उसके 'नोट्स'
-- क्रमशः --
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Question / प्रश्न 37.
वह लिखता है :
सबसे बड़ा सवाल जिसने मुझे विचलित कर रखा था, आत्महत्या के औचित्य / अनौचित्य का यह प्रश्न था। परन्तु इस ओर ध्यान जाते ही, कि इस प्रश्न की वैधता ही संदिग्ध है, मेरा मन तुरन्त ही शान्त हो गया। यह शान्ति किसी भी प्रकार के विचार, कल्पना, तर्क, निश्चय, निष्कर्ष, किसी भी नए या पुराने सिद्धान्त, अनुमान या धारणा आदि पर आधारित कोई नई एक और बौद्धिक वैचारिक प्रतिक्रियामात्र न होकर, तथ्य को स्पष्टता से देख पाने में खड़े अवरोध के दूर हो जाने से दिखलाई दे रही वास्तविकता ही थी। इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता है कि यह शान्ति कहीं से आने या जाने वाली कोई वस्तु थी या है। किन्तु इसका आविष्कार तो किया ही जा सकता है। और इस आविष्कार के हो पाने के लिए यह भी आवश्यक है कि किसी भी प्रश्न का उत्तर खोजने से पहले यह देखा जाए कि कहीं प्रश्न में ही तो कोई बुनियादी भूल तो नहीं है? जीवन के बड़े से बड़े प्रश्नों पर गंभीर चिन्तन करते समय प्रायः इस तरफ ध्यान ही नहीं जा पाता है, इसकी कल्पना तक नहीं हो पाती कि प्रश्न में ही तो कहीं कोई भूल नहीं है? फिर भी कभी कभी या संयोगवश ही, या फिर मन के बहुत शान्त होने की स्थिति में अनायास यह संभव हो जाता है।
न कर्तृत्वं न कर्माणि
लोकस्य सृजति प्रभुः।।
न कर्मफलसंयोगं
स्वभावस्तु प्रवर्तते।।१४।।
नादत्ते कस्यचित्पापं
न चैव सुकृतं विभुः।।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं
तेन मुह्यन्ति जन्तवः।।१५।।
ज्ञानेन तदज्ञानं
येषां नाशितमात्मनः।।
तेषामादित्यवज्ज्ञानं
प्रकाशयति तत् परम्।।१६।।
श्रीमद्भगवद्गीता में अध्याय ५ के उपरोक्त श्लोकों को पढ़ते ही इस ओर ध्यान गया कि आत्महत्या के औचित्य या अनौचित्य के इस प्रश्न में क्या भूल थी।
उपरोक्त श्लोकों से यह स्पष्ट हो जाता है कि कर्तृत्व, कर्म और कर्मफल के स्वतंत्र अस्तित्व की इस अवधारणा में ही मूलतः कोई त्रुटि है। और इन तीनों अवधारणाओं का आधार स्वतन्त्र कर्ता की अवधारणा ही है।
आत्महत्या के औचित्य या अनौचित्य के सन्दर्भ में, अज्ञानवश पहले ही से यह मान लिया जाता है कि आत्महत्या करनेवाला इस कर्म को करने के लिए स्वतन्त्र है।
इसलिए यह पूछना, कि आत्महत्या करना पाप है या नहीं, मूर्खता है या बुद्धिमानी है, इसीलिए गलत है क्योंकि आत्महत्या एक ऐसा कर्म है जो केवल परिस्थितियों और उन पाँच निमित्तों का परिणाम / फल है जिन्हें गीता के अध्याय १८ में इस प्रकार से वर्णित किया गया है :
पञ्चैतानि महाबाहो
कारणानि निबोध मे।।
साङ्ख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि
सिद्धये सर्वकर्मणाम्।।१३।।
अधिष्ठानं तथा कर्ता
करणं च पृथग्विधम्।।
विविधाश्च पृथक्चेष्टा
दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।१४।।
शरीरवाङ्मनोभिर्यत्-
कर्म प्रारभते नरः।।
न्याय्यं वा विपरीतं वा
पञ्चैते तस्य हेतवः।।१५।।
तथा सति कर्तार-
मात्मानं केवलं तु यः।।
पश्यत्यकृत्बुद्धित्वा-
न्न पश्यति दुर्मतिः।।१६।।
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