October 16, 2024

अगर आप बीमार हैं!

"पहला सुख निरोगी काया"! 

तो सबसे पहले तो आपको यह पता होना चाहिए कि आप बीमार हैं या नहीं, और अगर हैं, तो आपमें 'वह' क्या है जो बीमार है। और वह जो बीमार है, वह बीमार क्यों है!

और आपने कभी न कभी

"सावधानी हटी, और दुर्घटना घटी" 

यह भी पढ़ा या सुना ही होगा!

बीमार होना भी अवश्य ही एक दुर्घटना ही तो है। इसके यूँ तो अनेक ज्ञात या अज्ञात कारण हुआ करते हैं लेकिन सबसे पहला एकमात्र संभव और मूल कारण जो कि हमें पता हो सकता है, वह है अपने अंदर अपने-आपकी कोई पहचान बन जाना और उस पहचान का सतत, निरन्तर बदलते रहना। पहचान बन जाने के बाद अपने आपकी क्रमशः अनेक और भिन्न भिन्न बहुत सी पहचाने / छवियाँ बन जाती हैं, जिनके समूह के रूप में एक ऐसी पहचान भी पुनः पुनः स्थापित होते होते स्मृति में स्थायी की तरह प्रतीत होती है। सुविधा के लिए हम "पहचान" को छवि या प्रतिमा भी कह सकते हैं। उन सबमें अपने आपकी शरीर के रूप में पहचान अवश्य ही सूक्ष्म कल्पना और फिर धारणा की तरह जड़ जमा लेती है और दूसरी सभी बाद में पैदा होनेवाली छवियाँ मानों उस वृक्ष की अनेक शाखाएँ होती हैं जो क्रमशः नई नई जन्म लेती और फिर  किसी समय सूखकर या टूटकर नष्ट भी होती रहती हैं। यह शरीर या तन भी उस वृक्ष का तना ही होता है, जिस पर पुनः 'मन' नामक एक और नई पहचान उभरती है। 'मन' को भी यदि वृक्ष समझा जाए तो 'मन' भी उस वृक्ष का एक तना होता है जिस पर बुद्धि, भावनाएँ, मानसिक प्रतीतियाँ, अनुभव और अंततः 'विचार' नामक अनेक फूल और कलियाँ पल्लवित, प्रस्फुटित और पुष्पित होती रहती हैं।

मनुष्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि जाने अनजाने उसने भाषा पर आश्रित 'विचार' नामक क्षणिक आभास की रचना कर ली। 'विचार' विभिन्न शब्दों का समूह होता है जिसका वस्तुपरक भौतिक अर्थ अवश्य हो सकता है, और उस अर्थ के संप्रेषण के लिए शब्द का उपयोग भी निस्संदेह आवश्यक होता है। किन्तु जब किसी भावना या भाव के अर्थ के द्योतक किसी शब्द को संप्रेषण के लिए प्रयुक्त किया जाने लगता है तो वह लक्षितार्थ कभी तो ठीक से संप्रेषित हो पाता है और कभी कभी नहीं हो पाता है। प्रायः सभी भाववाचक संज्ञाओं (abstract nouns) के बारे में ऐसा ही है। क्योंकि भावना या भाव मानसिक अनुभव होता है न कि कोई वस्तुपरक भौतिक इंद्रियग्राह्य विषय (tangible object).

इसीलिए अतीन्द्रिय, अभौतिक (non-physical) और मानसिक अनुभवों का संप्रेषण शब्दों के माध्यम से कर पाना लगभग बहुत कठिन हुआ करता है। किन्तु फिर भी स्थिति इतनी निराशाजनक भी नहीं है। भाषा जितनी ही अधिक विकसित, सुघड़, प्राञ्जल और प्रयोग-आधारित होगी, शब्दों के माध्यम से भावों और भावनाओं और उनके आशय को उतनी ही सरलता से अभिव्यक्त और संप्रेषित भी किया जा सकता है। काव्य और छन्द का यही महत्वपूर्ण पक्ष है।

किन्तु जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है, 'विचार' प्रायः ही भावों और भावनाओं के आशय को विरूपित भी कर सकता है, और तब छल-कपट को सहारा भी देने लगता है। तब शब्द-समूह अर्थात् वाक्य लक्ष्यार्थ, वाच्यार्थ और यथार्थ के बीच असामञ्जस्य का कारण हो जाता है।

उदाहरण के लिए "ईश्वर" विषयक विचार, जो "ईश्वर" शब्द के वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और यथार्थ से अनभिज्ञ होते हुए भी परस्पर विवाद का कारण बन जाया करता है। तब "ईश्वर" को परिभाषित किए जाने की आवश्यकता पैदा हो जाती है और तब स्थिति और भी अधिक कठिन हो सकती है, बल्कि हो ही जाती है। यदि "ईश्वर" कोई ऐसी इंद्रियग्राह्य वस्तु होता तो विवादों के कोई कारण ही न होते।

अभी "ईश्वर" के स्थान पर "आत्मा" अर्थात् "स्व" के बारे में समझने का प्रयास करें तो प्रत्येक ही स्वीकार करेगा कि "स्व" या "आत्मा" अर्थात् "मैं" के अस्तित्व पर, उस बारे में कभी किसी को कोई संशय हो ही नहीं सकता। क्योंकि ऐसा कोई संशय स्वयं ही ऐसे संशय को नष्ट कर देता है। "स्व", "आत्मा" या "मैं" इसलिए निर्विवाद एक तथ्य है। किन्तु "स्व" / "मैं" के लिए विभिन्न भाषाओं में प्रयुक्त शब्दों के आशय पर किसी को न तो कोई संशय होता है, न भ्रम। और यद्यपि व्यवहार में "स्व" या "मैं" शब्द का उपयोग भी स्वप्रमाणित है, फिर भी इसे न तो परिभाषित किया जा सकता है, और न परिभाषित किए जाने की कहीं कोई आवश्यकता ही है। और फिर भी यह भी इतना ही सत्य है कि हर कोई यद्यपि इस "मैं" शब्द के आशय, वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ से परिचित होते हुए भी उसके यथार्थ से अनभिज्ञ होता है।

"पहला सुख नीरोगी काया"

यह "पहला सुख" स्वयं भी निर्विवाद सत्य है और कोई ऐसा नहीं है जो इसके तात्पर्य से अनभिज्ञ हो सकता है। किन्तु विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या काया अर्थात् यह शरीर ही स्वयं को जानता है? या शरीर को जाननेवाला "मैं" ही शरीर को "मेरा" कहता है और उसके नीरोगी या रुग्ण होने पर सुख होने या न होने के बारे में कहता है? क्या इस "मैं" / "स्व" को जाननेवाला इससे भिन्न और पृथक् कोई दूसरा "मैं" / "स्व" होना संभव है? 

यदि ऐसा है, तो जिसे अंग्रेजी में :

infinite regression,

begging the question,

और संस्कृत में "अनवस्था दोष" कहा जाता है, वह यहाँ उपस्थित हो जाता है। इसलिए "आत्मा" / "मैं" या "स्व" यद्यपि अपरिभाषेय और अनिर्वचनीय है तथापि यही वह है जिसे "काया" की तरह जाना जाता है -

आच्छादयति आत्मानं स्वरूपं या इयं सा छाया वा मीयते यया आत्मनः स्वरूपं सा माया अपि।

सा एव भवव्याधिः।

इसी प्रकार का एक शब्द है "ब्रह्म"। यह भी वैसे तो "ईश्वर" की ही तरह अपरिभाषेय और अनिर्वचनीय है, किन्तु इसे भी इसके लक्षणों से जान पाना अवश्य ही संभव है। इसके लिए इसके लक्षणों को तीन उदाहरणों से स्पष्ट किया जाता है :

"ब्रह्म" में स्वजातीय, विजातीय और स्वगत ये तीनों भेद नहीं पाए जाते। स्वजातीय अर्थात् जैसे आम और खजूर के वृक्ष, वृक्ष की तरह सजातीय होते हैं किन्तु पशुओं या मनुष्यों की जाति से विजातीय होते हैं। इन दोनों प्रकारों के भेद को स्वजातीय और विजातीय भेद कहा जाता है। पुनः एक ही वृक्ष में उसकी पत्तियों, डालियों, फूलों और फलों आदि की रचना भिन्न भिन्न होती है और इन भेदों को वृक्ष में विद्यमान "स्वगत" भेद कहा जाता है। यदि आप ईश्वर, आत्मा या ब्रह्म को नहीं भी जान या समझ पाते तो भी आप इस "मैं" से अनभिज्ञ नहीं हो सकते, और जैसे ही आप इसके स्वरूप को जाने-समझने के लिए अपने आपसे इसकी जिज्ञासा करते हैं तो आपके लिए यह स्पष्ट हो जाता है कि "मैं" (ब्रह्म की ही तरह, उसी प्रकार से) वस्तुतः सजातीय, विजातीय और स्वगत इन तीनों प्रकारों के भेदों से रहित है।

इसका ही महावाक्य के माध्यम से उपदेश देते हुए कहा जाता है -

अहं ब्रह्मास्मि।

इस ब्रह्म के स्वरूप पर काया, छाया और मायारूपी जो आभासी आवरण है उसकी ही प्रशंसा श्रीमद्भगवद्गीता के निम्न श्लोक में की गई है --

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

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October 06, 2024

चिड़ियाँ, मछलियाँ

और इंसान

आज की कविता

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हवा के समन्दर में, 

उड़ती हैं चिड़ियाँ,

जैसे नदी के जल में, 

सैर करती हैं मछलियाँ!

और हँसती हैं हम इंसानों पर,

जो रेंगते हैं नदी की तलहटी में,

या जंगलों मैदानों में, 

जानवरों, कछुओं और केंकड़ों जैसे!! 

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October 02, 2024

Question / प्रश्न 111

खुशबुएँ / Scents

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What is Science? 

विज्ञान क्या है? 

गन्ध

किसी को कहीं से कहीं ले जा सकती हैं, जीवन को बुरी तरह से बरबाद या खुशहाल भी बना सकती हैं। 

बदबुएँ शायद ही किसी को अपनी ओर खींच सकती हों, खुशबुओं के आकर्षण से बच पाना हर किसी के लिए आसान नहीं होता। यह तो बहुत बाद में पता चलता है कि कोई खुशबू कितनी ही मोहक क्यों न हो, परिणाम की दृष्टि से वास्तव में भी हमारे लिए हितकर है या नहीं, या कि अत्यन्त ही हानिकर तो नहीं है जो कि अन्ततः तो हमारा सर्वनाश भी कर सकती है।

खासकर किसी समय, स्थान, तिथि विशेष, अमावस्या या पूर्णिमा के दिन। लेकिन शायद ही किसी का ध्यान इस पर कभी जाता है।

यही बात खाने पीने की वस्तुओं पर भी लागू होती है। खाने पीने की कोई भी वस्तु जैसे कि स्वादिष्ट मिठाई या और कुछ भी यद्यपि बहुत सफाई से बनाई गई हो, खाने के कुछ समय बाद ही उसके अच्छे या बुरे प्रभाव का पता चलता है। कभी कभी तो बरसों बाद तक भी पता नहीं चल पाता।

बहरहाल, बात तरह तरह की खुशबुओं की हो रही थी। 

बचपन से ही मैं इस मामले में  over-sensitive  या  hyper-sensitive  रहा हूँ। पहले मैं स्वयं भी सोचता था कि यह मेरा वहम है, लेकिन कुछ घटनाओं के कारण मुझे इस ओर ध्यान देना पड़ा। पिछली गर्मियों में, और बारिश के दौरान मैं जिस जंगल-हाउस में ठहरा था, वहाँ पर बिजली कभी दो-दो दिनों तक गुल रहती थी, लेकिन बरसात के कीड़े अवश्य ही शाम होते ही कमरे में इकट्ठा हो जाते थे, और तब मोमबत्ती या मोबाइल की लाइट में भी खाना खाना तक दुश्वार हो जाता थ। और इसीलिए मैं सूरज डूबने से पहले ही शाम का भोजन कर लिया करता था। मच्छरदानी को अच्छी तरह से बंद कर उसके भीतर पड़ा रहता था। फिर भी कभी कभी कोई न कोई कीड़ा शरीर पर रेंगता तो उसे पकड़कर बाहर फेंक देता था। प्रायः तो कोई कीड़ा या पतंगा कभी काटता नहीं था लेकिन कुछ कीड़े बहुत बुरी तरह काटते थे जिनकी मुझे पहचान हो गई थी। इसलिए उन्हें पकड़ने के लिए मुझे बहुत सावधानी रखनी होती थी। मैं उन्हें प्लास्टिक की शीशी में बंद कर बाद में बाहर जाकर खुले में छोड़ देता था। सबसे अधिक परेशानी छोटे-बड़े काले कीड़ों से थी जो बहुत बदबूदार होते थे। उन्हें मैं कागज में लपेट लेता था ताकि उनकी बदबू हाथों तक न पहुँच सके। हैरत की बात यह कि ऐसे भी कीड़े थे, जिनसे हल्की सी सुगंध भी आती थी। ये कीड़े बिलकुल किसी पत्ती की तरह चपटे और उसी आकार के होते थे, और यद्यपि वे भी पेड़ की ही तरह बिलकुल हरे, पीले, काले या भूरे भी हो सकते थे लेकिन कभी काटते नहीं थे। इन सभी तरह के कीड़ों से किसी को एलर्जी भी हो सकती है, लेकिन सावधानी से उन्हें छूने से उनसे बचा भी जा सकता है।

तो मैं सोचने लगा कि कोई भी और कैसी भी गन्ध कहाँ से पैदा होती है? गीता में एक सूत्र प्राप्त हुआ -

पुण्यो गन्धः पृथिव्यां ...

यह हमारा दुर्भाग्य और प्रमाद ही था / है कि युगों युगों से जिस सनातन ज्ञान को ऋषियों ने :

तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः।।

के माध्यम से उद्घाटित किया और उस की परम्परा को और अधिक अनुसंधान से परिपुष्ट और समृद्ध भी किया उसे हमने अपनी निष्क्रियता और आलस्य से विस्मृत कर दिया, इतना ही नहीं विदेशी आक्रान्ताओं ने हमारी बुद्धि को और अधिक मोहित तथा भ्रमित भी कर दिया।

किन्तु अपने अध्ययन और अनुसन्धान से मैंने पाया कि सनातन अर्थात् धर्म का मार्ग सदा से ही ऋषियों अर्थात् सत्य के जिज्ञासुओं को प्रत्यक्षतः दिखाई देता रहा है। और उन्होंने सनातन अर्थात् धर्म के उस मार्ग और उसकी स्मृति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उसे जिस भाषा में व्यक्त किया, वह भाषा (संस्कृत) भी उसी तरह चिर नूतन, सनातन, शाश्वत और नित्य है जिसका पुनः पुनः आविष्कार किया जा सकता है, यदि किसी में उपयुक्त जिज्ञासा और उत्कंठा हो।

आधुनिक 

Science / विज्ञान की चकाचौंध और आक्रान्ताओं की निरन्तर दासता की मानसिकता से प्रभावित होकर हमारा सतत अधोपतन होता रहा लेकिन सनातन वृक्ष लगभग पूरी तरह से सूख कर नष्टप्राय हो गया। किन्तु उसकी जड़ें हमारी मनोभूमि में गहरी पैठी होने से उसका पुनरुज्जीवित होना अपरिहार्यतः अवश्यंभावी ही है।

Science, Sense, Sentience,  इन अंग्रेजी शब्दों की उत्पत्ति संस्कृत भाषा की शस् / शंस् और संश् इन तीनों ही धातुओं से देखी जा सकती है। इसे हम ग्रीक और लैटिन भाषाओं से भी व्युत्पन्न कर सकते हैं। किन्तु वे दोनों भाषाएँ भी संस्कृत के ही भिन्न भिन्न संस्करण हैं इसमें संदेह हो तो इसकी भी परीक्षा की जा सकती है।

ग्रीक शब्द संस्कृत "गिरा" / ग्रृ धातु से निष्पन्न होता है, जिसका प्रयोग गीर्ण, उद्गीर्ण, निगीर्ण, उद्गार आदि शब्दों में दृष्टव्य है। जबकि लैटिन भाषा "ला" धातु से "लाति" के रूप में व्युत्पन्न है। पाणिनी के अष्टाध्यायी के अनुसार  "रा दाने, ला प्रदाने" रा और ला धातुएँ कहने और देने के अर्थ में प्रयुक्त होती हैं।

अरबी, फ्रैंच और बहुत सी अन्य भाषाओं में "ला" शब्द का प्रयोग यहीं से है जैसे "अल्" प्रत्याहार जो "इल" तथा "उल्" में भी परिणत हो गया। वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड, सर्ग 87 में इला (संपूर्ण पृथ्वी) के एक महापराक्रमी नरेश 

"इल" 

का वर्णन है जिसे यक्ष, राक्षस, दैत्य, गंधर्व भी पृथ्वी का एकमेव ईश्वर मानकर जिसकी पूजा और सम्मान करते थे। वह अत्यन्त धार्मिक और महाप्रतापी भी था।

अंग्रेजी भाषा के  All, alright  आदि भी संस्कृत के इसी प्रत्याहार / अव्यय पद "अलम्" के अपभ्रंश हैं, और इसी अर्थ में ग्रहण किए जाते हैं।  "right" उसी प्रकार से संस्कृत शब्द "ऋत्" का पर्याय है जो पुनः "सत्य" का पर्याय है।  although  भी अलम् तः का प्रचलित रूप है।  "Science" इसी तरह "शस्" / "शंक्" / "शंस्" का विस्तार है।

उपरोक्त शीर्षक में दिए गए लिंक को मैंने पूरी तरह से अभी सुना नहीं है क्योंकि अभी ही उस पर दृष्टि पड़ी। एकमात्र दर्शन जो दूसरे शेष दर्शनों से कुछ भिन्न रीति से सत्योद्घाटन के आधार को स्पष्ट करता है तो वह है :

महर्षि पतञ्जलि कृत योग-दर्शन

क्योंकि इसमें "प्रमाण" को भी वृत्ति ही कहा गया है 

वृत्तयः पञ्चतय्यः। 

क्लिष्टाक्लिष्टा।

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतयः।।

तत्र 

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

विपर्ययो मिथ्याज्ञानमतद्रूपप्रतिष्ठम्।। 

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

अभाव-प्रत्यययालम्बना वृत्तिः निद्रा।। 

अनुभूतविषयासम्प्रमोषः स्मृतिः।। 

इसलिए आज का विज्ञान जो प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो प्रमाणों तक सीमित है, विकल्प और विपर्यय से परे "आगम" को छू भी नहीं पाता। 

पातञ्जल योगदर्शन में "ईश्वर" को भी परिभाषित किया गया है :

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः।।

तत्र निरतिशयं सर्वज्ञत्व-बीजम्।। 

ईश्वरप्रणिधानाद्वा।। 

(समाधिपाद)

यहाँ अनावश्यक विस्तार से नहीं कहा जा रहा है क्योंकि जिनकी रुचि हो वे स्वयं ही उपरोक्त संदर्भों को खोजकर पुष्टि भी कर सकते हैं।

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September 13, 2024

namAmidevinarmade

त्वदीय पादपङ्कजं नमामि देवि नर्मदे।।

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Question / प्रश्न 110

How Ancient Is narmadA?

नर्मदा कितनी प्राचीन है?

Answer  /  उत्तर :

।।ॐ नमः तत्सद्ब्रह्मणे।।



जिसे हम भौगोलिक अर्थ में एक नदी की तरह जानते हैं, वह नर्मदा नदी अवश्य ही पृथ्वी से अधिक प्राचीन नहीं है, किन्तु जिसे हम पुराणों के माध्यम से जानते हैं उसके स्वरूप की तीन कलाएँ व्यक्त जगत् में दृष्टिगत हो सकती हैं। चूँकि वेद, पुराण, स्मृतियाँ, और षट्-दर्शन भी केवल तीन ही कलाओं से व्यक्त जगत में पाए जाते हैं, इसलिए मनुष्य की अल्प और अपरिष्कृत बुद्धि के लिए उन तीनों प्रकारों / कलाओं  / (genres) में विरोधाभास प्रतीत हो सकता है क्योंकि मनुष्य की भौतिक बुद्धि काल की तीन काल की इन कलाओं को समय के अतीत, वर्तमान और आगामी एक-रेखीय आयाम में ही देख सकती है जबकि काल की गति सातों लोकों भूः भुवः स्वः महः जनः तपः और सत्यम् में भिन्न भिन्न है।

पुनः ब्रह्म के भी क्रमशः दो नाम और रूप सकल और निष्कल हैं। सकल ब्रह्म तो ब्रह्मा, विष्णु और शंकर के रूपों में अनन्त-कोटि ब्रह्माण्डों की सृष्टि, परिपालन और लय करता है, जबकि निष्कल केवल निश्चल साक्षी के रूप में कालनिरपेक्ष वास्तविकता है। 

काल भी पुनः क्रमशः अचल अटल और चर इन दो रूपों में अपना कार्य करता है। इसे चर रूप की गति भूः, भुवः, स्वः, महः, जनः और तपः इन छः लोकों में तो भिन्न भिन्न हैती है किन्तु सातवें लोक "सत्यम्" में इसका कोई कार्य शेष नहीं रहता।

इसी प्रकार स्वयं ब्रह्मा भी स्वरूपतः कालनिरपेक्ष और कालसापेक्षता इन दो, क्रमशः अव्यक्त और व्यक्त रूपों में सदा प्रकट ही रहते हैं।

ब्रह्म के अनेक और असंख्य व्यक्त प्रकारों में व्यक्त चेतना जीव के रूप में सतत अभिव्यक्त और अभिव्यक्त होती रहती है और इसलिए सापेक्ष दृष्टि से इनमें से प्रत्येक का ही अस्तित्व इन सातों ही लोकों :

क्रमशः भूः, भुवः, स्वः, जनः, महः, तपः और सत्यम् में सार्वकालिक होता है।

पुनः प्रत्येक ही जीव (जो कि अपरिहार्यतः पदार्थ और चेतना का अविभाज्य और संयुक्त रूप होता है) किसी भी समय इन सातों लोकों में अस्तित्वमान होता है और प्रत्येक में ही पुनः चेतना की भिन्न भिन्न प्रकार की चार कलाओं में (जिनमें से प्रत्येक ही शेष तीनों का निषेध करती है), अवस्थित होता है।

ये चार कलाएँ ही चेतना की जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और समाधि अर्थात् तुरीय। और प्रत्येक मनुष्य अनुभव से भी जानता ही है कि किसी भी समय वह इनमें से किसी एक में ही अवस्थित होता है। अर्थात् जब वह जाग्रत होता है, तब स्वप्न अथवा सुषुप्ति में नहीं होता, जब वह स्वप्न देख रहा होता है तब वह न तो जाग्रत और न ही सुषुप्त होता है, और इसी तरह जब वह सुषुप्त होता है तब भी न स्वप्न देख रहा होता है और न ही जाग्रत होता है। संकल्पपूर्वक ध्यान इत्यादि के प्रयासों, दैवी संयोग या प्रारब्धवश वह क्रमशः समाधिस्थ या अचेत भी हो सकता है। इसे तुरीय दशा कहा जाता है। 

इसी प्रकार प्रत्येक जीव के रूप में उद्भूत चेतना विशेष (आत्मा) एक ही समय में उपरोक्त सभी सातों लोकों में और किसी एक मानसिक दशा (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) अधिष्ठित होती है। भूः भूलोक इन्द्रियगम्य अनुभवों और ज्ञान का लोक है, भुवः - मानसिक लोक है जिसे मनो, बुद्धि, और चित्त के माध्यम से अनुभव किया जाता है अर्थात भुवर्लोक या वह स्थान जहाँ पर प्रत्येक ही जीव प्रारब्ध की गति से नियंत्रित होकर सुख दुःखों आदि का भोग यंत्रवत् किया करता है। स्वर्लोक अर्थात् स्वः या स्वयं और संसार दोनों की युगपत् प्रतीति जहाँ होती है। यही मनुष्यों और सभी जीव जन्तुओं में अपने विशिष्ट होने की कल्पना उत्पन्न होती है। इससे उच्चतर वे लोक हैं जिन्हें महः, तपः और सत्यम् कहा जाता है। जब कोई मनुष्य या उन्नत चेतना किसी महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर कोई असाधारण संकल्प और वैसा कार्य करती है तो वह जिस लोक में होती है उसे महः कहा जाता है जिसका वर्णन गीता के दसवें अध्याय "विभूति योग" में प्राप्त हो सकता है। जनः वह लोक है जिसमें सभी पुण्यवान या पतित जन्म लेते हैं और सहभागिता भी करते हैं। वाल्मीकि रामायण में "जनस्थान" के रूप में इसका बहुत अच्छा उल्लेख है। ब्रह्मा (आब्रह्म) की ही तरह नर्मदा का स्वरूप भी इसी प्रकार कालनिरपेक्ष और कालसापेक्ष तथा इन सभी लोकों में समान रूप से पाया और अपनी पात्रता होने पर अनुभव भी किया जा सकता है।

ब्रह्मा जब विष्णु की नाभि से कमल के पुष्प में अवतीर्ण हुए और अपने चार आननों से चतुर्दिक् देखा तो आश्चर्य और कौतूहल से भर गए। तब उन्हें अपनी सृष्टि होने का भान हुआ और उनमें उस कारण, तत्व और प्रयोजन को जानने की उत्सुकता, उत्कंठा और जिज्ञासा हुई जिससे उनकी सृष्टि हुई। उन्होंने भूः, भुवः और स्वः तक को तो जान लिया था किन्तु इस जिज्ञासुरपि महत्वाकाँक्षा के ही कारण वे महः लोक और तपः लोक से भी परिचित हो गए। सृष्टि होने ही जन्मरूपी जनस्थान या जनः लोक से तो वे प्रारंभ ही से अवगत थे।

तब उन्हें तपःलोक प्राप्त हुआ और वे नर्मदा के सप्तधारा तट पर निवास करते हुए कठोर तप करने लगे। नर्मदा के इस स्थान को इस प्रकार से ब्रह्म कला या ब्रह्मकलाम् / ब्रह्मकलां नाम प्राप्त हुआ और कालान्तर में विरूपित हो जाने से उसे ही बरमन कलान का नाम प्राप्त हुआ। 

संक्षेप में, नर्मदा स्वरूपतः तो भगवान् ब्रह्मा से भी पूर्व और प्राचीन समय से है।

संभवतः स्कन्द पुराण के रेवाखण्ड में जिसे नर्मदा पुराण भी कहा जाता है इसका उल्लेख पाया जा सकता है।

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September 12, 2024

निरंकुश शासक

अहं-वृत्ति / अहं-प्रत्यय / अहं-संकल्प / व्यक्तित्व अहंकार / मन 

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विश्व अर्थात् इस मृत्यलोक और जगत् के के स्वामी, जो क्रमशः मनु, मनुष्यों और प्राणिमात्र के इन्द्रियबुद्धिगम्य भौतिक संसार पर शासन करते हैं, देवताओं के दैविक संसार स्वर्ग पर शासन करते हैं, सम्पूर्ण समष्टि अस्तित्व का संचालन करनेवाले परमात्मा हैं, उन सबकी यद्यपि अपनी अपनी भूमिका है जिसका वे निर्वाह स्वतंत्र रूप से करते हैं, और वे सभी अपना प्रमाण स्वयं ही होते हैं और मनुष्य अनुमान, बौद्धिक तर्क और निष्कर्ष से उनके अस्तित्व पर संदेह नहीं कर सकता। भौतिक और स्थूल विज्ञान के अन्तर्गत, जहाँ प्रकृति की परिवर्तनशीलता में किन्हीं ऐसे स्थिर नियमों को सैद्धान्तिक और आधारभूत सत्य की तरह खोजने का यत्न किया जाता है, वहाँ उन नियमों की अधिष्ठाता भी किसी विशिष्ट ज्ञान या शक्ति से संपन्न कोई स्वयंसिद्ध एकमेव अद्वितीय सत्ता है यह तो मानना ही होगा। और मनुष्य यह भी मानता है कि दूसरी सभी भौतिक वस्तुओं के बीच निर्जीव और सजीव होने का प्राकृतिक भेद भी इसी प्रकार से स्वयंसिद्ध ही है।तात्पर्य यह कि वैज्ञानिक, जीवन क्या है इसे संतोषप्रद ढंग से परिभाषित तो नहीं कर सकता, किन्तु वह सभी वस्तुओं का वर्गीकरण सजीव अथवा निर्जीव इन दोनों रूपों में करने का प्रयास करता ही है। स्पष्ट है कि किसी  जीवित या सजीव मनुष्य के ही द्वारा ऐसा प्रयास किया जाना संभव है। और ऐसा कोई मनुष्य इससे भी नितान्त अनभिज्ञ भी होता है कि क्या इस बुद्धि का कारण और परिणाम भी उसमें विद्यमान जीवन है, या जीवन उससे स्वतंत्र ऐसी कोई सत्ता है जिसे वह "प्रकृति" का नाम दे सकता है! पदार्थ और उसकी कार्यप्रणाली को समझने के प्रयास में वह अकाट्य तर्क और गणितीय मान्यताओं को तात्कालिक रूप से सत्य मानकर उस आधार पर उन सिद्धान्तों की स्थापना करता है जिनकी पुनः पुनः परीक्षा कर वह उन्हें पूर्णतः विश्वसनीय कह सके। अपने जैसे  ही अन्य मनुष्यों से चर्चा और विचार विमर्श कर उन्हें वह "विज्ञान" (साइन्स) का नाम देता है, जिस पर वैज्ञानिकों के बीच मतभेद नहीं होता। अतः यह कहा जा सकता है  कि प्रकृति इसी विज्ञान के नियमों की अधीनता में रहकर अपना समस्त कार्य करती है। ये नियम परस्पर आश्रित होते हैं। यदि इन विविध प्रतीत होनेवाले विभिन्न नियमों के बीच कोई विषमता / असामंजस्य हो तो विज्ञान की उस आभासी कारणों का पता लगाकर उस विषमता का निराकरण भी कर देता है। किन्तु किसी भी वैज्ञानिक का ध्यान क्या कभी इस प्रश्न पर जाता होगा कि जिस बुद्धि की सहायता से वह यह सारा वैज्ञानिक आकलन करता है, वह बुद्धि उसमें कहाँ से उत्पन्न और जाग्रत होती है? फिर भी वह इतना तो समझ ही सकता है कि यह बुद्धि उसे कहीं से भी प्राप्त क्यों न होती हो, बुद्धि प्रकृति की कार्यप्रणाली की ही एक सूक्ष्म अभिव्यक्ति है, जो उसमें कभी प्रकट और कभी अप्रकट होती रहती है और वह स्वयं बुद्धि के आने या जाने और उसकी कार्यप्रणाली के प्रति सचेतन आधारभूत वास्तविकता है। यह सचेतनता ही बुद्धि से उच्चतर और स्वयंसिद्ध सत्य है, जबकि बुद्धि ऐसा कोई स्वयंसिद्ध स्वप्रमाणित सत्य नहीं हो सकता। पुनः बुद्धि तर्कपरक तथ्य (objective fact) है जबकि सचेतनता एक  वस्तुपरक वास्तविकता (subjective Reality) है। बुद्धि ही सचेतनता का विषय है जबकि सचेतनता बुद्धि का विषय कभी नहीं हो सकती।

सचेतन होना (knowing or being conscious of something else other than one-self) ही चेतना (consciousness) और यही संवेदनशीलता (sensitivity / sensibility) भी है जो स्वयं अपने आपको भी जानी गई वस्तु (the known) और उस वस्तु को जाननेवाले (the knower) के बीच वर्गीकृत कर लेती है और इस वर्गीकरण के ही फलस्वरूप चेतना से संबद्ध किसी भी और प्रत्येक शरीर विशेष (living organism) में :

 "मैं" / 'स्व' की भावना - (sense of self ); और,   अपने से अन्य / 'पर' की भावना - (sense of other than self) उत्स्फूर्त होती है। 'स्व' की भावना कर्तृत्व, भोक्तृत्व, ज्ञातृत्व और स्वामित्व के रूप लेकर व्यक्ति या व्यक्तित्व में परिवर्तित हो जाती है और यही वह निरंकुश शासक भी होता है जो कि भ्रम और अज्ञानवश स्वयं को व्यक्तित्व और व्यक्तित्व का स्वामी एक साथ दोनों मान लेता है। यही मन है,  जिसे कभी तो मनुष्य अपने आप की तरह और कभी अपने से भिन्न "मेरा मन" भी कहने लगता है। जिस प्रकार मन, बुद्धि से मोहित होता है उसी प्रकार से बुद्धि भी मन से मोहित हो जाती है। पुनः मोह से ही आसक्ति / या  विषयासक्ति  का जन्म होता है। आसक्ति का अर्थ है - "मैं / स्व और "मेरा" के बीच की भिन्नता के न देख पाना। और इसीलिए शरीर को तथा शरीर से संबद्ध वस्तुओं और विषयों को भी मोहजनित आसक्तिवश ही "मैं" तथा "मेरा" भी कह दिया जाता है। इसीलिए "मन" ही कभी कभी अत्यन्त व्यथित और त्रस्त हो जाने पर शरीर का ही अन्त कर देने का विचार भी करने लगता है, और उसे लगता है कि शरीर का अन्त होने पर "मैं" भी नहीं रह जाऊँगा। फिर मेरे सभी क्लेश भी समाप्त हो जाएँगे। किन्तु उसका ध्यान शायद कभी इस पर नहीं जा पाता कि "मैं" और मेरा  होने की स्थिति में "मेरे" संसार का क्या होता है! 

और न तो किसी भी तर्क से, अनुभव या उदाहरण से वह इस संदेह का निवारण ही कर सकता है। इसका एकमात्र कारण यही है कि उसे सबसे पहले तो अस्तित्व का भान होता है, फिर उस अस्तित्व में और अपने तथा अपने से पृथक् और भिन्न प्रतीत होनेवाले किसी और के अस्तित्व का। अस्तित्व / सत्तामात्र की ऐसी प्रतीति में अपने और अपने से भिन्न का भान साथ साथ ही प्रारंभ और समाप्त होता रहता है और स्मृति के कल्पित सातत्य से ही संदेह उत्पन्न होता है। यह देखना रोचक है कि स्मृति स्वयं ही क्षण क्षण न जाने कहाँ से जाग्रत होकर न जाने कहाँ विलुप्त होती रहती है, जिस पर उसको जाननेवाले और उसको अपना कहनेवाले का कोई अधिकार, नियंत्रण या दावा नहीं हो सकता, जबकि प्रत्येक ही भ्रमवश अपने स्वयं  को उसका स्वामी और शासक मान बैठता है और इस वास्तविकता से नितान्त अनभिज्ञ होता है, कि स्मृति ही उस पर शासन कर रही होती है! 

स्मृति उसमें उसे प्रतीत होनेवाले सभी अनुभवों के  बीच भेद होने की कल्पना से उन सभी अनुभवों की  पहचान उत्पन्न कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व होने का  आभास निर्मित करती है

स्मृति ही पहचान है और पहचान ही स्मृति है।

क्योंकि एक के अभाव में दूसरी नहीं पाई जाती है।

इसे ही महर्षि पतञ्जलि ने वृत्ति कहा है।

इस प्रकार वृत्ति ही एकमात्र सार्वभौम निरंकुश शासक है, जो चेतना के प्रस्फुटित होते ही 

जड जगत / इदं, और चेतन "मैं"/ अहं

के रूप में अभिव्यक्त होता है।

सभी वृत्तियाँ अहं-वृत्ति में और अहं-वृत्ति भी पुनः पुनः विभिन्न प्रकार की दूसरी वृत्तियों में बदलती रहती है। न तो वृत्ति अहं-वृत्ति के अभाव में, और न अहं-वृत्ति ही वृत्ति के अभाव में स्वतंत्र रूप से बनी रह सकती है।

और यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि अहं-वृत्ति वृत्तिमात्र के निरुद्ध कर दिए या हो जाने पर भी अस्मिता के रूप में बीज रूप में बनी रहती है। और इसीलिए इन विभिन्न प्रकार की समाधियों से गुजरने के बाद भी मनुष्य अपने आपको उनके अनुभवकर्ता, भोक्ता, स्वामी या साक्षी की तरह स्मरण रखकर अहं-वृत्ति से बँधा रहता है।

पुनः वह स्वयं को अहं-वृत्ति रूपी निरंकुश शासक  के रूप में मान्य कर लेता है और इसका रहस्योद्घाटन कर पाना उसके लिए संभव नहीं रह जाता।

इस रहस्य का उद्घाटन केवल तभी हो पाता है जब वह अपने हृदयान्तर में उतरकर / प्रविष्ट होकर इसे खोज ले कि इस अहं-वृत्ति का उदय / जन्म कहाँ से होता है, इसे समझ / खोज ले, इसमें पैठकर निमज्जित हो रहे, या श्वास की गति / प्राणापानगती पर संयम करने के माध्यम से चित्त को निरुद्ध कर सके।

महर्षि श्री रमण ने इस पूरी शिक्षा को संक्षेप में एक ही श्लोक में इस प्रकार से अभिव्यक्त किया है -

हृदयकुहरमध्ये केवलं ब्रह्ममात्रम् 

ह्यहमहमिति साक्षादात्मरूपेण भाति।

हृदि विश मनसा स्वं चिन्वता मज्जता वा

पवनचलनरोधादात्मनिष्ठो भव त्वम्।। 

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September 09, 2024

Question / प्रश्न 109

क्या महाभारत युद्ध समाप्त हो गया? 

मुझे नहीं लगता कि महाभारत युद्ध समाप्त हो गया था। मुझे लगता है कि वह अभी तक समाप्त नहीं हुआ है। अब भी अघोषित रूप से चल ही रहा है। यदि आज की स्थितियों का अवलोकन करें तो यह समझना कठिन नहीं होगा कि भारत पर विदेशियों के आक्रमण का इतिहास उसी क्रम का हिस्सा था। और हर मनुष्य, वर्ग, समुदाय, मजहब, रिलीजन की भूमिका यद्यपि बहुत अलग जान पड़ती है, शायद ही किसी की बुद्धि इस माया से मोहित न हो!  

आज वह युद्ध और भीषण हो चला है और हर मनुष्य ही उसमें इस या उस पक्ष की ओर से युद्ध लड़ रहे हैं। केवल अर्जुन की ही बुद्धि मोहित हुई हो ऐसा नहीं, बल्कि हम सभी की बुद्धि कम या अधिक मोहित है और विडम्बना यह है कि हमें इसका आभास या इसकी कल्पना तक नहीं है! 

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

यह मोहित बुद्धि उस माया का ही परिणाम है।

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September 05, 2024

The Shadow!

Ego and Alter-Ego

अहं और प्रत्यहं

(अहम् और प्रति-अहम्)

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अभी इस पोस्ट से कुछ मिनट पहले इसी ब्लॉग में एक कविता लिखी है। पता नहीं क्या लिखते लिखते एकाएक वह कविता लिख दी गई!

मन की ऊपरी सतह पर यद्यपि कविता लिखी जा रही थी किन्तु मन की इस ऊपरी सतह से नीचे कोई था जो चुपचाप इस कविता के रचयिता होने के गर्व से बहुत प्रसन्न था।

जब कविता पूरी हो गई तो ध्यान इस पर गया कि कल -  परसों मैंने ईगो / इगो और आल्टर ईगो की जिस प्रकार से विवेचना की थी और उसे परिभाषित किया था, उससे उत्पन्न हुई एक अद्भुत् शान्ति ने मुझे अभी तक अभिभूत कर रखा है। और सब कुछ यद्यपि अक्षरशः वही है, फिर भी सब कुछ नितान्त परिवर्तित भी हो गया है। इसे स्पष्ट  करने के लिए मेरे पास कोई व्याख्या नहीं है! 

कल मैंने संक्षेप में मेरे इस "आत्म-साक्षात्कार" के बारे में लिखा था कि विचारकर्ता ही ईगो और विचार ही आल्टर ईगो है। यद्यपि मैं न तो विचारकर्ता हूँ और न ही विचार!

विचारकर्ता / विचार मैं नहीं! 

आज सुबह से मन में इसी पर ध्यान केन्द्रित था।

और मन फिर भी अपना कार्य अधिक सरलता, स्पष्टता और शान्ति से करता रहा। यद्यपि कभी कभी वह पूरी तरह शब्दरहित भी होता रहता है, और जब विचारकर्ता तथा  विचार दोनों ही विलीन हो जाते हैं फिर भी कभी कभी विचार और विचारकर्ता की गतिविधि भी शुरू हो जाती है। इसी मनःस्थिति में इस पर ध्यान गया कि जैसे मनुष्य का अपना ईगो और आल्टर ईगो, - विचारकर्ता और विचार के रूप में उसके ही अन्तर्मन के दो पक्ष होते हैं, और उससे भिन्न और परे के जगत से उनका कोई सबंध नहीं होता, ठीक वैसे ही मनुष्य के सामूहिक मन (consciousness / collective mind) में भी असंख्य विचार, आभासी और काल्पनिक विचारकर्ता को प्रक्षेपित करते हैं, और वह भी पुनः सामाजिक स्तर पर विभिन्न समुदायों और वर्गों में बँटा होता है। यह है मनुष्य की नियति, जिसे परिवर्तित करने, और दुनिया को बदलने का विचार भी जिसका एक अत्यन्त छोटा विचारमात्र होता है।

विचार और विचारकर्ता (जो वस्तुतः एक ही तथ्य है) के बीच के इस संबंध की तुलना (analogy) शरीर और शरीर की छाया से शायद की जा सकती है, जिनके बीच में "मन"  नामक वस्तु पेन्डुलम की तरह डोलती रहती है।

"अपनी छाया"

शीर्षक से लिखी जानेवाली कविता इसका ही परिणाम या प्रभाव रहा होगा, और बाद में जिससे मुझे :

Oscar Wilde 

की रचना

"अपनी छाया"

का स्मरण हो आया। 

यह सब शायद रोचक और संभवतः नितान्त काल्पनिक ही है, बस इतना ही कह सकता हूँ! 

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अब तक ऐसा होता आया!

कविता : अपनी छाया

(यह कविता पूरी होते होते मुझे 

Oscar Wilde 

की एक रचना :

"अपनी छाया"

याद आई !

हालाँकि मैंने शायद इस उपन्यास / कहानी / पुस्तक का नाम ही सुना है! याद नहीं आता, इसे मैंने कभी पढ़ा भी है या नहीं! 

***

जब से आँख खुली है मेरी, 

अब तक ऐसा होता आया, 

मेरे पीछे ही लगी रही थी,

खुद मेरी अपनी ही छाया!

मेरी वह थी, या मैं उसका, 

कभी इसे मैं समझ न पाया,

कभी उसे अपना कहता था,

और कभी मैं उसे पराया!

जब जब मुझ पर पड़े रोशनी,

तब तब वह मेरे पीछे होती,

जब जब मुझे अन्धेरे मिलते,

तब तब वह गायब हो जाती!

इसी तरह जब त्रस्त हुआ मैं,

आखिर उसको भुला ही दिया,

तब से बहुत सुखी रहता हूँ,

आखिर ऐसा भी दिन आया!

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Distressed and Depressed.

The Crises and The Challenges of Our Times.

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भारत के संकट और चुनौतियाँ 

दस्तकों का अब किवाड़ों पर असर होगा ज़रूर,

हर हथेली खून से तर और ज्यादा बेक़रार!!

'70 के दशक में स्व. दुष्यन्त कुमार को पढ़ा था।

कैसे एक ही शे'र या साहित्यिक रचना के अर्थ समय, संदर्भ और उसे पढ़नेवाले की मनःस्थिति के अनुसार बदल जाते हैं इसकी कल्पना तक शायद ही न तो उस साहित्यकार या शायर को होती होगी और न उस रचना को पढ़नेवाले उसके किसी पाठक को, यह इसका एक बहुत ज्वलन्त उदाहरण हो सकता है!

जरा कल्पना कीजिए किसी उस लड़की की स्थिति की, जो स्वयं बांग्लादेश की एक ग़ैर मुस्लिम दलित वर्ग की बेटी है, जिसके घर के कमज़ोर किवाड़ों पर गहरी अँधेरी रात में किन्हीं गुंडों या बदमाशों की खटखटाहट हो रही हो, या उस जैसी किसी दूसरी लड़की की स्थिति, जो कि स्वयं इस डर से घर से घबराकर भागकर पड़ोसी के घर जाकर आतुर प्रतीक्षा करते हुए उसके किवाड़ों को जोर जोर से खटखटा रही हो!

उसी दौर में साहित्य से मेरा मोहभंग हो चुका था। चाहे वह मुंशी प्रेमचन्द हों, कृशन चन्दर हों, क़ैफी आजमी हों या नामी गिरामी कमलेश्वर, धर्मवीर भारती, हरिवंशराय बच्चन जैसे लोग ही क्यों न हों! उनकी तुलना में स्थापित साहित्यकार जैसे फणीश्वरनाथ रेणु, मुक्तिबोध उन सबसे कुछ अलग जान पड़ते थे। ऐसे ही पृथ्वी राजकपूर और उनका पूरा परिवार जो आज भी सफलता, समृद्धि और ऐश्वर्य की बुलन्दियाँ छू रहा है, समय के उस दौर में बहुत क्रान्तिकारी जान पड़ता था। एक बहुत लम्बी सूची है इन सब कलाकारों और साहित्यकारोंं की, जिन्हें हवा के रुख को और नदी के बहाव की दिशा पहचानने और उसके अनुसार अवसर भुनाने में महारत हासिल थी, फिर भले ही उससे देश और देश की जनता का भविष्य चौपट ही क्यों न हो रहा है। उस समय का, विशेष रूप से 1900 से बाद के अंग्रेजी और उससे पहले के मुग़लों का शासन भी अपनी पूरी ताकत से भारत और भारत की जनता, संस्कृति और सभ्यता को नष्ट करने पर आमादा था। और मैं यह भी मानता हूँ कि हममें से अधिकांश यद्यपि विदेशी शासन के इस निरन्तर दमन और अत्याचारों से अत्यन्त पीड़ित और त्रस्त थे, किन्तु हममें ही कुछ इने-गिने ऐसे भी थे जिन्होंने अपने भारत राष्ट्र की संस्कृति और सभ्यता की रक्षा करते हुए हँसते हँसते हुए अपने प्राणों का बलिदान तक कर दिया। और फिर कुछ ऐसे तथाकथित राष्ट्रवादी थे जिन्हें कांग्रेस में नरम दल में जाना जाता था, जिन्हें भारत को आजाद कराने का श्रेय भी दिया गया। उसी कॉंग्रेस ने जिन्ना और माउन्टबैटन से साँठ-गाँठ कर भारत का विभाजन कराया था। जब तक इस पूरे इतिहास पर हम ध्यान नहीं देंगे, तब तक हमारे संकटों और विपत्तियों का अन्त नहीं हो सकेगा। फिल्में, साहित्य, कला, संगीत, टी वी, इन्टरनेट और इससे जुड़े विभिन्न नेटवर्क आज भी हमें बुरी तरह भ्रमित कर रहे हैं और इस दौर में भी अपने निहित स्वार्थों की पूर्ति करने के लिए बहुत से लोग ढिठाई और दुष्टतापूर्वक जनता के दरवाजों पर बेकरारी से दस्तक दे रहे हैं। और हम आज भी नहीं समझ पा रहे हैं कि कौन सी दस्तक किसकी है! बंगाल जल रहा है, आसाम, उड़ीसा, और तो और, उन्हें दिल्ली तक अब दूर नहीं दिखाई दे रहा है।

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September 02, 2024

Question / प्रश्न 108

Why do relationships deteriorate?

संबंध क्यों बिगड़ते हैं?

How we can maintain relationships normal and healthy?

संबंधों को सामान्य और स्वस्थ कैसे रखें?

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लगभग हर मनुष्य की तरह हममें से किसी का भी ध्यान शायद ही कभी इस पर जाता होगा कि हम क्या चाहते हैं और हमारी आवश्यकताएँ क्या और कितनी हैं!

फिर उन सब लोगों से हमारे संबंधों का क्या जो हमारी ही तरह हैं, जिनका ध्यान शायद ही कभी इस पर जाता है कि वे वस्तुतः क्या चाहते हैं और उनकी आवश्यकताएँ क्या हैं।

किसी से हमारी कोई अपेक्षा हमारी किसी आवश्यकता से या केवल हमारी इस इच्छा से भी पैदा हो सकती है कि उससे हम कुछ ऐसा चाहने लगते हैं जिसे वह पूरा ही न कर सके या उसे जिस बारे में पता ही न हो!

यदि हमें वास्तव में उससे प्रेम है तो हम अवश्य ही यह भी समझ सकेंगे कि वह हमसे क्या चाहता है, उसकी क्या आवश्यकताएँ हैं जिन्हें कि हम पूरा कर सकते हैं या किन्हीं ज्ञात या अज्ञात कारणों से शायद पूरा कर पाने में असमर्थ हों!

यदि उसे वास्तव में हमसे प्रेम है, तो वह भी अवश्य ही यह समझ सकेगा कि हम उससे क्या चाहते हैं, हमारी क्या आवश्यकताएँ हैं जिन्हें कि वह पूरा कर सकता है या किन्हीं ज्ञात अथवा अज्ञात कारणों से शायद पूरा कर पाने में असमर्थ हो!

जब हम और वह भी जिसके बारे में हमें ऐसा लगता है कि हमारे बीच कोई संबंध है, इस सच्चाई को नहीं देख पाते हैं तो हमारे आपसी संबंधों में दरार आने लगती है और संबंध क्रमशः निराशाजनक और उत्साहहीन होने लगते हैं तब हम बाध्यता, विवशता या दुविधा में फँसे रहते हैं और हममें असंतोष पैदा होने लगता है। समय बीतने के साथ संबंध से हमें अरुचि होने लगती है और उसकी स्मृति भी धुँधली होते होते अंततः पूरी तरह मिट जाती है।

ऐसा न केवल लोगों से हमारे संबंधों के बारे में ही होता है बल्कि वस्तुओं, विचारों, जीवन-मूल्यों, आदर्शों, जीवन के ध्येय के बारे में भी हुआ करता है। फिर हम यह कहते या कि सोचते हैं कि मुझे धर्म, राजनीति, खेल, साहित्य, पत्रकारिता, सामाजिकता आदि से संन्यास लेना चाहिए। और तब तक हमें जीवन में सब कुछ नितान्त अर्थहीन सा प्रतीत होने लग सकता है, तो भी हम कहीं न कहीं 

 "मन लगाने का यत्न" 

करने  लगते है। हम किसी महात्मा, आध्यात्मिक गुरु, मार्गदर्शक, सामाजिक संस्था, किताबों में या सत्संग में समय बिताने का प्रयत्न करने लगते हैं, किन्तु कभी भूल से भी हमारा ध्यान इस प्रश्न पर नहीं जाता कि क्या यह "मैं" नामक वस्तु कोई शरीर-विशेष है, मन या बुद्धि है! हम निरन्तर "मेरा मन", "मेरे विचार", "मेरा जीवन" या "मेरा घर", "मेरे लोग, मेरे मित्र, मेरे शत्रु, मेरे परिजन", "मेरा देश, संस्कृति, धर्म, भाषा" आदि शब्दों का प्रयोग अनवधानता या आदत के अनुसार करते रहते हैं किन्तु क्या मन ही यह सब नहीं कहता! क्या यह मन ही "मैं" है? और क्या यह वाकई मेरा है!

"मैं" और "मेरा" के बीच का यह विभाजन क्या केवल  एक कल्पना ही नहीं है?

शायद इस प्रश्न की ओर हम देखना तक नहीं चाहते, तो हमें यह सूझना तो और भी दूर की बात है। किन्तु जब तक यह हममें कौतूहल या उत्सुकता की तरह भी नहीं उठता, तब तक जीवन से हमारे संबंध में हमारी दुविधा दूर नहीं हो सकती। तब तक जीवन खाली खाली, रिक्त, अनुभव होता रहेगा। मन में जीवन को समाप्त कर देने की प्रबल इच्छा भी उत्पन्न हो सकती है, हम मनोरंजन या किसी नशे के गुलाम भी हो सकते हैं जो वास्तव में हमें केवल और भी अधिक मंदबुद्धि बना देता है।

न केवल एक आम और औसत मनुष्य बल्कि वे सब भी जिन्हें हम सफल और संपन्न, समृद्ध, यशस्वी, ऐश्वर्यवान, महान और लोकप्रिय समझते हैं, उनके जीवन में भी यह खालीपन होता है।  

जीवन सचमुच ही अत्यन्त निष्ठुर है! 

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