September 12, 2025

The River.

नदी की आत्मकथा 

लौटती है नदी, लौटता है प्यार,

चल रही, चल रही, चल रही बयार!

जब चली थी पिघल, हो रही थी विकल,

ना पता थी राह, या कि क्या है मंजिल,

बस था उत्साह एक, एक ही थी उमंग,

पुलकित हृदय था, पुलकित था अंग अंग, 

सूर्य की रश्मि ने जब किया चुम्बन प्रथम, 

प्रेम का आह्लाद की अनुभूति तब हुई प्रथम,

एकला चालो की जब हृदय में स्फूर्ति उठी,

धरती ने बाँह गही, नभ ने दिया आशीष। 

सींचती रही धरा को, प्यास सूखे कंठ की,

तृप्त करती रही आतुर क्षुधा जन जन की, 

छंद बंध तोड़कर बह चली, वह बह चली!

फैल गई सिन्धु सी कभी विस्तार में, 

सुखकर काँटा हुई कभी जैसे थार में,

हार में या जीत में,  जीत में या हार में,

बह चली, बह चली, बह चली वह प्यार में!

घोर वन, दुर्गम अरण्य, भूलकर वह पाप पुण्य,

बँटती चली अथाह प्यार वह संसार को, 

और सागर से मिली, यूँ कि अपने प्यार को।

हो गई लावण्यमयी किन्तु पुनः फिर विकल, 

सूर्य की उत्तप्त राश्मि ने दिया संताप प्रबल,

हो उठी वाष्प तब, और उठी नभ की ओर,

मेघ बनकर फैल गई हर तरफ हर ओर! 

द्वार खड़े खड़े तरस गई आखिर आज बरस गई,

प्यासी बदरी सावन की, ऋतु आई मनभावन सी।

बस यही तो चलता रहा, नदिया यूँ बहती ही रही, 

जीवन के सारे ही सुख दुख तो यूँ सहती ही रही। 

उसकी खुशियाँ, उसके आँसू, उसका प्यार यही, 

उसका दामन, उसका आँचल, उसका संसार यही! 

***




September 11, 2025

Wild Nights!

रात के हमसफ़र

वह फरवरी 2023 की शाम रही होगी जब मैं उस जंगल हाउस में प्लास्टिक की डोरी से बनी हुई खाट पर खुले आकाश तले सो रहा था। वहाँ वह रॉक्सी भी थी जिससे अभी मेरी ठीक से पहचान नहीं हुई थी। थोड़ी दूर पर ही एक पलंग-पेटी थी जिस पर वह आदिवासी पति पत्नी युगल सोए होते थे। और अगर रात्रि में मुझे उठना होता था तो उस आदिवासी पुरुष को आवाज देकर जगाना होता था जो वहाँ एक कर्मचारी भी था, क्योंकि रॉक्सी से मुझे खतरा हो सकता था। वैसे रात में उसे खुला छोड़ दिया जाता था और वह उस पूरे क्षेत्र में बेख़ौफ घूमती रहा करती थी। हालाँकि हफ्ते भर में वह मुझे पहचानने लगी थी और कभी कभी तो मुझे सूँघने और चूमने चाटने की कोशिश भी करती थी। बाद में तो पूरे साल भर तक, जब तक मैं उस जंगल हाउस में रहा वह लगभग पूरे दिन भर और रात भर मेरे साथ रहती थी। वह एक बहुत ही खतरनाक नस्ल की कुतिया थी जिसे पालना कुछ देशों में तो प्रतिबंधित भी है। गर्मियाँ खत्म होते ही मैं जंगल हाउस की टीन शेड की छत के नीचे बने अपने कमरे में सोने लगा था और शाम से ही जंगली कीड़ों मकोड़ों का आक्रमण शुरू हो जाता था। बिजली कभी कभी दो दो दिनों तक बंद रहती थी, और मोबाइल की रोशनी से भी कीड़े बुरी तरह आकर्षित होते थे इसलिए शाम से सुबह तक कुछ खाना पीना भी जैसे मेरे लिए हराम होता था। कीड़ों से छुटकारा तो तभी होता था जब सर्दियाँ पड़ने लगती थीं। बस वे दो या तीन महीने ही, जब भीषण ठंड में मैं अपने पूरे कपड़े, ऊनी टोपी भी पहन लेता था और एक कंबल तथा चादर ओढ़कर उस खाट पर कुड़कुड़ाते हुए रात गुजारना होती थी। सुबह से शाम तक खुली धूप में घूमता रहता। अकसर हर दूसरे दिन ही दूध और अन्य जरूरी सामान लेने के लिए पास के गाँव तक जाना होता था। दो किलोमीटर दूर स्थित उस गाँव तक जाने के लिए मुझे तैयार देखते ही रॉक्सी भी मेरे पीछे पीछे आने की कोशिश करने लगती थी, लेकिन एक किलोमीटर चलने पर वह मुझे छोड़कर वापस लौट जाया करती थी। और उसका मालिक जो जंगल हाउस का चौकीदार था, और पास के ही दूसरे गाँव में रहता था, सुबह शाम रॉक्सी को वहाँ दिन भर के लिए बाँध दिया करता था ताकि वहाँ से आने जाने वाले लोगों को उससे खतरा न हो।

पुनः वर्ष 2024 की सर्दियों के प्रारंभ में जब मैं इस नये स्थान पर आया तो जंगल के कीड़ों का वही आतंक फिर यहाँ भी शुरू हो गया। 

ये कीड़े ही यहाँ रात के मेरे हमसफ़र थे। 2025 की इन गर्मियों तक उनसे बुरी तरह त्रस्त रहा। अभी इस समय भी एक दो कीड़े आसपास मंडरा रहे हैं जिन्हें पकड़कर बाहर फेंक देना है। रात होने और शाम ढलने से पहले ही भोजन कर लेता हूँ और कभी या तो छत पर टहलता हूँ या कभी नींद आने पर सो जाता हूँ। दो घंटे सोकर जब उठता हूँ तो भी फिर मोबाइल बंद ही रखता हूँ। कुर्सी पर बैठा रहता हूँ।

"क्या कर रहे हो?"

उस तथाकथित मित्र का फोन आता है तो कहता हूँ :

"खाना खा लिया है, लाइट बंद है इसलिए चुपचाप अंधेरे में कुर्सी पर बैठा हुआ हूँ।"

उसे समझ में नहीं आता। मुझे बरसों से यह आदत है। बिना किसी प्रकार के शारीरिक या मानसिक, बौद्धिक कार्य में संलग्न हुए चुपचाप टहलते रहना या बस सिर्फ बैठे रहना। पढ़ना, लिखना, किसी से बातचीत करना, जप आदि यह सब न करते हुए और कर्तृत्व की भावना तक से भी मुक्त रहते हुए। जैसा कि बचपन में अनायास होता था - सुबह नींद से उठने पर दरवाजे पर जाना, खड़े हो रहना आकाश को और अपने आसपास देखते रहना। तब मन में भाषा का अभाव था। और इसलिए सोच पाने की कोई संभावना भी नहीं थी। फिर धीरे धीरे कैसे भाषा और फिर विचार करने की बाध्यता उस शांत मनःस्थिति पर कब हावी हो गई यह तक पता न चला। सौभाग्य से बचपन से ही किसी से भी अपनापन कभी न बन पाया बल्कि सबसे कुछ दूर ओर अकेले ही रहना मुझे अधिक भाता रहा। जंगल हाउस में रहते हुए फिर वह बचपन लौट आया जब अकेलापन कभी कचोटता नहीं बल्कि सहलाता ही था। वह एकमात्र अनन्य साथी, जिसे अपने से अलग कर पाना वैसे भी संभव नहीं है।

याद अगर वो आए, ऐसे लगे तनहाई,

सूने शहर में जैसे, बजने लगे शहनाई,

आना हो, जाना हो, कैसा भी जमाना हो,

उतरे कभी न जो खुमार वो प्यार है!

वैसे ही यह अकेलापन जो एक ओर एकाकीपन भी है तो दूसरी ओर इसमें किसी प्रकार के अभाव का भी नितान्त अभाव है। सुख दुःख, चिन्ता या डर, आशा या निराशा, लोभ, आकर्षण-विकर्षण, आशंका या विरक्ति, आसक्ति, स्मृति और विस्मृति से भी रहित। शायद यही वह प्रेम है, जिसमें किसी दूसरे का भी अत्यन्त अभाव होता है। यह खुमारी जैसी कोई आने जाने वाली वस्तु नहीं है। न तो इसे पाया जा सकता है न खोया ही जा सकता है। इसका आविष्कार किया जाता है और किया जा सकता है। 

***




September 09, 2025

Filial / Affiliate,

संबंध नहीं, परिचय / पहचान

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के सौजन्य से पता चला कि अंग्रेजी शब्द  Fillial  का अर्थ है -पुत्रवत् स्नेह!

उम्र में मुझसे छोटे मेरे ऐसे तीन दिवंगत मित्र थे, जिनसे मैं कुछ इसी तरह की डोर से बँधा था। उनसे मित्रता का कारण अलग अलग था और जो मुझे, और शायद उन्हें भी बहुत स्पष्ट नहीं था।

उनमें से प्रथम थे, जिनका एकमात्र लक्ष्य था समाज में आध्यात्मिक गुरु की तरह से अपनी पहचान स्थापित करना।

दूसरे वे, जिनका एकमात्र तय लक्ष्य संभवतः यह था कि  उन्हें एक सफल, प्रतिष्ठित, जाने-माने और विश्वविख्यात व्यक्ति की तरह जाना जाए।

इन दोनों की अपनी भौतिक और सांसारिक आकांक्षाएँ भी थीं जो संभवतः पूर्ण हुईं होंगी, ऐसा भी लगता है।

पहले मित्र तो आजीवन अविवाहित रहे, दूसरे मित्र का विवाह हुआ किन्तु संतान नहीं थी।

तीसरे मित्र विवाहित थे और उनके दो पुत्र भी हैं। प्रकटतः तो वे अध्यात्म में रुचि होने से मुझसे जुड़े थे। 

तीनों ही किसी समय किसी प्रकार की सार्वजनिक सेवा (service) में थे। पहले मित्र ने अनुकूल अवसर और समय आने पर स्वेच्छा से सेवा से अवकाश ले लिया था और संन्यासी की तरह रहने लगे थे। 65 वर्ष की उम्र के आसपास, स्वास्थ्य ठीक न होने से उनका देहावसान हो गया। 

दूसरे और तीसरे मित्र का सेवा में रहते हुए आकस्मिक देहावसान हो गया।

कभी कभी यह सोचकर आश्चर्य होता है कि हर व्यक्ति के जीवन में कौन किसलिए आता है, कब तक रहता है और फिर कब संसार छोड़कर चला जाता है!

किन्तु अपने आपके जीवित रहने तक अपनी स्मृतियों में तो वह अवश्य ही रह जाता है! 

***


At N H 44,

रेवा तीरे!! 

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जैसे कुछ पता ही नहीं चलता है,

कब उगता है दिन, कब ढलता है! 

सुबह से रात, रात से सुबह तक,

बादलों का समंदर बरसता है!

हवाएँ बहती, रुकती चलती हैं,

उम्मीद हृदय में मचलती है,

कभी तो बदलेगा ये मौसम भी,

जैसे हर चीज ही बदलती है!

दूर से आती है, दूर जाती है,

शोर करती है, गुनगुनाती है,

शिव की लाड़ली चंचल बेटी,

सबसे निर्लिप्त बहती जाती है!

यहाँ आया था उससे मिलने ही, 

उसका आशीष मुझपे रहता है,

हर घड़ी उसके स्वर, उसका रव,

मेरे कानों में पड़ता रहता है।

डूब जाता हूँ स्वरलहरियों में, 

और मैं भी लहर हो जाता हूँ,

अपना परिचय कि कौन हूँ मैं,

अनायास भूल जाता हूँ मैं,

और संसार भी खो जाता है,

उसकी पहचान भी खो जाती है,

फिर भी चलता है सुसंगत जीवन, 

न जाने कौन चलाता है इसे!

बस ये आदत ही हो गई है अब,

कोई अतीत या भविष्य नहीं,

बस ये वर्तमान रहा करता है, 

और जीवन इन्हीं तरंगों में, 

हर घड़ी मुग्ध बहा करता है!

(सत्-धारा सत्-चित्) 

***


  


 







September 07, 2025

Algorithm, Gestalt,

Conflict and The Idiosyncracy

दुःख अनंत और असीम है। कभी उसका अन्त नहीं होता। बस सतत और अनवरत रूपान्तरित होता रहता है। वही, जो अभी सुख प्रतीत हो रहा होता है, पलक झपकते दुःख प्रतीत होने लगता है, और दुःख दूर हो गया, ऐसा क्षणिक आभास और सुख के मिलने की आशा का नया, क्षणिक आभास उसका स्थान ले लेता है।

यह सब एक दुष्चक्र होता है, जो शायद अनंत और असीम है। यह सब मन की गतिविधि और मन में होता है जो स्वयं यह दुष्चक्र और अपने आपको इसमें फंसा हुआ अनुभव करता है। मन स्वयं ही 'अनुभव' होता है और मन ही 'अनुभव' को परिभाषित भी करने लग जाता है। मन स्वयं अपने आपको और वर्तमान के इस क्षण को इस प्रकार अतीत और भविष्य की कल्पना करते हुए समय की अवधारणा में विभाजित हो जाने के आभास से ग्रस्त हो जाता है।

यही मन है। यही 'मैं' है, जिससे पृथक्, स्वतंत्र दूसरा कोई या कुछ कहीं होता ही नहीं।

यह अवधारणा ही ग्रन्थि / Gestalt है, जो कि वैचारिक आग्रह के रूप में सूत्र / Algorythm में बदल जाती है।

विभाजित मन split mind ही व्यक्ति के रूप में क्षणिक अस्तित्व का आभास उत्पन्न करता है और अगले ही क्षण पुराना व्यक्ति विलीन होकर नये व्यक्ति को अस्तित्व प्रदान करता है। यह नया व्यक्ति उसके अपने क्षण में पुराने का एक और  संस्करण होता है जो सतत रूपांतरित होता हुआ मन के एक व्यक्ति विशेष होने का भ्रम होता है।

यह व्यक्ति अर्थात् यह भ्रम ही मन का जीवन है, जो सतत स्वयं को काल्पनिक निरंतरता प्रदान करता रहता है creating one's own an apparently continuous existence.

यह मन ही पुनः किसी इंद्रियगोचर बाह्य जगत की प्रतीति से मोहित हुआ उसमें अपने आपको 'मैं' की तरह उससे संबद्ध किन्तु उससे स्वतंत्र भी मान बैठता है।

यह सब आकस्मिक और अप्रत्याशित रूप से घटित होता है और तब मन-रूपी यह विखंडित व्यक्ति fragmented person की तरह से केवल द्विध्रुवीय असामञ्जस्य - bipolar personality disorder से ही नहीं, बल्कि बहु-व्यक्तित्व असामञ्जस्य - multiple personality disorder (mpd) से भी ग्रस्त हो जाता है।

इस सबका पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन अर्थात् careful awareness अवश्य ही इस दुष्चक्र को विलीन कर सकता है।

इस पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन का अभ्यास नहीं किया जा सकता। जीवन What Is के प्रति उत्कट प्रेम और पूर्वाग्रह-रहित अवलोकन होने पर यह अनायास ही फलित होता है और इस तरह से फलित होने पर यह अज्ञात से अज्ञात के आयाम में इस तरह से विकसित, पल्लवित और पुष्पित होता रहता है, जिसके बारे में न तो कोई अवधारणा, न सिद्धांत और न ही कोई निष्कर्ष प्राप्त हो सकता है।

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September 01, 2025

THE SHADOW-LIFE.

छाया-पुरुष की अभिलाषा

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इतना तो करना स्वामी,

जब प्राण तन से निकलें!

देह-मिट्टी मिट्टी से मिले, नीर से नीर मिले,

अगन से अगन मिले, पवन से समीर मिले,

महाप्राण में प्राण मिलें, चित्त चेतना से मिले,

जीव मिले शिव से, शक्ति, शिवा से मिले,

माया मायापति से, पुरुषोत्तम से पुरुष मिले,

मृत्यु मिले अमृत में, आत्मा, परमात्मा से मिले!

इतना तो करना स्वामी, जब प्राण तन से निकलें!!

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August 26, 2025

THE SCHOLAR

अध्येता

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1970 के दौर में वह अध्येता था। अपनी इच्छा से नहीं, जीवन की वास्तविकता ने जिसे शायद विडम्बना भी कह सकते हैं, उसे अध्येता बना दिया था। उसने कभी शायद ही इस तरह से सोचा होगा।

वैसे वह उस समय 17 वर्ष की आयु का एक व्यक्ति था जिसके जीवन में कोई तय या ऐसा सुनिश्चित लक्ष्य नहीं था जिसके लिए वह दिल लगाकर कार्य करता। जीवन की आकस्मिक और तात्कालिक आवश्यकताएँ ही उसे किसी समय पर किसी दिशा की ओर खींचती रहती थीं और ऐसी एक दो या नहीं कुछ और भी दिशाएँ थीं, जो उसे लगातार कहीं जाने या पहुँचने के लिए शक्ति लगाती रहती थीं। कॉलेज नया था, शहर नया था, एक ओर कुछ सुविधाएँ तो दूसरी ओर कुछ सुविधाएँ, बाध्यताएँ आदि भी थीं। उनमें से ही उसे चुनना होता था कि क्या करना है और क्या किया जा सकता है। जैसे उसके पास एक अच्छी साइकिल थी, जिससे वह कॉलेज जाया करता था। आज 72 वर्ष की आयु हो जाने पर उसे लगता है कि वह न तो साइकिल चला सकता है, न उसे लेकर चल ही सकता है। आज जब 17 वर्ष की आयु के किसी ऐसे लड़के को देखता है जिसके पास मोबाइल और बाइक होती है तो उसे अपना वह बचपन याद आ जाता है जब उसके पास साइकिल होती थी और वह पूरे शहर में बस सार्वजनिक वाचनालय खोजता रहता था। समय बिताने और मनोरंजन करने का उसके पास कोई दूसरा साधन नहीं था।

उस शहर में तीन वाचनालय थे।  एक था ए बी रोड पर स्थित लक्ष्मी नारायण भुवन जो दोमंजिला था। नीचे के तल पर टेबल टेनिस खेला जाता था और ऊपरी मंजिल पर वाचनालय था। गरीब और मध्यमवर्गीय व्यक्ति होने के कारण और अपनी इस स्थिति के कारण हीन भावना का शिकार भी था, जबकि बचपन से ही लिखने-पढ़ने के वातावरण में ही पला बढ़ा होने से अखबार और किताबें आदि पढ़ने में उसे बहुत रुचि थी।

दूसरा वाचनालय शुक्रवार को लगनेवाले हाट में, चौराहे के बीचों-बीच एक गोलाकार भवन में हुआ करता था। तीसरा भोपाल रोड पर था, जहाँ रोजगार दफ्तर भी था।  तीनों ही वाचनालय शाम पाँच से आठ बजे के बीच ही खुला करते थे और वह इसी बीच उनमें से किसी एक पर जा पहुँचता था।

लक्ष्मी नारायण भुवन के वाचनालय में एक पुस्तकालय भी था, जबकि बाकी दोनों बस सिर्फ वाचनालय भर थे।

उन्हीं दिनों उसने उस वाचनालय से आचार्य रजनीश की पुस्तकें पढ़ना शुरू किया था। उस समय तक उनकी वह पुस्तक प्रकाशित नहीं हुई थी जिसने कि बाद में रातोंरात ही उन्हें चर्चित किन्तु विवादास्पद भी बना दिया था। जैसे उस दौर में फिल्में बनती थीं जो चर्चित, साथ ही कम या अधिक कुछ विवादास्पद भी हुआ करती थीं, उसी तरह आचार्य रजनीश भी एकाएक ही विवादास्पद और चर्चित भी होने जा रहे थे।

उन्हीं दिनों धर्मवीर भारती की एक पुस्तक "चाँद और टूटे हुए लोग" उसके हाथ लगी जिसे वह साहित्यिक समझ रहा था। वह थी भी अभिजात्य और उच्च और संभ्रात वर्ग के लोगों की पसंद जिसे अंग्रेजी में एलीट कहा जाता है। उस वाचनालय में उससे भी बड़े एक और व्यक्ति से उसका परिचय हुआ जो एलीट तो नहीं थे, साहित्य से जुड़े अवश्य थे। बहुत बाद में उसे समझ में आया कि वे वामपंथी, सेकुलर (so cooler) और पत्रकार किस्म के एक बुद्धिजीवी थे जो किसी छोटे अखबार में काम करते थे। सरिता, मुक्ता और चंपक जैसी पत्रिकाओं में लिखा करते थे, जिससे उन्हें साहित्यकार भी समझा जाता था।  उनसे परिचय होने के बाद गजानन माधव मुक्तिबोध के साहित्य से उसका परिचय हुआ। उनकी रचना -

"चाँद का मुँह टेढ़ा है।"

पढ़ते ही उसे यह समझ में आ गया था कि "चाँद" शब्द से  मुक्तिबोध का आशय क्या हो सकता था / है।

बंबइया फिल्मों में ऊलजलूल कहानी, रहस्य, रोमांच, संगीत और उत्तेजनापूर्ण हिन्दी और उर्दू सामग्री को मिलाकर जैसे मसालेदार चटपटा और अटपटा सा कुछ परोसा जाता था, आचार्य रजनीश और इनके जैसे कुछ वामपंथी तथाकथित प्रगतिशील सेकुलर पत्रकार किस्म के लोग कभी धर्म, कभी गाँधी-नेहरू, तो कभी मार्क्स-लेनिन आदि के बहाने विविध चित्र विचित्र व्यंजन लोगों को परोसते रहते थे। इनमें सभी तरह के लोग थे - संभ्रात / एलीट से लेकर मिली जुली गंगा-जमुनी तहज़ीब तक के पैरोकार और विशुद्ध हिन्दुत्व, आर्यसमाज से लेकर कट्टर मतावलंबी तक भी।

इस पूरे मिक्स्ड वेज नॉन वेज सूप में वह कभी इधर, तो कभी उधर खिंचता हुआ, कॉलेज की पढ़ाई करता हुआ, नौकरी की संभावनाएँ टटोलता हुआ बेरोजगारी के दिन गिन रहा था।

कॉलेज में ही उसके बहुत से सहपाठी थे जिनमें से कुछ ठेठ ग्रामीण परिवेश से तो अन्य किसी दूसरी पृष्ठभूमि से आते थे। इतने अलग अलग किस्म के लोग उसके संपर्क में आए कि यह सोचकर अब उसे आश्चर्य होता है कि वह उनमें से किसी के भी रंग में रंगने से कैसे बच सका।

एक ओर जहाँ सिविल लाइंस में रहनेवाला ईसाई ज्वेल था, वहीं दूसरी ओर किला मैदान में रहनेवाला मजीद, तो उसका एक नास्तिक दोस्त भी उसे प्रभावित करने की कोशिश करते रहते थे। आर्य समाज और आर एस एस से जुड़े लोगों का अपना ही एक अलग वर्ग था।

ज्वेल कहा करता था कि भारत में अंग्रेजों ने इतना काम किया है लेकिन अब भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। गाँधी नेहरू की विरासत को हमें न सिर्फ सहेजना ही है, बल्कि उसे उसकी अंतिम परिणति तक भी पहुँचाना है। अंगरेजों ने बहुत से ऐसे काम किए। पहला यह कि पूरे भारत में हर स्थान पर सिविल लाइंस बनाई जिसमें सभी सिविलाइज्ड लोग रहते थे जो हर सन्डे को वहाँ बने चर्च में जाते थे। बाकी सभी अनसिविलाइज्ड थे, जो हिन्दू या मुसलमान, जैन, सिख, बौद्ध आदि अलग अलग तबकों में बँटे हुए थे, और आपस में लड़ते झगड़ते रहते थे। एक मजहब की किताब के अनुसार गॉड ने एक बार चाँद के दो टुकड़े कर दिए थे। और इसके बाद ही इंसानियत और इंसान भी दो में बँट गया। 

मजीद कट्टर इसलाम को मानता था और कहता था कि क़यामत के दिन तक धरती पर युद्ध तो चलते ही रहेंगे, कभी खत्म नहीं हो सकते हैं।

कुलदीप के दादा पाकिस्तान से भागकर आए हुए सिन्धी थे, जिसे जैसे तैसे अपना व्यापार व्यवसाय खड़ा करना था और उसे लगता था कि ये मजहब और धर्म फालतू लोगों की खुराफात के अलावा कुछ नहीं है। धरम और मजहब के नाम पर झगड़ा करना नासमझी है। वैसे वह अपने आपको सिख भी कहता था और हिन्दू भी। वहीं कॉन्वेन्ट में पढ़े सिविल लाइंस में रहनेवाले सिविलाइज्ड या अनसिविलाइज्ड कुछ और दोस्त थे जिन्हें कि आई ए एस या आई पी एस अफसर बनना था। और न हो सके तो डॉक्टर या इंजीनियर बनना था, मौका मिलते ही इस गँवार अनसिविलाइज्ड देश को छोड़कर यू के, यू एस ए या आस्ट्रेलिया में जाकर बसना है। वहीं की लड़की या लड़के से शादी करना है।

हर कोई बँटा हुआ था। बहुत से कट्टर राष्ट्रवादी ऐसे भी थे जिनका राष्ट्रवाद राजनीति से प्रेरित था तो दूसरे ऐसे भी कुछ थे जिनकी राजनीति राष्ट्रवाद से प्रेरित थी। यह राष्ट्रवाद फिर "क़ौम" के बहाने मजहबपरस्त रंग ले लेता था।

अब 72 वर्ष की उम्र में उसे समझ में आने लगा है कि क़ौम, कम्यून और कम्यूनिस्ट सभी शब्दों का संबंध मूल संस्कृत 'सं' उपसर्ग है जो अरबी में जामा और अंग्रेजी में  sum, con का रूप लेता है।

वह इस बारे में किसी से बहस करना तो दूर, बातचीत तक करने से बचता है, क्योंकि अपनी बाकी बची उम्र के कुछ इने गिने दिन शान्ति से जीना चाहता है। राजनीति की बिसात का मोहरा वह नहीं बनना चाहता।

***

 

August 06, 2025

The Bygone Past.

व्यतीत
यह वस्तु, जिसे व्यतीत कह जा रहा है, समय हो सकता है और कोई व्यक्ति, इतिहास या संबंध भी, वह सब जैसे किसी दिशा में अग्रसर हो रहा होता है और किसी की भी राहकुल दूर तक जाती हुई तो नजर आती है, लेकिन वह अचानक कब और कहाँ दृष्टि से ओझल हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। व्यक्ति विशेष के संदर्भ में भी ऐसा कभी कभी हो जाता है। उम्र के आखिरी पड़ाव के आते आते। दूसरों के लिए भी और अपने लिए भी। देश, समाज, समुदाय, व्यापार-व्यवसाय, राजनीति, वैज्ञानिक अनुसंधान, कला, संस्कृति, साहित्य, किसी सामुदायिक गतिविधि और संगीत आदि के शिखर पर पहुँच जाने के बाद। किन्तु सबसे अधिक विचित्र स्थिति तो राजनीति से जुड़े किसी व्यक्ति की हो सकती है। और एक दिलचस्प बात यह भी है कि वह हाशिये पर जाते जाते अचानक कब विस्मृत, अप्रासंगिक और पहचान से भी परे चला जाता है इस ओर ध्यान तक नहीं जा पाता है। जिसका उल्लेख और बोलबाला और चर्चा यत्र तत्र सर्वत्र अभी हो रही होती है, जिसके भविष्य का अनुमान लगाने के बारे में ज्योतिषी भी उत्सुक हों ऐसे लोग भी एकाएक इतने अदृश्य और विस्मृतप्राय हो जाते हैं कि उनका नाम तक एकाएक याद नहीं आ पाता। उनमें कोई कोई यद्यपि अचानक जरा से समय के लिए उल्लेखनीय हो जाते हैं और फिर बस समाप्त-प्राय।
जैसे उन फिल्मों के कलाकार, संगीतकार, गीतकार और अभिनेता तथा अभिनेत्रियाँ जिनके बारे में बहुत बाद में पढ़ते हुए याद आता है कि उन व्यक्तियों से किसी समय हम कितने अभिभूत थे!
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August 02, 2025

Evanescent Dreams!

कविता / 02-08-2025

सुख क्षणिक है, दुःख क्षणिक है,

और परिचय है क्षणिक,

स्मृति क्षणिक है, व्यथा क्षणिक है,

राग अनुराग है क्षणिक,

भावना, अनुमान, वृत्ति भी क्षणिक है,

विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृति क्षणिक!

स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति और समाधि भी,

संप्रज्ञात, असंप्रज्ञात या कि सविकल्प भी! 

क्षणिक में अव्यवसायात्मिका,

व्यवसायरत अहं-बुद्धि, 

हानि लाभ तौलती, प्रपंच-रत,

कृपण अहं-बुद्धि यह!

अरे आत्मवंचक वणिक!

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July 31, 2025

Crystal-Gazing.

भविष्य दर्शन 

भारतीय सनातन वैदिक और पौराणिक धर्म में निर्दिष्ट सिद्धान्तों के आधार पर भविष्य दर्शन दो तरीकों से किया जा सकता है। अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष - परोक्षतः और अपरोक्षतः। जैसे शास्त्रों का अध्ययन करने से जो सैद्धान्तिक, बौद्धिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह केवल विषय-परक होता है, विषय-विषयी तथा उनके बीच के संबंध की स्मृति-मात्र होता है और जिसका आदान-प्रदान भी किया जा सकता है, वैसे ही आध्यात्मिक ज्ञान या तो केवल स्मृति-मात्र हो सकता है या फिर सत्य का प्रत्यक्ष  दर्शन जिसमें विषय-विषयी और उनके तत्व के ग्रहण में जाननेवाला उनसे अपृथक् और अभिन्न होता है, अर्थात् जहाँ सारे काल्पनिक विभेद विलीन हो जाते हैं। कल्पना ही वृत्ति है और वृत्तिमात्र कल्पना है जो कि इन्द्रिय ज्ञान का स्मृति या अनुमान भर होती है और जिसकी सत्यता सदैव संदिग्ध ही होती है।

इन्द्रिय ज्ञान मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन्हीं तीनों दशाओं में हो सकता है, जबकि सत्य इन तीनों दशाओं में और उनसे परे भी होता है।

भविष्य को जानने के लिए पहले यह समझना आवश्यक है कि जाग्रत दशा में जिस प्रकार विभिन्न वैचारिक और भावनात्मक कल्पनाएँ और स्मृतियाँ मन में आती और जाती रहती हैं उसी तरह स्वप्नावस्था में भी उनका प्रवाह सतत होता रहता है। जाग्रत दशा में अर्थात् उस समय जब मन बुद्धि और इन्द्रियानुभवों से जुड़ा होता है और इस रूप में उनसे मन का तादात्म्य / involvement / identification बना रहता है और इस वास्तविकता के प्रति अनवधानता अर्थात् प्रमाद / In-attention  होता है तो स्मृतियाँ और कल्पनाएँ ही मन पर हावी होती हैं और उसी जानकारी में मन भटकता रहता है। वैसे तो प्रकृति स्वयं ही मन को जाग्रत से स्वप्न, स्वप्न से सुषुप्ति और सुषुप्ति से पुनः स्वप्न से होते हुए जाग्रत दशा में पुनः पुनः ले आती है किन्तु यह पूरी गतिविधि अचेतन रूप से और अनवधानता में ही हुआ करती है। अवधान क्या है और प्रमाद क्या है इसे जानना-समझना भी केवल मन की जाग्रत दशा में ही संभव होता है। क्योंकि यह सारी बातचीत और संवाद केवल वर्तमान में और जाग्रत दशा में "अभी" ही हो पाना संभव है, किसी स्वप्न, सुषुप्ति या किसी मूर्च्छित या समाधि जैसी अन्यमनस्कता की दशा में कदापि नहीं। वर्तमान अर्थात् "अभी" इस समय, यदि मन अतीत अर्थात् स्मृति, और भविष्य अर्थात् कल्पना से अभिभूत न हो तो यह सजग और सावधान / स-अवधान होता है। क्योंकि स्मृति और कल्पना ही मन को वर्तमान की नित्य वास्तविकता से विच्छिन्न कर देते हैं। "अभी" या वर्तमान, जिसे औपचारिक इन्द्रियानुभवों तथा बुद्धि के माध्यम से जाना जाता है केवल स्मृति या भावनात्मक विचार के रूप में ही मन का विषय होता है, और जिसमें अपने अस्तित्व का सहज स्वाभाविक "भान" जुड़ते ही मन में अपने अनुभवकर्ता होने का भ्रम उत्पन्न हो जाया करता है। यह अनुभवकर्ता भी पुनः वैचारिक जानकारी अर्थात् बौद्धिक निष्कर्ष या अनुमान ही होता है और इस दृष्टि से उसे पातञ्जल योगसूत्र में "प्रमाण" की संज्ञा दी जाती है -

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

(समाधिपाद)

प्रमाण भी वृत्ति है।

प्रकृतिप्रदत्त व्यवस्था और क्रम के अनुसार जाग्रत दशा में यद्यपि इस प्रकार से संसार (और अपने आपके) रूप में अनुभव (तथा अनुभवकर्ता भी) "प्रमाण" ही होते हैं, यह समस्त ज्ञान संदिग्ध, भ्रमपूर्ण और वास्तविक अर्थ में मिथ्या ही होता है। 

जैसा पहले कहा गया है, मन के अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना से अभिभूत न होने की दशा में मन अपनी सहज स्वाभाविक और नित्य वर्तमान "अभी" में अवस्थित होता है, जो कि दूसरी दृष्टि से मन की काल और स्थान से भी अस्पर्शित दशा है। प्रश्न केवल यह है कि मन अवधानयुक्त / Aware, प्रमाद से रहित, with Attention है, या प्रमाद / अनवधानता से लिप्त है। अवधानयुक्त Aware होना केवल तभी संभव है जब मन विचार और विचारकर्ता दोनों को एक ही वस्तु के दो प्रकारों की तरह जान लेता है, न कि स्वयं को विचार से भिन्न और पृथक् किसी काल्पनिक विचारकर्ता के रूप में स्थायी और नित्य विद्यमान सत्ता / सत्य की तरह स्मृति में संग्रहित किसी वस्तु की तरह आधारभूत वास्तविकता की तरह ग्रहण करता है।

जब मन इस प्रकार इस तरह इतना सद्योजात, नवजात शिशु की तरह अनुभव और अनुभवकर्ता की कल्पना से रहित हो तब वह अवश्य ही जाग्रत, सहज स्वाभाविक ही अवधानयुक्त भानमात्र होता है - जानकारी और कल्पना से रहित। यदि यह संभव हो तो ऐसे मन में अतीत अर्थात् स्मृतियों, और भविष्य अर्थात् कल्पनाओं का अनावश्यक प्रवाह होना बन्द हो जाता है और जाग्रत दशा में स्मृतियों के आने जाने पर उनकी अवास्तविकता के बारे में कोई संशय नहीं होता, वैसे ही अनागत भविष्य मे घटित होने का रही घटनाओं की प्रतीति होने पर उसकी सत्यता या असत्यता के बारे में लेशमात्र भी संशय नहीं होता। एक अर्थ में मन त्रिकालदर्शी की तरह उसके संवेदन में आने और जाने वाली घटनाओं को जानता तो है किन्तु न तो वह उनसे प्रभावित होता है न उन्हें प्रभावित किए जाने की कोई आवश्यकता या लालसा उसे होती है। तब वह अनायास ही सुदूर भविष्य में घटने जा रही स्थितियों का दर्शन कर लेता है। संभवतः कोई कोई उसे अभिव्यक्ति भी प्रदान कर सकता है, जिसकी सत्यता समय आने पर ही औपचारिक रूप से प्रमाणित भी प्रतीत होती है।

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