June 29, 2025

Dead As Dodo.

लाहौर से कपिलवस्तु 

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तस्य लोपः

उपदेशे हलि अन्त्यस्य लोपो स्यात्।।

भगवान शिव के ढक्का से उद्भूत अक्षरसमाम्नाय के १४ सूत्रों का श्रवण करने के पश्चात् महर्षि पाणिनी के द्वारा संस्कृत भाषा के व्याकरण की रचना की गई।

"हल्" प्रत्याहार "हयवरट्" उपदेश से "शषसर्" ... "हल्" उपदेश तक प्रयुक्त व्यञ्जनों की समष्टि है।

समझा जाता है कि उनका जन्म अविभाजित भारत के पञ्जाब में "लहातुर" नामक स्थान पर हुआ था, जिसे बाद में "लाहौर" कहा जाने लगा। 

उसी पञ्च-आप अर्थात् पञ्जाब में जहाँ महर्षि अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोळ / कहोड का जन्म हुआ था और उसे बाद में कहूटा कहा जाने लगा जो कि भारतवर्ष के विभाजन के बाद वर्तमान समय में पाकिस्तान में है, जहाँ पाकिस्तान का यूरेनियम संवर्धन प्लांट स्थित है।

महर्षि अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। ऋषि कहोड को राजदरबार में वरुण (देव) के द्वारा नियुक्त किसी विद्वान से हार का सामना करना पड़ा था और इसके फलस्वरूप उन्हें वहाँ से बन्दी बनाकर समुद्र पार वरुण के देश में निर्वासित कर दिया गया था। अष्टावक्र के जन्म के बाद जब वह बारह वर्ष की आयु के थे, उन्हें इसका पता चला तो वे राजा के दरबार जा पहुँचे और राजा वरुण द्वारा नियुक्त उस विद्वान को शास्त्रार्थ में हरा कर पिता को वरुण के बन्दीगृह से मुक्त करवाया। वरुण वैसे भी पश्चिम दिशा के दिक्पाल और वसु हैं और उनके यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उन्हें वैदिक कर्मकाण्ड में निष्णात पंडितों की आवश्यकता थी और इसीलिए उन्होंने ऐसे पंडितों को उनके देश में एकत्रित करने के उद्देश्य से यह जाल रचा था। कैसे ऋषि कहोड का जन्म बाद में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र के रूप में हुआ जिसे सिद्धार्थ का नाम प्राप्त हुआ था, और कैसे राजकुमार सिद्धार्थ ने घोर तप के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया था, कैसे अष्टावक्र की माता जो कि सिद्धार्थ के इस जन्म के समय में वनदेवी के रूप में अवतरित हुई थी और कहोड का अनुसरण करती हुई उनकी सेवा में सतत संलग्न थी, और सिद्धार्थ को उस समय खीर प्रदान की थी जब वे निरञ्जना नदी से स्नान कर बाहर आए थे और अत्यन्त कृश और दुर्बल हो जाने के कारण थककर बोधिवृक्ष तले  बैठ गए थे, इस बारे में विस्तार से मेरे इसी या स्वाध्याय ब्लॉग में मैं लिख चुका हूँ। यहाँ केवल संदर्भ के लिए इसका उल्लेख कर रहा हूँ। यहाँ पर मुख्य ध्येय है - महर्षि पाणिनी के जीवन के एक प्रसंग के बारे में लिखना।

यह तो प्रख्यात है कि पाणिनी की अष्टाध्यायी के सूत्र

डुकृञ्करणे

को आधार बनाकर आदि शंकराचार्य ने द्वादशपञ्जरिका और चर्पटपञ्जरिका आदि सतोत्रों की रचना की, किन्तु यह भी कहा जाता है कि स्वयं महर्षि पाणिनी ने भी इस सूत्र को एक दूसरी कथा में आधार की तरह प्रयुक्त किया था। उसकी कथा यह है -

महर्षि अपने गुरुकुल में छात्रवृन्द के मध्य अपने आसन पर वटवृक्ष के तले विराजमान थे। ज्ञानयज्ञ अर्थात् वहाँ उपस्थित एक वृद्ध ने महर्षि से निवेदन किया -

भगवन्! 

कृपया इस सूत्र पर प्रकाश डालें ताकि हमारे ज्ञानचक्षु खुल सकें। महर्षि ने कुछ दूर पर स्थित एक वृक्ष की ओर संकेत किया और बोले -

उस वृक्ष पर अनेक पक्षी उसके फलों का भक्षण करने के लिए आते हैं उस फल का भक्षण करने पर उसके बीज भी उनके पेट में चले जाते हैं। उस वृक्ष का संस्कृत नाम तो डुडु है, जो उकारान्त पुंल्लिंग पद है और उसके रूप प्रथम विभक्ति में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में -

डुडु डुडू डुडवः

इस प्रकार से होंगे। 

तो जब विभिन्न पक्षी उस वृक्ष के फलों का भक्षण करते हैं और पेट में पच जाने के बाद में बीज जब उन पक्षियों के मल के साथ निकल जाते हैं। लेकिन उनका आवरण कठोर होता है इसलिए वे सड़-गल नष्ट हो जाते हैं और उनका अंकुरण नहीं है पाता। किन्तु उन पक्षियों में केवल एक पक्षी ऐसा भी होता है जिसके पेट में जाने के बाद इन बीजों पर का कठोर आवरण उसके पेट में ही गल जाता है और तब वे बीज उसके मल के साथ जब बाहर निकल जाते हैं तो आसानी से अंकुरित हो जाते हैं। इस प्रकार वह पक्षी और यह वृक्ष दोनों का अस्तित्व सदैव बना रहता है। उस पक्षी का प्रसिद्ध नाम "डुडु" शायद इसीलिए है। वृक्ष और पक्षी दोनों को इसी नाम से जाना जाता है।

जैसा कि स्पष्ट है, "डु" और "कृ" / "कृञ्" क्रियापद हैं जो कृत्य या कर्म की प्रक्रिया के द्योतक हैं।

(यह समझना कठिन नहीं है कि अंग्रेजी भाषा में 

Do और Create

इन्हीं दोनों क्रियापदों  verb-roots के सजात / सज्ञात / cognate  हैं। क्योंकि उनके उच्चारण और अर्थ -

Pronunciation and phonetic sense

से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।)

अब ज्ञान और अज्ञान के बारे में -

धारणा ही अज्ञान है और धारणा रहने तक अज्ञान और अज्ञान रहने तक धारणा व्यक्त से अव्यक्त और अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करते रहते हैं।

अज्ञान और धारणा, ठीक इस "डुडु" वृक्ष और पक्षी की तरह अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए इसे ही पतञ्जलि महर्षि ने "वृत्ति" कहा है। वृत्ति का निरोध, एकाग्रता और संयम तो हो सकता है किन्तु मन का अस्तित्व रहने तक किया नहीं जा सकता। क्योंकि मन ही वृत्ति है और वृत्ति ही मन है और अहं-वृत्ति ही समस्त वृत्तियों का मूल है और सभी वृत्तियाँ अहं-वृत्ति का ही प्रकार हैं। 

धारणा के रहने तक अज्ञान का और अज्ञान के रहने तक धारणा का आभासी अस्तित्व बना रहता है। यह दुष्चक्र तभी विलीन होता है जब विचार को विचारकर्ता,और विचारकर्ता को विचार की तरह, एक ही वस्तु की तरह देख लिया जाता है।

"देखना" (Awareness) कर्म नहीं स्वभाव है।

इतना कहकर महर्षि मौन हो गए। 

***

 


 


June 26, 2025

Thursday -26-06-2025

नर्मदा तट, सातधारा

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दो तीन दिनों से बारिशें शुरू हो गई हैं।

उम्मीद है हफ्ते भर में मौसम खुशनुमा हो जाएगा।

कभी खुला आकाश, कभी बादलों की घुमक्कड़ी, और कभी हवा का बेतरतीब इधर उधर दौड़ते रहना। सुबह शाम और अब तो दोपहर में भी नदी तट पर घूमते रहना, कहीं भी बैठ जाना, कभी भी उठकर चल देना सब कुछ अपनी मनमर्जी से!

उमस कभी कभी तो होगी ही। तेज धूप भी कभी कभी। संध्या के समय नर्मदा के तट पर घूमते हुए स्व. दुष्यन्त कुमार की पंक्तियाँ याद आईं -

तुमको सुबह से निहारता हूँ ऋतंभरा,

अब शाम हो रही है परन्तु मन नहीं भरा!

और, 

धीरे धीरे पाँव बढ़ाओ, जल सोया है, छेड़ो मत,

हम सब अपने दीप सिराने इन्हीं तटों पर आयेंगे!!

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June 21, 2025

Thursday 19-06-2025

बारिशें / वारिशः 

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दो दिन बाद लिख रहा हूँ।  आज 21 जून 2025 है।

अंतरराष्ट्रीय योग-दिवस !

19 की सुबह शायद कोई ब्लॉग लिखा होगा।  07: 00 बजे प्रातःभ्रमण के लिए निकला। पुराने पुल पर दो तीन गायें बैठी थीं। मौसम आरामदेह था। छोटा सा वीडियो  बनाया जिसे बाद में डिलीट भी कर दिया। पुल से पार आसाराम आश्रम है। उससे पहले बाँई तरफ का रास्ता सूरजकुण्ड की ओर जाता है, दाईं ओर का रास्ता नये पुल की ओर। वहीं से लौट गया। पास की एक दुकान से 20-20 (twenty-twenty)  के पाँच रुपए वाले दो पैकेट खरीदे।  मन था कि पुल पर कौओं को खिला दूँ।  दोनों में छः छः बिस्किट थे। थोड़ा आगे चलकर एक पैकेट के, और फिर दस फुट की दूरी पर दूसरे पैकेट के बिस्कुट सड़क के किनारे रख दिए।  फिर वापस आ रहा था।  रास्ते पर तीन चार मिनट चला था कि एक कौआ रेलिंग पर बैठा दिखाई दिया। तभी दूसरी दिशा से उड़ता हुआ एक कौआ आकर मेरे सिर पर पल भर के लिए रुका और जैसे ही मैंने हाथ उठाया वह दूसरे कौए के पास जाकर रेलिंग पर बैठ गया तो मैंने उसे डाँटकर भगा दिया। मुझे उस पर गुस्सा नहीं आया था लेकिन खीझ जरूर हुई थी।

मोबाइल में समय देखा तो 07:31 बज रहे थे। सामने पुल के दूसरी तरफ जहाँ पश्चिम दिशा में शनि महाराज का मन्दिर है, उस तरफ ध्यान गया तक नहीं।

समय देखने का उद्देश्य तब यह था कि प्रश्न-कुण्डली बना कर उस पर सोचता, लेकिन फिर मन बदल गया। 

लौटकर घर आया, वॉश बेसिन में नल के नीचे सिर में साबुन लगा कर खूब अच्छी तरह सिर धोया लेकिन कौए के पंजों के क्षणिक स्पर्श की चुभन तब तक भी दूर न हो सकी।  अभी भी है! 

पिछले कितने ही वर्षों से मृत्यु के विषय में कुछ न कुछ सोचता रहा हूँ। वर्ष 2024 में चार परिचित और निकट के व्यक्ति दिवंगत हो चुके हैं। वैसे उनमें से किसी से भी संपर्क तक हुए अनेक वर्ष हो चुके हैं, लेकिन स्मृति अभी तक बाकी है।

जाने चले जाते हैं कहाँ! दुनिया से जानेवाले! 

क्या कौए का सिर पर बैठना कोई अपशकुन है? क्या यह मृत्यु के जल्दी आने का संकेत है?

(वैसे तो मैं किसी भी कौए को काक-भुशुंडि के ही रूप में देखता हूँ, इसलिए इस घटना को उनके आशीर्वाद की तरह भी मान सकता हूँ।) 

लेकिन मृत्यु की घटना (होने) का क्या अर्थ है। जिसे हम जीवित की तरह जानते हैं, उसकी मृत्यु हो जाने का पता चलने के पहले हम उसे कैसे जानते हैं? क्या हम उसके बारे में हमें प्राप्त जानकारी के आधार पर ही उसका कोई मानसिक चित्र ही नहीं बना लेते हैं, और यह नहीं सोचने लगते हैं कि वह इस इस प्रकार का है। यहाँ तक कि हम उसे उससे हमारे पारिवारिक संबंध के परिप्रेक्ष्य में भी जानने-पहचानने लगते हैं। हमें लगने लगता है कि हमें उससे बहुत प्रेम है और हम उसके न होने की कल्पना तक नहीं कर सकते। और अगर किसी व्यक्ति से हमारी शत्रुता हो जाती है तो हम न सिर्फ उसकी मृत्यु हो जाने की कल्पना बल्कि कभी कभी तो क्रोधवश ऐसी कामना भी करने लगते हैं। हमें कभी कभी इस पर ग्लानि और अपराध-बोध तक हो जाता है या हमें उससे किसी हद तक घृणा तक होने लगती है। और कभी संयोगवश हमें अगर उसकी मृत्यु होने की सूचना मिलती है, तो गहरा अफसोस और शर्म भी महसूस हो सकती है। कभी कभी तो बरसों तक भी हमारी यह भावना दिल से दूर नहीं हो पाती है। बरसों बाद हम उस व्यक्ति का नाम तक स्मरण नहीं कर पाते। शायद कोई घटना या स्थिति भर याद रह जाती है। तो मृत्यु क्या है। मेरे जितने निकट संबंधी और परिजन अब तक दिवंगत हो चुके हैं उनमें से एक दो को छोड़कर प्रायः सभी से (उनकी मृत्यु हो जाने के बाद) मैं अपने स्वप्न या स्वप्न जैसी किसी अर्धचेतन अवस्था में मिल चुका हूँ, और मुझे लगता है कि उनमें से कौन अब तक भी मृत्यु के बाद के किसी अन्य लोक में रह रहे हैं, और मैं इसे कल्पना या स्वप्न मानकर निरस्त नहीं कर सकता। पर वह कहानी फिर कभी।

शायद 19-06-2025 की ही सुबह मैंने किसी ब्लॉग में इस बारे में एक नई दृष्टि से गीता का यह श्लोक उद्धृत किया था -

अव्यक्तादीनि भूतानि मध्यव्यक्तानि भारत। 

अव्यक्तनिधनानन्येव तत्र का परिदेवना।।२८।।

(अध्याय २)

मुझे इसमें यत्किञ्चित भी संदेह नहीं है और मेरे मत में  यह तो तय और पूर्णतः सत्य ही है कि कोई भी मनुष्य मृत्यु होने पर पुराने शरीर को त्याग देता है, और उसके अनन्तर कुछ समय के लिए ऐसी ही अव्यक्त स्थिति में चला जाता है, और फिर अवश्य ही पुनः एक और नया शरीर धारण कर लेता है। जैसे हमें सुबह नींद से जाने पर नींद में देखे गए स्वप्न कुछ समय तक याद रहते हैं, और फिर हम उन्हें इस तरह भूल भी जाते हैं कि बहुत चेष्टा  करने पर भी हम उन्हें याद नहीं कर पाते, वैसा ही कुछ मृत्यु के बाद होता होगा। अगर हम किसी भी नवजात शिशु से उसके बारे में धीरे धीरे उससे पूछकर पता लगा सकें तो वह अवश्य ही उसके पिछले जन्म का नाम और दूसरी जानकारियाँ दे सकेगा। इसका इतना ही उपयोग है कि तब वैज्ञानिक रीति से हम समझ सकेंगे कि पुनर्जन्म की घटना कितनी सत्य है।

*** 

  





June 11, 2025

James Hadley Chaise.

यूँ ही बस याद आया!

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जब मैंने पहली बार यह पढ़ा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति कभी कभी इस pulp fiction novelist / पीत-पत्रकार लेेखक या उपन्यासकार जेम्स हेडली चेज़ को पढ़ते हैं तो मुझे थोड़ी हैरानी जरूर हुई थी। 

फिर बहुत बाद में उनके ही द्वारा लिखी गई किसी रचना में यह पढ़ा कि कैैसे एक शिकारी पक्षी क्रूरता से उसके शिकार दूूसरे एक छोटे पक्षी के टुकड़े कर रहा था, तो मैं शायद इस रहस्य को समझ सका।

करीब दस वर्षों पहले एक तस्वीर वायरल हुई थी -

दस रुपए के नोट पर किसी ने लिखा था -

"सोनम बेवफ़ा है!"

वास्तव में उस समय यह कौतूहल और मनोरंजन का ही एक विषय था जिसे हल्के फुल्के ढंग से लिया गया था। ऐसी बहुत सी कथा-कहानियों को प्रायः इसी तरह और टाइम पास करने के लिए पढ़ा जाता है और कुछ समय बीतते ही भुला भी दिया जाता है, लेकिन जब ऐसा कुछ अपने स्वयं पर या अपने से जुड़े किसी पर बीतता है, तो वह बस स्तब्ध कर देता है।

वर्ष 2000 तक मैं जिस मकान में रहा करता था, उसके सामनेवाले रोड के उस तरफ का मकान बहुत सुन्दर था। दोपहर के समय वहाँ कोई नहीं होता था और उस समय गेट पर ताला लगा होता था। गर्मियों के मौसम की ऐसी ही एक दोपहर जब मैं बाहर से लौटा तो उस मकान में एक बाज दिखलाई दिया था, जिसने अपने पंजे में एक मासूूम, बेबस गौरैया को जकड़ रखा था। उसे देखते ही मुझे जे. कृष्णमूर्ति की लिखी वह रचना याद आ गई। मुझे देखते ही वह तुुरंंत ही वहाँ से उसे लिए हुए फुर्र हो गया।

बहुत देर तक इस घटना से मेरा मन स्तब्ध रहा।

यह इस पर भी निर्भर करता है कि हम किससे जुुड़े होते हैं, और किससे हमारी कितनी आत्मीयता होती है। हो सकता है हमारी आत्मीयता बाज से हो, या गौरैया से। और तब वह घटना भी हमारे लिए वैसी ही महत्वपूर्ण या महत्वहीन हो सकती है।

तब मुझे लगा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति से तो अवश्य ही मेरी कुुछ आत्मीयता है।

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June 09, 2025

Friends.

P O E T R Y / कविता

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दोस्त मंजिल नहीं, बस पड़ाव होते हैं,

कभी फिसलन, कभी चढ़ाव होते हैं!

किसी भी मोड़ पर मुड़ जाते हैं,

घड़ी दो घड़ी के, लगाव होते हैं!

कभी सहारा, तो कभी चैन सुकून,

कभी तनाव या मनमुटाव होते हैं!

कभी लगाव और अलगाव कभी,

भरोसा, शक, या खिंचाव होते हैं!

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June 04, 2025

Extrovert / Introvert

शब्दावलि / Terminology

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Mind  is Attention  = ध्यान = चित्त

Identification = तादात्म्य  is either

अन्तर्मुुख /  बहिर्मुख / विषयाभिमुख / एकाग्र 

Extrovert  / Introvert / Focused / Distracted / Content, =

अन्तर्लीन / बहिर्लीन / एकाग्र / क्षिप्त / समाहित,

Meditation = Spiritual Practice.  = 

आध्यात्मिक साधना / अभ्यास 

With or Without Effort

अनायास / सायास,

Object / Subject,

विषय / विषयी,

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May 29, 2025

T. F. O. C. D.

Touch -Feet

Obsessive Compulsive Disorder.

I didn't know that I didn't know!

From the childhood, I was always told to touch the feet of elders like Parents the guests and the Guru who would come to my home. I also had never tried to see its significance any. However, sometimes I would obey this order or the suggestion given to me and sometimes I ignored too though unintentionall. I couldn't see that my such behavior might have annoyed my parents and those elders who felt offended by my this attitude and possibly might have thought about me that I was kind of an arrogant, disobedient and a impolite boy.

Sometimes I would touch their feet but I  never thought if it was just a custom  or there was some deeper significance in doing this. In this way for so many years, even before 2 days ago I never realized - "I didn't know  that  I didn't Know!"

I'm not unnecessarily complicating the matter but would like to explain that a couple of days ago a stranger insisted for touching my feet. I politely told him that I don't like this practice of touching feet of any true or so-called spiritual great or any such saintly, religious person. Still he didn't even budge a bit.

Then I told him -

See, I don't think I am such a respectable, such a great person who deserves to be given this honor.

He didn't care my words, and said -

You can't stop me from letting me touch your feet!

I was quite disgusted.

Aghast and in a quandary.

The next day I told someone who could help me, listen to me and let this matter be solved.

But so far, I have been trying to avoid him all the time.

But really I was terribly frightened.

I was also furiously angered.

I could see, deeply feel, how this practice is being kept, maintained, strengthened and glorified, by the so-called spiritual and / or religious people, and how it has become such a powerful tool in their hands to exploit emotionally the meek and the gullible people in this way and for so long.

But now I have no hesitatation any and I frankly tell to all those who want to keep in touch with me that I'm totally against this practice. If someone wants to see me, to keep in touch with me, he or she  can just say "hello!", maybe with folded hands, and I too will reciprocate in the same manner with saying "Namaste" or "PraNAma".

But so far, I couldn't have been able to reconcile with and understand this idea!

I can happily pay obeisance to an image of some God in a temple and prostrate at His feet too, but not before any human who I'm not sure of if he really deserves this treatment!

(The ignorance of ) - 

Not knowing of 

The Not knowing! 

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May 26, 2025

26-05-2025 / POETRY

व्यथा-कथा, कथा-व्यथा!

कुछ भी!! 

कथा कह कह कर थका वाचक, 

तथा कह कह कर कथावाचक!

पुनः पुनः मांग कर यथा याचक,

व्यथा सह सह कर तथा याचक!

दौड़ दौड़ कर थका यथा धावक,

हाँफता हुआ रुका यथा धावक! 

कथा कह कह कर यथा श्रावक, 

अग्नि सा जलता रहा यथा पावक!

तान भरता रहा यूँ यथा गायक,

अभिनय करता रहा यथा नायक!

सतत सुख देता रहा सुखदायक,

सतत दुःख देता रहा दुःखदायक!

जिसने जो चाहा, उसे वो मिल गया,

जो कभी भी बन पाया इस लायक! 

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May 22, 2025

THE VISA

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।

हृदय राखि कोसलपुर राजा।।

प्रश्न उत्तम है। कार्य शुभ है, सफलता प्राप्त होगी। 

यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरितमानस में उनकी एक रचना "रामशलाका प्रश्नावलि" के साथ पाई जाती है। प्रसंग हनुमानजी के द्वारा माता सीता की खोज करने के लिए लंका में प्रवेश करने के संबंध में है।

अंग्रेजी भाषा के ऐसे हजारों शब्द हैं जो मूलतः संस्कृत भाषा के किसी शब्द का अपभ्रंश हैं। हमें यह नहीं सिद्ध करना है कि विभिन्न भाषाएँ संस्कृत से ही निकली हैं या नहीं बल्कि यहाँ पर केवल संस्कृत और अंग्रेजी भाषा के बीच किसी संभावित साम्य के आधार पर कोई निष्कर्ष प्राप्त करना ही हमारा प्रमुख ध्येय है।

ऐसा ही एक शब्द है  VISA

यह शब्द संस्कृत की विश् - विशति धातु से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है प्रवेश करना। एक देश से दूसरे देश में अल्पकाल या कुछ काल के लिए प्रवास करने के लिए प्रायः दो दस्तावेज चाहिए होते हैं - एक होता है - पासपोर्ट -

जिसकी विवेचना और व्युत्पत्ति भी संस्कृत मूल शब्द से की जा सकती है, किन्तु यहाँ अनावश्यक प्रतीत होने से ऐसा नहीं किया जा रहा है, क्योंकि ऐसा करना विषय से भटकना है।

पासपोर्ट जो उस देश की सरकार से प्राप्त दिया जाता है, जहाँ का कोई नागरिक किसी कार्य के लिए विदेश जाना चाहता है। दूसरा उस दूसरे देश से प्राप्त करना होता है, जहाँ यह व्यक्ति किसी कार्य के लिए जाना चाहता है, इसे "वीसा" कहते हैं।

ऐसा ही एक शब्द हैं - funeral, जो अरबी के 'दफ़न' का अपभ्रंश है। "दफ़न" शब्द स्वयं ही संस्कृत भाषा के "दहन" का अपभ्रंश है। सनातन वैदिक ज्ञान की परंपरा के अनुसार जब तक पञ्चतत्वों से बने इस शरीर का विधिपूर्वक दहन नहीं कर दिया जाता है, तब तक इस शरीर को "अपना" समझनेवाले "जीव" की अंतिम और पूर्ण मुक्ति संभव नहीं होती है, क्योंकि पृथ्वी, वायु और जल तो जीव की मृत्यु होते ही अपने अपने महाभूतों में मिल जाते हैं, आकाश कहीं आता जाता नहीं, इसलिए उसकी मुक्ति होने का प्रश्न ही नहीं है, शेष बचा अग्नि, जो पञ्चप्राणों की शक्ति के रूप में जीव-चेतना के साथ बँधा होता है। सनातन धर्म, वैश्विक होने से यह सर्वत्र ही सदा से प्रचलित रहा है। जिन स्थानों पर जल की कमी या अत्यधिक शीत होने के कारण अग्नि प्रज्वलित करना कठिन होता है, जहाँ पर शव का दहन परिस्थितियों के कारण संभव नहीं हो पाता है, वहाँ दाह-संस्कार न कर उसे भूमि में समाधि (bury)  दे दी जाती है, और तब प्रकृति की अपनी प्रक्रिया के अनुसार समय के साथ अग्नि भी धीरे धीरे अग्नि महाभूत में मिल जाता है और जीव मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। अंग्रेजी भाषा का शब्द bury भी मूलतः संस्कृत भाषा के पृ - पूर्ति / पूरयति का अपभ्रंश है। तात्पर्य यह है कि "funeral",  जो  "दफ़न" का, और "दफ़न", जो कि "दहन" का पर्याय है, तात्कालिक रूप से अंत्येष्टि का औपचारिक विधान है, ताकि प्राकृतिक प्रक्रिया के माध्यम से, या विधि-विधान से बाद में "अस्थियों" को किसी नदी या जल के किसी अन्य प्राकृतिक स्रोत में प्रवाहित कर दिया जा सके। यह कहना अनुचित नहीं होगा कि तथाकथित "महाप्रलय" के समय महा-जलप्लावन के समय सभी कुछ स्वयं ही जल में विलीन हो जाता है।

मृत्यु, काम और मुमुक्षा

जिन दिनों भारत में सरकार द्वारा "आपात्काल" लगाया गया था, तत्कालीन साप्ताहिक पत्रिका "दिनमान" या "रविवार" में एक लेख प्रकाशित हुआ था जो उस समय के आनन्द-मार्ग नामक संगठन के संबंध में था। उस लेख को लिखने और प्रकाशित करने के पीछे किसके या कौन से प्रयोजन थे इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है, किन्तु उसमें जिस प्रकार से मनुष्य और प्राणिमात्र में भी विद्यमान "मृत्यु-कामना" / Death-wish  को आधार बनाया गया यह जानना रोचक है।

उपरोक्त रेखांकित तीन शब्द ईश्वरीय संकल्पना के प्रकृति में अभिव्यक्त प्रकार मात्र हैं। 

स अकामयत

ईश्वर के रूप में जो स्रष्टा है उसमें ही कामना उत्पन्न हुई - सृजै  कि (मैं) सृष्टि करूँ।

ऐतरेय उपनिषद् में इसका अद्भुत् विवरण है।

यह कामना ही "जीव" के रूप में अभिव्यक्त हुई और जब तक यह अपूर्ण रहती है, "जीव" उस कामना को पूर्ण करने का प्रयास करता ही रहता है। इसी कामना से बाध्य या प्रेरित होकर वह प्राकृतिक रीति से प्रजनन के लिए प्रवृत्त होता है और इसीलिए इस कार्य में संलग्न होने पर उसे क्षण भर के लिए मुक्ति की प्रतीति होती है। स्खलन (Sexual Discharge) के समय यही तो होता है। इसलिए प्रजनन की क्रिया में भी क्षणिक मुक्ति तो (प्रतीत) होती ही है और यही कुंठित और विकृत हो जाने पर समलैंगिकता का रूप भी ले सकती है। और यही विकृत, वीभत्स और कुत्सित होकर एक दुष्चक्र का रूप भी ले लेती है, किन्तु वह अवश्य ही अंतहीन दुर्भाग्य और चरम विनाश का ही रास्ता होता है। क्योंकि फिर यह आगे चलकर संतति में भी गुणसूत्रीय उत्परिवर्तन / (Genetic Mutation)  का कारण बन जाता है। अभी शायद इसे "अनुमान" कहा जा सकता है, किन्तु आज के समय के वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक शोधों की मर्यादा यहीं तक है। मनुष्य में यही मुक्ति-कामना, जो कि मृत्यु-भय और मृत्यु के आकर्षण की रोमांचकता के चरम तक पहुँच जाती है वस्तुतः तो मुमुक्षा के ही भिन्न भिन्न प्रकार मात्र होते हैं, यह सोचना गलत नहीं हो सकता।

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May 19, 2025

Transit of Planets.

पृथ्वीधराचार्य

वर्ष 1970 में मैंने देवास के के पी कॉलेज में बी.एस-सी. प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया। बाद में मुझे यह पता चला कि यह वही "पृथ्वीधराचार्य" हैं जो कि इन्दौर से प्रकाशित होनेवाले "नई दुनिया" नामक अखबार में दैनिक भविष्य का कॉलम लिखते हैं। मुझे नहीं लगता था कि क्या एक ही साथ बारह राशियों के लोगों के भविष्य के बारे में जो कुछ लिखा जाता है, उसे कितना सच माना जाए। बस कौतूहलवश कभी कभी देख लेता था। 1973 तक वहाँ रहने के बाद मैं उज्जैन आ गया जहाँ बी एस-सी अंतिम वर्ष की परीक्षा दी। उसके बाद नौकरी की तलाश करने लगा जिसका कोई मतलब नहीं था। फिर भी ज्योतिष शास्त्र के बारे में मेरा कौतूहल बना रहा। बी एस-सी के अंतिम वर्ष में मुझे विक्रम विश्वविद्यालय के माधव विज्ञान महाविद्यालय पढ़ते हुए विश्वविद्यालय के जीवाजीराव पुस्तकालय से जुड़ने का सौभाग्य मिला जहाँ से मुझे दो पुस्तकें मिल सकती थीं। उन दिनों कोई विशेष रोक टोक नहीं थी, और मैं वहाँ से बहुत सी वे मनचाही पुस्तकें भी ले लिया करता था जिनका मेरे कॉलेज के मेरे पाठ्यक्रम से कोई संबंध नहीं होता था। पुस्तकालय में वाचनालय भी था जहाँ कुछ पत्र पत्रिकाएँ भी पढ़ी जा सकती थीं। ऐसी ही एक पत्रिका थी -

Astrological Magazine  या  A. M.,

जो बैंगलोर से प्रकाशित होती थी और जिसके संपादक और प्रकाशक थे -

Bangalore Venkata Ramana -

(B V Ramana) नामक व्यक्ति।

देवास जैसी छोटी जगह की तुलना में उज्जैन एक काफी बड़ा शहर है। एक सिरे पर मैं वहाँ इंजीनियरिंग कॉलेज के परिसर में रहता था, तो दूसरे सिरे पर है छत्री चौक या गोपाल मन्दिर। गोपाल मन्दिर के एक ओर पटनी बाजार से होकर महाकालेश्वर मन्दिर जाने का मार्ग है, तो दूसरी तरफ ढाबा रोड, कालिदास मॉन्टेसरी, कैलाश टाकीज़ आदि। उस रोड पर एक दुकान धार्मिक किताबों की भी थी जहाँ से मैंने स्वामी विवेकानन्द के पुस्तक "राजयोग" खरीदी थी। तब शायद उसका मूल्य ₹2/- था।

बाद में देवास गेट की दुकान से नारायणदत्त श्रीमाली की कुछ पुस्तकें "दशफल दर्पण", "भारतीय अंक शास्त्र" और "ज्योतिष योग" आदि खरीदी थीं।

इस सब अध्ययन के बाद यह प्रश्न मेरे मन में आया कि इ सबका सार क्या है, उसे कैसे सीखा और प्रयोग में लाया जाए?

A. M. से मुझे बहुत सहायता मिली और यह समझ में आया कि पहले तो विंशोत्तरी, अष्टोत्तरी और योगिनी इन तीन मुख्य दशाओं का निर्धारण करना चाहिए, बाद में जातक की जन्म पत्रिका में दिखलाई देनेवाले विभिन्न महत्वपूर्ण ज्योतिषीय योगों को देखना होगा और इसके बाद उन योगों के फलित होने के समय का निर्धारण, उन सभी ग्रहों की महादशा, अन्तर्दशा और प्रत्यन्तरदशा के अनुसार तय करना होगा। इसके अतिरिक्त प्रश्न कुंडली का अध्ययन भी सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। प्रश्न कुंडली के अध्ययन से भी बहुत कुछ सीखा और जाना जा सकता है। उन्हीं दिनों मालीपुरा स्थित पुस्तकों की एक दुकान से मैंने "वर्षफल दर्पण" नामक बहुत अच्छी किताब खरीदी थी, जिसमें "मुन्था" की अवधारणा का उल्लेख पहली बार मुझे दिखलाई पड़ा। बहुत बाद में मुझे पता चला कि यह अवधारणा अरबी / फारसी ज्योतिष-शास्त्र की देन है, क्योंकि चन्द्र के 12 महीनों के 12 राशियों के भ्रमण पर आधारित अरबी / फारसी कैलेन्डर में उस "अधिक मास" की गणना उस तरह से नहीं की जाती, जैसी कि वैदिक भारतीय पञ्चाङ्ग में की जाती है। और इसलिए "माह" संस्कृत "मास" का अपभ्रंश है, जो चन्द्रमा का ही द्योतक है। शायद इसी आधार पर "मुन्था" (अंग्रेजी - month) की परिकल्पना या अवधारणा प्रस्तुत की गई, और तदनुसार इस आधार पर "वर्षफल" को समायोजित किया गया। यह सब मेरा व्यक्तिगत विचार है, हो सकता है कि यह सही हो या न भी हो। यह सही है भी या नहीं, इस बारे में मेरा कोई दावा नहीं है।

व्यक्ति के जीवन के बारे में इन दो या तीन बिन्दुओं के आधार पर कोई अनुमान किया जा सकता है, विभिन्न घटनाओं के समय का भी, वहीं इससे पहले की पोस्ट में जैसा मैंने इंगित किया, विभिन्न ग्रहों के राशिचक्र में होने वाले भ्रमण के समय-अन्तराल के आधार पर, और उनके राशि परिवर्तन के आधार पर भी इन घटनाओं का महत्व तय किया जा सकता है। सूर्य, बुध और शुक्र तीव्रगामी ग्रह हैं जो कि पृथ्वी की कक्षा के भीतर रहते हुए लगभग एक माह के समय में एक से दूसरी राशि में चले जाते हैं, चन्द्रमा लगभग 27 दिनों में पूरे राशिचक्र का परिभ्रमण कर लेता है और नक्षत्रों में उसके अपने चलने में व्यतीत किए गए समय के अनुसार चान्द्र मास की तीस तिथियाँ, सौर मास की तुलना में वृद्धि या ह्रास को प्राप्त होती हैं। दूसरी ओर, पृथ्वी की कक्षा से बाहर के ग्रह जैसे मंगल, बृहस्पति और शनि जो पृथ्वी की कक्षा से बाहर रहकर राशिचक्र में भ्रमण करते हैं। स्पष्ट है कि जो ग्रह सूर्य से जितना कम या अधिक दूर होगा उसके द्वारा राशिचक्र में परिभ्रमण करने के लिए लगनेवाला समय उसी अनुपात में कम या अधिक होगा। बृहस्पति लगभग बारह वर्षों में और शनि तीस वर्षों में राशिचक्र का एक पूरा परिभ्रमण करते हैं। और हमारे सौर मण्डल से सर्वाधिक दूर के दो छायाग्रह राहु (तथा केतु) 18 वर्ष के समय में यह पूरा परिभ्रमण करते हैं। और इतना ही नहीं वे सदैव वक्री रहते हैं अर्थात् विलोम गति से चलते हैं जिसे अंग्रेजी में Retrograde  कहते हैं। और इसीलिए इन सभी ग्रहों के प्रभाव भी भिन्न भिन्न और विलक्षण तथा विचित्र होते हैं। वैश्विक प्रभाव एक अलग तरह के, स्थानों की और समुदायों तथा मनुष्य विशेष के अनुसार भी भिन्न भिन्न होते हैं। यहाँ तक कि किसी स्थान विशेष के मौसम के बारे में भी इस अध्ययन का उपयोग हो सकता है।

(Meteorite / Astrological Meteorology)

इसी आधार पर मैंने अपना अध्ययन किया और अनुभव किया कि ज्योतिष शास्त्र घटनाओं का पूर्वानुमान करने और भविष्य का आकलन करने के लिए एक अच्छा और उपयोगी साधन (instrument) अवश्य हो सकता है, किन्तु इसके लिए लगन से उचित और पर्याप्त श्रम किया जाना भी अपेक्षित है। धैर्यपूर्वक श्रम करने पर भविष्य के बारे में अवश्य बहुत कुछ सुनिश्चित कहा और जाना जा सकता है।

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