एक जिज्ञासा!
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मेरे व्हॉट्स ऐप से
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साँस क्यों चलती है,
ये किसकी गलती है,
कौन लेता है साँस,
उम्र क्यों ढलती है,
एक अफसोस बना रहता है,
जिन्दगी यूँ ही क्यों चलती है!
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एक जिज्ञासा!
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मेरे व्हॉट्स ऐप से
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साँस क्यों चलती है,
ये किसकी गलती है,
कौन लेता है साँस,
उम्र क्यों ढलती है,
एक अफसोस बना रहता है,
जिन्दगी यूँ ही क्यों चलती है!
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मानसं तु किम्?
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वे लोग अभी तक किसी भाषा का आविष्कार नहीं कर सके थे। न तो सांकेतिक, न शाब्दिक ध्वन्यात्मक वर्णों आदि में बोली जानेवाली या वर्णात्मक लिपि में लिखी जानेवाली। उन्हें इसकी कमी भी महसूस नहीं होती थी क्योंकि वे अपनी भावनाओं को केवल तात्कालिक रूप से ही व्यक्त होने देते थे और उन्हें छिपाने के बारे में उन्हें कोई कल्पना तक नहीं थी।
उसके साथ भी यही था। उसे यह तो पता था कि लाल, नीला और हरा रंग किस प्रकार परस्पर भिन्न हैं किन्तु उसका ध्यान कभी इस पर नहीं जा पाया था कि उनमें विद्यमान 'रंग' नामक समान तत्व क्या है! और वैसे ही उसे विभिन्न ध्वनियों की पहचान भी थी किन्तु ध्वनि और रंगों की कोई पहचान उसके मन में अभी तक परिभाषित और स्थिर नहीं हो सकी थी।
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अतिमानस और अतिचेतन
Transcendental Mind And Transcendental Consciousness.
उसे रंगबिरंगी वस्तुओं में रुचि थी। शुरू में तो उसने कुछ बड़े बड़े पत्थर जमा किए थे और एक कमरा बना लिया था जिस पर उसने पेड़ों के पत्ते, और कुछ सूखी टहनियाँ रखकर अपने रहने के लिए एक सुविधाजनक पर्णकुटी जैसा घर भी बना लिया था। जंगल में अपनी इच्छानुसार वह जहाँ तहाँ घूमते हुए थक चुकी होती तो उस पर्णकुटी में आराम कर सकती थी। पत्थरों की बनी वे चार दीवारें जिनकी ऊँचाई उसके कद से थोड़ी सी अधिक थी। वह लगभग हर रोज ही उस घर में कुछ न कुछ नया बदलाव किया करती थी। जब उसे महसूस हुआ कि उस घर में हाथों को ऊपर की ओर फैलाने में घास फूस और पत्तों से बनी छत रुकावट डालने लगी है तो उसने दीवारों की ऊँचाई और बढ़ा दी। और वैसे भी उसे तब यह भी समझ में आ चुका था कि अब उसकी ऊँचाई भी बढ़ रही है।
उसका अतिथि मित्र जब पुनः अपने समुदाय के लोगों के साथ आया था तो वे लोग यह देखकर बहुत खुश हुए थे कि आसपास बहुत से ऐसे पत्थर थे, जिन्हें आग में तपा कर गलाया जा सकता था। और फिर ठोक पीटकर उन्हें वाञ्छित आकार की वस्तुओं में ढाला जा सकता था। यूँ कह सकते हैं कि यह समय "लौह युग" / "Iron Age" का समय रहा होगा।
उनका यह सारा ज्ञान बिना किसी भाषा के ही आनेवाली नई पीढ़ी को वे संप्रेषित कर देते थे। क्योंकि हर तरह का संपूर्ण तकनीकी ज्ञान ऐसा ही होता है। तकनीक तो यंत्र भी सीख लेते हैं, क्योंकि उन्हें बनाना भी तकनीक ही है।
वे लोग अलग अलग प्रकारों के लोहे से भिन्न भिन्न तरह की वस्तुएँ जैसे कुल्हाड़ी, चाकू, तलवार और धनुष से चलाए जानेवाले बाण भी बनाया करते थे।
उनमें एक व्यक्ति ऐसा भी था जो उस दल का मुखिया था और सभी उसकी आज्ञा के अनुसार अपना अपना कार्य करते थे। इसी तरह और भी दो तीन व्यक्ति थे जो उससे कम आयु के युवा थे, जबकि वह अब काफी बूढ़ा हो चुका था।
उसकी आज्ञा को मानने का एक और कारण था क्योंकि ऐसा समझा जाता था कि उसका संपर्क कुछ ऐसे अदृश्य लोगों से होता है जो उसे मार्गदर्शन देते हैं। यह वैसे कुछ अविश्वसनीय प्रतीत होता है, किन्तु उनमें से लगभग हर कोई अपने अनुभवों से भी जानता था और उसे लगता था कि ये अदृश्य लोग वही हैं, जिनकी कभी मृत्यु हो जाती है और उनके शरीर के नष्ट हो जाने पर, उनके शरीर को पूरी तरह से जलाकर राख कर दिए जाने पर भी वे किसी किसी को दिखाई देते हैं और उनमें से प्रायः हर किसी को यह बिल्कुल स्वाभाविक प्रतीत होता था इसलिए इस पर किसी को संदेह ही नहीं था।
चुम्बकीय लोहा
इसका दूसरा प्रमाण उनके पास यह भी था कि जब ऐसे किसी व्यक्ति की स्वप्न जैसी अवस्था में उन अदृश्य लोगों से भेंट होती तो इसकी सत्यता की परीक्षा वे कर सकते थे। और यह जानकारी भी उन्हें बहुत पहले से थी। न जाने कितनी पीढ़ियों पहले से।
यह प्रमाण बहुत सरल था।
वे रात्रि को सोते समय अपने सिरहाने पर बिस्तर के नीचे लोहे का बना कोई चाकू रखा करते थे और प्रायः जब भी उन्हें लगता कि स्वप्न में उनकी किसी अदृश्य व्यक्ति से मुलाकात हुई थी तो उस चाकू को लोहे की बनी किसी दूसरी वस्तु से स्पर्श कर इसकी पुष्टि भी कर सकते थे कि उस चाकू को उस अदृश्य वस्तु की आत्मा ने स्पर्श किया और इसलिए उसमें चुम्बकीय गुण प्रविष्ट हो गया। उसे यह रोचक प्रतीत हुआ और जब एक दिन स्वयं उसे भी ऐसा महसूस हुआ तो उसे उन अदृश्य लोगों और उनकी इस सत्ता पर विश्वास हो गया।
उस समुदाय का प्रमुख इसलिए भी विशिष्ट था कि उसे यह अच्छी तरह से पता था कि भिन्न भिन्न तरह के ऐसे अदृश्य व्यक्तियों से कैसे मिला जा सकता है और उनसे मिलना कितना उचित या अनुचित हो सकता है, कितना निरापद और भयावह या खतरनाक भी हो सकता है।
फिर उसे एक दिन यह रहस्य भी समझ में आ गया कि क्यों उसका अतिथि मित्र एक दिन अचानक उसे बताए बिना कहीं चला गया था। और जब बहुत दिनों बाद वह अपने समुदाय के साथ लौटा था तो समुदाय प्रमुख और उसके साथ की उसकी साथी स्त्री ने कुछ वनस्पतियों को जलाकर विशेष सुगंध फैलाकर कुछ अदृश्य लोगों को निमंत्रित किया था और उसके अतिथि मित्र के साथ उन दोनों के वस्त्रों में गाँठ लगाकर उन दोनों को जलती हुई अग्नि की परिक्रमा करने के लिए कहा था। उसे यह सब विस्मयपूर्ण और कौतूहल भरा लगा था किन्तु यह समझ में आ गया कि एक स्त्री और एक पुरुष के बीच संतान की उत्पत्ति करने के लिए तय किए जानेवाले इस विधान का क्या महत्व है और यह एक सर्वाधिक और अत्यन्त पावन संस्कार है। यद्यपि उसके पास ये सारे शब्द नहीं थे किन्तु अग्नि में विद्यमान जिस तेजस्वी पुरुष के दर्शन उसे उस समय हुए वह औरों के लिए शायद अदृश्य ही रहा होगा ऐसा उसे लगा।
वह प्रायः उस समुदाय की स्त्रियों के साथ वन में फल, फूल, वनस्पतियाँ और खनिज द्रव्य लेने जाया करती थी और वही उसे वह गुप्त विद्या प्राप्त हुई कि किस प्रकार लाख, lac. गोंद, glue / gum, राल, गुग्गलु, चंदन, आदि सुगंधित incense वनस्पतियों को जलाकर भिन्न भिन्न प्रकार के अदृश्य व्यक्तियों को आकर्षित किया जा सकता है या दूर भी रखा जा सकता है। उस समुदाय का वह विशिष्ट व्यक्ति इन लक्ष्यों को भली भाँति जानता था और कभी कभी इन अच्छे या बुरे लोगों का चित्र बनाकर भी उनसे हुई उसकी मुलाकात का वर्णन किया करता था। विशेष रूप से तब जब वह विधि विधान पूर्वक ऐसा कोई अनुष्ठान करता। और लोगों के लिए यह सब समझ सकना कठिन था किन्तु सभी को यह स्पष्ट हो गया था कि ऐसे अदृश्य व्यक्तियों का अस्तित्व है जिनसे संपर्क भी किया जा सकता है। किन्तु हम लोगों द्वारा बोली और लिखी जानेवाली किसी बौद्धिक भाषा से उनका कोई परिचय तब तक नहीं हुआ था इसलिए वे राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और देवताओं इत्यादि को जानते हुए भी उनके लिए प्रयुक्त किए जानेवाले किसी शब्द से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे। वे एकेश्वरवादी या बहुदेवतावादी भी नहीं थे और इन अदृश्य व्यक्तियों को अपनी बुद्धि द्वारा जानी गई विशेष शक्तियों की तरह जानते थे। उन्हें प्रेत-धर्म भी ज्ञात नहीं था क्योंकि उनके समुदाय में किसी की मृत्यु हो जाने पर समुदाय का मुखिया ही तय करता था कि उसके वश की अंत्येष्टि कैसे की जाए। वे यह तो जानते थे कि मृत्यु हो जाने के बाद भी कोई अदृश्य रूप से अस्तित्वमान रहता है, किन्तु उन्हें इस बारे में नहीं पता था कि क्या ऐसे अदृश्य व्यक्ति का जन्म पुनः किसी नए शरीर में उस तरह से होता है जैसे कि उन सब लोगों का जन्म किसी समय हुआ था। किन्तु देवताओं और ऐसे ही अन्य अदृश्य व्यक्तियों अर्थात् ऋषियों से संपर्क होने के बाद पहले मंत्रों से और फिर अनुष्ठानों को पूर्ण करने से उनमें वैदिक ज्ञान के प्रति जागृति हुई और उस चिरंतन, शाश्वत और अविनश्वर वस्तु से भी उनका परिचय हुआ, जिसे सामान्यतः। सत्य, ब्रह्म, आत्मा या परमात्मा कहा जाता है।
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स्मृति कल्पना और संसार
तब समय नहीं था, क्योंकि न तो समय अतीत की स्मृति की तरह और न भविष्य की कल्पना की तरह अनुभव हो सकता था। वहाँ निपट वर्तमान था जो न आया था और न ही कभी आनेवाला था। क्योंकि उनके पास मन में न तो अतीत की कोई स्मृति थी और न ही भविष्य का कोई अनुमान या कल्पना ही थी। हाँ, वह प्रत्यक्ष और आसन्न वर्तमान अवश्य होता था जो भावी की संभावना के रूप में उनके मनःचक्षुओं के सामने उनके समक्ष चित्र के रूप में होता था। किन्तु ऐसा अनायास, बहुत ही कम अवसरों पर होता था जो न तो अतीत में घटित किसी घटना की स्मृति का दोहराव होता था और न ही भविष्य की किसी संभावना पूर्वानुमान या कल्पना हो सकता था। इसलिए वे उस "समय" से अनभिज्ञ थे जो हमें शीघ्रता से या धीरे धीरे बीतता हुआ प्रतीत होता रहता है। किन्तु जब उनमें वस्तुओं और घटनाओं की चित्रात्मक और ध्वन्यात्मक स्मृति बनना शुरू हुआ तो उसके फलस्वरूप वही उस काल्पनिक जगत से उनका प्रथम परिचय था जो क्रमशः दृश्यश्रव्य स्मृति के रूप में उनके मन में बसने लगा। जब वह भाषा नामक उस माध्यम / interface से अनभिज्ञ थी, जिसे कि उसके अतिथि मित्र के आगमन के बाद उन दोनों ने मिलकर बनाया था, और जो कि ऐसी नई खोज / discovery नहीं, बल्कि बस संयोगवश ही बन गई प्रणाली / system, स्मृति और कल्पना से उत्पन्न और "जानकारी" के रूप में प्राप्त तथाकथित वह "ज्ञान" था, जिसका वर्गीकरण उन्होंने प्रमादवश, अनवधानता और बस लापरवाही से ही तथाकथित अतीत और भविष्य में कर लिया था। और इस तरह से वे वर्तमान वास्तविकता (This Moment of Now) से पूरी तरह से विच्छिन्न हो चुके थे। उन्हें कभी यह पता तक न चल सका कि इस प्रकार जिस स्वर्ग में वे अब तक आनन्दपूर्वक जी रहे थे, उससे कैसे अचानक बहिष्कृत हो गए थे और फिर ऐसा भी नहीं कि किसी और ईश्वर या परमात्मा या ऐसी किसी शक्ति ने उन्हें उस स्वर्ग से धकेलकर बाहर कर दिया था।
यह ज्ञान का फल था जिसके आस्वाद, स्पर्श, स्वर, रंग-रूप और गंध से वे मोहित और अभिभूत थे।
कल्पना और स्मृति के संयोग से भाषा की निर्मिति कर लेने के बाद इस माध्यम (interface) से वे कल्पनाओं को और अधिक विकसित, परिवर्धित और समृद्ध करने लगे थे और जिस समय की अवधारणा ने उनकी स्मृति में जन्म लिया उसका विस्तार अतीत में और भविष्य में दूर तक था जिसे कि उन्होंने क्रमशः अनादि और अनन्त का नाम दिया था।
यह ज्ञान, भान या बोध नहीं, उसका विकल्प था जिसे
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
से परिभाषित किया जा सकता है और इस तरह एक प्रकार की वृत्ति ही था।
यह ज्ञान उस सहज भान से अत्यन्त भिन्न था जो इससे पहले उनके पास सहज जीवन की तरह उनका स्वर्ग था।
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स्वर्ग से निष्कासित
वे दोनों जहाँ रह रहे थे वहाँ अभी तक ज्ञान का आगमन नहीं हो सका था। वहाँ पर जन्म, जीवन और मृत्यु भी थे किन्तु दुःख नहीं था। क्योंकि चेतना अभी स्मृति नामक विकार से दूषित नहीं हुई थी। क्योंकि वे अभी किसी भी शाब्दिक भाषा से नितान्त अनभिज्ञ थे। भाषा के अभाव में जो स्मृति थी वह अत्यन्त क्षीण और क्षणजीवी थी। न तो स्मृतियों की कोई छोटी या लंबी श्रँखलाएँ थी न समय का वह कल्पित आयाम ही वहाँ था, जिसमें तथाकथित अतीत और भविष्य एक ठोस यथार्थ की तरह मन पर हावी होकर उसे उद्वेलित किए रहते हैं। न वहाँ पर मन से अलग मन का कोई स्वामी ही था और न उस स्वामी से शासित कोई मन। बस वहाँ बस परिपूर्ण "अ-मन" का ही यत्र तत्र और सर्वत्र साम्राज्य था। इसलिए न तो कोई शासक था, और न ही कोई शासित ही था।
सहज स्वाभाविक सार्वत्रिक धर्म ही अस्तित्व स्वयं की तरह स्वयं अपने आपमें ही व्याप्त था, और यह निरंकुश या अराजक हो ऐसा भी संभव न था।
उस शब्द और बुद्धि से रहित धर्म में 'अर्थ' का आगमन होते ही वस्तुओं को अलग अलग शाब्दिक नाम प्राप्त हो गए और उनकी परस्पर तुलना की जाने लगी। वे छोटी, बड़ी, प्रिय, अप्रिय, आकर्षक और भयावह प्रतीत होने लगी। तब वे शब्दों के सार्थक प्रयोग से वाक्य-रचना भी करने लगे थे। यह एक रोचक अनुभव था जिसके द्वारा वे न केवल निर्जीव वस्तुओं को, बल्कि सजीव पशु पक्षियों, प्राणियों और चेतन, जीवन से परिपूर्ण संवेदनशील पेड़-पौधों पौधों आदि को नाम देने लगे और तब अकस्मात् ही उनका ऐसे एक सत्य से साक्षात्कार हुआ जिसे कि वे जीवन के उस अद्भुत् तत्व की तरह देख सकते थे जो कि सबमें नित्य व्याप्त होते हुए भी चेतना की तरह से अपने आपमें भी दिखाई देता था और यद्यपि व्यावहारिक रूप से वे जिसे अहं, इदं, त्वम् और तत् इत्यादि सर्वनामों से भी जानते और व्यक्त किया करते थे। उनमें से शायद ही किसी का ध्यान इस रोचक और आश्चर्यजनक सत्य पर जा सका कि एक और एकमेव जीवन से परिपूर्ण सजीव, निर्जीव, जड और चेतन वस्तुओं, मनुष्यों, पेड़-पौधों और विभिन्न पशु पक्षियों आदि अनगिनत प्रकारों में होते हुए भी वह जीवन सबके अस्तित्व का एकमात्र आधार और अधिष्ठान ही था। इस प्रकार उस प्रत्येक प्रकार में व्यक्त हो रहे प्रत्येक आभासी आकृति में अपने आपके स्वयं के अन्य शेष सभी आकृतियों से भिन्न, स्वतंत्र और पृथक् होने की भावना का जन्म हुआ। और यह भावना ही उस प्रत्येक आकृति के व्यक्तित्व में निरूपित और अभिव्यक्त हुई।
यह सब बिलकुल स्वाभाविक था किन्तु जैसा अभी अभी कहा गया, उनमें से शायद ही किसी का ध्यान इस रोचक और आश्चर्यजनक सत्य पर जा सका कि एक और ... ।
तब देवता आकाश / स्वर्ग से भूमि पर उतरे, और ईश्वर भी जो कि समस्त जड चेतन जगत् का स्वामी था, जो देवताओं पर भी शासन करता था, मनुष्यों, वनस्पतियों, जीव-जन्तुओं आदि की तरह धरा पर अवतरित हुआ। यद्यपि वह इस सत्य से अनभिज्ञ भी नहीं था फिर भी उस उस आकृति विशेष की तरह से अवतरित होने पर वह भी अन्य सब की दृष्टि में, उन्हें उनके जैसा ही अल्पज्ञ और सामान्य सा प्रतीत होने लगा। हाँ, जब ईश्वर का उस उस अवतार में उसके द्वारा किया जानेवाला पूर्व निर्धारित कर्तव्य पूर्ण हो चुका तो वह भी अपने उस धाम को लौट गया यद्गत्वा न निवर्तन्ते...
अर्थात् वह धाम उस स्वर्ग से बिल्कुल और पूरी तरह से अलग कोई स्थान था जहाँ पर ये लोग और उनका संसार हुआ करते थे।
धर्म के क्षेत्र में अर्थ का आगमन होने तुरन्त ही बाद कर्म का प्रवेश हुआ जो धर्म के अनुकूल, प्रतिकूल या दोनों से मिश्रित था। उस धर्मक्षेत्र और कर्मक्षेत्र को ही बहुत बाद में किसी एक धार्मिक आध्यात्मिक ग्रन्थ में धर्मक्षेत्र और कुरुक्षेत्र का नाम दे दिया गया।
यह था ज्ञान का फल!
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि धर्म में अर्थ का प्रवेश होने के बाद तत्क्षण ही काम का भी उसके पीछे पीछे छाया की तरह धर्म में प्रवेश हो गया। और जैसा कि सभी जानते ही हैं :
...And the rest is history.
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महाकुंभ 2025
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चाहे जनसामान्य मनुष्य हो या कोई बहुत विद्वान हो, वह कर्म करने के लिए किसी न किसी रूप में बाध्य होता ही है। केवल कोई असाधारण प्रेरणा ही उसके मन में यह प्रश्न या जिज्ञासा जागृत कर सकती है कि वस्तुतः कर्म करने के लिए वह बाध्य है या स्वतंत्र है? बिरले ही किसी मनुष्य के मन में शायद ही कभी यह असाधारण प्रेरणा होती होगी। अपने बारे में तो मैं अवश्य ही कह सकता हूँ कि मेरी अपनी स्मृति में, मेरे मन में इस प्रश्न ने प्रथम बार तब सिर उठाया, जब 1982-83 में मैं श्री रमण महर्षि और श्री जे. कृष्णमूर्ति की पुस्तकों का अध्ययन कर रहा था और,
"मुझे क्या करना चाहिए?"
इस प्रश्न से बहुत ही व्याकुल और त्रस्त भी था।
शायद ही संसार में कोई भी ऐसा होता हो जिसे जीवन में ऐसी ही स्थिति का सामना कभी न कभी न करना पड़ता हो और वह अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिए बाध्य न होता हो, हाँ इच्छा के साथ साथ उसकी बुद्धि भी कर्म करने के लिए उसे प्रेरित कर रही होती है, यह भी सत्य ही है। यह तो कर्म के हो जाने के बाद या न हो पाने पर, और कर्म का परिणाम प्राप्त होने पर ही पता चल पाता है कि कर्म के परिणाम से उसने कैसा अनुभव किया। संभवतः वह प्रसन्न या दुःखी, निराश या उत्साहित, क्षुब्ध उद्विग्न या उल्लसित हुआ हो या शायद उसमें पश्चात्ताप की भावना पैदा हुई हो। और यह भी हो सकता है कि उस कर्म के पूर्ण होते होते वह किसी बहुत बड़ी मुश्किल में फँस गया हो। कर्म प्रारंभ करने के समय उस कर्म के संभावित परिणाम को जान पाना भी यद्यपि उसके लिए कठिन ही रहा हो, फिर भी उन परिस्थितियों में उसने जो कुछ भी किया होता है वह अनेक कारणों या कारणों का कुल और समेकित परिणाम ही तो होता है।
गीता अध्याय १८ के श्लोक के अनुसार :
अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्कर्म प्रारभते नरः।
न्याय्यं वा विपरीतं वा पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।
इस प्रकार से, मनुष्य इन पाँच हेतुओं से प्रेरित या बाध्य होकर कर्म में प्रवृत्त और संलग्न होता है और उसके द्वारा घटित होनेवाला कर्म स्वयं के द्वारा किया जा रहा है इस कल्पना से अभिभूत होकर यह भी नहीं देख पाता है कि सभी और प्रत्येक ही कर्म प्रकृति की प्रेरणा के अनुसार अनायास अकल्पित रूप से घटित होते हैं और किसी भी कर्म को करनेवाला कोई "कर्ता" वस्तुतः कहीं नहीं होता। गीता के ही अध्याय ३ के अनुसार :
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते।।२७।।
और अध्याय ४ के अनुसार :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।१३।।
तात्पर्य यह हुआ कि यद्यपि प्रकृति, ईश्वर या स्वयं अपने आपको ही कर्म का "कर्ता" मान लिया जाता है, इनमें से कोई भी वस्तुतः "कर्ता" है, यह कहना एक भूल है।
प्रकृतेः - प्रकृति - पञ्चमी और षष्ठी विभक्ति, एकवचन,
गुणैः - तृतीया बहुवचन
से स्पष्ट है कि उनमें से किसी को कितना - एकवचन की तरह ग्रहण नहीं किया जा सकता है।
अकर्तारमव्ययम् - द्वितीया एकवचन में भी ईश्वर या अव्यय अविनाशी के अकर्ता होने की ही पुष्टि की गई है और
अहंकारविमूढात्मा - में जिस आत्मा का निरूपण किया गया है उसे अहंकार बुद्धि से विमूढ / विमोहित / भ्रमित कहा गया है अर्थात् वह भी "कर्ता" नहीं है। वास्तव में "कर्म" अनित्य होने से अवधारणा मात्र हैं न कि सत्य। इसे ही महर्षि पतञ्जलि ने योगसूत्र / समाधिपाद में -
विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।।
और,
शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।
से इंगित किया है।
पुनः "महाकुंभ" पर लौटें।
यदि मनुष्य, ईश्वर या प्रकृति "कर्ता" नहीं हो सकते और "कर्म" स्वयं ही एक अवधारणा भर है तो "महाकुंभ" में जाना, न जाना, जा पाना या न जा पाना इसे कौन तय कर सकता है? फिर यह इच्छा या जिद होना कि "मुझे" महाकुंभ जाना या नहीं जाना है क्या अपने आप में एक कल्पनात्मक भावना, विचार या संकल्प ही नहीं है?
यह तो इस इच्छा या जिद के पूर्ण होने या न होने पर ही पता चलेगा कि क्या हुआ!
इसलिए, क्या मनुष्य इसका निर्णय करने तक के लिए भी स्वतंत्र हो सकता है?
उपसंहार :
गीता के ही अध्याय ५ के अनुसार :
न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न च कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।
नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।
तेषां आदित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।
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एक आध्यात्मिक प्रश्न
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आध्यात्मिक खोज में
"ईश्वर, गुरु और स्वयं की भूमिका क्या है?"
प्रायः हर मनुष्य ही इस प्रश्न से अनभिज्ञ होता है और इस प्रश्न से अनभिज्ञता के कारण ही इसका उत्तर खोजने की अपरिहार्य आवश्यकता तक के प्रति पूर्णतः उदासीन भी होता है। इनमें से किसी एक से भी अनभिज्ञ होने का कारण और परिणाम होता है कल्पित असुरक्षा का भय, अनिश्चित और अज्ञात भविष्य की चिन्ता और संभव हो तो उसे जान पाने की भी छटपटाहट, जिसमें वह निरन्तर आशाओं और आशंकाओं के बीच डोलता रहता है। यदि अपने अतीत पर कोई दृष्टि डाले तो उसे स्पष्ट हो सकता है कि जिसे वह "अतीत" या "भूतकाल" का रूप देकर मान्य करता है, ऐसा समय समय पर घटित होनेवाली असंख्य घटनाओं के रूप में वर्गीकृत करने और उसके केन्द्र में स्वयं अपने आपको रखकर ही कर सकता है।
ये सभी घटनाएँ कभी संभवतः घटित हुई भी हों तो भी उसकी स्मृति में वे जिस रूप में होती हैं उनका उस रूप में न तो कोई निश्चित आकार प्रकार या अस्तित्व और न ही उस समय विशेष का ही अस्तित्व हो सकता है। वह समय विशेष भी उसकी स्मृति का ही एक अंशमात्र होता है, और वही समय असंख्य लोगों के लिए उनकी अपनी अपनी स्मृति पर आश्रित पूर्णतः काल्पनिक किसी एक स्थिति का चित्र भर होता है। किन्तु स्मृतियों को सातत्य देकर उनमें एक कल्पित क्रम की रचना भी स्मृति की ही सहायता से कर ली जाती है और अनेक बार मनुष्य को यह सन्देह भी हो जाता है कि कौन सी घटना पहले और कौन सी घटना बाद में घटित हुई थी। हाँ, कुछ बड़ी और महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में उसे ऐसा सन्देह कभी नहीं उठता, यह भी सच है। बड़ी हों या छोटी, सभी घटनाएँ उनके घट जाने के बाद तुरन्त नहीं तो कुछ समय के बाद तो अवश्य ही अर्थहीन हो जाती हैं, यहाँ तक कि वे पूरी तरह से विस्मृत भी हो सकती हैं। यह सब समझ सकना उतना कठिन नहीं है, जितना कि कल्पित भविष्य की अनन्त संभावनाओं में से किसी एक या अनेक के घटित होने की कल्पना से मुग्ध हो जाना और उसे पूर्ण करने के लिए यथासंभव प्रयास करते रहने में जुट जाना। अतीत कितना भी सुखद या दुःखद कैसा भी हो, बीत ही चुका होता है, जबकि भविष्य, चाहे वह कितना ही काल्पनिक प्रिय और संभव भी क्यों न हो, अवश्य ही अनिश्चितप्राय होता है, इससे कोई भी इनकार भी नहीं कर सकता।
अतीत में ईश्वर, गुरु और / या स्वयं की ही क्या भूमिका थी, इसे भी न तो तय किया जा सकता है, और न जाना जा सकता है, ठीक इसी प्रकार वर्तमान का भी अपनी ही दृष्टि में कोई तय रंग रूप, नहीं हो सकता है क्योंकि यह इस पर निर्भर होता है कि वर्तमान को कोई किस सन्दर्भ विशेष में देखता है।
और सबसे मजेदार किन्तु उतना ही यह रोचक तथ्य भी अकाट्य सत्य है कि जिसे 'स्वयं' कहा जाता है वह किस चिड़िया का नाम हो सकता है? क्या यह कोई समय या घटना, परिस्थिति या मनुष्य-विशेष होता है? अपने एक व्यक्ति-विशेष होने का विचार मन पर इस बुरी तरह से हावी हो जाता है, मन' को इस बुरी तरह जकड़ लेता है कि उस विचार से निर्दिष्ट वस्तु पर कोई सन्देह तक मन में उठ पाना असंभव सा हो जाता है। किन्तु फिर भी इस बारे में मनुष्य इतना आश्वस्त होता है कि इस प्रकार का प्रश्न उठाना ही उसे नितान्त ही निरर्थक, हास्यास्पद और मूर्खतापूर्ण लग सकता है।
इस प्रकार, ईश्वर, गुरु और एक मनुष्य विशेष के रूप में स्वयं के अस्तित्व को सिद्ध कर पाना शायद अत्यन्त ही दुष्कर एक कार्य है। यद्यपि अपने अस्तित्व की सत्यता पर कोई प्रश्न ही नहीं उठाया जा सकता क्योंकि यह एक स्वतःस्फूर्त और स्वप्रमाणित वास्तविकता है, किन्तु स्वयं के एक मनुष्य-विशेष होने (के निश्चय) की सत्यता पर तो अवश्य ही सन्देह किया ही जा सकता है।
न तो कोई ईश्वर, न कोई तथाकथित या वास्तविक गुरु, न तो कोई सिद्धान्त या तत्वदर्शन आपमें उत्पन्न हुए और आपके द्वारा स्वयं के एक व्यक्ति-विशेष होने की आपमें विद्यमान धारणा को दूर कर सकता है, न इसे दूर करने में आपकी कोई सहायता ही कर सकता है। यह सरल या कठिन, रोचक या नीरस किन्तु शायद सबसे अधिक आश्चर्यजनक कार्य अपने लिए आपको स्वयं ही करना होगा क्योंकि यह तो अत्यन्त ही सुनिश्चित और अकाट्य सत्य ही है कि आपको अपने आपसे निःसन्देह सर्वाधिक प्रेम है। शेष सब कुछ सदैव संदिग्ध है।
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वेद, निर्वेद और निर्वाण
(निब्बाणसुत्त)
उन्हें एक दूसरे से मिलने के बाद इसका आभास हुआ कि शायद जो भी "है" वह तो यद्यपि अचल अटल और अविकारी है, किन्तु जो "होता हुआ" प्रतीत होता है और जिसे भी यह स्वयं से अन्य की तरह प्रतीत होता है, दोनों ही सतत परिवर्तित होती रहनेवाली प्रतीतियाँ मात्र होती हैं और उस अद्भुत् रूप में अनिर्वचनीय ही होती हैं।
दोनों साथ रहते थे और वह अपने इकतारे को बजाने में मग्न रहता था और वह अपनी अनुकृतियों के चित्रण के कार्य में इसी तरह डूबी रहती।
अभी तक उनके बीच बौद्धिक तो दूर, किसी भी तरह की शाब्दिक बातचीत भी यद्यपि नहीं होती थी, किन्तु वर्णों और स्वरों के आविष्कार और उनके वर्गीकरण कर देने के बाद कुछ सार्थक शब्दों का प्रयोग वे अनायास और सहज रूप से करने लगे थे। उन्हें उस भेद-रेखा का भान था जो इन्द्रियानुभूति पर आधारित ज्ञान को उस भान से पृथक् किसी ज्ञान में रूपांतरित नहीं करती थी। संक्षेप में, अभी उनमें उस तर्कक्षमता का उद्भव नहीं हो पाया था जिससे कि भौतिक वस्तुओं के परोक्ष ज्ञान को वे भावनात्मक वस्तुओं के परोक्ष ज्ञान से पृथक् कर पाते।
और इसकी तो उन्हें कोई कल्पना तक कदापि नहीं थी, कि जो "चेतन" इन्द्रिय-ज्ञान से इन्द्रियगम्य जगत् को अपने आपसे पृथक् और भिन्न अन्य की तरह "जानता" है, वह उन ज्ञेय वस्तुओं से किस प्रकार समान या भिन्न हो सकता है। संक्षेप में, इस भेद-रेखा से भी वे अनभिज्ञ थे। यद्यपि इन्द्रियानुभूति में जानी जानेवाली वस्तुओं को और इसी प्रकार से अपने आप और दूसरों के लिए "मैं", "तुम" और "वह" शब्दों का प्रयोग करना वे सीख चुके थे, किन्तु ज्ञाता और ज्ञेय के स्वरूप के बारे में उनके मन' में अभी तक कोई शंका या जिज्ञासा उत्पन्न नहीं हो पाई थी। ऐसी अद्भुत् मनोदशा उन दोनों की ही थी जिसमें वे दोनों परस्पर प्रेम में निमग्न और प्रसन्न थे। उनके बीच यह प्रेम एक विस्मयकारी, प्रगाढ़, घनिष्ठ और अंतरंग, मौन और मुखर रूप में अभिव्यक्त और अनभिव्यक्त भी होता रहा। अभी न तो उसके चित्रण में और न ही उसके संगीत में भाषा या या अर्थ का प्रवेश हुआ था। उसकी चित्रात्मक स्मृति और उसका रागात्मक संगीत सरिता के प्रवाह की तरह शुद्ध और पावन थे, जिनमें प्रवाह और सौन्दर्य तो थे किन्तु कोई प्रयोजन या भविष्य वहाँ नहीं थे। धर्म से परिचालित उनका जीवन एक स्वर्ग ही था। अर्थ के प्रवेश के साथ काम का आगमन हुआ। काम की पूर्णता हो जाने पर मोक्ष की आकांक्षा उठी और इसके बाद तत्काल ही फिर मोक्ष को आना ही था।
तब शाब्दिक और बौद्धिक स्मृति ने उस पावन सरिता में प्रवेश किया जिससे उसका वह पावन जल यत्किञ्चित मलिन सा प्रतीत होने लगा।
यह पौराणिक सरस्वती, गंगा और यमुना की त्रिवेणी का एक प्रकार था जहाँ सरस्वती वेदवाणी और वैदिक ज्ञान की तरह नेपथ्य में अदृश्य थी, यमुना भौतिक जगत् की नियामक होकर समस्त जड-चेतन के सारे घटनाक्रम को नियंत्रित और नियत करती थी जबकि गंगा समस्त पाप और पुण्य को धोकर निर्मल कर देती थी।
और एक और अद्भुत् यह भी था कि दोनों ही फिर भी अपना अपना जीवन व्यक्ति की तरह भी जी रहे थे।
तब किसी अप्रत्याशित क्षण में एक दुर्घटना तब घटित हुई जब कविता का जन्म हुआ। कविता में शब्द थे तो राग भी था, जिससे रस की उत्पत्ति हुई और विराग की भी। यह भाव था जिससे ३३ कोटियों के देवता अव्यक्त से व्यक्त होकर प्रकट हुए। यह वेद था।
वेद की पराकाष्ठा 'निर्वेद' में और 'निर्वेद' की पराकाष्ठा 'निर्वाण' में हुई।
इस नियति नटी के नाटक और नृत्य का न आदि है, और न ही अन्त है।
इस कथा के बहुत से सूत्र अभी खोले जाने हैं, आशा है कि उन्हें आगामी पोस्ट्स में खोल सकूँगा।
यदा ते मोहकलिलं
बुद्धिं व्यतितरिष्यति।
तदा गन्तासि निर्वेदं
श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च।।५२।।
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ
नैनां प्राप्य विमुह्यति।।
स्थित्वाऽस्यामन्तकालेऽपि
ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।७२।।
(गीता, अध्याय २)
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प्रागाकृतिक और प्राकृतिक और कृत्रिम ज्ञान
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जिस इन्द्रिय ज्ञान को वे जानते थे वहाँ अभी अर्थ नामक 'प्रत्यय' प्रकट नहीं हुआ था। तात्पर्य यह कि उनका यह ज्ञान विशुद्ध प्रागाकृतिक (प्राक् +आकृतिक) बोध का ही संवेदन था और यद्यपि उनके इस ज्ञान और संप्रेषण के इसके तरीके में वस्तु के लिए प्रयुक्त किसी ध्वन्यात्मक बोले जानेवाले शब्द का वस्तु से साहचर्य तो होता था किन्तु स्मृति में उस साहचर्य को चित्र या आकृति से संबद्ध नहीं किया जाता था और इसलिए तब चित्रलिपि का प्रारंभ ही हुआ था। बस वस्तु, जीव, स्थान, घटना का वर्णन इंगितमात्र से ही किया जाता था, न कि भिन्न भिन्न शब्दों के एक साथ प्रयोग में। तब शब्द तो थे किन्तु अभी भी वाक्य का जन्म नहीं हुआ था और न ही इसकी उन्हें कोई जरूरत ही महसूस होती थी। वे अतीत और भविष्य की पकड़ से परे बस वर्तमान को ही सत्य की तरह ग्रहण कर उसके अनुरूप ही कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया किया करते थे।
जब चित्रों के माध्यम से जड और चेतन वस्तुओं, अतीत की घटनाओं का चित्रण करना उसने शुरू किया था, तब स्मृति का न तो कोई प्रयोजन ही था और न ही संभावना थी। वह रेत और चट्टानों के अलावा गुफा की दीवारों पर भी चित्र बनाया करते थी जिन्हें पुरातत्वविद म्यूराल्स या फ्रेस्को या भित्तिचित्र भी कहते हैं। और फिर उसने हर एक वस्तु की आकृति के लिए कोई छोटा सा सांकेतिक चिह्न तय कर लिया। जैसे चिड़िया के लिए < या > का संकेत जो शायद चिड़िया की चोंच का द्योतक रहा होगा। वह' विभिन्न वनस्पतियों, मिट्टी आदि से रंग बनाया करते थी जो जल्दी ही धुँधले होकर मिट जाया करते थे।
जब उसका मित्र वहाँ आया तो उसे पता चला कि जिन मूल ध्वनियों को वह बोल सकती थी, उनके लिए उसने पहले से ही कुछ संकेत तय कर रखे थे। ये बहुत आसान थे। जैसे अ संकेत दो होंठों का और उनसे निकलनेवाली ध्वनि का प्रतीक था। आ, इ, उ, ए और ओ इत्यादि का भी संकेत इसी प्रकार उसने तय किया। और बहुत बाद में उसे दीर्घ स्वरों को व्यक्त करने की आवश्यकता हुई तो वे भी इसी प्रकार तय हुए। फिर उसे स्वरों और व्यञ्जनों को व्यक्त करने के लिए संकेत तय करने थे तो पहले तो उसने क ख ग तथा घ के द्योतक के लिए एक ही चिह्न का प्रयोग किया जैसा कि தமிழ் भाषा में होता है। इससे यही समझा जा सकता है कि தமிழ் भाषा को क्यों आदिम या प्राचीनतम भी कहा जा सकता है।
बहुत बाद उन संकेतों को अपर्याप्त अनुभव करने पर उसने उनका रूपान्तरण कर विस्तार किया। अब उसके पास एक विकसित आदिम लिपि तो थी और फिर उस पर पुनः पुनः ध्यान देकर उसके द्वारा इंगित ध्वनियों के क्रम को और भी व्यवस्थित करते हुए आद्य संस्कृत मूल वर्णों का स्वरूप तय किया। தமிழ் से इस प्रकार से परिष्कृत वर्णों को देवनागरी और संस्कृत कहा गया।
किन्तु चूँकि संस्कृत भाषा अधिक वैज्ञानिक है इसलिए தமிழ் से ही उसकी ग्रन्थलिपि अस्तित्व में आई। यह भी कह सकते हैं कि चूँकि संस्कृत के मंत्रात्मक होने से ही తెలుగు, ಕನ್ನಡ, മലയാളം और यहाँ तक कि ඬංභඉ जैसी लिपियाँ भी अस्तित्व में आईं। किन्तु अब यदि इसे पूरे पृथ्वी की सभी भाषाओं के सन्दर्भ में देखें तो यह स्पष्ट हो जाएगा कि तिब्बती, थाई, बर्मीज़ और लाओ आदि भाषाओं की लिपि का उद्गम जिस लिपि से हुआ वह तो ब्राह्मी, शारदा, श्री / ऋषि ही थी, और इसी श्रीलिपि से ऋषि / Русский का उद्गम हुआ जिसका सज्ञात / सजात / cognate है Cyril.
प्रत्यक्षं तु किं प्रमाणमितरम्!
और Cyril से ही दूसरी तमाम यूरोपीय लिपियों का उद्गम हुआ। इसे और भी विस्तार दिया जा सकता है, तब यह स्पष्ट हो जाएगा कि संस्कृत भाषा न तो प्राचीनतम है और न ही தமிழ் की तुलना में नवीन है। यह प्रश्न ही असंगत है, क्योंकि संस्कृत सनातन है और इसलिए इसे अमर भी कहा जाता है। यहाँ से हम हिब्रू / अरबी और फारसी आदि भाषाओं की ओर भी जा सकते हैं और केवल उन भाषाओं की संरचना से ही ऐतिहासिक रूप से वे जिन परिवर्तनों से गुजरीं उनका अनुमान लगाकर इसकी पुष्टि भी कर सकते हैं। اردو / उर्दू भाषा की संरचना पर ध्यान देना इसका सबसे सुन्दर तरीका हो सकता है।
यहाँ से हम अक्षरसमाम्नाय को समझ सकते हैं कि किस प्रकार अ ई उ ण् ऋ लृ क् इसका प्रथम सूत्र हुआ। कैसे ये सभी स्वर परस्पर रूपान्तरित हो जाते हैं। अरबी या उर्दू का अ कैसे अमर से उमर / उम्र हो जाता है।
यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि पाणिनीकृत अष्टाध्यायी में उणादि प्रत्ययों के लिए भी प्रावधान है
इति अलम्।
इस अल् प्रत्यय से ही इल् all, Alles, el आदि का जन्म हुआ।
रही बात ग्रीक की तो इसे भी संस्कृत भाषा की "ग्रृ" गीर्यते से व्युत्पन्न किया जा सकता है। वैसे ग्रीक को तो बहुत अच्छी तरह से संस्कृत का ही एक प्रकार विशेष कह सकते हैं।
उन दोनों को तो अभी ध्वनि और अर्थ के साहचर्य का पता तक कहाँ था। वे तो बस प्रकृति से प्राप्त इन्द्रिय ज्ञान में ही तृप्त थे। किन्तु जैसे ही उन्होंने भावनाओं को शब्द प्रदान करना शुरू किया संज्ञा और सर्वनाम, करण और संप्रदान, अपादान और संबंध तथा अधिकरण और संबोधन (nominative, accusative, instrumental, dative, ablative, conjunctive, locative और interjective) स्वयं ही उनके सम्मुख अनायास ही अनावरित हो उठे।
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पारंपरिक संन्यास
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वर्ष 1991 के फरवरी माह में मैं ओंकारेश्वर में नर्मदा के तट पर एक आश्रम में रहने लगा था। उस आश्रम के स्वामी और संचालक यद्यपि गेरुएवस्त्रधारी महात्मा थे किन्तु उनसे भी अधिक वयोवृद्ध एक अन्य महात्मा भी वहाँ रहते थे जो कि वैसे ही सफेद वस्त्र पहना करते थे, जैसा कि प्रायः कुछ साधु पहना करते हैं।
जब मैं वहाँ पहुँचा तो देखा कि सफेद वस्त्रधारी महात्मा तो ऊपर ऊँचाई पर स्थित तखत पर और गेरूएवस्त्रधारी उनसे कुछ नीचे फर्श पर दूसरे लोगों के साथ बैठा करते थे। शाम को प्रायः 5 से 6 तक सत्संग हुआ करता था।
हम लोग तो बस सुनते थे और वे दोनों गुरुजन ही प्रायः एक दूसरे से बातें करते थे।
एक दिन सफेदवस्त्रधारी महात्मा ने मेरी ओर देखते हुए कुछ व्यंग्यात्मक लहजे में बोले -
"विनय सोच रहा है कि किस तरह से उसे भी जल्दी से जल्दी गेरुए वस्त्र पहनने को मिल जाएँ!"
मैंने या उन गेरुएवस्त्रधारी महात्मा ने उनके वक्तव्य पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की। मैं तो सपने में भी गेरुआ वस्त्र धारण करने के पक्ष में नहीं था।
कुछ दिनों बाद वहाँ आए एक और स्वामीजी ने भी इसी विचार को व्यक्त किया -
"तुम संन्यास दीक्षा क्यों नहीं ले लेते?"
उन्होंने मुझसे पूछा।
"मैं सोचता हूँ कि अभी मुझे इसकी पात्रता प्राप्त नहीं हुई है।"
"क्यों?"
"मुझे लगता है कि अध्यात्म के मार्ग पर चलने से पहले मनुष्य को विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा तथा फिर मुमुक्षा की प्राप्ति कर लेना उचित है, और अभी मुझे अपने आपमें इस सबका पर्याप्त विकास हुआ प्रतीत नहीं होता है।"
"अगर तुम किसी महापुरुष से दीक्षा ले लोगे तो यह भी हो जाएगा।"
वे स्वामीजी जिन्होंने स्वयं भी किसी महात्मा से संन्यास दीक्षा ली थी, गेरुए वस्त्र धारण करते थे और दूसरों को आध्यात्मिक प्रवचन आदि देते थे।
बहुत दिनों बाद पता चला कि उन्होंने गेरुए वस्त्र त्याग दिए हैं और अब वे भी मेरी तरह ही सामान्य सफेद कुर्ता धोती आदि पहनने लगे थे। यहाँ तक कि उन्होंने विवाह भी कर लिया था और इस तरह गृहस्थ आश्रम में लौट आए थे।
यद्यपि उनसे मेरी मुलाकात फिर कभी नहीं हुई किन्तु दूसरों से मुझे यह पता चला कि वे अब तो किसी भी आध्यात्मिक या धार्मिक संस्था से दूर ही रहते हैं। पूरे 34 वर्ष बाद पुनः किसी ने अधिकारपूर्वक मुझसे गेरुए वस्त्र धारण करने का आग्रह किया तो मुझे यह घटना स्मरण हो आई।
अब भी मुझे यही लगता है कि जब तक मनुष्य के मन में विवेक, वैराग्य, जिज्ञासा और मुमुक्षा इत्यादि जागृत नहीं हो जाते तब तक गेरुए वस्त्र धारण करने या न करने का कोई विशेष महत्व नहीं है।
और यदि मनुष्य को यह सब प्राप्त हो जाएँ तो भी उसने कौन से वस्त्र पहने हैं इसका भी कोई विशेष महत्व नहीं है। विडम्बना तो यह है कि प्रायः अपात्र व्यक्ति जब गेरुए वस्त्र पहनने लगता है तो न सिर्फ अपना बल्कि समाज के दूसरे लोगों का भी जाने अनजाने ही अहित ही करने लगता है।
अधिकार प्राप्त न होने पर भी वह दूसरों को उपदेश देने लगता है और सीधे सादे मनुष्य स्वयं भी उससे प्रभावित होकर किन्हीं दबावों के चलते अध्यात्म को तो भूल ही जाते हैं।
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