान्।

वेत्ति सर्वेषु भूतेषु तज्ज्ञानं विद्धि राजसम्।।२१।।

(The above verse significantly pin-points and highlights the so-called Science and Technology of these times.)

यत्तु कृत्स्नवदेकस्मिन् कार्ये सक्तमहैतुकम् 

अतत्वार्थवदल्पं च तत्तामसमुदाहृतम्।।२२।।

(इति ज्ञानत्रयी)

In the next post I'm going to explain the three kinds of Action (कर्म) and the one who is said to perform the Action (कर्म).

(UN-EDITED)

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October 01, 2025

The Struggler

स्वतंत्रता, शक्ति और मुक्ति
निष्ठात्रयी 
मनुष्य सहित सभी प्राणी लोक निष्ठा से प्रेरित होते हैं। लोक निष्ठा का तात्पर्य है संसार में स्वयं का एक स्वतंत्र अस्तित्व होते हुए भी संसार पर निर्भर होना। इस प्रकार संसार की एक पहचान और उसमें स्वयं की उससे जुड़ी अपनी एक और भिन्न पहचान। अर्थात् मैं और मेरा संसार। दोनों एक दूसरे से कितने अलग, जुड़े या एक दूसरे पर निर्भर हैं यह प्रश्न उसमें शायद ही कभी उठता है। वह भी तभी जब इस संसार में उसे किसी संकट या असुविधा का सामना करना पड़ता है। तब भी वह संसार की वस्तुओं और लोगों में से ही किसी को अपना, किसी को पराया और शेष सभी को अपरिचित कहकर इस रूप में उनकी एक अलग पहचान स्थापित कर लेता है, जो हमेशा बदलती, बनती और मिटती रहती है।
संसार की इसी तात्कालिक पहचान के आधार पर वह 'अपने आप' को निरंतर सुखी, सुरक्षित और स्वतंत्र बनाए रखने में जुटा रहता है। यद्यपि उसे यह भी लगता है कि एक संभावना के रूप में किसी भी समय उसकी मृत्यु हो सकती है, पर 'अपनी' मृत्यु होने का वास्तविक तात्पर्य क्या हो सकता है, इसे वह न तो अनुभव से जान सकता है और न जानकारी की तरह इसलिए उस बारे में वह अधिक कुछ कर भी नहीं सकता। वह केवल यही जानता है कि उसके इस संसार में उसे स्वयं को और उसके 'अपनों' को यथासंभव अधिक से अधिक सुखी, सुरक्षित और प्रसन्न रखना है,और उसके सारे प्रयास इसी भावना से प्रेरित होते हैं। फिर 'अपने' भी कभी मित्र, कभी शत्रु और कभी अपरिचित भी हो जाया करते हैं। वह अपने ऐसे संसार की परिस्थितियों को अनुसार स्वयं को भी बदलता रहता है या किन्हीं आदर्शों, ध्येयों और सिद्धान्तों के लिए अपने जीवन का बलिदान देने को ही जीवन का एकमात्र आदर्श और ध्येय बना लेता है। वह अपने मत का कट्टर अनुयायी बनने का प्रयास करने लगता है, उस पर दृढ़ विश्वास करने लगता है और जैसे ही उसके विश्वास को तोड़ने की कोई चेष्टा कहीं से या किसी के द्वारा की जा रही है उसे ऐसा लगता है तो वह अपनी पूरी शक्ति से उसका न सिर्फ प्रतिरोध ही करता है बल्कि उसके लिए दूसरों के और अपने स्वयं के भी प्राण ले लेना उसके लिए परम पुण्य और सबसे बड़ा कर्तव्य होता है। यह है लोक निष्ठा से प्रेरित मनुष्य का जीवन। वह अंधे की तरह अपने लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ते रहने के लिए बाध्य होता है, फिर भले ही इस प्रयास में वह स्वयं या पूरी दुनिया ही नष्ट हो जाए, इसकी उसे चिंता ही नहीं होती। इसका सबसे अच्छा उदाहरण यदि कोई हो सकता है तो वह है चींटियों का जीवन जीने का तरीका। प्रयोग से भी जाना जा सकता है कि चींटियां दृष्टिहीन होती हैं और केवल गंध  तथा ध्वनि कंपनों के संकेतों के आधार पर, उसी माध्यम से अपना रास्ता तय करती हैं। वे ऊंट या भेड़ों की तरह अनुकरण के सहारे अपना रास्ता तय करती हैं। उन्हें विचार या तर्क आकर्षित नहीं करता। वे सिर्फ तात्कालिक आवश्यकता, लोभ या डर से बाध्य होकर कार्य करते हैं। उनमें से कुछ इने गिने नेतृत्व की क्षमता से युक्त होते हैं जबकि दूसरे अधिकांश सभी, दासता की जंजीरों में बुरी तरह जकड़े हुए होते हैं। यह दासता राजनैतिक से अधिक मंदबुद्धि से उत्पन्न नासमझी के कारण ही होती है। और इसीलिए ये लोग अत्यन्त मूढ़, दुराग्रही और क्रूर तथा कठोर प्रवृत्ति की मानसिकतावाले होते हैं और अधिकार, अवसर और शक्ति मिलते ही दूसरों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने लगते हैं। इनका समूह कितना भी बड़ा हो, इसीलिए धीरे धीरे विखंडित होता रहता है और लगातार टूटता ही चला जाता है। अंततः पूरी तरह से नष्ट ही हो जाता है। जबकि
दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग होते हैं और कुछ सभ्यताएं भी होती हैं जिनकी किसी मूल परंपरा से ही विकसित कोई भाषा, संस्कृति और वैचारिक पृष्ठभूमि होती है जिसमें लोगों के बीच मतभेद हो सकते हैं किन्तु उनमें परस्पर प्रेम, सौहार्द और मानवता के मूल्यों पर आधारित कोई स्वाभाविक विश्वास और आत्मीयता भी होती है, जो न सिर्फ अपने समूह या समुदाय के, बल्कि संसार के सभी प्राणीमात्र के प्रति होती है। और फिर वे भले ही किसी प्रकार के ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करें या न करें, उनके मन और हृदय बहुत विशाल और उदार होते हैं। वे भीरु और शांतिप्रिय, या साहसी और वीर भी हो सकते हैं और समय आने पर उनका यह रूप भी दिखाई देता है। इनकी निष्ठा कर्म और पराक्रम के प्रति होती है। ये समाज और संसार को सतत ऊपर उठाते रहना चाहते हैं। इनमें से कुछ, असफलताओं निराश होकर -
"यह सब क्या है, क्या इस सबका कोई विशिष्ट प्रयोजन है, जैसे प्रश्नों पर सोचने लगते हैं। कभी कभी वे सोचने लगते हैं कि क्या पूरा संसार कभी पूरी तरह सुखी और सुरक्षित हो सकता है?" यद्यपि वे उन अधिकांश लोगों से इस दृष्टि से भिन्न और विशिष्ट भी हो सकते हैं कि उनकी बुद्धि और स्मृति औरों से श्रेष्ठ है, और इसलिए वे अपनी बुद्धि का युक्तिसंगत प्रयोग कर स्थितियों का अनुमान और आकलन अधिक अच्छी तरह कर सकते हैं, किन्तु उनकी यह बुद्धि और स्मृति भी मूलतः तो प्रकृति के द्वारा संचालित की जाती है और वे बस प्रकृति के एक यंत्र की तरह प्रकृति से निर्दिष्ट कार्य को संपन्न करते हैं। बुद्धि और स्मृति के उसी प्रारूप pattern,  framework, पर कार्य करते हुए यद्यपि उसे ऐसी अनेक चमत्कारपूर्ण और असाधारण उपलब्धियाँ भी मिल जाएँ, जो कि उसे और उसके संसार को विस्मयविमुग्ध कर दें, परंतु इससे क्या उसके और उसके संसार के आभासी, काल्पनिक या वास्तविक उसके समस्त दुःखों का स्थायी अन्त हो सकेगा? इन सभी दुःखों की प्रतीति उसे  केवल उसकी जागृति की दशा में ही नहीं हुआ करती है! और, निद्रा आ जाने पर वे सभी अनायास और अकस्मात् ही विलीन भी नहीं हो जाते हैं?
क्या निद्रा के आते ही तर्क और बुद्धि भी उसी प्रकार तात्कालिक रूप से निष्क्रिय और विलीन नहीं हो जाते हैं? और उसका ध्यान जैसे ही इस तथ्य पर जाता है तब क्या वह इस तथ्य से इनकार कर सकता है कि मनुष्य और दूसरे सभी (चेतन) प्राणी निद्रा में जिस परिपूर्णता, शान्ति और सुख का अनुभव करते हैं, वह अवश्य ही उनके अपने ही भीतर विद्यमान है, न कि संसार और सांसारिक वस्तुओं में!
ध्यान / attention न तो कोई बौद्धिक या वैचारिक प्रक्रिया है, न कोई कौशल या ऐसी चतुराई जिसे कि कोई दूसरों से सीख सकता है। इसे अन्वेषण और अनुसन्धान की तथा उस अभ्यास की सहायता से भी प्राप्त किया जा सकता है जिसे
"नित्य अनित्य विवेक" कहा जाता है और जिसे कोई बच्चा या अल्पबुद्धि मनुष्य भी जानता तो है किन्तु उस पर उसका ध्यान ही नहीं जाता है।
पराञ्चखानि व्यतृणत् स्वयंभू
स्वयं धियोऽन्तः प्रविभाति गुप्तः।
धियं परावर्त्य धियोऽन्तरेऽत्र
संयोजनान्नेश्वरदृष्टिरन्या।।
(संभवतः यहाँ सद्दर्शनम् के एक श्लोक को उद्धृत करने में मुझसे भूल हुई हो, किन्तु उसे सुधार पाना अभी संभव नहीं प्रतीत हो रहा है।) 
स्मृति और बुद्धि दोनों ही मन, चित्त, वृत्ति और अहंकार के ही पर्याय हैं, इसलिए अत्यन्त प्रतिभाशाली भी कभी इस बाधा को पार नहीं कर पाता है।
वे कुछ लोग ही जिनमें विवेक की जागृति के फलस्वरूप संसार के सभी विषयों से मन उचट गया होता है वैराग्य से युक्त होकर 
"यह सब, जीवन, अस्तित्व, संसार आदि क्या है?"
जैसे प्रश्नों का बौद्धिक उत्तर नहीं बल्कि स्थायी समाधान खोजने के लिए उत्सुक हो उठते हैं।
वे जानते हैं कि किसी विशिष्ट या साधारण कर्म के करने से इस प्रकार के समाधान की प्राप्ति होने का कभी कोई संबंध ही नहीं है। 
गीता के अध्याय २ के निम्नलिखित श्लोक ४९ से कर्म की मर्यादा स्पष्ट हो जाती है -
दूरेणह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धनञ्जय। 
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः।।
भगवान् आदि शङ्कराचार्य भी यही शिक्षा देते हैं -
कुरु ते गंगासागर गमनम् व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीनं सर्वमनेन मुक्तिर्न भवति जन्मशतेन।।
और गीता के एक और सुप्रसिद्ध श्लोक में यह भी है -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। 
मा कर्मफलहेतुर्भू मा ते सङ्गोऽस्त्कर्मणि।।
जिसमें निर्देश दिया गया है कि 
तुम कर्म से पलायन भी नहीं कर सकते।
गीता के अध्याय २ के ९ वें, अध्याय ३ के २७ वें और अध्याय १८ के ५९ वें श्लोकों में पुनः इस पर बल दिया गया है।
यहाँ पर इस पोस्ट को समाप्त कर रहा हूँ। 
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September 27, 2025

NON-DUALITY.

द्वैत अद्वैत

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संवाद, स्मृति, पहचान, संबंध, द्वैत में ही संभव होते हैं। भय, लोभ, आशा, आशंका, अपेक्षा, उपेक्षा, अतीत और भविष्य, यहाँ और वहाँ आदि सभी का अस्तित्व भी इसी प्रकार से द्वैत की पृष्ठभूमि में, और द्वैत के संदर्भ से ही सिद्ध होता है। और द्वैत भावना के अस्तित्व में आने के बाद ही द्वैत सत्य प्रतीत होता है। द्वैत-भावना के अभाव में न तो किसी संबंध और न ही किसी प्रकार का संवाद का ही संभव है। द्वैत के ही अन्तर्गत दृष्टा और दृश्य का उद्भव, स्थिति और लय होता है।

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September 21, 2025

A Sea-change.

सर्वपितृ अमावस्या

पितृपक्ष की अंतिम तिथि को महालया भी कहा जाता है। महालया नामक इस तिथि पर पितर जब मृत्यलोक से अपने पितृलोक में लौट जाते हैं। पितृलोक में वे उस समय तक वास करते हैं जब तक उन्हें कोई नया शरीर,  और उस नये शरीर में नया जीवन नहीं प्राप्त हो जाता है। जैसे ही उन्हें एक नये शरीर में नया जीवन प्राप्त हो जाता है, उस जीवन में उनकी नयी जीवन-यात्रा शुरू हो जाती है। और प्रायः हर कोई अपने इसी जीवन को अपने जन्म के रूप में मान लिया करता है। बिरले ही कभी किसी को ऐसा लगता है कि वह इस शरीर में कहीं दूसरे स्थान और उस ऐसे दूसरे शरीर से आया है जहाँ पहले कभी वह था, किन्तु यह उसे स्मृति और स्वप्न जैसा लगता है। जीवन अर्थात् चेतनता / चेतना (Sense, Sensitivity and Sensibility), जिसे एक शब्द में consciousness कह सकते हैं। बहुत बिरले ही कोई ठीक ठीक यह समझ पाता है कि जिसे जीवन, मन और चेतना कहा जाता है, उनमें परस्पर क्या समानताएँ और क्या भिन्नताएँ हैं। एक शब्द के स्थान पर दूसरे शब्द का प्रयोग करने से यह नहीं स्पष्ट होता है कि उससे जिस वस्तु का उल्लेख किया जा रहा है वह क्या है। चेतना का अर्थ है वह क्षमता जिससे कोई वस्तु किसी दूसरी वस्तु को जान और अनुभव कर सकती है। इनमें से दोनों ही वस्तुओं में यह क्षमता हो तो उन दोनों को ही चेतन अर्थात् इस क्षमता से युक्त कहते हैं, जबकि उनमें से जब केवल एक में ही यह क्षमता हो और दूसरी वस्तु में यह क्षमता न हो तो उस दूसरी वस्तु को जड कहते हैं। एक और रोचक तथ्य यह भी है कि किसी के पास इसका भी कोई प्रमाण नहीं हो सकता कि अपनी तुलना में जिस वस्तु को जड कहा जा रहा है वह  ऐसी जानने या अनुभव करने की क्षमता से रहित है ही! किन्तु फिर भी जीवन से युक्त और जीवन से रहित किसी वस्तु की पहचान तो की ही जा सकती है। तात्पर्य यह है  कि किसी वस्तु में उसके अपने आपके अस्तित्व में होने का भान है या शायद न भी हो, किसी और को यह भान अवश्य है। और जिसे अपने आपके अस्तित्व का भान है वह स्वयं को इस वर्तमान में प्राप्त शरीर तक सीमित एक व्यक्ति-विशेष मानता है या उसे लगता है कि इस वर्तमान शरीर में वह कहीं अन्य स्थान से आया है, जहाँ पर वह एक अन्य शरीर के रूप में जी रहा था। और पिछले सौ - पचास या अधिक वर्षों तक से इसका वैज्ञानिक अध्ययन कर इसके अकाट्य प्रमाण भी मिल चुके हैं, इसलिए यह कहा जा सकता है कि ऐसा कोई व्यक्ति अब पितृलोक से निकलकर पुनः जन्म ले चुका है। और यह अनुमान भी किया जा सकता है कि संभवतः बिरले ही कभी कोई मृत्यु के बाद बहुत दीर्घ काल तक पितृलोक में रहता हो, इसलिए भी पितरों के श्राद्ध का महत्व बहुत थोड़े समय तक के लिए हो सकता है।

सर्वपितृ अमावस्या का महत्व क्या है, इसे इस दृष्टि से भी समझा जा सकता है। 

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September 18, 2025

34 Years Ago

कितने जंगल हाउस!?

THE FIRST JUNGLE HOUSE.

12 फरवरी 1991 के दिन या उससे एक दिन पहले, मैं ओंकारेश्वर पहुँचा था। आश्रम की स्थापना और संचालन एक पूज्य स्वामी करते थे। भू-तल पर रहते थे और ऊपर प्रथम तल पर माता आनन्दमयी के मन्दिर का निर्माण हो रहा था। उस मन्दिर तक जाने की सीढ़ियाँ प्रथम तल को दो भागों में विभाजित करती थीं। पहला हिस्सा बाहर की ओर था, बाहर खुली छत और एक कमरा था, जिसमें दो द्वार थे। दोनों से बाहर आया जाया जा सकता था, और बाहर कहीं जाना होता तो यह ध्यान रखना होता था कि दोनों द्वार ठीक से बंद हों। किसी पर भी एक या दोनों द्वारों पर भी एक एक ताला लगाया जा सकता था। दो सीढ़ियाँ भू-तल से आती थीं और कमरे के दोनों तरफ से निकलकर प्रथम तल पर आती थीं। एक सीढ़ी भू-तल पर सामने की दिशा में थी और दूसरी पीछे की दिशा में। सब सीढ़ियाँ, चबूतरा आदि पत्थरों को मिट्टी से जोड़कर और उन पर सीमेंट चढ़ाकर बनाए गए थे। स्वामीजी का कमरा पीछे था और उसके भी दो द्वार थे। एक कमरा स्टोर रूम की तरह था और दूसरा उससे लगा हुआ, जो सामने था। बीच में खुली हुई जगह में मिट्टी का चूल्हा था जहाँ भोजन बनता था। मार्च में स्वामीजी वहाँ से इन्दौर चले गए थे। और मैं अकेला ही वहाँ रहने लगा था। सामने के कमरे के बाहर एक तखत पड़ा था, जिस पर मैं लगभग पूरे दिन बैठा या सोया रहता था। कुछ दूर पर नर्मदा नदी बहती थी, और वहाँ तक जाने के लिए पत्थरों के बीच से जाना पड़ता था। प्रायः ही दो या अधिक बार नदी तक जाया करता था।

वह स्थान जैसा था, वैसा ही कुछ यह स्थान भी है, और यहाँ भी वैसा ही खुला खुला आश्रम परिसर है। इसलिए अचानक उसका स्मरण हुआ। यह स्थान शायद अधिक सुन्दर और सुखद है। बाहर बहुत निर्माण कार्य चल रहा है। मेरे लिए करने के लिए बहुत सा काम हो सकता है। मेरा विचार है कि मैं इस पूरे परिसर को अपनी कल्पना के अनुसार बना सकूँ। साल भर पहले तक यह तक नहीं पता था कि कहाँ और कैसे रहना है, अब अनपेक्षित रूप से एकाएक बात बहुत बदल गई है। सोचा जाए तो बहुत सा काम करना है। अधोसंरचना तैयार है। संभवतः इस दीपावलि तक सब कुछ सुव्यवस्थित हो जाएगा। अभी तो बस प्रतीक्षा करते हुए समय बीत रहा है।

This Too Is Another Jungle House!

बीच में एक वर्ष 2023-24 में एक और जंगल हाउस में बीता था। वह भी बहुत सुन्दर था किन्तु फरवरी 2024 में उसे, स्कूल के उस निर्माणाधीन भवन को ढहा दिया जाना था, इसलिए वह स्थान छोड़ना पड़ा।

ऐसा ही एक जंगल हाउस राजघाट फोर्ट वाराणसी पर भी था जहाँ कृष्णमूर्ति फॉउन्डेशन के स्टडी-सेन्टर और रिट्रीट पर पहले डेढ़ हफ्ता फरवरी 2000 में और फिर एक हफ्ता नवंबर 2002 में बीता था।

यूँ भी होता है, कभी सोचा न था!

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September 17, 2025

Mythology?

वराह-अवतार

पता नहीं यह प्रतीकात्मक है या सांकेतिक,

किन्तु पौराणिक मान्यता के अनुसार, अलग अलग दृष्टि से, यह कहा जाता है कि भगवान् विष्णु के दशावतार (दस), और चतुर्विंशावतार (चौबीस) होते हैं और उन चौबीस अवतारों में से एक वराह भी है।

यह अनुमान हो सकता है कि अंग्रेजी भाषा का

BOAR, 

शब्द संभवतः संस्कृत भाषा के वराह का अपभ्रंश हो।

और यह भी सत्य है कि आजकल यू के (U. K.) में अवैध आव्रजनों (Illegal Migrants) के डर से लोगों ने अपनी रक्षा के लिए डॉग्स पालना छोड़कर सूअर / शूकर पालना शुरू कर दिया है।

मैं नहीं जानता किन्तु जैसा कि पुराण (वराहपुराण) नाम से लगता है, जीव-विज्ञान की दृष्टि से, वराह और शूकर दोनों ही प्रजातियाँ एक ही प्रकार के जीव हैं।

वराहपुराण के अनुसार पृथ्वी महाजलप्रलय के समय  जब पाताल में डूब रही थी तब भगवान महाविष्णु ने वराह रूप में अवतरित होकर पृथ्वी को अपने शृङ्गदन्तों के द्वारा ऊपर उठा लिया था और उसे महाजलप्रलय  /  महाजलप्लावन से बचा लिया था। 

क्या यह केवल संयोग है कि यह पौराणिक मान्यता / (Mythology) एक व्यावहारिक सत्य की तरह आज प्रयुक्त हो रही है?

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September 16, 2025

11:00 12:00 01:00

मध्य-रात्रि 01:21

बहुत समय से निद्रा का 'समय' अस्तव्यस्त चल रहा है। इसलिए बस येन-केन-प्रकारेण नींद खुलते ही शरीर को उसकी स्थिति पर छोड़ देता हूँ। कभी कमरे में ही चलता फिरता हूँ या कुर्सी पर बैठकर आँखें बंद कर लेता हूँ। यह स्पष्ट रहता है कि सोना नहीं है और सोचना नहीं है। यह जानना भी रोचक है कि निद्रा उसके और शरीर के अपने नियमों के अनुसार आती और जाती है। इस बारे में मन कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। आवश्यक प्रतीत  होने पर किसी स्थिति में एक सीमा तक जागते रहने का प्रयास किया जा सकता है और सीमा का उल्लंघन करने पर उसका मूल्य भी चुकाना पड़ता है।

रात्रि 02:00 तक का समय यूँ ही कटता है। फिर कोई स्मृति सक्रिय हो उठती है तो उसमें लिप्त होने लगता हूँ। या, बस किसी तरह शांत रहने का प्रयास करता हूँ। पर फिर, प्रयास ही शांति में बाधा है, इस पर ध्यान जाता है। तो अशांत मन से संघर्ष नहीं करता। 02:00 से 03:00 तक का समय यूँ बीतता है।

03:00 बजे के बाद मन सुस्थिर होने लगता है।

कोई विषय, कोई विचार, कोई स्फूर्ति मन में उमंग बन जाती है और 

विषयाननुवर्तन्ते विषयी यत्र

तादात्म्यं तत्र प्रवर्तते।

तादात्म्यमेव वृत्तिः स्यात्

वृत्तिर्हि चित्तमित्यस्मिता।।

इस तरह मन को अवलम्बन प्राप्त होते ही 'समय' से सामञ्जस्य हो जाता है। तब न ऊब होती है, न थकान, न नींद आ रही होती है, न आलस्य। इसे ही सालंब ध्यान कह सकते हैं।

देशबन्धचित्तस्य धारणा।।१।।

तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्।।२।।

तदेवार्थमात्रनिर्भासा समाधिः।।३।।

(विभूतिपाद )

स्वप्ननिद्राज्ञानालम्बनं वा।।

अब रात्रि के 01:53 हो रहे हैं।

मन और शरीर अपनी अपनी प्रकृति से गतिशील रहते हैं। और जब उनकी गतियों के बीच असामञ्जस्य होने लगता है तो संघर्ष, असंतोष, व्याकुलता, अवसाद और ग्लानि आदि की स्थिति बनने लगती है। और तब मन उस स्थिति से त्राण पाने के लिए अविवेकपूर्वक किसी भी विषय का आलंबन लेकर उस विषय से संलग्न और  लिप्त हो जाता है। 'समय' यद्यपि बीत जाता है, किन्तु हाथ कुछ लगता है तो वह बस निराशा और व्यर्थता ही होता है। हाँ, फिर 'समय' बीतने पर धीरे धीरे मन स्वस्थ भी हो जाता है। जैसे किसी बर्तन में रखा जल एक बार हिल जाने के बाद स्वयं ही धीरे धीरे शांत और सुस्थिर हो जाता है, और किसी प्रयास से उसे शांत नहीं किया जा सकता। प्रयास से तो वह और भी चंचल और अस्थिर हो जाया करता है।

मध्य-रात्रि 02-19

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