August 06, 2025

The Bygone Past.

व्यतीत
यह वस्तु, जिसे व्यतीत कह जा रहा है, समय हो सकता है और कोई व्यक्ति, इतिहास या संबंध भी, वह सब जैसे किसी दिशा में अग्रसर हो रहा होता है और किसी की भी राहकुल दूर तक जाती हुई तो नजर आती है, लेकिन वह अचानक कब और कहाँ दृष्टि से ओझल हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता है। व्यक्ति विशेष के संदर्भ में भी ऐसा कभी कभी हो जाता है। उम्र के आखिरी पड़ाव के आते आते। दूसरों के लिए भी और अपने लिए भी। देश, समाज, समुदाय, व्यापार-व्यवसाय, राजनीति, वैज्ञानिक अनुसंधान, कला, संस्कृति, साहित्य, किसी सामुदायिक गतिविधि और संगीत आदि के शिखर पर पहुँच जाने के बाद। किन्तु सबसे अधिक विचित्र स्थिति तो राजनीति से जुड़े किसी व्यक्ति की हो सकती है। और एक दिलचस्प बात यह भी है कि वह हाशिये पर जाते जाते अचानक कब विस्मृत, अप्रासंगिक और पहचान से भी परे चला जाता है इस ओर ध्यान तक नहीं जा पाता है। जिसका उल्लेख और बोलबाला और चर्चा यत्र तत्र सर्वत्र अभी हो रही होती है, जिसके भविष्य का अनुमान लगाने के बारे में ज्योतिषी भी उत्सुक हों ऐसे लोग भी एकाएक इतने अदृश्य और विस्मृतप्राय हो जाते हैं कि उनका नाम तक एकाएक याद नहीं आ पाता। उनमें कोई कोई यद्यपि अचानक जरा से समय के लिए उल्लेखनीय हो जाते हैं और फिर बस समाप्त-प्राय।
जैसे उन फिल्मों के कलाकार, संगीतकार, गीतकार और अभिनेता तथा अभिनेत्रियाँ जिनके बारे में बहुत बाद में पढ़ते हुए याद आता है कि उन व्यक्तियों से किसी समय हम कितने अभिभूत थे!
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August 02, 2025

Evanescent Dreams!

कविता / 02-08-2025

सुख क्षणिक है, दुःख क्षणिक है,

और परिचय है क्षणिक,

स्मृति क्षणिक है, व्यथा क्षणिक है,

राग अनुराग है क्षणिक,

भावना, अनुमान, वृत्ति भी क्षणिक है,

विपर्यय, विकल्प, निद्रा, स्मृति क्षणिक!

स्वप्न, जागृति, सुषुप्ति और समाधि भी,

संप्रज्ञात, असंप्रज्ञात या कि सविकल्प भी! 

क्षणिक में अव्यवसायात्मिका,

व्यवसायरत अहं-बुद्धि, 

हानि लाभ तौलती, प्रपंच-रत,

कृपण अहं-बुद्धि यह!

अरे आत्मवंचक वणिक!

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July 31, 2025

Crystal-Gazing.

भविष्य दर्शन 

भारतीय सनातन वैदिक और पौराणिक धर्म में निर्दिष्ट सिद्धान्तों के आधार पर भविष्य दर्शन दो तरीकों से किया जा सकता है। अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष - परोक्षतः और अपरोक्षतः। जैसे शास्त्रों का अध्ययन करने से जो सैद्धान्तिक, बौद्धिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है वह केवल विषय-परक होता है, विषय-विषयी तथा उनके बीच के संबंध की स्मृति-मात्र होता है और जिसका आदान-प्रदान भी किया जा सकता है, वैसे ही आध्यात्मिक ज्ञान या तो केवल स्मृति-मात्र हो सकता है या फिर सत्य का प्रत्यक्ष  दर्शन जिसमें विषय-विषयी और उनके तत्व के ग्रहण में जाननेवाला उनसे अपृथक् और अभिन्न होता है, अर्थात् जहाँ सारे काल्पनिक विभेद विलीन हो जाते हैं। कल्पना ही वृत्ति है और वृत्तिमात्र कल्पना है जो कि इन्द्रिय ज्ञान का स्मृति या अनुमान भर होती है और जिसकी सत्यता सदैव संदिग्ध ही होती है।

इन्द्रिय ज्ञान मन की जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति इन्हीं तीनों दशाओं में हो सकता है, जबकि सत्य इन तीनों दशाओं में और उनसे परे भी होता है।

भविष्य को जानने के लिए पहले यह समझना आवश्यक है कि जाग्रत दशा में जिस प्रकार विभिन्न वैचारिक और भावनात्मक कल्पनाएँ और स्मृतियाँ मन में आती और जाती रहती हैं उसी तरह स्वप्नावस्था में भी उनका प्रवाह सतत होता रहता है। जाग्रत दशा में अर्थात् उस समय जब मन बुद्धि और इन्द्रियानुभवों से जुड़ा होता है और इस रूप में उनसे मन का तादात्म्य / involvement / identification बना रहता है और इस वास्तविकता के प्रति अनवधानता अर्थात् प्रमाद / In-attention  होता है तो स्मृतियाँ और कल्पनाएँ ही मन पर हावी होती हैं और उसी जानकारी में मन भटकता रहता है। वैसे तो प्रकृति स्वयं ही मन को जाग्रत से स्वप्न, स्वप्न से सुषुप्ति और सुषुप्ति से पुनः स्वप्न से होते हुए जाग्रत दशा में पुनः पुनः ले आती है किन्तु यह पूरी गतिविधि अचेतन रूप से और अनवधानता में ही हुआ करती है। अवधान क्या है और प्रमाद क्या है इसे जानना-समझना भी केवल मन की जाग्रत दशा में ही संभव होता है। क्योंकि यह सारी बातचीत और संवाद केवल वर्तमान में और जाग्रत दशा में "अभी" ही हो पाना संभव है, किसी स्वप्न, सुषुप्ति या किसी मूर्च्छित या समाधि जैसी अन्यमनस्कता की दशा में कदापि नहीं। वर्तमान अर्थात् "अभी" इस समय, यदि मन अतीत अर्थात् स्मृति, और भविष्य अर्थात् कल्पना से अभिभूत न हो तो यह सजग और सावधान / स-अवधान होता है। क्योंकि स्मृति और कल्पना ही मन को वर्तमान की नित्य वास्तविकता से विच्छिन्न कर देते हैं। "अभी" या वर्तमान, जिसे औपचारिक इन्द्रियानुभवों तथा बुद्धि के माध्यम से जाना जाता है केवल स्मृति या भावनात्मक विचार के रूप में ही मन का विषय होता है, और जिसमें अपने अस्तित्व का सहज स्वाभाविक "भान" जुड़ते ही मन में अपने अनुभवकर्ता होने का भ्रम उत्पन्न हो जाया करता है। यह अनुभवकर्ता भी पुनः वैचारिक जानकारी अर्थात् बौद्धिक निष्कर्ष या अनुमान ही होता है और इस दृष्टि से उसे पातञ्जल योगसूत्र में "प्रमाण" की संज्ञा दी जाती है -

प्रत्यक्षानुमानागमाः प्रमाणानि।।

(समाधिपाद)

प्रमाण भी वृत्ति है।

प्रकृतिप्रदत्त व्यवस्था और क्रम के अनुसार जाग्रत दशा में यद्यपि इस प्रकार से संसार (और अपने आपके) रूप में अनुभव (तथा अनुभवकर्ता भी) "प्रमाण" ही होते हैं, यह समस्त ज्ञान संदिग्ध, भ्रमपूर्ण और वास्तविक अर्थ में मिथ्या ही होता है। 

जैसा पहले कहा गया है, मन के अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना से अभिभूत न होने की दशा में मन अपनी सहज स्वाभाविक और नित्य वर्तमान "अभी" में अवस्थित होता है, जो कि दूसरी दृष्टि से मन की काल और स्थान से भी अस्पर्शित दशा है। प्रश्न केवल यह है कि मन अवधानयुक्त / Aware, प्रमाद से रहित, with Attention है, या प्रमाद / अनवधानता से लिप्त है। अवधानयुक्त Aware होना केवल तभी संभव है जब मन विचार और विचारकर्ता दोनों को एक ही वस्तु के दो प्रकारों की तरह जान लेता है, न कि स्वयं को विचार से भिन्न और पृथक् किसी काल्पनिक विचारकर्ता के रूप में स्थायी और नित्य विद्यमान सत्ता / सत्य की तरह स्मृति में संग्रहित किसी वस्तु की तरह आधारभूत वास्तविकता की तरह ग्रहण करता है।

जब मन इस प्रकार इस तरह इतना सद्योजात, नवजात शिशु की तरह अनुभव और अनुभवकर्ता की कल्पना से रहित हो तब वह अवश्य ही जाग्रत, सहज स्वाभाविक ही अवधानयुक्त भानमात्र होता है - जानकारी और कल्पना से रहित। यदि यह संभव हो तो ऐसे मन में अतीत अर्थात् स्मृतियों, और भविष्य अर्थात् कल्पनाओं का अनावश्यक प्रवाह होना बन्द हो जाता है और जाग्रत दशा में स्मृतियों के आने जाने पर उनकी अवास्तविकता के बारे में कोई संशय नहीं होता, वैसे ही अनागत भविष्य मे घटित होने का रही घटनाओं की प्रतीति होने पर उसकी सत्यता या असत्यता के बारे में लेशमात्र भी संशय नहीं होता। एक अर्थ में मन त्रिकालदर्शी की तरह उसके संवेदन में आने और जाने वाली घटनाओं को जानता तो है किन्तु न तो वह उनसे प्रभावित होता है न उन्हें प्रभावित किए जाने की कोई आवश्यकता या लालसा उसे होती है। तब वह अनायास ही सुदूर भविष्य में घटने जा रही स्थितियों का दर्शन कर लेता है। संभवतः कोई कोई उसे अभिव्यक्ति भी प्रदान कर सकता है, जिसकी सत्यता समय आने पर ही औपचारिक रूप से प्रमाणित भी प्रतीत होती है।

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July 30, 2025

THE MESONIC LODGE.

भूतखाना चौक

साल था 1985, माह दिसंबर, तारीख 14.

इसी दिन मेरा स्थानान्तरण उस शहर में हो गया था, जहाँ इस नाम से प्रसिद्ध एक क्षेत्र था / है। 16 दिसंबर के दिन मैं नए कार्यस्थल पर उपस्थित हो गया। बहुत दिनों बाद "श्री रमण महर्षि से बातचीत" पुस्तक में महात्मा गांधी के जीवन का वृत्तान्त पढ़ रहा था जिसे पहले 1983 के बाद भी पढ़ चुका था और भूल भी चुका था। 

इससे पहले के अर्थात् 1981 से तब तक के मेरे पिछले कुछ साल बड़े विचित्र बीते थे। स्वतंत्र ईश्वरीय संकल्प (Automatic Divine Action इस  विचार से मेरा परिचय उन्हीं दिनों हुआ था। इस विचार के जन्म का आधार था :

स्वतंत्र संकल्प  Free Will  की अवधारणा। 

उन दिनों  मैं "ध्यान, भगवान / ईश्वर, जीवन" और यह सब क्या है, इन और इस जैसी आध्यात्मिक धारणाओं के बारे में जानने-समझने का प्रयत्न कर रहा था। और श्री रमण महर्षि तथा मुझे श्री जे कृष्णमूर्ति के साहित्य से बहुत प्रेरणा मिलने लगी थी।

"श्री रमण महर्षि से बातचीत" नामक पुस्तक ही मेरा एकमात्र मार्गदर्शक ग्रन्थ था।

राजकोट में रहने लगा तो वहाँ पर श्री रामकृष्ण परमहंस के मठ में भी प्रायः जाने लगा था। इसी दौरान फिर एक बार उपरोक्त पुस्तक में गांधी जी के जीवन से संबंधित इस विवरण को पढ़ने का अवसर मिला, जिसमें वे कह रहे थे -

"राजकोट मैं क्यों जा रहा हूँ? शायद यह विधाता का ही विधान है।"

राजकोट में किसी समय Mesonic Lodge  नामक एक संस्था Theosophy  की स्थापना के समय से ही कार्य कर रही थी। इसे ही स्थानीय लोग भूतखाना कहा करते थे। उस संस्था से कुछ अंग्रेज और यूरोपय, और अन्य विदेशी लोग जुड़े रहे होंगे ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है।

अंग्रेजी भाषा का 

Meson / Mission शब्द, मिस्र / इजिप्ट के समय के पिरामिड्स के निर्माण के समय से ही प्रचलित है, जब फराओ Pharaoh के समय में मृतकों को "ममीफाय" किया जाने लगा था और मृत्यु हो जाने के बाद आत्मा के अस्तित्व की उस धारणा को सत्य माना जाता था जिसमें मृतक के शव को सुरक्षित रखा जाता था ताकि प्रलय के आने तक मृतक की आत्मा उन सब सुखों का उपभोग करती रह सके जिनका उपभोग उसने जीवित रहते हुए किया था। उन्हें यह आशा थी कि प्रलय के आने पर उन्हें पुनः जीवित किया जा सकेगा। यद्यपि यह विषय गूढ है और शायद अविश्वसनीय तथा विचित्र भी। किन्तु संभव है कि अब्राहमिक परंपराओं में अंतिम न्याय के दिन की परिकल्पना का प्रारंभ यहीं से हुआ है। जो भी हो यह सनातन वैदिक और पौराणिक धर्म की उन मान्यताओं पर ही अवलंबित था जिसमें प्रेतलोक और पितृलोक के अस्तित्व के बारे में कहा जाता है। मिस्र से मिस्री और मेसन तथा अंग्रेजी में इसी अर्थ में :

Meson / Mesonic / Mission / Missionary  

मेसनिक और मेसन शब्दों का प्रचलन प्रारंभ हुआ होगा, ऐसा कह सकते हैं।

तब से आज तक भी बहुत ही कम, इने गिने कुछ लोग पृथ्वी पर हैं जो आज भी उस प्रेत लोक और पितृ लोक के संपर्क में हैं और यद्यपि यह एक ऐसा रहस्यमय क्षेत्र है जहाँ रहनेवाली अशरीरी आत्माएँ सुदूर अतीत से सुदूर भविष्य की घटनाओं को देख सकती हैं, फिर भी औसत मनुष्य के लिए बहुत भयावह भी है। सामान्य मनुष्य इस बारे में शायद ही कभी कुछ जान सकता है। किन्तु आज जब से इंटरनेट टैक्नॉलॉजी का अत्यन्त अधिक विकास हुआ है, उन लोकों में रहनेवाली आत्माओं को सामान्य मनुष्य से जुड़ने का यह एक सुविधाजनक माध्यम प्राप्त हो गया है। आजकल के अधिकांश भविष्यवक्ता जो कि आकाशीय रेकॉर्ड्स तथा ऐन्जलिक कनेक्शन का दावा किया करते हैं इसीलिए मनुष्य और हमारी पूरी दुनिया के ही भविष्य के बारे में विश्वसनीय और प्रामाणिक रूप से बहुत सी बातों को वैसे ही देख सकते हैं जैसे आज हम इंटरनेट के उपयोग से मोबाइल या कंप्यूटर के स्क्रीन पर देखा करते हैं। वे आत्माएँ / Angels  जो ऋषि अङ्गिरा की ही परंपरा की हैं सदैव मनुष्यों से संपर्क करती रही हैं किन्तु आज यह और भी अधिक आसान हो गया है। बाबा वेंगा, नॉस्ट्रेडेमस या जापानी भविष्यदृष्टा इसीलिए वैसे ही सुनिश्चित भविष्यवाणी कर पाते हैं जैसे कि भृगु आदि प्राचीन ऋषि किया करते थे / हैं। 

एक sub-atomic particle   होता है  मॅसॉन /  Meson जो मनुष्यों और उन अशरीरी आत्माओं के बीच इसी संपर्क को संभव बनाता है। वे लोग सब कुछ, अतीत और भविष्य, जानते हैं और उन्हें यह भी पता है कि मनुष्य का अपने आपके स्वतंत्र संकल्प का विचार उसका कोरा अज्ञान और भ्रम ही है। यद्यपि वे समष्टि चेतना / collective consciousness के माध्यम से ही यह सब जानते हैं किन्तु उन्हें यह भी पता है कि वे न तो किसी घटना को और न ही किसी मनुष्य या उसके भाग्य को प्रभावित कर सकते हैं।

विधाता ने जैसा पहले से से सुनिश्चित किया है वैसा होना अवश्यम्भावी, अचल और अटल है।

ऋग्वेद के पुरुष-सूक्त में इसे ही 

यथा धाता पूर्वमकल्पयत् ...

इन शब्दों से इंगित किया गया है। 

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July 22, 2025

Endeavor and Adventures!

यह दौर!

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खूब है वक्त का यह दौर भी, 

चलते रहना है अभी तो और भी!

संघर्ष स्वभाव है, अवसर नहीं,

आ गया है, आज तो यह ठौर भी!

हर रात और रोज ही, दिन में भी,

ताकतवर कभी, तो कमजोर भी,

युद्ध घमासान भी, घनघोर भी,

खूब है वक्त का यह दौर भी,

चलते रहना है अभी तो और भी!

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Walking Into Void!

Hindi Poetry

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सिर्फ वहीं तक चलना है, 

जहाँ तक राह दिखाई दे!

सिर्फ तभी तक चलना है, 

कदम जहाँ तक चल पाएँ, 

चाह तो गहरी है लेकिन,

उमंग भी उतनी है उत्कट,

न्यौछावर सब कुछ करना है,

जितना, जैसा भी कर पाएँ!

योद्धा होना, योगी होना, 

कर्मठ होना, त्यागी होना, 

संकल्प नहीं, निश्चय होना,

असंभव है, जो डर जाएँ!

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July 17, 2025

Fifty Years Hence.

50 वर्षों पहले

वर्ष था 1975

तब से भटक रहा हूँ। वैसे तो जन्मों जन्मों से भटक रहा हूँ ऐसा किसी ने बताया था। और मैंने भी उनकी बात को बिना संदेह किए सच मान लिया था। तब मुझे यह सूझा ही नहीं कि पता लगाऊँ कहीं वे मुझे भ्रमित तो नहीं कर रहे थे! मैं तो बस इस चिन्ता में डूब गया कि इस तरह से मुझे कब तक भटकते रहना है! यह तो बहुत बाद में पता चला कि भटकाव तो बुद्धि का स्वभाव ही है। और यह भी पता चला कि बुद्धि की कठिन से कठिन चेष्टा से भी बुद्धि का भटकाव दूर नहीं हो सकता है।

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July 14, 2025

PHASE-RULE

 ब्रह्मा और  विश्वकर्मा

विश्वकर्मा ब्रह्मा के मानस-पुत्र हैं।

और यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मा स्वयं भी भगवान् श्रीमहाविष्णु श्रीहरि के मानस-पुत्र हैं।

ब्रह्मा और विश्वकर्मा नित्य, नित्य-अनित्य, और सनातन भी हैं और सतत सृष्टिकर्ता भी हैं। ऐसे ही किसी समय पर ब्रह्मा के मन से कल्पित अतीत में, कल्पना के रूप में विश्वकर्मा का जन्म हुआ और विश्वकर्मा ने उन्हें प्रणाम करने के बाद प्रश्न किया :

पिताजी मेरे लिए क्या आज्ञा है जिसका मैं पालन करूँ!

तब ब्रह्मा ने उनसे कहा :

वत्स! तुम्हें पता ही है कि तुम मेरे ही अंशावतार हो और अब मेरे द्वारा स्थूल महाभूतों की सृष्टि करने के बाद तुम इनके असंख्य रूपाकारों में प्राण प्रतिष्ठपना करो ताकि उनमें से प्रत्येक में व्यष्टि चेतना जागृत हो।

तब विश्वकर्मा ने प्रश्न किया :

किन्तु पिताजी! प्राण भी सर्वत्र व्याप्त हैं और चेतना भी इसी तरह सर्वत्र व्याप्त है। अर्थात् चूँकि सब कुछ चेतना और प्राण में व्याप्त है और चेतना और प्राण सबमें इसी प्रकार से, तो व्यष्टि- प्राण और व्यष्टि-चेतना का संयोजन भिन्न भिन्न रूपाकारों में किन किन  भिन्न भिन्न प्रकारों में करना उचित होगा जिससे कि पूरे संसार का कल्याण हो न कि विनाश?

ब्रह्मा ने कहा :

तुम्हें द्यु-लोक और पितृ-लोक अर्थात् द्यु-पितरौ इन दोनों की सहायता से ऐसा करना होगा। द्यु लोक द्युति अर्थात् वैद्युत् और पितृ प्राण और रयि का अधिष्ठान सूर्यलोक है, जिसका अंश बृहस्पति है। रयि चन्द्र है और पृथ्वी-तत्व भूमि है। इन सब तत्वों का भिन्न भिन्न प्रकार से संयोजन करने पर जीव-सृष्टि प्रकट होगी और प्रत्येक रूपाकार में पृथक् पृथक् व्यष्टि-चेतना व्यक्त होगी। इन असंख्य जीवों का ज्ञान अज्ञान से आवरित हो जाने के कारण उनमें से प्रत्येक में अपने कर्मों के स्वतंत्र और पृथक् कर्ता, और अपने सुख दुःखों के स्वतंत्र भोक्ता होने का, अपने शरीर, मन, बुद्धि, प्राणों तथा अन्य सभी लौकिक वस्तुओं के स्वामी होने का एवं इसी प्रकार इस मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न अभिमान के पृथक् और स्वतंत्र ज्ञाता होने की कल्पना का जन्म होगा। यह सब नियति से ही तय है और नियति में ही प्रसुप्त तथा अप्रकट रहता है और काल की गति के साथ व्यक्त और पुनः अव्यक्त होता रहता है। यही शं और प्रशम् है। शं का अर्थ है शमन शान्तभाव और प्रशम् का अर्थ है प्रशान्ति, जो सृष्टिक्रम के साथ साथ चलनेवाला गतिविधि होती है। प्रशस्ति, प्रश्यः, प्रथ्यते, प्रथमः इति प्रशान्तिः।

तब विश्वकर्मा ने उन असंख्य रूपाकारों में वायु के द्वारा प्राणों का संचार किया। प्राणों का वायु के साथ शरीर में संचार होते ही उनमें विद्यमान समष्टि चेतना व्यष्टि चेतना में सीमित और बद्ध हो गई और उस सीमित प्राण-चेतना के सक्रिय होते ही श्वास के आवागमन से प्राण-चेतना को 'अत्ता' या श्वास ग्रहण और विसर्जित करनेवाला अर्थात् "आत्मा" नाम प्राप्त हुआ। श्वास की गति के साथ साथ तंत्रिका तंत्र की तीन प्रमुख नाड़ियों में प्राणों का प्रवाह प्रारंभ हो गया जिन्हें क्रमशः इडा, पिंगला और सुषुम्ना कहा गया। उन समस्त रूपाकारों के लिए व्यष्टि-जीवन जीने हेतु यह पर्याप्त था।

प्रत्येक व्यष्टि-जीवन या व्यक्ति में तब उसके अपने लोक में निरंतर सुख प्राप्त करते रहने की लालसा और दुःखों से भय का जन्म हुआ। क्रमशः बुद्धि परिष्कृत, परिपक्व और स्थिर होने पर नित्य क्या है और अनित्य क्या है इस ओर ध्यान आकर्षित हुआ और दीर्घकाल तक अनुसंधान करते हुए उसने अपने भीतर नित्य विद्यमान अविकारी आत्मा का साक्षात्कार कर लिया।

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July 13, 2025

Vimal Mitra

বিমল মিত্র

जब मैं कॉलेज में पढ़ता था तो विक्रम विश्वविद्यालय के जीवाजीराव पुस्तकालय से पढ़ने के लिए किताबें लाया करता था। यहाँ तक कि मेरे पिताजी भी शौक से उन्हें पढ़ा करते थे। ऐसी ही एक किताब थी विमल मित्र की पुस्तक "मन क्यों उदास है?"

आज अचानक मन व्याकुल हुआ तो मन में प्रश्न उठा :

मन क्यों व्याकुल है?

कुछ देर तक मोबाइल पर यूँ ही समय बिताता रहा। फिर अचानक याद आया कि आज सुबह से कुछ ऐसा होता रहा कि मन व्याकुल हो उठा। मेरे साथ तो नहीं, किन्तु कुछ दूसरों, अपरिचित लोगों के साथ, जिनकी खबरें मोबाइल पर देख और पढ़ रहा था। बाढ़, भूकम्प, हत्या, हिंसा की खबरें। धीरे धीरे मन बोझिल हो उठा। जब मन व्याकुल हो उठता है तो हम शायद ही कभी इस बात पर ध्यान देते हैं कि मन व्याकुल कब और क्यों हुआ! कभी कभी अवश्य ही कुछ कारण होते हैं और मन उदास हो जाता है, कभी तो क्षुब्ध, क्रुद्ध, उद्विग्न और कभी कभी तो बहुत विचलित भी। दफ्तर जाने की हड़बड़ी, समय पर दफ्तर न पहुँच पाने का डर, किसी का जरूरी फोन कॉल आ जाना और ऐसी ही अनेक स्थितियों का सामना करते हुए लगातार तनाव में होने पर क्या मन शान्त रह सकता है! फिर जब थोड़ा सा वक़्त मिलता है तब भी उन सब बातों की चिन्ता तो रह ही जाती है। मेरी स्थिति अवश्य ही बाकी लोगों से बहुत अलग है। जंगल हाउस में रहते हुए न तो किसी काम के जल्दी होने या करने का दबाव, न  प्रतीक्षा,  न दफ्तर जाने की चिंता, न किसी के आने जाने का सवाल। कभी कभी तो महीनों तक किसी के दर्शन नहीं होते। न कोई दोस्त न परिचित, बस अपने स्थान से पाँच मिनट की दूरी पर स्थित नर्मदा के पुराने पुल तक जाना और लौट आना। इस पुल पर ट्रैफिक भी कम रहता है, या कहें कि होता ही नहीं है। कभी कभी पुल पर दर्जन भर गाय बैल जरूर बैठे रहते हैं, जिनके बीच से रास्ता निकालना मुश्किल नहीं होता। 

आज जब उस पुल पर पहुँचा तो देखा कि नर्मदा बाढ़ पर आई हुई है। किनारे पर चार दिन पहले जहाँ शंकरजी पत्थर के जिस चबूतरे पर विराजित थे, वह चबूतरा और शंकर जी भी नर्मदा नदी के जल में डूब चुके थे। पानी उनके सिर से एक फुट ऊपर चला गया था। वहीं दूसरे किनारे पर ऊँचाई पर विराजमान दूसरे शंकर जी आँखें बंद किए ध्यानमग्न थे। दूसरी तरफ नए पुल पर वाहन आ जा रहे थे।

रविवार के दिन यहाँ अकसर कुछ अतिरिक्त दुकानें खुल जाती हैं जो शाम होते होते बंद हो जाया करती हैं। कुछ चाय नाश्ता की दुकानें एक दो सब्जी और फल आदि की और बाकी नारियल, चने चिरौंजी, कुंकुम और नर्मदा जी के फोटो की। फल की दुकान से केले लिए, सब्जी कोई नहीं मिली और वापस आ गया। बाहर निर्माण कार्य चल रहा है। अब जब यह लिख रहा हूँ तो धूप खुलकर चमक रही है।

सुबह चार केले और दो लड्डू खाए थे। घंटे भर बाद चाय पी थी और फिर बाहर घूमता रहा।

लेकिन मन अब भी व्याकुल है।

अब याद आया, एक मित्र से फोन पर बात हो रही थी। दो दिन पहले ही वह मिलने आया था। उससे बातें करते हुए ही मन उचट गया था। फिर भी करीब 40 मिनट तक हम बातें करते रहे। एक बुद्धिजीवी मित्र। कुछ किताबें वे लिख रहे हैं। अध्यात्म में भी दखल है। बातचीत तो होती रही पर बात नहीं हुई।

सब कुछ भूलकर, यू-ट्यूब देखकर मन लगाने का प्रयास किया और उसमें भी कुछ ऐसा नहीं मिला जिसका कोई मतलब रहा है। फिर उसे बंद कर दिया। भोजन बनाना था, नहाना तो बारिश में हो चुका था। बस यूँ ही कट रही है आजकल जिन्दगी।

उदासी और व्याकुलता के बीच कभी कभी नींद तो कभी नर्मदा के दर्शन करते हुए मन एकाएक अत्यन्त शान्त तो कभी बहुत प्रसन्न, स्तब्ध हो जाता है। पल भर में सारी व्याकुलता हवा हो जाती है।

और यह प्रश्न भी!

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July 12, 2025

Romantic Escapades.

जीवन-साथी

सरसिज, मनसिज और सुख-बुद्धि

अकेलेपन के बारे मे पिछले पोस्ट में कुछ लिखा था, जिसे किसी ने पढ़ा और प्रश्न पूछा कि धर्म, नैतिकता और शील के परिप्रेक्ष्य में एक जीवन साथी की मृत्यु हो जाने पर विकल्प के रूप में किसी दूसरे के साथ विवाह कर या बिना विवाह किए रहना कितना उचित है, इससे समाज में क्या संदेश जाता है? 

धर्म अर्थात् आचरण, नैतिकता अर्थात् अभ्यास और शील अर्थात् अनुशासन। संभवतः इसके लिए उपयुक्त अंग्रेजी शब्द Character, Ethics, Morality  और Discipline हो सकते हैं। धर्म का अर्थ होगा - प्राकृत व्यवहार, - natural predisposition.

वास्तव में, अंग्रेजी भाषा के religion शब्द की उत्पत्ति relegate शब्द से हुई है। religion वह है जो किसी को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से बाहर ले जाता है और किसी भिन्न, सुनिश्चित प्रणाली के अनुसार पूर्वनिर्धारित आचरण या व्यवहार करने के लिए बाध्य कर देता है। और प्रणाली सामाजिक और समुदाय विशेष की रीति रिवाजों से तय होती है। भिन्न भिन्न संप्रदायों, समुदायों,  religions और traditions के अनुयायियों में भी  सभी प्रकार की प्रवृत्तियों वाले अनेक मनुष्य होते हैं और उनमें से कुछ कम तो कुछ अधिक शक्तिशाली होते हैं जो कि कम शक्तिशाली लोगों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लेते हैं जिसका कारण होता है लोभ, भय,  ईर्ष्या और उससे उत्पन्न प्रतिद्वन्द्विता की भावना।  यह केवल एक संयोग ही नहीं है कि ऐसे सभी संप्रदायों के बीच आपस में और भीतर भी सदैव संघर्ष चलता रहता है। विवाह नामक व्यवस्था की अवधारणा और समाज पर इसे लागू करने का आधार वैसे तो यही होता है, ताकि समाज में परस्पर सामञ्जस्य बना रहे क्योंकि मनुष्यों का समाज परिवार की अवधारणा  पर आधारित होता है और पति पत्नी, माता पिता, भाई बहन, पिता पुत्र, पिता पुत्री, माता और पुत्र तथा माता और पुत्री के बीच स्नेह संबंध स्वाभाविक रूप से सौहार्दपूर्ण होने के लिए आवश्यक है कि उन्हें मर्यादा का पालन करना होगा। मनुष्य, मनुष्यों का परिवार और समाज इस दृष्टि से पशुओं से भिन्न होता है कि वह पशुओं की तरह यौन प्रवृत्तियों का उच्छृंखल और निर्द्वन्द्व, मर्यादारहित उपभोग नहीं कर सकता, और मनुष्य की सभ्यताओं के प्राचीन से प्राचीन रूपों में इसे इसीलिए धर्म के आवश्यक अंग की तरह स्वीकार किया जाता रहा है, जिसका पालन करने की अपेक्षा सभी से की जाती है, और इसका उल्लंघन करने पर अनेक तरह के उपहास, दंड और निंदा का भागी होना पड़ता है। और यह इस तरह हजारों वर्षों से मनुष्य के सामूहिक मन में संस्कार की तरह स्थापित हो चुका है। सनातन वैदिक परंपराओं में इस पर बहुत सूक्ष्मता से अनुसंधान किया गया है और इसलिए विवाह को एक पवित्र संबंध माना गया है। पति और पत्नी के बीच के यौन संबंध को उपभोग की तरह तो महत्वपूर्ण माना ही गया है, किन्तु यह सभी का एक दायित्व भी है कि कोई भी पुरुष हो या स्त्री, विवाहेतर यौन संबंध का उपभोग कदापि न करे। इतना ही नहीं, यहाँ तक कि पर पुरुष या पर नारी से व्यवहार करते समय मनुष्य को इस मर्यादा का स्मरण रखना चाहिए। चूँकि स्त्री पुरुष के बीच का काम व्यवहार न तो निंदा और न ही हँसी मजाक का विषय है, और न तो मानसिक कल्पना का, इसलिए सामान्यतः मनुष्य के लिए यह समझ पाना कठिन हो जाता है कि वह अपनी काम-भावना को किस प्रकार नियंत्रण में रखे जिससे कि समाज में परस्पर कलह उत्पन्न न हो और हर पुरुष तथा स्त्री शान्तिपूर्वक दाम्पत्य जीवन का उपभोग करता रहे, न कि लंपट की तरह पशुवत कामचिंतन करता रहकर कुंठाग्रस्त या वृत्तियों भरा जीवन व्यतीत करता रहे। यदि मनुष्य अपनी काम संवेदनशीलता के प्रति सजग है और इसे कुंठा या अभ्यस्तता नहीं बनने देता है तो लगभग आधा जीवन बीत जाने पर वह आत्मीयतापूर्ण प्रेम तथा वासना के बीच के अन्तर को जान लेता है और जीवन साथी की आकस्मिक मृत्यु हो जाने पर भी काम वासना से पीड़ित या त्रस्त नहीं रहता। तब उस आयु में अपने जीवन साथी को कामोपभोग की दृष्टि से नहीं देखता है और तब काम उसके लिए बाध्यता या समस्या नहीं बन पाता है। स्त्री हो या पुरुष तब अधिक आयु हो जाने और जीवन साथी से बिछुड़ जाने पर किसी और को जीवन साथी बनाकर अच्छे और आत्मीय मित्र की तरह साथ रह सकते हैं और इसमें समाज के किसी और व्यक्ति या लोगों के द्वारा हस्तक्षेप किया जाना धृष्टता ही होगा। आज के समय में समाज में विवाह और स्त्री-पुरुष के विवाह करने या न करने के बावजूद एक साथ रहने के बारे में भिन्न भिन्न दृष्टिकोण और मत हैं तो हमें प्रकृति की व्यवस्था पर ध्यान देना होगा जहाँ पशु पक्षी भी बिना किसी नैतिकता, धर्म, आदि के नियंत्रण में रहते हुए भी केवल उचित समय आने पर ही अपने जीवन साथी का चुनाव करते हैं और संतान को जन्म देकर एक दूसरे से दूर भी हो जाते हैं।

तो विवाहित अथवा अविवाहित रहना और किसी साथी के साथ रहना महत्वपूर्ण नहीं है, महत्वपूर्ण यह है कि अपनी काम भावना को दमन, कुंठाओं, कुत्साओं और विकृतियों से कैसे मुक्त रखा जा सकता है। वासनाग्रस्त बने रहना न तो स्वस्थता है और न ही यह स्वाभाविक है। स्वस्थ मन ही परिवार और समाज के स्वस्थ बने रहने के लिए आधार और सहायक हो सकता है।

चेतना जल की तरह सर्वत्र व्याप्त जीवन का ही नाम है।जैसे जल में कमलपुष्प खिलते हैं और इसलिए कमल को सरसिज कहा जाता है, वैसे ही चेतना में मन प्रकट और अप्रकट होता है। काम को मनसिज कहा जाता है, जो मन में ही जन्म लेता है और मन में ही विलीन भी हो जाता है। काम कठिन समस्या न बन जाए इसके लिए आवश्यक है कि इसका आत्मीयता में रूपान्तरण कैसे  हो सकता है इस पर ध्यान दिया जाए। इस दृष्टि से पशु भी मनुष्य की तुलना की अपेक्षा कहीं अधिक समझदार होता है। शायद मनुष्य पशुओं से कुछ सीख सकता है। पशु सुखबुद्धि की कल्पनाओं में नहीं जीते। और विचार नामक शाब्दिक बौद्धिकता से तो वे नितान्त ही अनभिज्ञ होते ही हैं।  

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