The Consciousness of Science.
विवेेक, चेतना और विचार
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छिन्नमस्ता और रक्तबीज
छिन्नमस्ता चेतना, रक्तबीज अहंकार,
सृष्टि का सतत उपक्रम,
काल से अछूता!
चेतना वह पृष्ठभूमि,
भविता पञ्चभूत,
अग्नि, वायु, नीर, नभ,
सबमें ही ओतप्रोत,
सबमें ही अभिव्यक्त!
संकल्प वह अहंकार,
रक्तबीज वह विचार,
स्वयंभू अस्तित्व वह,
राहु-केतु में विभक्त।
उसके वे असंख्य बीज,
उसके वे असंख्य पुत्र,
भूमि पर गिरते ही,
चेतना के स्पर्श से,
हो जाते प्राणयुक्त।
रक्तपिपासु वे सभी,
परस्पर वे युद्धरत,
हर कोई स्वतंत्र एक,
यद्यपि अनंत अनेक!
चेतना तब भूमिमाता,
महाशक्ति कालरात्रि,
धरती रूप काली का,
हाथ में लिए खप्पर,
हाथ में लिए खंजर!
करती वध रक्तबीज की,
हर एक संतान का,
हर एक बीज का!
रक्तबीज के रक्त के,
हर एक रक्तबिंदु को,
खप्पर पर समेट लेती,
भूमि पर न गिरने देती,
करती रहती रक्तप्राशन,
रक्तबीज के अवसान तक!
और भूल जाती है,
समक्ष खड़े रुद्र को भी!
गिराकर उन्हें धरा पर,
करती है अट्टहास!
छिन्नमस्ता चेतना,
वही शिव, वही शिवा,
और वे एकानेक
रक्तबीज अहंकार!!
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