April 06, 2025

The Year 2025 / 2082

श्रीराम जन्मोत्सव रामनवमी 2025 / 2082.

हिन्दू विक्रम संवत् का प्रारंभ शक या ईस्वी संवत् से 57 वर्ष पहले उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने किया था। हिन्दू विक्रम संवत् के 2000 वर्ष, ईस्वी सन् 1943 में पूर्ण हुए थे। और यह विवादास्पद र विचारणीय भी है कि स्वतंत्र भारतवर्ष का राष्ट्रीय संवत् विक्रम संवत् के बजाय शक संवत् क्यों सुनिश्चित किया गया!

जो भी हो, इस श्रीरामनवमी पर राष्ट्रीय विक्रम संवत् के राजा और मंत्री दोनों ही सूर्य हैं और भगवान् श्री राम के आज के जन्म का दिन रविवार भी इसका ही सूचक है कि यह वर्ष विक्रम संवत् 2082 इसलिए सनातन वैदिक धर्म के उत्थान का द्योतक होगा। 

जय श्री राम !

सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ!

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April 02, 2025

The Ignorance.

आचार्य शङ्कर कृत भवान्याष्टकम्

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नाहं जाने तव महिमानम् ।

पाहि कृपामयि मामज्ञानम्।।

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रोगं शोक पापं तापम्, हर मे भगवति कुमति-कलापम्। 

नाहं जाने तव महिमानं, पाहि कृपामयि मामज्ञानम्।।

इस भवान्याष्टकम् नामक स्तोत्र का प्रारंभ इस प्रकार से होता है -

न तातो न माता न बन्धुर्न भ्राता

गतिस्त्वं गतिस्त्वं त्वमेका भवानी।।

और इसी स्तोत्र में "मामज्ञानम्" के माध्यम से यह प्रार्थना भी की गई है -

हे कृपामयि भगवति! तुम "मुझ अज्ञान" की रक्षा करो।

स्तोत्रकार भगवान् आचार्य शङ्कर यहाँ पर ऐसा नहीं कहते कि मुझ ज्ञानी / अज्ञानी की रक्षा करो। 

यहाँ आशय - 

मेरे "अज्ञान" की रक्षा करो, 

यह भी नहीं है।

इसका तात्पर्य यह है कि "अहंकार" ही ज्ञान और अज्ञान के रूप में "मैं" है, तथा "मैं" ही शिव / भवानी के रूप में परमात्मा भी है।

यह "मैं", जो कि शिव / भवानी कहकर संबोधित किए जानेवाले परमात्मा के स्वरूप से अनभिज्ञ होकर अपने आपको ज्ञान के दंभ से ज्ञानी, और प्रमादवश ही अपने को अज्ञानी भी मान लिया करता है।

जबकि परमात्मा तो दंभ और अज्ञान से सर्वथा रहित है, वही शिव / भवानी है। - दंभरूपी ज्ञान और अज्ञानी होने की कल्पना से रहित वह एवमेव और अद्वितीय, सत् चित् आनन्द रूपी परब्रह्म परमात्मा, वह प्रभु हैं जो -

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।

नादत्ते कस्यचित्पापं सुकृतं चैव न विभुः। 

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितं आत्मनः।

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।

(श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय ५)

"मैं करता हूँ" इस प्रकार की कर्तृत्व की मिथ्या भावना से प्रदूषित मन ही स्वयं को मोहित बुद्धि से उत्पन्न अज्ञान से ग्रस्त होकर अपने आपको पुण्य-कर्मों या पाप-कर्मों का करनेवाला मान बैठता है और सुखी दुःखी भी होता है।

उस परमात्मा शिव / भवानी से हमारा वैसा क्या संबंध हो सकता है, जैसा अपने सांसारिक माता, पिता, बन्धु या भाई आदि से हुआ करता है? मोहित बुद्धि के कारण ही, अहंकार ही "मैं" के रूप में ज्ञान और अज्ञान के रूप में बुद्धि को आवरित कर लेता है और इस प्रकार से "मैं" ही ज्ञान / अज्ञान होकर सदैव स्वयं के ज्ञानी होने के दंभ से या अज्ञानी होने की कल्पना से ग्रस्त और त्रस्त हुआ करता है।

जब "मैं" परमात्मा शिव / भवानी की महिमा को और अपनी अल्पज्ञता को जान लेता है तब यही तथाकथित "मैं", ज्ञान और अज्ञान दोनों ही से रहित होकर विशुद्ध ज्ञानमात्र के रूप में अपने स्वरूप से अवगत हो जाता है, और वहीं अवस्थित रहने लगता है।

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March 30, 2025

The Thrill.

राधे राधे!

उस समय भी मैं वही था जो कि आज हूँ। और मेरे बारे में ही नहीं, सभी के बारे में भी यह सत्य है। हर कोई बस एक शुद्ध अस्तित्व मात्र होता है जो कि बस अपने-आप को ही जानता है।

उस समय से आज तक की स्मृतियों को टटोलता हूँ तो बस इतना ही समझ में आता है।

प्रत्येक ही मनुष्य की स्मृति में असंख्य घटनाएँ, अनुभव और उसका एक पूरा व्यक्तिगत संसार ही होता है जिसमें यद्यपि वह व्यक्ति तो होता ही नहीं, किन्तु जिसे स्मृतियों की निरन्तरता अपने स्वामी होने (की स्मृति) की तरह से  स्मरण रखा करती है।

किसी समय जब एक नए स्थान पर पहुँचा तब की एक  स्मृति कभी कभी सामने आ जाती है। दो वर्ष अपने बड़े भाई के साथ रहते हुए मैंने बिताए थे। पिताजी का फिर स्थानांतरण एक नए स्थान पर हो जाने से हम सब रहने के लिए वहाँ चले गए, बड़े भाई को छोड़कर, क्योंकि वह वहाँ कॉलेज में शिक्षक था।

मेरे पिताजी उस छोटे से गाँव में सरकारी स्कूल में प्राचार्य थे जहाँ उनका स्थानांतरण हुआ था। वह स्थान इसलिए भी मुझे प्रिय था क्योंकि वहाँ एक ही मुख्य और पक्की सड़क थी जो सीधी नामक जिला मुख्यालय से सिंगरौली नामक स्थान तक जाती थी। सिंगरौली तक और उससे भी आगे न जाने कहाँ तक। शायद गढ़वा और पता नहीं कहाँ कहाँ। दोस्त कहते थे कि उधर कैमोर की पहाड़ियाँ हैं। बहुत शान्तिपूर्ण स्थान था। पिताजी को रहने के लिए पी डबलयू डी का सरकारी क्वार्टर मिला हुआ था। कुल आठ दस या दर्जन भर क्वार्टर्स वहाँ थे जिनमें से सबसे बेहतर तीन एक साथ बने थे और जिसमें हम रहा करते थे।

पास के कुछ क्वार्टर्स को छोड़कर बाद में एक और भी था जहाँ कोई डॉक्टर रहा करते थे। हमारे सामने खेत थे जहाँ उन दिनों सरकारी राष्ट्रीय सर्वेक्षण विभाग के कुछ कर्मचारियों ने तम्बू लगा रखे थे। दो तीन महीने बाद ही वे वहाँ से चले गए। उसी पक्की सड़क पर वह स्कूल भी था जहाँ मैं पढ़ता था और जहाँ मेरे पिताजी प्राचार्य थे।

एक ग्वालन कभी कभी मटके में दूध, दही लेकर रोज ही आया करती थी। एक दिन उसके साथ एक और लड़की आई, जो शायद उसकी बेटी रही होगी। गोरी चिट्टी, और गोल मटोल चेहरा। तब मुझे पता चला उसका नाम राधा था। मैं उसे कौतूहल से विस्मय और आश्चर्य से देखता ही रह गया। उससे कोई बात या परिचय तक नहीं हुआ, न ही बाद में फिर कभी वह दिखाई दी, लेकिन उसका नाम और चेहरा मुझे अब भी याद है, याद नहीं करना पड़ता। किन्तु यह भी सच है कि बाद के पचास वर्षों में इस नाम को, और उसे भी मैं पूरी तरह भूल चुका था। उन्हीं दिनों मेरा बड़ा भाई कॉलेज की छुट्टियों में कुछ दिनों के लिए रहने के लिए जब वहाँ आया तो स्वामी दयानन्द सरस्वती का "सत्यार्थ प्रकाश" ग्रन्थ लेकर आया था, जिसे पढ़ते हुए मुझे बहुत सी ऐसी जानकारियाँ मिली जिनकी मुझे वस्तुतः जरा भी जरूरत उस उम्र में नहीं थी। उस ग्रन्थ में ही विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों और मतावलम्बियों के मतों के साथ वैदिक आर्य समाज नामक मत का परिचय मुझे प्राप्त हुआ। वहीं मैंने वृन्दावन, गोकुल, व्रज और मथुरा आदि के बारे में भी पढ़ा। और यह भी कि किस प्रकार से (भगवान्) श्रीकृष्ण के महाभारत में वर्णित चरित्र को कपटपूर्वक श्रीमद्भागवद्महापुराण नामक ग्रन्थ में वर्णित उनके पौराणिक चरित्र के रूप में, इस सीमा से परे तक, इतना विरूपित और परिवर्तित तक कर दिया गया, और महाभारत में वर्णित उनके चरित्र पर इस तरह मढ़ दिया गया कि उनके वास्तविक चरित्र का गरिमामय रूप हमें पूरी तरह विस्मृत हो गया और उनकी "भक्ति" के नाम, प्रचार पर भारतीयों को बुरी तरह से भ्रमित कर उनका ध्यान ही उससे हटाते गया। तब राधा-कृष्ण का प्रेम ही हमारे मन-मस्तिष्क में छा गया। गीता में वर्णित भगवान् श्रीकृष्ण की शिक्षाओं को दर्शन-शास्त्र का विषय बनाकर उसे भी जन साधारण की पहुँच से परे कर दिया गया। यह सब अवश्य ही एक सोची समझी साजिश तो थी ही, हम हिन्दू भी न सिर्फ इस साजिश का शिकार हुए बल्कि इससे मोहित होकर अपनी संस्कृति का सत्यानाश करने में संलग्न हो गए! 

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March 21, 2025

The Spiritual Dharma.

चिरंतन और सनातन

पुराकथा

सुर और असुर वैसे ही सनातन और चिरंतन हैं जैसे कि प्रकृति और पुरुष। पुरुष और प्रकृति भी एक दूसरे से अभिन्न हैं। एक ही अद्वैत अस्तित्व को बुद्धि के सक्रिय होने पर इन दो प्रकारों में विभाजित कर दिया जाता है। बुद्धि के सक्रिय होने से पहले के अस्तित्व का आगमन जिस स्रोत से होता है और जहाँ पर बुद्धि पुनः विलीन हो जाया करती है उस अनिर्वचनीय संपूर्ण और अखंड को नाद के रूप में प्रणव की तरह से व्यक्त अस्तित्व और ॐ की तरह से अव्यक्त के रूप में जाना जा सकता है। कोई ऋषि ही इन दोनों की अनन्यता और अभिन्नता को इस तरह से जान पाता है। स्वयं ईश्वर भी इस वास्तविकता से शासित है। यद्यपि वह भी इस वास्तविकता को जानता है किन्तु केवल लीला की परंपरा का पालन करने के लिए स्वयं को शासक और शासित की भिन्नता के आभासी विभाजन में निरूपित कर, अव्यक्त से व्यक्त तथा व्यक्त से अव्यक्त में परिवर्तित होता रहता है।

व्यक्त ईश्वर स्वयं भी जीव की कल्पना और बुद्धि द्वारा सृजित उसकी मान्यता और धारणा में बँधा होता है। वे दोनों अन्योन्याश्रित व्यक्त और अव्यक्त वास्तविकता हैं। ॐ से क्रमशः भूः और भुवः की अभिव्यक्ति होने के बाद ही ईश्वर स्व के रूप में व्यक्त रूप ग्रहण करता है। यही स्व अहं की तरह ईश्वर, और अहंकार के रूप में जीव हो जाता है। इस प्रकार से ईश्वर भी केवल लीला के प्रयोजन से तात्कालिक और क्षणिक रूप से अज्ञान से आवरित हो जाया करता है या जीव की दृष्टि में उसे प्रतीत होता है। वही ईश्वर शासक के रूप में प्रभु और शासित के रूप में विभु होता है। जीव जब इस काल्पनिक या वास्तविक  ईश्वर के प्रति शरणागत हो जाता है या स्वयं अपने और उसमें विद्यमान अन्तर्निहित आत्मा की जिज्ञासा कर उस वास्तविकता को जान लेता है तो जीवरूपी अहंकार तथा अहं रूपी ईश्वर के बीच का काल्पनिक विभाजन विलीन हो जाता है और एक ही अद्वैत परमार्थ द्योतित हो जाता है। यह नित अभिनव, नित पुरातन और नित चिरंतन भी है।

सुर तथा असुर के रूप में प्रकृति की दो अभिव्यक्तियों की संपत्ति को ही क्रमशः दैवी और आसुरी संपत्ति कहा जाता है। आसुरी संपत्ति तो जीव के लिए बंधन हो जाया करती है जबकि दैवी उसे बंधन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए सहायक होती है।

इसी प्रकार सुरों और असुरों की प्रवृत्तियाँ भी एक दूसरे से भिन्न प्रकार की होती हैं।

प्रकृति और पुरुष के रूप में उनकी सकलता को व्यक्त ब्रह्म कहा जाता है, और उन दोनों के व्यक्त और अव्यक्त रूप की अनन्यता, अभिन्नता को स्वरूप या परब्रह्म कहा जाता है।

इसलिए ईश्वर और जीव परब्रह्म परमात्मा के ही क्रमशः बड़े और छोटे पुत्र, अर्थात् एक दूसरे के क्रमशः वैसे ही ज्येष्ठ और कनिष्ठ भ्राता हैं, जैसे राम और लक्ष्मण। या उन्हें कृष्ण और बलराम की तरह भी देखा जा सकता है जहाँ ईश्वर कनिष्ठ भ्राता और जीव ज्येष्ठ भ्राता है। क्योंकि दोनों ही एक दूसरे पर आश्रित यथार्थ हैं।

दिति और अदिति के पुत्रों अर्थात् देवताओं और दैत्यों के बीच उनकी प्रवृत्ति और संपत्ति के आधार पर मतभेद थे। देवता भी दैत्यों की ही तरह ईर्ष्या, भय,  लोभ, राग तथा द्वेष से युक्त थे। बृहस्पति देवताओं के पुरोहित थे जबकि आचार्य भृगु दैत्यों के।

देवता और दैत्य दोनों ही परम पिता परमेश्वर अर्थात् उनके ईश्वर की पूजा-आराधना शिव, हर या रुद्र के रूप में करते थे जबकि देवता हरि के रूप में विष्णु की पूजा-आराधना भी किया करते थे। जबकि देवता होने से ब्रह्मा का कार्य सृष्टि करने तक था, और विष्णु का कार्य सृष्टि की रक्षा तथा परिपालन करने तक सीमित था और शिव का कार्य सृष्टि का संहार (विनाश नहीं) करना था। क्योंकि जैसा गीता अध्याय २ में कहा गया है -

अविनाशी तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।

विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति।।१७।।

देवताओं और दैत्यों के बीच का यह संघर्ष भी उतना ही  और वैसा ही शाश्वत, पुरातन,  सनातन और चिरंतन है,  जैसा कि दैवी और आसुरी प्रवृत्तियों और संपत्तियों के बीच का संघर्ष है।

विष्णु इसलिए देवताओं के पक्ष में कार्य करते हैं, जबकि शिव देवताओं और दैत्यों के बीच भेद नहीं करते, जो भी कोई उनकी पूजा आराधना कर उन्हें प्रसन्न कर लेता है  उसे वरदान देकर उसकी कामनाएँ पूर्ण कर देते हैं। 

देवता स्वर्गलोक में रहते हुए आमोद प्रमोद करते रहते हैं जबकि जीव मृत्यु-लोक में रहते हैं, और अपने शुभ तथा  अशुभ कर्मों के अनुसार मृत्यु होने से पहले और बाद में भी स्वर्ग और नरक में रहा करते हैं। देवता भी पुण्य क्षीण हो जाने पर मृत्यु-लोक में लौट आते हैं और कर्मशृँखला में बँधे नए नए कर्मों के माध्यम से सदैव सुख दुःख पाते रहते हैं। इनसे भिन्न एक वर्ग है ऋषियों का जो नित्य ही परमेश्वर या परब्रह्म की प्राप्ति, भवसागर से मुक्ति की कामना से या सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं। वेद और पुराण का इन ऋषियों के द्वारा अध्ययन किया जाता है। वेद ईश्वरीय विधान के प्रक्रिया ग्रन्थ हैं, पुराण प्रकरण और कथा की शैली में धर्म और अध्यात्म का वर्णन और विवेचना करते हैं। 

भृगु ऐसे ही ऋषि हैं जो सप्तर्षियों में से एक हैं, जबकि मनु उन मनुष्यों का वर्ग है जो भिन्न भिन्न समय पर जन्म लेते हैं और धर्म को परिभाषित करते हुए मनुष्यों के लिए उसकी शिक्षा देते हैं। इस प्रकार के चौदह मनु हैं जिनका वर्णन शास्त्रों में पाया जाता है। मनु के रूप में जन्म लेने वाले मनुष्यों के काल को मन्वन्तर कहा जाता है। इनमें से एक हैं सावर्णि मनु Emmanuel, जो छाया के सूर्य से उत्पन्न पुत्र हैं जबकि वैवस्वत्, विवस्वान् सूर्य के संज्ञा से उत्पन्न पुत्र हैं।

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्। 

विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।१।।

(श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय४)

भृगु के ही वंश में आचार्य शुक्र का जन्म हुआ और उन्हें दैत्यों ने अपने पुरोहित के रूप में स्वीकार किया क्योंकि बृहस्पति या कि दूसरे ब्राह्मण ने विष्णु के अनुयायी होने के कारण दैत्यों का पुरोहित होना स्वीकार नहीं किया। 

इसी प्रकार शिव के उपासक जाबाल / जाबालि ऋषि ने देवताओं और दैत्यों में भेद न करते हुए ईश्वर या परमेश्वर की तत्व की प्राप्ति करने हेतु शिव की उपासना करने की शिक्षा दी।

इसलिए केवल जाबाल ऋषि  Gabriel / जिबरील ही एकमात्र वह ऋषि थे जो ऋषि शौनक और ऋषि अंगिरा  Angel की परंपरा में थे, जिनका तीनों ही अब्राहमिक परंपराओं में उल्लेख पाया जाता है जिन्होंने उन तीनों ही परंपराओं के प्रविदों / Prophets  को मार्गदर्शन दिया। देवताओं और दैत्यों के युद्ध के समय एक बार देवताओं से अपनी रक्षा करने के लिए दैत्यों ने शुक्राचार्य अर्थात् भृगु ऋषि के आश्रम में शरण ली। भृगु ऋषि उस समय किसी कार्य से आश्रम से बाहर कहीं गए हुए थे तो भृगु  ऋषि की पत्नी ने उन्हें शरण दी। जब त्रषि की पत्नी का विष्णु से सामना हुआ तो विष्णु ने अपने चक्र से उसका वध कर दिया। जब ऋषि लौटे और उन्हें इस वृत्तान्त का पता चला तो उन्होंने विष्णु को शाप दिया कि त्रेतायुग में उन्हें भी मनुष्य की तरह मृत्यलोक में अवतरित होना या जन्म लेना होगा। इसलिए श्रीराम के रूप में राजा दशरथ के पुत्र के रूप में अयोध्या में विष्णु का जन्म हुआ।

परब्रह्म-परमात्मा, ईश्वर, ब्रह्म, अब्रह्म और जीव के बीच का भेद इस पुराकथा से समझा जा सकता है।

इजिप्ट से मनुष्यों के जिस कबीले को फराओं के द्वारा निष्कासित किया गया था उस कबीले ने दो ही पाप किए थे। पहला पाप था गोवध और दूसरा था मूर्तिपूजा और बहुदेवतावाद की निन्दा करना। 

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March 20, 2025

The Charioteer.

सेतु पर रथ 

सेतु पर खड़ा है रथ, और रथ पर है आरूढ,

अज्ञ, एक संशयग्रस्त, और श्रद्धारहित मूढ,

पूछता है सखा से वह, सारथी से - हे प्रभो!

कर्तव्य मेरा क्या है, कहो मुझसे रहस्य गूढ!

सारथी ने कहा उससे, मित्र सुनो मेरा वचन --

कर्तव्यमकर्तव्यमन्यथा यच्च तव कर्तव्यं ।

तस्य किमपि प्रमाणञ्च त्वया यच्चावगन्तव्यम्।।

कथं ज्ञातुं शक्नोसि तदस्मिन्विकटे च विषमे।

तथापि तव श्रेयार्थं कथयिष्यामि तुभ्यमहम्।।

द्वे हि मार्गेऽत्र अवलम्बितव्ये ये त्वया।

प्रथमं तु ज्ञानयोगमन्यं तु यत्कर्मयोगम्।।

द्वे हि तेऽपि प्राप्तव्ये अध्यवसायतत्परेण।

व्यवसायात्मिका बुद्धिः यस्याप्तव्यं तेनैव।।

यो हि विगतमोहबुद्धिः वीतहर्षामर्षभयम्।

रागद्वेषवियुक्तो यः तेनैव तु इदमाप्तव्यं।।

इति श्रुत्वा रथारूढो त्वरितो हि तूष्णीं बभूव। 

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा सारथिं प्रोक्तवानिति।।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादात्मयाऽच्युत।

स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।

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इति श्रुत्वा रथारूढो त्वरितो हि तूष्णीं बभूव। 

आत्मसंस्थं मनः कृत्वा सारथिं प्रोक्तवानिति।।

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादात्मयाऽच्युत।

स्थितोऽस्मिगत सन्देहः करिष्ये वचनं तव।। ***




 

  





March 11, 2025

11032025 / Poetry

कौन लेता है साँस?

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अब तक कभी खयाल न था, 

दो दिनों पहले ही खयाल आया,

कौन लेता है साँस?

क्योंकि मैं तो नहीं लेता खुद!!

क्योंकि अगर मैं ही लेता,

तो भूल भी सकता था!

और अगर तय कर लेता, 

साँस को रोक भी नहीं सकता, 

इसलिए कोई और ही है जो, 

साँस लेता है, या नहीं लेता, 

वो मन या शरीर भी नहीं,

प्राण या संकल्प भी नहीं, 

इच्छा, भय या चिन्ता भी नहीं,

हाँ वही है यह तो कोई,

जो मेरे जागने सोने में,

जीने मरने, हँसने रोने में,

कुछ भी होने,  न-होने में, 

जो साँस लेता है, या नहीं लेता, 

हाँ जब वह साँस नहीं लेता, 

मुझको पता तो जरूर चलता है,

और फिर चाहकर भी मैं,

साँस को शुरू भी नहीं कर सकता!

तय है वही है, जो लेता है, 

या वही है, जो नहीं लेता, 

जिससे जीवन ही है यह,

जिससे ही शरीर भी है,

जिससे ही मन प्राण भी हैं,

जिससे इच्छा, भय संकल्प भी हैं,

जिससे संसार भी है, 

जिससे यह "जानना" भी है,

और यह "न-जानना" भी है!

और यह प्रश्न, जिज्ञासा भी है, 

कौन लेता है साँस, 

क्योंकि मैं तो नहीं लेता खुद! 

वह जो साँस लिया करता है,

या कभी कभी नहीं भी लेता, 

वह मैं तो नहीं हो सकता, 

तो वही तो कहीं ईश्वर ही नहीं?

और मैं उसको भूलकर खुद को, 

समझा करता था कि मैं ही हूँ,

जो साँस लेता है या नहीं लेता!

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March 08, 2025

कविता / 08032025

एक जिज्ञासा!

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मेरे व्हॉट्स ऐप से 

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साँस क्यों चलती है,

ये किसकी गलती है,

कौन लेता है साँस,

उम्र क्यों ढलती है, 

एक अफसोस बना रहता है,

जिन्दगी यूँ ही क्यों चलती है!

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February 21, 2025

The Nature of Mind.

मानसं तु किम्? 

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वे लोग अभी तक किसी भाषा का आविष्कार नहीं कर सके थे। न तो सांकेतिक, न शाब्दिक ध्वन्यात्मक वर्णों आदि में बोली जानेवाली या वर्णात्मक लिपि में लिखी जानेवाली। उन्हें इसकी कमी भी महसूस नहीं होती थी क्योंकि वे अपनी भावनाओं को केवल तात्कालिक रूप से ही व्यक्त होने देते थे और उन्हें छिपाने के बारे में उन्हें कोई कल्पना तक नहीं थी।

उसके साथ भी यही था। उसे यह तो पता था कि लाल, नीला और हरा रंग किस प्रकार परस्पर भिन्न हैं किन्तु उसका ध्यान कभी इस पर नहीं जा पाया था कि उनमें विद्यमान 'रंग' नामक समान तत्व क्या है! और वैसे ही उसे विभिन्न ध्वनियों की पहचान भी थी किन्तु ध्वनि और रंगों की कोई पहचान उसके मन में अभी तक परिभाषित और स्थिर नहीं हो सकी थी। 

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Trans and Transcendence.

अतिमानस और अतिचेतन

Transcendental Mind And Transcendental Consciousness.

उसे रंगबिरंगी वस्तुओं में रुचि थी। शुरू में तो उसने कुछ बड़े बड़े पत्थर जमा किए थे और एक कमरा बना लिया था जिस पर उसने पेड़ों के पत्ते, और कुछ सूखी टहनियाँ रखकर अपने रहने के लिए एक सुविधाजनक पर्णकुटी जैसा घर भी बना लिया था। जंगल में अपनी इच्छानुसार वह जहाँ तहाँ घूमते हुए थक चुकी होती तो उस पर्णकुटी में आराम कर सकती थी। पत्थरों की बनी वे चार दीवारें जिनकी ऊँचाई उसके कद से थोड़ी सी अधिक थी। वह लगभग हर रोज ही उस घर में कुछ न कुछ नया बदलाव किया करती थी। जब उसे महसूस हुआ कि उस घर में हाथों को ऊपर की ओर फैलाने में घास फूस और पत्तों से बनी छत रुकावट डालने लगी है तो उसने दीवारों की ऊँचाई और बढ़ा दी। और वैसे भी उसे तब यह भी समझ में आ चुका था कि अब उसकी ऊँचाई भी बढ़ रही है।

उसका अतिथि मित्र जब पुनः अपने समुदाय के लोगों के साथ आया था तो वे लोग यह देखकर बहुत खुश हुए थे कि आसपास बहुत से ऐसे पत्थर थे, जिन्हें आग में तपा कर गलाया जा सकता था। और फिर ठोक पीटकर उन्हें वाञ्छित आकार की वस्तुओं में ढाला जा सकता था। यूँ कह सकते हैं कि यह समय "लौह युग" / "Iron Age" का समय रहा होगा।

उनका यह सारा ज्ञान बिना किसी भाषा के ही आनेवाली नई पीढ़ी को वे संप्रेषित कर देते थे। क्योंकि हर तरह का संपूर्ण तकनीकी ज्ञान ऐसा ही होता है। तकनीक तो यंत्र भी सीख लेते हैं, क्योंकि उन्हें बनाना भी तकनीक ही है।

वे लोग अलग अलग प्रकारों के लोहे से भिन्न भिन्न तरह की वस्तुएँ जैसे कुल्हाड़ी, चाकू, तलवार और धनुष से चलाए जानेवाले बाण भी बनाया करते थे।

उनमें एक व्यक्ति ऐसा भी था जो उस दल का मुखिया था और सभी उसकी आज्ञा के अनुसार अपना अपना कार्य करते थे। इसी तरह और भी दो तीन व्यक्ति थे जो उससे कम आयु के युवा थे, जबकि वह अब काफी बूढ़ा हो चुका था।

उसकी आज्ञा को मानने का एक और कारण था क्योंकि ऐसा समझा जाता था कि उसका संपर्क कुछ ऐसे अदृश्य लोगों से होता है जो उसे मार्गदर्शन देते हैं। यह वैसे कुछ अविश्वसनीय प्रतीत होता है, किन्तु उनमें से लगभग हर कोई अपने अनुभवों से भी जानता था और उसे लगता था कि ये अदृश्य लोग वही हैं, जिनकी कभी मृत्यु हो जाती है और उनके शरीर के नष्ट हो जाने पर, उनके शरीर को पूरी तरह से जलाकर राख कर दिए जाने पर भी वे किसी किसी को दिखाई देते हैं और उनमें से प्रायः हर किसी को यह बिल्कुल स्वाभाविक प्रतीत होता था इसलिए इस पर किसी को संदेह ही नहीं था।

चुम्बकीय लोहा

इसका दूसरा प्रमाण उनके पास यह भी था कि जब ऐसे किसी व्यक्ति की स्वप्न जैसी अवस्था में उन अदृश्य लोगों से भेंट होती तो इसकी सत्यता की परीक्षा वे कर सकते थे। और यह जानकारी भी उन्हें बहुत पहले से थी। न जाने कितनी पीढ़ियों पहले से।

यह प्रमाण बहुत सरल था।

वे रात्रि को सोते समय अपने सिरहाने पर बिस्तर के नीचे लोहे का बना कोई चाकू रखा करते थे और प्रायः जब भी उन्हें लगता कि स्वप्न में उनकी किसी अदृश्य व्यक्ति से मुलाकात हुई थी तो उस चाकू को लोहे की बनी किसी दूसरी वस्तु से स्पर्श कर इसकी पुष्टि भी कर सकते थे कि उस चाकू को उस अदृश्य वस्तु की आत्मा ने स्पर्श किया और इसलिए उसमें चुम्बकीय गुण प्रविष्ट हो गया। उसे यह रोचक प्रतीत हुआ और जब एक दिन स्वयं उसे भी ऐसा महसूस हुआ तो उसे उन अदृश्य लोगों और उनकी इस सत्ता पर विश्वास हो गया।

उस समुदाय का प्रमुख इसलिए भी विशिष्ट था कि उसे यह अच्छी तरह से पता था कि भिन्न भिन्न तरह के ऐसे अदृश्य व्यक्तियों से कैसे मिला जा सकता है और उनसे मिलना कितना उचित या अनुचित हो सकता है, कितना निरापद और भयावह या खतरनाक भी हो सकता है।

फिर उसे एक दिन यह रहस्य भी समझ में आ गया कि क्यों उसका अतिथि मित्र एक दिन अचानक उसे बताए बिना कहीं चला गया था। और जब बहुत दिनों बाद वह  अपने समुदाय के साथ लौटा था तो समुदाय प्रमुख और उसके साथ की उसकी साथी स्त्री ने कुछ वनस्पतियों को जलाकर विशेष सुगंध फैलाकर कुछ अदृश्य लोगों को निमंत्रित किया था और उसके अतिथि मित्र के साथ उन दोनों के वस्त्रों में गाँठ लगाकर उन दोनों को जलती हुई अग्नि की परिक्रमा करने के लिए कहा था। उसे यह सब विस्मयपूर्ण और कौतूहल भरा लगा था किन्तु यह समझ में आ गया कि एक स्त्री और एक पुरुष के बीच संतान की उत्पत्ति करने के लिए तय किए जानेवाले इस विधान का क्या महत्व है और यह एक सर्वाधिक और अत्यन्त पावन संस्कार है। यद्यपि उसके पास ये सारे शब्द नहीं थे किन्तु अग्नि में विद्यमान जिस तेजस्वी पुरुष के दर्शन उसे उस समय हुए वह औरों के लिए शायद अदृश्य ही रहा होगा ऐसा उसे लगा।

वह प्रायः उस समुदाय की स्त्रियों के साथ वन में फल, फूल, वनस्पतियाँ और खनिज द्रव्य लेने जाया करती थी और वही उसे वह गुप्त विद्या प्राप्त हुई कि किस प्रकार लाख, lac. गोंद, glue / gum,  राल, गुग्गलु, चंदन, आदि सुगंधित  incense वनस्पतियों को जलाकर भिन्न भिन्न प्रकार के अदृश्य व्यक्तियों को आकर्षित किया जा सकता है या दूर भी रखा जा सकता है। उस समुदाय का वह विशिष्ट व्यक्ति इन लक्ष्यों को भली भाँति जानता था और कभी कभी इन अच्छे या बुरे लोगों का चित्र बनाकर भी उनसे हुई उसकी मुलाकात का वर्णन किया करता था। विशेष रूप से तब जब वह विधि विधान पूर्वक ऐसा कोई अनुष्ठान करता। और लोगों के लिए यह सब समझ सकना कठिन था किन्तु सभी को यह स्पष्ट हो गया था कि ऐसे अदृश्य व्यक्तियों का अस्तित्व है जिनसे संपर्क भी किया जा सकता है। किन्तु हम लोगों द्वारा बोली और लिखी जानेवाली किसी बौद्धिक भाषा से उनका कोई परिचय तब तक नहीं हुआ था इसलिए वे राक्षस, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर और देवताओं इत्यादि को जानते हुए भी उनके लिए प्रयुक्त किए जानेवाले किसी शब्द से पूरी तरह से अनभिज्ञ थे। वे एकेश्वरवादी या बहुदेवतावादी भी नहीं थे और इन अदृश्य व्यक्तियों को अपनी बुद्धि द्वारा जानी गई विशेष शक्तियों की तरह जानते थे। उन्हें प्रेत-धर्म भी ज्ञात नहीं था क्योंकि उनके समुदाय में किसी की मृत्यु हो जाने पर समुदाय का मुखिया ही तय करता था कि उसके वश की अंत्येष्टि कैसे की जाए। वे यह तो जानते थे कि मृत्यु हो जाने के बाद भी कोई अदृश्य रूप से अस्तित्वमान रहता है, किन्तु उन्हें इस बारे में नहीं पता था कि क्या ऐसे अदृश्य व्यक्ति का जन्म पुनः किसी नए शरीर में उस तरह से होता है जैसे कि उन सब लोगों का जन्म किसी समय हुआ था। किन्तु देवताओं और ऐसे ही अन्य अदृश्य व्यक्तियों अर्थात् ऋषियों से संपर्क होने के बाद पहले मंत्रों से और फिर अनुष्ठानों को पूर्ण करने से उनमें वैदिक ज्ञान के प्रति जागृति हुई और उस चिरंतन,  शाश्वत और अविनश्वर वस्तु से भी उनका परिचय हुआ, जिसे सामान्यतः। सत्य,  ब्रह्म, आत्मा या परमात्मा कहा जाता है।

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This Moment of NOW

स्मृति कल्पना और संसार

तब समय नहीं था, क्योंकि न तो समय अतीत की स्मृति की तरह और न भविष्य की कल्पना की तरह अनुभव हो सकता था। वहाँ निपट वर्तमान था जो न आया था और न ही कभी आनेवाला था। क्योंकि उनके पास मन में न तो अतीत की कोई स्मृति थी और न ही भविष्य का कोई अनुमान या कल्पना ही थी। हाँ, वह प्रत्यक्ष और आसन्न वर्तमान अवश्य होता था जो भावी की संभावना के रूप में उनके मनःचक्षुओं के सामने उनके समक्ष चित्र के रूप में होता था। किन्तु ऐसा अनायास, बहुत ही कम अवसरों पर होता था जो न तो अतीत में घटित किसी घटना की स्मृति का दोहराव होता था और न ही भविष्य की किसी संभावना पूर्वानुमान या कल्पना हो सकता था। इसलिए वे उस "समय" से अनभिज्ञ थे जो हमें शीघ्रता से या धीरे धीरे बीतता हुआ प्रतीत होता रहता है। किन्तु जब उनमें वस्तुओं और घटनाओं की चित्रात्मक और ध्वन्यात्मक स्मृति बनना शुरू हुआ तो उसके फलस्वरूप वही उस काल्पनिक जगत से उनका प्रथम परिचय था जो क्रमशः दृश्यश्रव्य स्मृति के रूप में उनके मन में बसने लगा। जब वह भाषा नामक उस माध्यम / interface से अनभिज्ञ थी, जिसे कि उसके अतिथि मित्र के आगमन के बाद उन दोनों ने मिलकर बनाया था, और जो कि ऐसी नई खोज / discovery  नहीं, बल्कि बस संयोगवश ही बन गई प्रणाली / system,  स्मृति और कल्पना से उत्पन्न और "जानकारी" के रूप में प्राप्त तथाकथित वह "ज्ञान" था, जिसका वर्गीकरण उन्होंने प्रमादवश, अनवधानता और बस लापरवाही से ही तथाकथित अतीत और भविष्य में कर लिया था। और इस तरह से वे वर्तमान वास्तविकता (This Moment of Now) से पूरी तरह से विच्छिन्न हो चुके थे। उन्हें कभी यह पता तक न चल सका कि इस प्रकार जिस स्वर्ग में वे अब तक आनन्दपूर्वक जी रहे थे, उससे कैसे अचानक बहिष्कृत हो गए थे और फिर ऐसा भी नहीं कि किसी और ईश्वर या परमात्मा या ऐसी किसी शक्ति ने उन्हें उस स्वर्ग से धकेलकर बाहर कर दिया था।

यह ज्ञान का फल था जिसके आस्वाद, स्पर्श, स्वर, रंग-रूप और गंध से वे मोहित और अभिभूत थे।

कल्पना और स्मृति के संयोग से भाषा की निर्मिति कर लेने के बाद इस माध्यम (interface) से वे कल्पनाओं को और अधिक विकसित, परिवर्धित और समृद्ध करने लगे थे और जिस समय की अवधारणा ने उनकी स्मृति में जन्म लिया उसका विस्तार अतीत में और भविष्य में  दूर तक था जिसे कि उन्होंने क्रमशः अनादि और अनन्त का नाम दिया था।

यह ज्ञान, भान या बोध नहीं, उसका विकल्प था जिसे 

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।

से परिभाषित किया जा सकता है और इस तरह एक प्रकार की वृत्ति ही था। 

यह ज्ञान उस सहज भान से अत्यन्त भिन्न था जो इससे पहले उनके पास सहज जीवन की तरह उनका स्वर्ग था।

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