November 18, 2025

Tradition and Religion.

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे

सनातन धर्म के सर्वाधिक सुप्रसिद्ध और प्रचलित ग्रंथ का आरंभ राजा धृतराष्ट्र द्वारा सञ्जय से पूछे गए गीता के प्रथम अध्याय के इस प्रश्न से होता है -

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता ययुत्सवः।

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।

धर्म शब्द की उत्पत्ति धार्यते / धारयति  के अर्थ में प्रयुक्त  होनेवाली "धृ" धातु से होती है, जबकि कर्म शब्द की उत्पत्ति करोति / कुरुते के अर्थ में प्रयुक्त होनेवाली "कृ" धातु से होती है। धर्म आत्मा अर्थात् (व्यक्त या अव्यक्त) अस्तित्व का स्वभाव है जबकि कर्म (व्यक्त या अव्यक्त)  प्रकृति का स्वभाव है।

गीता के अध्याय ३ के श्लोक २७ के अनुसार -

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।

अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।

"कृ" और "धृ" दोनों उभयपदी धातुएँ हैं अर्थात् इनका प्रयोग अपने-आप से या अपने लिए होनेवाले स्वाभाविक कार्य को व्यक्त करने के लिए होता है - जिसे 'किया' नहीं जाता! न तो आत्मा और न ही प्रकृति कुछ करती या कर सकती है।

अध्याय ४ के इस श्लोक १३ से, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण के इन शब्दों से यही स्पष्ट होता है -

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।

तस्य कर्तारमपि मां विद्धि अकर्तारमव्ययम्।।१३।।

यदि आत्मा को जीवात्मा (मध्यम या अन्य पुरुष) तथा परमात्मा (उत्तम पुरुष) को एक दूसरे से भिन्न इन दो रूपों में स्वीकार किया जाए तो भी दोनों ही अकर्ता हैं अर्थात् कर्म करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। समस्त कर्म प्रकृति के गुणों की ही पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया का व्यक्त या अव्यक्त प्रकार हैं, जो कि पुनः उनके बारे में सोचने पर ही अस्तित्वमान प्रतीत होते हैं। और इसीलिए अपने आप पर या किसी और पर उनके घटित होने और कर्ता होना आरोपित कर भूल या प्रमाद से इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाता है। 

इसी तरह मनुते / मनोति / मन्यते अर्थात् मानने के अर्थ में 'मन्' धातु को भी 'मन' (संज्ञा) और 'सोचने' दोनों ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है,  जबकि 'मन' सोचता नहीं, बल्कि 'सोचना' 'सोचने का कर्म' ही 'मन' है।

अध्याय ३ से उद्धृत उपरोक्त श्लोक २७ में 'मन्यते' पद का अभिप्राय यही है - मानता है / माना जाता है। अर्थात् प्रमादवश, अहंकारविमूढात्मा मानता है / माना जाता है। इसलिए 'सोचना' ऐसा कल्पित कर्म है जो कि प्रकृति के गुणों की पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया है। यही पातञ्जल योग सूत्र में वर्णित पाँच क्लेश  -

अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।।३।।

(साधनपाद)

अंतिम अध्याय कैवल्यपाद के अंतिम सूत्र -

पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा चितिशक्तेरिति।।३४।।

से स्पष्ट होता है कि प्रकृति के इन गुणों और उनकी एक दूसरे से होनेवाली क्रिया-प्रतिक्रिया का विलय हो जाना ही समस्त क्लेशो का निवारण है और इसे ही

कैवल्यम्

की संज्ञा प्रदान की गई है।

निष्कर्ष यह :

धर्म स्वभाव है,

कर्म, कृति या कृत्य Tradition / Religion है।

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चलते चलते -

"कृ" धातु से ही "कृमि" शब्द की उत्पत्ति हुई है, जिसे कीट के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। अंग्रेजी भाषा का  worm / vermicelli / vermilion / crime इसी कृमि शब्द के सजात, सज्ञात / cognate  हैं।

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November 14, 2025

P A R O D Y .

परो धीः

ध्यान से देखने पर अंग्रेजी के कुछ शब्द जैसे :

parody, prosody, comedy, tragedy, malady,

में वे मूल संस्कृत शब्द प्रतिध्वनित होते हैं जिनका उच्चारण और अर्थ उनकी उससे मिलता जुलता है

परोधी  -Parody - परो धीः (या परा धी)

प्रसादी(य) -Prosody 

कौमुदी -Comedy

त्रासदी -Tragedy

मलादीय -Malady

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November 08, 2025

The Last Barrier.

Three Spiritual Giants.

तीन दिव्य महामानव

श्री रमण महर्षि, श्री रामकृष्ण परमहंस और,

श्री श्री माता आनन्दमयी.

एक जिज्ञासु ने श्री निसर्गदत्त महाराज के इस बारे में प्रश्न किया : साधना-काल में कुछ ऐसी अनुभूतियाँ भी आती हैं जब हमें ईश्वर का दर्शन / साक्षात्कार हो रहा होता है।

श्री निसर्गदत्त महाराज ने उत्तर देते हुए कहा -

In such cases,

It's not that you experience the God, 

It's rather a state when / where -

The God is experiencing you!

मुझे नहीं पता कि अगर मेरा कोई व्यक्तिगत जीवन है तो उसे कौन किस भविष्य की दिशा में ले जा रहा है! शायद ही किसी को पता होता है। मनुष्य अपने भविष्य के बारे में कितनी ही योजनाएँ बना ले, बहुत बाद में अवश्य ही पता चल जाता है कि अगर कोई विधाता कहीं है तो वह कुछ और तय कर रहा होता है। यह सब किसी अदृश्य विधान से, सर्वथा अकल्पित और अत्यन्त अप्रत्याशित ही होता है। शायद यह एक ही नहीं बल्कि अनेक जन्म जन्मान्तरों से सतत और अनायास होता चला जाता है, और हम चाहते या न चाहते हुए भी उस दिशा में आगे बढ़ने लगते हैं। और जब उम्र हो जाती है तब यह देखकर बहुत आश्चर्य होता है कि यह सब कैसे हुआ। हम उस "समय" को भी पल भर में एक दीर्घ अवधि के रूप में कल्पित कर लेते हैं। फिर लगता है -हाँ, इसके साथ कुछ और भी अनेक दुःखद और सुखद बातें हुई। पूरा पैटर्न तो बहुत बाद में डिकोड हो पाता है। वह भी अपनी दृष्टि के अनुसार, न कि औरों की दृष्टि के अनुसार। ठीक ठीक क्या हुआ, जब यह तक कोई भी न तो जान सकता है, न उस सबको किसी क्रम में क्रमबद्ध ही कर सकता है, तो क्यों और कैसे हुआ यह जान पाना असंभव ही है। जिसे हम इतिहास कहते हैं वह ऐसी ही असंख्य स्मृतियों का बस एक आधा-अधूरा लेखा-जोखा ही तो होता है। किन्तु तब इस अद्भुत् क्षण में हम उस तमाम इतिहास में किसी सूत्र की कल्पना कर सब कुछ उस सूत्र में बाँध लेते हैं। इसी सूत्र का वह एक सिरा था जब मैं भगवान की भक्ति करने लगा था। बस जैसे किसी को पतंग उड़ाने का,  शतरंज खेलने का या नदी में तैरने का शौक होता है। बस ऐसा ही कुछ शौक मुझे विज्ञान, गणित, साहित्य और भाषाएँ पढ़ने का भी था। हम किसी भी कार्य को इसलिए नहीं करते कि उसके माध्यम से हमें पैसे मिलें और उससे हम रोजमर्रा की जरूरी चीजें खरीदे, बल्कि इसलिए हम कोई कार्य करते हैं कि उससे हमें तत्काल ही सुख प्राप्त होता  है। यह सुख एक नशे की तरह भी हो सकता है। फिर भूल से हम सोचने लगते हैं कि किस कार्य को करने से मुझे सुख मिलेगा। जब हमें लगता है कि बिना कुछ किए भी हमें कोई सुख मिल सकता है, तो यह नहीं समझ पाते हैं कि वह सुख हमारे लिए अत्यन्त विनाशकारी होगा। इसलिए अल्पबुद्धि मनुष्य किसी भी नशे से, काम-सुख से, या श्रम से प्राप्त होनेवाले किसी आभासी सुख के पीछे भागने लगता है। यहाँ तक कि उसका ध्यान उसके संभावित महाभयंकर विनाशकारी परिणाम की ओर तक नहीं जा पाता। और ऐसा ही तब भी होता है जब कोई भगवान की भक्ति के भावावेश से इतना अभिभूत हो जाता है कि उसे संसार की और स्वयं अपने आपके भी भविष्य की चिन्ता या विचार नहीं रह जाता। यह स्थिति भी अवश्य ही एक प्रकार का उन्माद या पागलपन जैसा कुछ होता है। यह तो नहीं कहा जा सकता है कि इस प्रकार के उन्माद से, मनुष्य के पागल की तरह होने से उसे कुछ अद्भुत् अनुभूतियाँ होने लगती हैं, या फिर ऐसी कुछ अनुभूतियाँ होने के कारण ही वह पागल की तरह व्यवहार करने लगता है। किन्तु अपनी उस ऐसी प्रसुप्त और प्रच्छन्न संभावना का भान होते ही "समय" रूपी कल्पना वैसे ही विलीन हो जाती है जैसे सुबह होते होते अंधेरा दूर हो जाता है, ऐसा हम ही कहते हैं, लेकिन वह न दूर था, न पास न यहाँ से कहीं और दूर कहीं चला जाता है।

"समय" ऐसा ही कल्पित अंधेरा होता है। "समय" गौण है जबकि संवेदन / perception गुण है। संवेदन, मेरा या आपका नहीं, बल्कि अस्तित्व का गुण है, और संवेदन के विषय और विषयी के रूप में विभाजित होते ही "मैं" और "यह" की तरह से प्रतीत होने लगता है। "मैं" को ही "यह" का संवेदन होता है, और, "यह" के रूप में जिसे भी संवेदित किया जाता है, वह आत्यन्तिक रूप से और समग्रतः भी  "मैं" का ही विस्तार होता है जिसमें समस्त ज्ञात, अज्ञात और ज्ञातव्य, श्रोतव्य और श्रुत अन्तर्निहित होता है।

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति।

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।

(गीता अध्याय २)

उस समय, उस क्षण, जब बुद्धि इस मोहकलिल का अतिक्रमण कर जाती है तब यह दशा प्रकट होती है।

इस प्रकार की यह दशा दो स्थितियों में प्रकट हो सकती है। जिनमें एक स्थिति तो ईश्वर-साक्षात्कार और दूसरी स्थिति आत्म-साक्षात्कार की हो सकती है।

"This happens quite imperceptibly with some, They have attained this, though need to be convinced about this... "

(Sri Nisargadatta Maharaj)

वे उस दशा को ईश्वर-साक्षात्कार कह सकते हैं जिसमें उन्हें उस दिव्य ईश्वरीय तत्व का साक्षात्कार हो जाता है जो इन्द्रियों, मन और बुद्धि का विषय नहीं है किन्तु जिसे वे सबमें व्याप्त और जिसमें वे सबकी व्याप्ति पहचान लेते हैं। और शायद वे उसे कोई ऐसा नाम भी दे सकते हैं जिसे उन्होंने कभी अपने आसपास सुना होता है। उस दिव्य-सत्ता से अपने स्वयं की अभिन्नता का भान उनके लिए सहज और स्वाभाविक होता है, न कि अपनी स्मृति की उपज। किन्तु वे औपचारिक रूप से अभी भी उनके उस "मैं" रूपी खोल में बंद होते हैं जिससे वे उस ईश्वर से अटूट बंधन में बंधे होते हैं। और किसी समय इसके बाद यह पृथक् "मैं" नामक प्रतीत हो रही खोल स्वयं ही इस शरीर के साथ या उससे पहले ही टूट और बिखरकर नष्ट या विलीन हो जाना है।

संभवतः इस "मैं" के रहते हुए ही उस ईश्वर-साक्षात्कार से ही कोई कोई परम धन्य और कृतकृत्य हो सकता है, या फिर भी उसमें इस "मैं" की वास्तविकता, और इसके स्वरूप को जानने की रुचि जागृत या शेष रह जाती हो।

एक विशिष्ट उदाहरण भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस का हो सकता है। ईश्वर-साक्षात्कार के रूप में उन्हें पहले ही आत्म-साक्षात्कार हो चुका था किन्तु यह द्वैत के रूप में था जहाँ ईश्वर / माँ काली और उनके अपने बीच में भी द्वैतयुक्त संबंध नामक शीशे की एक दीवार विद्यमान थी। किन्तु गुरु तोतापुरी का आगमन होने के बाद शीशे की यह दीवार भी टूट गई।

ऐसा ही कुछ श्री जे. कृष्णमूर्ति के साथ हुआ था जिनकी स्थिति में उनकी जिज्ञासा अर्थात् आत्मानुसंधान ही उस रूप में उनके समक्ष प्रकट हुआ जिसे उन्होंने -

The Otherness 

का औपचारिक नाम दिया, और जिसका उल्लेख और विवरण उनकी लिखी उनकी आत्मकथा -

JKrishnamurti's Note-book

से प्राप्त होता है।

इस प्रकार से अद्वैत-साक्षात्कार किसे किस तरह, कब, कहाँ और कैसे होता है, कुछ कहना कठिन है। किन्तु यह घटना है चुकी है इस पर संदेह नहीं किया जा सकता है। भगवान् श्री रमण महर्षि की स्थिति में स्पष्ट है कि उन्हें आत्मानुसंधान के माध्यम से अर्थात् "मैं कौन" इस प्रश्न का समाधान खोजने का प्रयास करने पर,

"मृत्यु किसकी होती है?"

इस जिज्ञासा को शांत करने का यत्न करते हुए अनायास और अनपेक्षित रीति से आत्म-साक्षात्कार हुआ, इसके बाद उनके ही शब्दों में -

"मेरी आत्मा किसी आश्रय की खोज में थी!"

भगवान् श्रीरामकृष्ण परमहंस और श्री जे. कृष्णमूर्ति की स्थिति इस दृष्टि से समान थी कि उन्हें -

अद्वैत-साक्षात्कार

होने से पहले तक संभवतः इसकी कल्पना या अनुमान तक नहीं था कि ऐसा भी कुछ हो सकता है।

भगवान् श्री रमण महर्षि और श्रीश्री माता आनन्दमयी की स्थिति में ईश्वर साक्षात्कार और आत्म-साक्षात्कार एक ही अद्वैत वास्तविकता थी, किन्तु व्यावहारिक रूप से वे ईश्वर के अस्तित्व और संसार से उसकी अनन्यता को जानते हुए भी द्वैत के अन्तर्गत उसे संपूर्ण संसार के एकमात्र स्वामी की तरह भी स्वीकार करते थे।

स्पष्ट है कि भगवान् श्री रमण महर्षि, श्री जे. कृष्णमूर्ति, भगवान् श्री रामकृष्ण परमहंस, श्री निसर्गदत्त महाराज की स्थिति में किसी समय उन्हें आत्म-साक्षात्कार हुआ, जिसकी तिथि का उल्लेख भी कहीं न कहीं अवश्य है,  जबकि श्री श्री माता आनन्दमयी के स्थिति में ऐसा कोई उल्लेख या जानकारी शायद ही कहीं प्राप्त है। इसलिए श्री श्री माता आनन्दमयी के अवतार भी माना जाता है, जबकि किसी भी अवतार का आगमन वैदिक, पौराणिक और आध्यात्मिक दृष्टि से किसी प्रयोजन-विशेष को पूर्ण करने के लिए होता है।

ईश्वर-कृपा से या मुझे अज्ञात किन्हीं भी कारणों से मुझे इन्हीं दिव्य विभूतियों की शिक्षाओं के संपर्क में आने का असीम और अप्रतिम सौभाग्य प्राप्त हुआ इसलिए मैं इन सभी के प्रति कृतज्ञ हूँ।

यद्यपि मेरी योग्यता और मेरा अधिकार भी नहीं है, किन्तु यदि किसी प्रकार से इस पोस्ट में मैंने अपनी मर्यादा का उल्लंघन किया हो और अपने अधिकार से बाहर जाकर, इनके बारे में कुछ अनुचित, अवांछित कहा हो तो इनके और परमात्मा के प्रति हृदय से क्षमाप्रार्थी हूँ।

यह पोस्ट केवल व्यक्तिगत स्मृति के उद्देश्य से लिखा है, न कि किसी से इस विषय में चर्चा करने के लिए, इसके पाठक कृपया इस पर ध्यान दें। 

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November 03, 2025

VERY TRUE!

Relationships, Being Related With, Memory and Recognition.

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संबंध, पहचान और स्मृति 

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संसार की किसी भी वस्तु, विचार, घटना, समय, व्यक्ति या विषय से संबंध, उसकी पहचान और स्मृति साथ साथ ही बनते और समाप्त भी हो जाया करते हैं।

यह शरीर भी ऐसी ही एक वस्तु, विचार, घटना, समय,  व्यक्ति या विषय है।

और उनसे प्रभावित होना या न होना, अभिभूत होना या न होना सबकी अपनी अपनी समझ की परिपक्वता पर निर्भर है।

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November 02, 2025

Does God Exist?

कविता

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उम्र तो हो गई है परन्तु चिन्ता नहीं मिटी, 

इस बूढ़े की बुद्धि देखो, आज फिर पिटी!

जो रोग जवानी में थे, वो सब तो मिट गए,

लिप्सा, ईर्ष्या, कामना, आशा नहीं मिटी!

उम्र की लंबी सुदीर्घ अवधि तो कट गई,

मृत्यु के कठोर भय की डोर नहीं कटी!

शास्त्र कठिन सभी तो कण्ठस्थ हो गए।

विवेक वैराग्य नहीं, मोह आसक्ति ना घटी!

भगवान है, कि नहीं, संदेह मिट नहीं सका, 

संसार सत्य है ये बुद्धि, कभी नहीं मिटी!

निर्निमेष शून्य दृष्टि से ताकता है वह, 

अंत अब समीप, शीघ्र आ रही घड़ी!!

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October 31, 2025

The New and The Old.

अनन्तिम प्रश्न  /

The Penultimate Question.

नया और पुराना समय

क्या "समय" नया या पुराना होता है? 

क्या "हम" नये या पुराने होते हैं? 

क्या "समय" के साथ "हम" बदल सकते हैं?

और,

क्या "समय" के न बदलने से "हम" नहीं बदलते?

क्या "समय", "हम" है? 

क्या "हम", "समय" हैं?

फिर "समय" क्या है? 

फिर "हम" क्या हैं?

क्या इस / इन दोनों प्रश्नों  का कोई बौद्धिक उत्तर हो सकता है?

विचार / बुद्धि समय की सीमा में कार्य करता है ।

और समय, विचार / बुद्धि की सीमा में ।

विचार, बुद्धि और समय अन्योन्याश्रित हैं।

इसलिए,

इस / इन दोनों प्रश्नों का,

कोई बौद्धिक उत्तर नहीं हो सकता।

यह / ये दोनों प्रश्न अनन्तिम / penultimate इसीलिए हैं क्योंकि कोई भी प्रश्न अन्त से पहले तक ही हो सकता है।

अन्त के बाद क्या है?

क्या तब कोई प्रश्न है?

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः। 

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

अध्याय २,

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October 30, 2025

This Timeless Quest!

Since Time Immemorial!

एक बात तय है! 

वह यही कि यह कौतूहल, यह जिज्ञासा, यह खोज न तो "समय" में शुरू हुई और न "समय" में पूरी या समाप्त होने जा रही है। "समय" एक तो वह होता है जो हममें चलता है, और एक वह, जिसमें हम चलते हैं। इस सत्य / सच्चाई से अवगत होने पर भी अपनी लापरवाही से और अभ्यस्त हो जाने के कारण हम अपने जीवन को इन दो प्रकारों की तरह प्रतीत होनेवाले "समय" के बीच उसे कभी तो गतिशील और कभी स्थिर मान लेते हैं।

जैसे हम कहते हैं :

"Gone are the days..."

या -

"वे दिन भी आएँगे जब..."

हमारा मतलब सिर्फ इतना होता है कि

"वे दिन जा चुके, वह "समय" जा चुका, जब .."

या -

"वह "समय" भी आएगा, जब ..."

फिर "समय" का एक प्रकार वह भी होता है जिसे हम : "आजकल" या "फिलहाल" कहते हैं, और हमारा ध्यान कभी इस पर नहीं  जाता कि इसके "अन्तराल" या "अवधि" को मापने का पैमाना क्या हो सकता है। 

वेदान्त की शैली में इसे ही लक्ष्यार्थ और वाच्यार्थ के भेद के उदाहरण से समझा जा सकता है। फिर "समय" का एक और अद्भुत् उदाहरण उस प्रकार का "समय" होता है जिसमें हमें लगता है कि "समय" के साथ सब बीत जाता है। यह "समय" के प्रति हमारी संवेदनशीलता के अनुसार तय होता है। हमारी संवेदनशीलता के अनुसार कोई समय अंधकारपूर्ण होता है, जब हमें दिखलाई नहीं देता, और कोई समय ऐसा भी होता है जब हमें सब कुछ साफ साफ दिखलाई देता है। फिर एक समय ऐसा होता है जब हमें सब कुछ अस्पष्ट और धुँधला दिखलाई दिया करता है। जब न तो उजाला होता है, और न ही अंधेरा। उस "समय" हम किसी डर, आशंका, उम्मीद, रोमांच, असमंजस, उलझन, आशा, निराशा, इच्छा या हताशा से ग्रस्त होते हैं। स्तब्ध, जैसे एकाएक अप्रत्याशित रूप से कोई आकस्मिक खतरा हमारे सामने आ खड़ा होने पर। हम यह तक नहीं सोच पाते हैं कि अब क्या करना है, या क्या होने जा रहा है। वह समय  पता नहीं कितना लंबा या छोटा होता है। यह तो निर्विवाद और असंदिग्ध सत्य है कि इन सभी विभिन्न प्रकार से प्रतीत होनेवाले अनेक या एक ही "समय" में हम (जो कुछ भी हम होते हों या हैं) वही अपरिवर्तनशील आधारभूत चेतना होते हैं जिसमें ये सभी विभिन्न प्रकार के अनुभव आते और जाते रहते हैं। इस संवेदनशीलता का, जो कि आधारभूत चेतना का ही दूसरा नाम है, और जिसमें "समय" नामक इस वस्तु (object) के अस्तित्व को अपने से पृथक्, स्वतंत्र और भिन्न की तरह ग्रहण कर लिया जाता है, के अभाव की कल्पना तक नहीं की जा सकती, क्योंकि ऐसा करने का प्रयास तर्क की कसौटी पर भी हास्यास्पद है।

और इसलिए एक ऐसा, वह "समय" भी है जिसे हम काल-निरपेक्ष / (Timeless) की तरह से जानते हैं।

विचार / वृत्ति का प्रारम्भ और अन्त है, जो यद्यपि अभी है किन्तु क्या निर्विचार / वृत्ति-शून्य चेतना का कोई प्रारम्भ या अन्त कभी हो सकता है!

यही है :

The Timeless Quest.

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October 27, 2025

Attachment/Detatchment.

जुड़ना-टूटना

किसी से जुड़ना किसी माध्यम / बहाने से होता है।

और टूटना भी।

कभी किसी एक से जुड़ने के लिए किसी दूसरे से टूटना भी पड़ सकता है।

प्रकृति और पुरुष का संबंध भी ऐसा ही है।

वैसे समष्टि प्रकृति और समष्टि पुरुष का संबंध, जुड़ाव और अलगाव काल्पनिक ही है, और प्रकृति तथा पुरुष दोनों एक ही वास्तविकता के दो पक्ष हैं किन्तु जैसे ही किसी व्यक्तिगत सत्ता का अस्तित्व एक या अनेक व्यक्त रूपों में अभिव्यक्त होता है, यह उस "मैं" की कल्पना में "मैं" और उस "मैं" भिन्न उसके संसार की तरह परस्पर  अविभाज्य होते हुए भी उससे जुड़ा भी होता ही है। उस "मैं" की दृष्टि में उसके उस संसार में उसके जैसे और भी दूसरे असंख्य मानव और मानवेतर व्यक्ति होते हैं, और वह "मैं" उन सब जैसा फिर भी सबसे विलक्षण होता है। संसार और संसार के असंख्य व्यक्ति, वस्तुएँ और उनसे जुड़ी उसकी प्रतिक्रियाएँ "मैं" के भीतर स्मृति के रूप में  एकत्र होकर उन सबकी कोई एक या अनेक प्रतिमाओं का निर्माण करती हैं, जिसका विस्तार और सीमा भी उस "मैं" की कल्पना करने की क्षमता तक ही संभव होता है। इन सभी "मैं" का ऐसा कोई संसार कहीं नहीं होता जो सबके लिए समान हो सकता है। प्रत्येक "मैं" और उस "मैं"-रूपी व्यक्ति का संसार अन्य सभी ऐसे दूसरे सभी "मैं"-रूपी व्यक्तियों से कुछ अंशों में समान या असमान होते हुए भी नितान्त भिन्न होता है और ऐसे किसी संसार का तो अस्तित्व ही नहीं हो सकता जो संपूर्ण रूप से सब के लिए समान और एक हो सकता है। फिर भी बातचीत में हर कोई संसार को सबके लिए समान एक वस्तु मान लेता है और इस पर किसी का ध्यान तक नहीं जाता कि ऐसे किसी सर्वसामान्य संसार का अस्तित्व होना संभव ही नहीं है। इसलिए जिसका अस्तित्व ही संभव नहीं है,  उससे जुड़ने या अलग होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।

हर व्यक्ति फिर भी अपने अनुभवों की स्मृतियों से निर्मित अपने संसार की विभिन्न वस्तुओं और व्यक्तियों से अपनी इच्छा या आवश्यकता के अनुसार संबद्ध होता है या फिर उनसे अलगाव होना चाहता है।

इन्हीं अनेक इच्छाओं, आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए वह विभिन्न समूह बनाता है और ऐसे तमाम समूह जो आगे चलकर और भी विशिष्ट स्वरूप ग्रहण करते हैं, परस्पर जुड़ते और टूटते भी रहते हैं। जैसे कि परिवार और विशेष व्यावसायिक या राजनीतिक समूह या वर्ग। जैसे बौद्धिक और श्रमजीवी, कलाकार, साहित्यकारों के समूह। जैसे भाषा, परंपराओं पर आधारित समूह। रोचक तथ्य यह भी है कि इनमें से प्रत्येक समूह का एक अंश किसी रूप में दूसरे किसी समूह के कुछ अंशों से जुड़ा हो सकता है। जैसे कि कृषि कार्यों में संलग्न व्यक्ति भाषा के आधार पर भिन्न भिन्न समूहों से जुड़े हो सकते हैं। पढ़े लिखे लोग भी सामाजिक परंपराओं से जुड़े होने पर भी एक दूसरे से अलग अलग समूहों से संबद्ध हो सकते हैं। उदाहरण के लिए व्यवसाय के क्षेत्र में एक ही व्यवसाय में संलग्न होते हुए भी परस्पर भिन्न भिन्न रुचियों और परंपराओं के अनुयायी। इन सबसे एक सर्वाधिक विशिष्ट प्रकार शारीरिक संरचना के आधार पर पुरुष और स्त्री के बीच होनेवाले जुड़ाव और अलगाव का। यदि समूह का अर्थ ऐसे परिवार के रूप में ग्रहण किया जाए जहाँ पर केवल वंशवृद्धि ही एकमात्र प्रयोजन होता हो, तो ऐसे समूह या परिवार पशु-पक्षियों आदि के भी होते हैं, जो कि ऋतु-काल के अनुसार बनते, बिखरते और टूटते भी रहते हैं। जिसे आजकल "live in relationship" कहा जाता है, वह अवश्य ही इसी प्राकृतिक ऋतु-काल पर निर्भर जुड़ाव और अलगाव का सर्वाधिक विकृत रूप हो सकता है क्योंकि इस व्यवस्था में यौन-सुख को तृप्त करने के व्यक्तिगत 'अधिकार' को वंशवृद्धि के प्राकृतिक उत्तरदायित्व से ऊपर रखा जाता है। क्योंकि जैसे ही इसे स्वीकार कर लिया जाता है, संतानोत्पत्ति और संतान के पावन पोषण और उसकी सुरक्षा के अधिकार की उपेक्षा कर दी जाती है। मनुष्यों के किसी भी समाज में इसीलिए विवाह नामक संस्था की आवश्यकता सर्वत्र ही अनुभव की जाती रही है। आज के तथाकथित प्रगतिशील, उन्नत समाज में आधुनिकता के नाम पर इसीलिए विवाह का औचित्य और प्रासंगिकता संदिग्ध हो गए हैं। मानवीय नैतिकता के आधार पर इसलिए भी, विवाह के औचित्य और अपरिहार्यता की आवश्यकता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। संसार के विभिन्न स्थानों पर विवाह की आवश्यकता को अनुभव करने के बाद परंपराओं ने इसे भिन्न भिन्न रूपों में अपनाया। और दुर्भाग्यवश भिन्न भिन्न परंपराओं ने इसे भी भिन्न भिन्न आधार पर तय भी किया। विभिन्न परंपराओं में, जिन्हें religion कहा गया इस प्रकार प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त के आधार पर या उसकी अवहेलना करते हुए समाज में शक्तिशाली लोगों के द्वारा तय किए गए नियमों के आधार पर बलपूर्वक उस अपने अपने समाज पर आरोपित कर दिया गया। इस पर किसी का ध्यान ही नहीं गया कि किस और कैसे किसी जाने-अनजाने षडयंत्र या भूल से, परंपराओं को "धर्म" कहकर वास्तविक "धर्म" क्या है, इस पर किसी ने गंभीरता से खोजबीन नहीं की। 

विवाह के संबंध में एक ऐतिहासिक सच्चाई यह है कि "धर्म" की सनातन परंपरा प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त पर आधारित है, न कि मनुष्य के यौन-सुख की कामना और निर्बाध भोग-लिप्सा को तृप्त करते रहने पर। सभी परंपराओं में इस प्रकार विवाह की व्यवस्था जिस आधार पर स्थापित हुई, उनमें प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त को आधारभूत महत्व दिया गया या फिर भूल से, जानबूझ कर या अन्य किन्हीं कारणों से इस सिद्धान्त की न सिर्फ अवहेलना की गई बल्कि इसके संभावित परिणामों तक पर ध्यान नहीं दिया गया। यह भी महत्वपूर्ण और रोचक तथ्य है कि इसलिए सनातन (धर्म) में विवाह-विच्छेद या तलाक की वैधानिता या औचित्य का प्रश्न भी पैदा नहीं हुआ। 

क्या आज की सामाजिक व्यवस्था में इन सारे प्रश्नों का कोई समाधान या उत्तर है? 

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October 20, 2025

SABBATH

Just a guess only!! 

Looking forward to go on a month's long Sabbath from the Internet. While thinking so, my attention was drawn to finding out what is the conventional meaning of the word.

I found out :

Google Translate tells that this Word :

Sabbath

is used to denote the traditional 2 days'  observance of religious ritual of fasting and abstaining from the other worldly activities, on Friday onto Saturday (in a certain week in some certain month of the year as per the Jew calender).

The Christian tradition follows a similar practice on Sunday.

While going occasionally through the Indian PanchAngaM पञ्चाङ्गम् I noticed there is a stipulated time-period (maybe in every month) that  is called:

सर्वार्थ सिद्धि योग.

For example on the 3rd of October 2025, this was from the 03:00 a.m. to Sunrise,

On the Sunday 19th October 2025 this was from Sunrise to Sunset, the whole day.

I have been wondering since long when it came to mind that the word "Sabbath" might have roots in the Sanskrit word :

सर्वार्थ!

As both these words so closely resemble with one another in the pronounciation and the meaning also.

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October 08, 2025

SAT-ADHARA

Sat-dhARA 

सत्-धारा / सात-धारा

चार सितंबर 2024 की सुबह नर्मदा तट पर स्थित इस स्थान पर आकर वर्ष 2025 में एक वर्ष और एक माह पूरा हो चुका है। पिछले वर्ष के अंतिम चार और इस वर्ष के पहले दो माह बहुत सुख से बीते। आशा है कि इस वर्ष के शेष तीन माह भी शायद यहीं पर सुखपूर्वक बीत सकेंगे। ब्लॉग लिखने, यू-ट्यूब पर छोटे बड़े वीडियो देखने में समय कभी कम पड़ता है, कभी बहुत धीमी गति से चलता हुआ महसूस होता है। अपने हाथ से और  अपनी सुविधानुसार अपने समय पर खाना बनाना और खाना भी अच्छा लगता है। किसी भी समय, कितने भी समय तक सोना भी इसी तरह है। कुछ समय तक बीच में कुछ लोगों से बातचीत हो पाने में कठिनाई हो रही थी। अब वह कठिनाई दूर हो गई है ऐसा लगता है। यह कठिनाई सिर्फ परिचितों से ही नहीं, अपरिचितों को भी मुझसे और शायद मुझे भी उनसे होती रही थी। धीरे धीरे लोग एक दूसरे से अनुकूल हो जाते हैं।

संबंध, संपर्क, संवाद और बातचीत तब सुनियोजित और स्वाभाविक हो जाती है, या बस औपचारिक रह जाती है, तब यह समझ में आ जाता है कि अनावश्यक बातचीत से मनोरंजन तो हो सकता है, बाद में ऊब भी हो सकती है। और हर कोई अकेलेपन से भागने की कोशिश किया करता है और इसलिए यह भी थोड़ा विचित्र है कि इतना परिपक्व होने से पहले, उसे यह नहीं समझ में आता है कि अकेलापन ईश्वर प्रदत्त वरदान ही है न कि एक ऐसी समस्या जिसका हल उसके पास नहीं होता है। यहाँ तक पहुँचने से पहले प्रायः हर किसी को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। कुछ लोग तो जल्दी समझ लेते हैं, किन्तु अधिकांश लोग बहुत देर से, या शायद अंत तक भी समझ तक नहीं पाते।

संसार और संसार के समस्त विषयों का संवेदन / perception चेतना / consciousness में ही होता है क्योंकि ज्ञानेन्द्रियाँ स्वभाविक रूप से बहिर्मुख होती हैं। बाह्य विषयों का संवेदन भिन्न भिन्न प्रकार का होते हुए भी चेतनारूपी पर्दे / interface पर उन्हें ही दृश्य, श्रव्य, गंध, स्वाद तथा स्पर्श के रूप में स्मृति में संग्रहित कर उनमें तारतम्य स्थापित करने के लिए अपने आपको ही आधार बना लिया जाता है और इस प्रकार स्वयं को परिभाषित कर लिया जाता है। यद्यपि पाँच ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से संसार को जाना जाता है किन्तु जिस बुद्धि नामक यंत्र से यह जाना जाता है वह स्वयं स्मृतिजनित हो सकती है, या बुद्धि नामक यंत्र ही स्मृति के उत्पन्न होने का कारण और आधार भी हो सकता है। यह एक दुष्चक्र है क्योंकि बुद्धि से स्मृति और उसका सातत्य पैदा होता है और स्मृति होने से बुद्धि कार्य करने में समर्थ हो पाती है। इस प्रकार एक विशिष्ट और वैयक्तिक "संसार" का संचार स्मृति / बुद्धि में ऐसे व्यक्ति-सापेक्ष वैचारिक संसार को सत्यता देता है, जो हर किसी के लिए उसका अपना अपना और अलग अलग होता है। व्यक्तियों के समूह या समुदाय के लिए भी ऐसा सामूहिक संसार अस्तित्वमान हो उठता है, और फिर स्मृति / बुद्धि पर आधारित चेतना (perception) में व्यक्ति और उसके संसार की एक कामचलाऊ पहचान और उस पहचान के अपने आपके होने की भावना उत्पन्न होती है। यह सब केवल वैयक्तिक और मानसिक कल्पना होती है।

चेतना के दो अवयव बुद्धि / स्मृति और पराक्रम हैं। भावना इन दोनों के बीच पुल की तरह है। समस्त संवेदन बुद्धि / स्मृति और भावना के माध्यम से ही संभव होते हैं और किसी भी संवेदन की अनुभूति इन्हीं दो में से किसी एक या एक साथ दोनों के ही मिश्रित रूप में होती है।

बुद्धि से किसी वस्तु के मात्रात्मक गुण को जाना जाता है, जबकि भावना से अनुभूति अर्थात् विषय संवेदन के प्रकार को। जैसे फूल की सुगंध अच्छी लगती है, किसी अस्वच्छ या गंदी वस्तु की गंध बुरी लगती है। अच्छा या बुरा लगना स्थूल भावनात्मक अनुभूति का उदाहरण है। इसकी स्मृति और स्मृति से उत्पन्न प्रतिक्रिया पुनः एक और भावनात्मक अनुभूति होती है, जिसे कोई शब्द देते ही "भाषा" नामक एक कृत्रिम साधन उपलब्ध होता है। इस साधन का और अधिक विस्तार तथा विकास होने पर यही बौद्धिक ज्ञान (intellect) का रूप ले लेता है। बुद्धि के कार्य का प्रकार वैज्ञानिक, गणितीय, या तार्किक हो सकता है या अनुभूति पर आधारित कलात्मक। जैसे फूल की गंध को भिन्न भिन्न फूलों के गंध की भिन्नता के तरह भी जाना जा सकता है, या मधुर, कटु, तीक्ष्ण आदि रूपों में भी उसकी पहचान की जा सकती है। यह सब ज्ञान का सूक्ष्म / आधिदैविक रूप है, जबकि स्थूल ज्ञान आधिभौतिक रूप होता है।

गणना करना स्पष्टतः गुणों को गणों में विश्लेषण करने पर निर्भर है, जबकि भावना किसी भावनात्मक संवेदन के प्रकार विशेष पर निर्भर होती है। भावना को गणित या तर्क की कसौटी पर और बुद्धि को भावना की कसौटी पर नहीं समझा या समझाया जा सकता है।

गणपति, या गणेश इसलिए बुद्धि के अधिष्ठाता देवता हैं, जबकि सरस्वती, विद्या की अधिष्ठात्री देवता हैं। संस्कृत भाषा में 'देवता' शब्द / पद को पुल्लिंग या स्त्रीलिंग दोनों ही तरह से प्रयुक्त किया जाता है। इसी तरह, 'अधिष्ठाता' शब्द को भी। अंग्रेजी भाषा में इस शब्द का अनुवाद   'Presiding'  किया जाता है, और प्रचलित रूप में अधिष्ठाता देवता को त्रुटिवश  Presiding Deities कहा जाता है, जो भ्रामक है। क्योंकि  Deity  शब्द  "दिति" से व्युत्पन्न सज्ञात या सजात  cognate  है। दिति और अदिति दोनों बहनें ऋषि कश्यप की पत्नियाँ हैं। दिति से दैत्यों और अदिति से १२ आदित्य / देवताओं का उद्भव हुआ। यह पौराणिक विवेचना है, जबकि वेद और वैदिक आधार पर दैत्य, देवता, यक्ष, गंधर्व, दानव, मनुष्य, राक्षस, किंनर, विद्याधर, अप्सरा आदि भिन्न भिन्न प्रजातियाँ हैं जो दस प्रजापतियों की संतानें हैं। सुर और असुर गुण-कर्म रूपी संपत्तियाँ हैं जिनका दैवासुर संपत्ति के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेख है।

गणपति और सरस्वती के अतिरिक्त पराक्रम के रूप में जिन देवता का उल्लेख वेदों और पुराणों में पाया जाता है उनका नाम है स्कन्द, कुमार, कार्तिकेय, या षडानन। वैदिक ज्यौतिष् के अनुसार स्कन्द को 'षाण्मातुर' कहा जाता है। जब पृथ्वी तारकासुर नामक असुर से त्रस्त थी तो पृथ्वी के उद्धार के कार्य के लिए भगवान् शिव और माता पार्वती के पुत्र कुमार / स्कन्द का अवतार होने का विधान ब्रह्मा ने सुनिश्चित किया था और तब देवताओं ने भगवान् शिव और माता पार्वती को संतानोत्पत्ति के कार्य में प्रवृत्त करने के लिए कामदेव को नियोजित किया। तब कामदेव को शिव ने तृतीय नेत्र खोलकर जलाकर भस्म कर दिया। और भगवान् शिव और माता पार्वती ब्रह्मा के विधान के अनुसार कितने ही दिव्य वर्षों तक सुरत क्रीडा में संलग्न हो गए। जब अत्यन्त देर तक वे इस क्रीडा में संलग्न रहे तो उनकी क्रीडा को किसी ने बाधित किया और  भगवान् शिव के तेजस् वीर्य के उत्सर्जन होने पर पार्वती ने उसे गंगा में प्रवाहित कर दिया। तब गंगा के जल से कुमार का जन्म हुआ। जन्म लेते ही उछलकर वह खड़ा हो गया। उस दिव्य संतान के छः मुख थे और तब कृत्तिका नक्षत्र की छः तारकाओं / मातृकाओं ने उसे स्तनपान कराया। इसलिए उसका नाम 'कार्तिकेय' हुआ। दिव्य आधिदैविक  घटना का उल्लेख स्कन्द-पुराण और  (संभवतः) श्रीरामचरितमानस में भी है। 

महाकवि कालीदास ने इसी विषय पर "कुमारसंभव" नामक कृति की रचना की जिसमें भगवान् शिव और माता पार्वती के बीच की सुरत क्रीडा का श्रँगारात्मक  वर्णन किया जिससे उन्हें शाप प्राप्त हुआ। 

एक छोटा सा प्रश्न सुबह किसी ने पूछा था :

क्या स्कन्द के षडानन नाम को खड़ानन कहने में कोई दोष है? 

इसका उत्तर यही होगा कि कथा के वाचन में जिस भाषा में कथा है, उस भाषा में प्रयुक्त शब्द को उस तरह कहने में कोई दोष नहीं है, किन्तु वेद में वर्णित भगवान् स्कन्द के मंत्र में इस प्रकार से प्रयुक्त करने में अवश्य दोष है। उदाहरण के लिए -

शिव अथर्वशीर्ष और गणपति अथर्वशीर्ष में स्कन्द को ही गणपति, रुद्र, इन्द्र, वरुण, बृहस्पति, अग्नि, सूर्य, वायु आदि भी कहा गया है। किन्तु षडानन शब्द का अन्यत्र जहाँ प्रयोग किया गया है, वहाँ इस शब्द का उच्चारण इसी प्रकार से किया जाना चाहिए, न कि खड़ानन के रूप में।

Y H V H  य ह्वः

प्रकारान्तर से ऋग्वेद में जहाँ यह्व पद का प्रयोग है और जिसे उसी प्रकार से यहूदी मत में यथावत् स्वीकार कर लिया गया है, षडानन या स्कन्द ही यह्व हैं, इसमें कोई संशय नहीं हो सकता है। यहूदी राष्ट्र इसरायल और उस परंपरा  के उद्भव को इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो इससे भी इसकी पुष्टि हो जाती है। इसरायल के राष्ट्रीय ध्वज पर षट्कोणीय चिह्न भी इसका ही द्योतक है। इस विषय पर पहले भी अनेक पोस्ट्स में विस्तार से लिख चुका हूँ। 

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