June 29, 2025

Dead As Dodo.

लाहौर से कपिलवस्तु 

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तस्य लोपः

उपदेशे हलि अन्त्यस्य लोपो स्यात्।।

भगवान शिव के ढक्का से उद्भूत अक्षरसमाम्नाय के १४ सूत्रों का श्रवण करने के पश्चात् महर्षि पाणिनी के द्वारा संस्कृत भाषा के व्याकरण की रचना की गई।

"हल्" प्रत्याहार "हयवरट्" उपदेश से "शषसर्" ... "हल्" उपदेश तक प्रयुक्त व्यञ्जनों की समष्टि है।

समझा जाता है कि उनका जन्म अविभाजित भारत के पञ्जाब में "लहातुर" नामक स्थान पर हुआ था, जिसे बाद में "लाहौर" कहा जाने लगा। 

उसी पञ्च-आप अर्थात् पञ्जाब में जहाँ महर्षि अष्टावक्र के पिता ऋषि कहोळ / कहोड का जन्म हुआ था और उसे बाद में कहूटा कहा जाने लगा जो कि भारतवर्ष के विभाजन के बाद वर्तमान समय में पाकिस्तान में है, जहाँ पाकिस्तान का यूरेनियम संवर्धन प्लांट स्थित है।

महर्षि अष्टावक्र की माता का नाम सुजाता था। ऋषि कहोड को राजदरबार में वरुण (देव) के द्वारा नियुक्त किसी विद्वान से हार का सामना करना पड़ा था और इसके फलस्वरूप उन्हें वहाँ से बन्दी बनाकर समुद्र पार वरुण के देश में निर्वासित कर दिया गया था। अष्टावक्र के जन्म के बाद जब वह बारह वर्ष की आयु के थे, उन्हें इसका पता चला तो वे राजा के दरबार जा पहुँचे और राजा वरुण द्वारा नियुक्त उस विद्वान को शास्त्रार्थ में हरा कर पिता को वरुण के बन्दीगृह से मुक्त करवाया। वरुण वैसे भी पश्चिम दिशा के दिक्पाल और वसु हैं और उनके यज्ञ को पूर्ण करने के लिए उन्हें वैदिक कर्मकाण्ड में निष्णात पंडितों की आवश्यकता थी और इसीलिए उन्होंने ऐसे पंडितों को उनके देश में एकत्रित करने के उद्देश्य से यह जाल रचा था। कैसे ऋषि कहोड का जन्म बाद में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोधन के पुत्र के रूप में हुआ जिसे सिद्धार्थ का नाम प्राप्त हुआ था, और कैसे राजकुमार सिद्धार्थ ने घोर तप के द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया था, कैसे अष्टावक्र की माता जो कि सिद्धार्थ के इस जन्म के समय में वनदेवी के रूप में अवतरित हुई थी और कहोड का अनुसरण करती हुई उनकी सेवा में सतत संलग्न थी, और सिद्धार्थ को उस समय खीर प्रदान की थी जब वे निरञ्जना नदी से स्नान कर बाहर आए थे और अत्यन्त कृश और दुर्बल हो जाने के कारण थककर बोधिवृक्ष तले  बैठ गए थे, इस बारे में विस्तार से मेरे इसी या स्वाध्याय ब्लॉग में मैं लिख चुका हूँ। यहाँ केवल संदर्भ के लिए इसका उल्लेख कर रहा हूँ। यहाँ पर मुख्य ध्येय है - महर्षि पाणिनी के जीवन के एक प्रसंग के बारे में लिखना।

यह तो प्रख्यात है कि पाणिनी की अष्टाध्यायी के सूत्र

डुकृञ्करणे

को आधार बनाकर आदि शंकराचार्य ने द्वादशपञ्जरिका और चर्पटपञ्जरिका आदि सतोत्रों की रचना की, किन्तु यह भी कहा जाता है कि स्वयं महर्षि पाणिनी ने भी इस सूत्र को एक दूसरी कथा में आधार की तरह प्रयुक्त किया था। उसकी कथा यह है -

महर्षि अपने गुरुकुल में छात्रवृन्द के मध्य अपने आसन पर वटवृक्ष के तले विराजमान थे। ज्ञानयज्ञ अर्थात् वहाँ उपस्थित एक वृद्ध ने महर्षि से निवेदन किया -

भगवन्! 

कृपया इस सूत्र पर प्रकाश डालें ताकि हमारे ज्ञानचक्षु खुल सकें। महर्षि ने कुछ दूर पर स्थित एक वृक्ष की ओर संकेत किया और बोले -

उस वृक्ष पर अनेक पक्षी उसके फलों का भक्षण करने के लिए आते हैं उस फल का भक्षण करने पर उसके बीज भी उनके पेट में चले जाते हैं। उस वृक्ष का संस्कृत नाम तो डुडु है, जो उकारान्त पुंल्लिंग पद है और उसके रूप प्रथम विभक्ति में एकवचन, द्विवचन और बहुवचन में -

डुडु डुडू डुडवः

इस प्रकार से होंगे। 

तो जब विभिन्न पक्षी उस वृक्ष के फलों का भक्षण करते हैं और पेट में पच जाने के बाद में बीज जब उन पक्षियों के मल के साथ निकल जाते हैं। लेकिन उनका आवरण कठोर होता है इसलिए वे सड़-गल नष्ट हो जाते हैं और उनका अंकुरण नहीं है पाता। किन्तु उन पक्षियों में केवल एक पक्षी ऐसा भी होता है जिसके पेट में जाने के बाद इन बीजों पर का कठोर आवरण उसके पेट में ही गल जाता है और तब वे बीज उसके मल के साथ जब बाहर निकल जाते हैं तो आसानी से अंकुरित हो जाते हैं। इस प्रकार वह पक्षी और यह वृक्ष दोनों का अस्तित्व सदैव बना रहता है। उस पक्षी का प्रसिद्ध नाम "डुडु" शायद इसीलिए है। वृक्ष और पक्षी दोनों को इसी नाम से जाना जाता है।

जैसा कि स्पष्ट है, "डु" और "कृ" / "कृञ्" क्रियापद हैं जो कृत्य या कर्म की प्रक्रिया के द्योतक हैं।

(यह समझना कठिन नहीं है कि अंग्रेजी भाषा में 

Do और Create

इन्हीं दोनों क्रियापदों  verb-roots के सजात / सज्ञात / cognate  हैं। क्योंकि उनके उच्चारण और अर्थ -

Pronunciation and phonetic sense

से भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।)

अब ज्ञान और अज्ञान के बारे में -

धारणा ही अज्ञान है और धारणा रहने तक अज्ञान और अज्ञान रहने तक धारणा व्यक्त से अव्यक्त और अव्यक्त से व्यक्त रूप ग्रहण करते रहते हैं।

अज्ञान और धारणा, ठीक इस "डुडु" वृक्ष और पक्षी की तरह अन्योन्याश्रित हैं। इसलिए इसे ही पतञ्जलि महर्षि ने "वृत्ति" कहा है। वृत्ति का निरोध, एकाग्रता और संयम तो हो सकता है किन्तु मन का अस्तित्व रहने तक किया नहीं जा सकता। क्योंकि मन ही वृत्ति है और वृत्ति ही मन है और अहं-वृत्ति ही समस्त वृत्तियों का मूल है और सभी वृत्तियाँ अहं-वृत्ति का ही प्रकार हैं। 

धारणा के रहने तक अज्ञान का और अज्ञान के रहने तक धारणा का आभासी अस्तित्व बना रहता है। यह दुष्चक्र तभी विलीन होता है जब विचार को विचारकर्ता,और विचारकर्ता को विचार की तरह, एक ही वस्तु की तरह देख लिया जाता है।

"देखना" (Awareness) कर्म नहीं स्वभाव है।

इतना कहकर महर्षि मौन हो गए। 

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June 26, 2025

Thursday -26-06-2025

नर्मदा तट, सातधारा

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दो तीन दिनों से बारिशें शुरू हो गई हैं।

उम्मीद है हफ्ते भर में मौसम खुशनुमा हो जाएगा।

कभी खुला आकाश, कभी बादलों की घुमक्कड़ी, और कभी हवा का बेतरतीब इधर उधर दौड़ते रहना। सुबह शाम और अब तो दोपहर में भी नदी तट पर घूमते रहना, कहीं भी बैठ जाना, कभी भी उठकर चल देना सब कुछ अपनी मनमर्जी से!

उमस कभी कभी तो होगी ही। तेज धूप भी कभी कभी। संध्या के समय नर्मदा के तट पर घूमते हुए स्व. दुष्यन्त कुमार की पंक्तियाँ याद आईं -

तुमको सुबह से निहारता हूँ ऋतंभरा,

अब शाम हो रही है परन्तु मन नहीं भरा!

और, 

धीरे धीरे पाँव बढ़ाओ, जल सोया है, छेड़ो मत,

हम सब अपने दीप सिराने इन्हीं तटों पर आयेंगे!!

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June 21, 2025

Thursday 19-06-2025

बारिशें / वारिशः 

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दो दिन बाद लिख रहा हूँ।  आज 21 जून 2025 है।

अंतरराष्ट्रीय योग-दिवस !

19 की सुबह शायद कोई ब्लॉग लिखा होगा।  07: 00 बजे प्रातःभ्रमण के लिए निकला। पुराने पुल पर दो तीन गायें बैठी थीं। मौसम आरामदेह था। छोटा सा वीडियो  बनाया जिसे बाद में डिलीट भी कर दिया। पुल से पार आसाराम आश्रम है। उससे पहले बाँई तरफ का रास्ता सूरजकुण्ड की ओर जाता है, दाईं ओर का रास्ता नये पुल की ओर। वहीं से लौट गया। पास की एक दुकान से 20-20 (twenty-twenty)  के पाँच रुपए वाले दो पैकेट खरीदे।  मन था कि पुल पर कौओं को खिला दूँ।  दोनों में छः छः बिस्किट थे। थोड़ा आगे चलकर एक पैकेट के, और फिर दस फुट की दूरी पर दूसरे पैकेट के बिस्कुट सड़क के किनारे रख दिए।  फिर वापस आ रहा था।  रास्ते पर तीन चार मिनट चला था कि एक कौआ रेलिंग पर बैठा दिखाई दिया। तभी दूसरी दिशा से उड़ता हुआ एक कौआ आकर मेरे सिर पर पल भर के लिए रुका और जैसे ही मैंने हाथ उठाया वह दूसरे कौए के पास जाकर रेलिंग पर बैठ गया तो मैंने उसे डाँटकर भगा दिया। मुझे उस पर गुस्सा नहीं आया था लेकिन खीझ जरूर हुई थी।

मोबाइल में समय देखा तो 07:31 बज रहे थे। सामने पुल के दूसरी तरफ जहाँ पश्चिम दिशा में शनि महाराज का मन्दिर है, उस तरफ ध्यान गया तक नहीं।

समय देखने का उद्देश्य तब यह था कि प्रश्न-कुण्डली बना कर उस पर सोचता, लेकिन फिर मन बदल गया। 

लौटकर घर आया, वॉश बेसिन में नल के नीचे सिर में साबुन लगा कर खूब अच्छी तरह सिर धोया लेकिन कौए के पंजों के क्षणिक स्पर्श की चुभन तब तक भी दूर न हो सकी।  अभी भी है! 

पिछले कितने ही वर्षों से मृत्यु के विषय में कुछ न कुछ सोचता रहा हूँ। वर्ष 2024 में चार परिचित और निकट के व्यक्ति दिवंगत हो चुके हैं। वैसे उनमें से किसी से भी संपर्क तक हुए अनेक वर्ष हो चुके हैं, लेकिन स्मृति अभी तक बाकी है।

जाने चले जाते हैं कहाँ! दुनिया से जानेवाले! 

क्या कौए का सिर पर बैठना कोई अपशकुन है? क्या यह मृत्यु के जल्दी आने का संकेत है?

(वैसे तो मैं किसी भी कौए को काक-भुशुंडि के ही रूप में देखता हूँ, इसलिए इस घटना को उनके आशीर्वाद की तरह भी मान सकता हूँ।) 

लेकिन मृत्यु की घटना (होने) का क्या अर्थ है। जिसे हम जीवित की तरह जानते हैं, उसकी मृत्यु हो जाने का पता चलने के पहले हम उसे कैसे जानते हैं? क्या हम उसके बारे में हमें प्राप्त जानकारी के आधार पर ही उसका कोई मानसिक चित्र ही नहीं बना लेते हैं, और यह नहीं सोचने लगते हैं कि वह इस इस प्रकार का है। यहाँ तक कि हम उसे उससे हमारे पारिवारिक संबंध के परिप्रेक्ष्य में भी जानने-पहचानने लगते हैं। हमें लगने लगता है कि हमें उससे बहुत प्रेम है और हम उसके न होने की कल्पना तक नहीं कर सकते। और अगर किसी व्यक्ति से हमारी शत्रुता हो जाती है तो हम न सिर्फ उसकी मृत्यु हो जाने की कल्पना बल्कि कभी कभी तो क्रोधवश ऐसी कामना भी करने लगते हैं। हमें कभी कभी इस पर ग्लानि और अपराध-बोध तक हो जाता है या हमें उससे किसी हद तक घृणा तक होने लगती है। और कभी संयोगवश हमें अगर उसकी मृत्यु होने की सूचना मिलती है, तो गहरा अफसोस और शर्म भी महसूस हो सकती है। कभी कभी तो बरसों तक भी हमारी यह भावना दिल से दूर नहीं हो पाती है। बरसों बाद हम उस व्यक्ति का नाम तक स्मरण नहीं कर पाते। शायद कोई घटना या स्थिति भर याद रह जाती है। तो मृत्यु क्या है। मेरे जितने निकट संबंधी और परिजन अब तक दिवंगत हो चुके हैं उनमें से एक दो को छोड़कर प्रायः सभी से (उनकी मृत्यु हो जाने के बाद) मैं अपने स्वप्न या स्वप्न जैसी किसी अर्धचेतन अवस्था में मिल चुका हूँ, और मुझे लगता है कि उनमें से कौन अब तक भी मृत्यु के बाद के किसी अन्य लोक में रह रहे हैं, और मैं इसे कल्पना या स्वप्न मानकर निरस्त नहीं कर सकता। पर वह कहानी फिर कभी।

शायद 19-06-2025 की ही सुबह मैंने किसी ब्लॉग में इस बारे में एक नई दृष्टि से गीता का यह श्लोक उद्धृत किया था -

अव्यक्तादीनि भूतानि मध्यव्यक्तानि भारत। 

अव्यक्तनिधनानन्येव तत्र का परिदेवना।।२८।।

(अध्याय २)

मुझे इसमें यत्किञ्चित भी संदेह नहीं है और मेरे मत में  यह तो तय और पूर्णतः सत्य ही है कि कोई भी मनुष्य मृत्यु होने पर पुराने शरीर को त्याग देता है, और उसके अनन्तर कुछ समय के लिए ऐसी ही अव्यक्त स्थिति में चला जाता है, और फिर अवश्य ही पुनः एक और नया शरीर धारण कर लेता है। जैसे हमें सुबह नींद से जाने पर नींद में देखे गए स्वप्न कुछ समय तक याद रहते हैं, और फिर हम उन्हें इस तरह भूल भी जाते हैं कि बहुत चेष्टा  करने पर भी हम उन्हें याद नहीं कर पाते, वैसा ही कुछ मृत्यु के बाद होता होगा। अगर हम किसी भी नवजात शिशु से उसके बारे में धीरे धीरे उससे पूछकर पता लगा सकें तो वह अवश्य ही उसके पिछले जन्म का नाम और दूसरी जानकारियाँ दे सकेगा। इसका इतना ही उपयोग है कि तब वैज्ञानिक रीति से हम समझ सकेंगे कि पुनर्जन्म की घटना कितनी सत्य है।

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June 11, 2025

James Hadley Chaise.

यूँ ही बस याद आया!

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जब मैंने पहली बार यह पढ़ा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति कभी कभी इस pulp fiction novelist / पीत-पत्रकार लेेखक या उपन्यासकार जेम्स हेडली चेज़ को पढ़ते हैं तो मुझे थोड़ी हैरानी जरूर हुई थी। 

फिर बहुत बाद में उनके ही द्वारा लिखी गई किसी रचना में यह पढ़ा कि कैैसे एक शिकारी पक्षी क्रूरता से उसके शिकार दूूसरे एक छोटे पक्षी के टुकड़े कर रहा था, तो मैं शायद इस रहस्य को समझ सका।

करीब दस वर्षों पहले एक तस्वीर वायरल हुई थी -

दस रुपए के नोट पर किसी ने लिखा था -

"सोनम बेवफ़ा है!"

वास्तव में उस समय यह कौतूहल और मनोरंजन का ही एक विषय था जिसे हल्के फुल्के ढंग से लिया गया था। ऐसी बहुत सी कथा-कहानियों को प्रायः इसी तरह और टाइम पास करने के लिए पढ़ा जाता है और कुछ समय बीतते ही भुला भी दिया जाता है, लेकिन जब ऐसा कुछ अपने स्वयं पर या अपने से जुड़े किसी पर बीतता है, तो वह बस स्तब्ध कर देता है।

वर्ष 2000 तक मैं जिस मकान में रहा करता था, उसके सामनेवाले रोड के उस तरफ का मकान बहुत सुन्दर था। दोपहर के समय वहाँ कोई नहीं होता था और उस समय गेट पर ताला लगा होता था। गर्मियों के मौसम की ऐसी ही एक दोपहर जब मैं बाहर से लौटा तो उस मकान में एक बाज दिखलाई दिया था, जिसने अपने पंजे में एक मासूूम, बेबस गौरैया को जकड़ रखा था। उसे देखते ही मुझे जे. कृष्णमूर्ति की लिखी वह रचना याद आ गई। मुझे देखते ही वह तुुरंंत ही वहाँ से उसे लिए हुए फुर्र हो गया।

बहुत देर तक इस घटना से मेरा मन स्तब्ध रहा।

यह इस पर भी निर्भर करता है कि हम किससे जुुड़े होते हैं, और किससे हमारी कितनी आत्मीयता होती है। हो सकता है हमारी आत्मीयता बाज से हो, या गौरैया से। और तब वह घटना भी हमारे लिए वैसी ही महत्वपूर्ण या महत्वहीन हो सकती है।

तब मुझे लगा कि श्री जे. कृष्णमूर्ति से तो अवश्य ही मेरी कुुछ आत्मीयता है।

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June 09, 2025

Friends.

P O E T R Y / कविता

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दोस्त मंजिल नहीं, बस पड़ाव होते हैं,

कभी फिसलन, कभी चढ़ाव होते हैं!

किसी भी मोड़ पर मुड़ जाते हैं,

घड़ी दो घड़ी के, लगाव होते हैं!

कभी सहारा, तो कभी चैन सुकून,

कभी तनाव या मनमुटाव होते हैं!

कभी लगाव और अलगाव कभी,

भरोसा, शक, या खिंचाव होते हैं!

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June 04, 2025

Extrovert / Introvert

शब्दावलि / Terminology

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Mind  is Attention  = ध्यान = चित्त

Identification = तादात्म्य  is either

अन्तर्मुुख /  बहिर्मुख / विषयाभिमुख / एकाग्र 

Extrovert  / Introvert / Focused / Distracted / Content, =

अन्तर्लीन / बहिर्लीन / एकाग्र / क्षिप्त / समाहित,

Meditation = Spiritual Practice.  = 

आध्यात्मिक साधना / अभ्यास 

With or Without Effort

अनायास / सायास,

Object / Subject,

विषय / विषयी,

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