जन्म जन्म की प्यास!
जन्म जन्म से प्यास तुम्हारे दर्शन की!
कब आओगे मेरे राम अयोध्या में!
मुझको है मालूम सुना था पहले भी,
तुममें सब है सबमें हो तुम, यहाँ अभी!
जब तक किन्तु हृदय में मेरे थे विकार,
तब तक था तुमसे मेरा मिथ्या प्यार,
विषय सुखों के आकर्षण से था मैं मुग्ध,
संबंधों से मोहित कामनाओं से लुब्ध,
तब तक तुमको बस जाना था नाममात्र,
कैसे हो सकता था तब तक कृपापात्र?
मतिहीन, मूढ, अविवेकी था मैं अविचारी,
दंभ भक्ति का करता रहता था भारी,
सब पर ही कृपादृष्टि है यद्यपि तुम्हारी,
मैंने अपनी ही आँखें मूँद रखीं थीं मेरी,
संसार की आशा तृष्णा ही वह थी मरीचिका,
जिनके आकर्षण में था पूरी तरह बिका!
क्षणिक संबंधों की भंगुरता थी कहाँ पता,
नित्य-अनित्य भेद पर था तब ध्यान कहाँ,
सुख में हँसता, या दुःख में रोता ही रहता था।
पूजा भी करता था मैं तो कहता जाता था :
सियाराममय सब जग जानी,
करहुँ प्रनाम जोरि जुग पानी!
पुनि पुनि चन्दन पुनि पुनि पानी,
ठाकुर मर गए हम का जानी!!
और खिलखिलाता, हँसता भी जाता था!
बार बार खुद से कहता था मन ही मन में,
चिन्ता, भय, लोभ ही बसा रहा मेरे मन में!
तब तक मेरा यह सारा ज्ञान मेरा दंभ ही तो था,
छल कपट हृदय में, सब पाखंड ही तो था!
अच्छा हुआ ठोकरें खाता रहा सदा ही मैं,
तुमको भूला, संसार न पल भर भी भूला मैं!
तुम आओगे तो दोनों चरणकमल तुम्हारे यदि,
छू भी पाऊँ तो मैं कृतकृत्य धन्य हो जाऊँगा,
और कहाँ जीवन में मैं ऐसा सुख पाऊँगा!
***
यदि हृदय अयोध्या हो जाए,
तो राम वहाँ पर होंगे ही!
सियाराममय सब जग जानी,
घट घट में रमते हैं जो अन्तर्यामी।
***
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