कार्य-ब्रह्म
जीव का व्यक्तिगत जीवन क्या है?
गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं -
बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परंतप।।
हे अर्जुन!
यद्यपि मेरे और तुम्हारे द्वारा पहले भी बहुत से जन्म व्यतीत किए गए हैं, किन्तु उन सभी जन्मों को केेवल मैं जानता हूँ, तुम नहीं।
दूसरी ओर गीता में ही यह भी कहा गया है -
न जायते म्रियते वा कदाचन्
नायं भूत्वाऽभविता च भूयः।
अजो नित्यो शाश्वतोऽप्रमेयः
न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
इस प्रकार मनुष्य या किसी भी जीव के समय समय पर अनेक जन्म और मृत्यु होती हैं। स्पष्ट है कि यहाँ "जीव" शब्द का आशय वह व्यक्तिरूपी वह विशेष "चेतना" है, जिसे जन्म और मृत्यु की इस घटना के घटित होने का वैसा ही भान होता है जैसा अपने द्वारा पहने हुए वस्त्रों को उतारकर फिर दूसरे किन्हीं वस्त्रों को धारण करने का भान हमें होता है गीता में इस तथ्य का वर्णन इस प्रकार से किया गया है -
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय अन्यान्
अन्यान् याति नवानि देही।।
तात्पर्य यह कि "जीव" वह "चेतन" तत्व है जो किसी जीवित शरीर में व्यक्तिरूप में अपनी पहचान स्वयं ही होता है। यह "पहचान" एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर की "पहचान" में बदल जाती है, किन्तु इन दोनों में अपनी "निजता" का भान यथावत अपरिवर्तित रहता है। यह अपरिवर्तित रहनेवाला तत्व वह "आत्मा" है, जिसका न तो जन्म हो सकता है और न ही मृत्यु हो सकती है। बौद्ध दर्शन में शायद इसलिए ब्रह्म और ईश्वर के अस्तित्व के) बारे में कुछ नहीं कहा गया, और इसलिए संंभवतः उसे नास्तिक धर्म भी समझा जाने लगा। जैैन धर्म में भी ऐसी ही कुुछ स्थिति देखी जा सकती है। किन्तु "आत्मा" के (अस्तित्व के) और आत्म-ज्ञान के बारे में अपरोक्षतः या परोक्ष रूप से अवश्य ही बहुत कुछ कहा गया है।
जीव, जगत और संसार (अर्थात् कार्य ब्रह्म) की नित्यता इसीलिए एक अकाट्य, यद्यपि औपचारिक सत्य है, यह तो मानना ही होगा।
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