धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे
सनातन धर्म के सर्वाधिक सुप्रसिद्ध और प्रचलित ग्रंथ का आरंभ राजा धृतराष्ट्र द्वारा सञ्जय से पूछे गए गीता के प्रथम अध्याय के इस प्रश्न से होता है -
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता ययुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।१।।
धर्म शब्द की उत्पत्ति धार्यते / धारयति के अर्थ में प्रयुक्त होनेवाली "धृ" धातु से होती है, जबकि कर्म शब्द की उत्पत्ति करोति / कुरुते के अर्थ में प्रयुक्त होनेवाली "कृ" धातु से होती है। धर्म आत्मा अर्थात् (व्यक्त या अव्यक्त) अस्तित्व का स्वभाव है जबकि कर्म (व्यक्त या अव्यक्त) प्रकृति का स्वभाव है।
गीता के अध्याय ३ के श्लोक २७ के अनुसार -
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते।।२७।।
"कृ" और "धृ" दोनों उभयपदी धातुएँ हैं अर्थात् इनका प्रयोग अपने-आप से या अपने लिए होनेवाले स्वाभाविक कार्य को व्यक्त करने के लिए होता है - जिसे 'किया' नहीं जाता! न तो आत्मा और न ही प्रकृति कुछ करती या कर सकती है।
अध्याय ४ के इस श्लोक १३ से, जिसमें भगवान् श्रीकृष्ण के इन शब्दों से यही स्पष्ट होता है -
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धि अकर्तारमव्ययम्।।१३।।
यदि आत्मा को जीवात्मा (मध्यम या अन्य पुरुष) तथा परमात्मा (उत्तम पुरुष) को एक दूसरे से भिन्न इन दो रूपों में स्वीकार किया जाए तो भी दोनों ही अकर्ता हैं अर्थात् कर्म करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। समस्त कर्म प्रकृति के गुणों की ही पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया का व्यक्त या अव्यक्त प्रकार हैं, जो कि पुनः उनके बारे में सोचने पर ही अस्तित्वमान प्रतीत होते हैं। और इसीलिए अपने आप पर या किसी और पर उनके घटित होने और कर्ता होना आरोपित कर भूल या प्रमाद से इस मान्यता को स्वीकार कर लिया जाता है।
इसी तरह मनुते / मनोति / मन्यते अर्थात् मानने के अर्थ में 'मन्' धातु को भी 'मन' (संज्ञा) और 'सोचने' दोनों ही अर्थ में प्रयोग किया जाता है, जबकि 'मन' सोचता नहीं, बल्कि 'सोचना' 'सोचने का कर्म' ही 'मन' है।
अध्याय ३ से उद्धृत उपरोक्त श्लोक २७ में 'मन्यते' पद का अभिप्राय यही है - मानता है / माना जाता है। अर्थात् प्रमादवश, अहंकारविमूढात्मा मानता है / माना जाता है। इसलिए 'सोचना' ऐसा कल्पित कर्म है जो कि प्रकृति के गुणों की पारस्परिक क्रिया प्रतिक्रिया है। यही पातञ्जल योग सूत्र में वर्णित पाँच क्लेश -
अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।।३।।
(साधनपाद)
अंतिम अध्याय कैवल्यपाद के अंतिम सूत्र -
पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा चितिशक्तेरिति।।३४।।
से स्पष्ट होता है कि प्रकृति के इन गुणों और उनकी एक दूसरे से होनेवाली क्रिया-प्रतिक्रिया का विलय हो जाना ही समस्त क्लेशो का निवारण है और इसे ही
कैवल्यम्
की संज्ञा प्रदान की गई है।
निष्कर्ष यह :
धर्म स्वभाव है,
कर्म, कृति या कृत्य Tradition / Religion है।
--
चलते चलते -
"कृ" धातु से ही "कृमि" शब्द की उत्पत्ति हुई है, जिसे कीट के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। अंग्रेजी भाषा का worm / vermicelli / vermilion / crime इसी कृमि शब्द के सजात, सज्ञात / cognate हैं।
***



No comments:
Post a Comment