उसके 'नोट्स' से ---
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(क्रमशः)
अभी तक उसके 'नोट्स' में से थोड़े से ही पढ़े थे कि एक दिन वही पत्रकार महोदय आ धमके। अभिवादन इत्यादि के बाद उन्होंने अपने 'शोल्डर बैग' से एक और पुलिन्दा निकाला।
"मैंने सोचा कि समय रहते इन्हें भी आपके हवाले कर दूँ, ताकि आप उनके 'नोट्स' का अवलोकन करते हुए इनके सन्दर्भ में उनकी अधिक अच्छी समीक्षा कर सकें!"
यद्यपि 'पत्थर फेंकनेवाला' की उपाधि से मुझे अनायास ही विभूषित कर दिया गया था लेकिन इसे मैंने हँसकर टाल दिया था।
'उसके नोट्स' की इस नई किश्त की अकस्मात् प्राप्ति से मुझे खुशी ही हुई। अधिक विस्तार में न जाते हुए सीधे ही उन्हें प्रस्तुत कर रहा हूँ।
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ग्रेजूएशन पास करने के बाद पोस्ट ग्रेजूएशन करने से भी पहले भारतीय संस्कृति और वेद उपनिषद आधारित एक शिक्षा संस्थान से "आचार्य" के पद पर कार्य करने का प्रस्ताव प्राप्त हुआ। कुछ सोच विचार करने के बाद मैंने उसे स्वीकार कर लिया।
अंग्रेजी 'सभ्यता' और आचार-विचार से पूर्ण सामाजिक परिवेश में पलने-बढ़ने के कारण मैं प्रायः शर्ट पैन्ट पहना करता था, कभी कभी कुर्ता पायजामा भी, किन्तु किसी भी प्रकार की टोपी पहनना मुझे अटपटा लगता था। यहाँ तक कि तेज़ धूप में निकलना होता तो भी गमछे जैसा कोई कपड़ा सिर पर लपेट लिया करता था। वैसे यह भी लगता था कि जहाँ टोपी किसी राजनीतिक प्रतिबद्धता का सूचक हो सकती थी, वहीं गमछा मुझे सामान्य जन का परिधान प्रतीत होता था। चाहे वह मज़दूर या किसान हो, या कोई साधु संन्यासी ही क्यों न हो। मुझे जो सबसे अच्छा लगता था तो वह वस्त्र जिसे स्वामी विवेकानन्द अपने सिर पर पहना करते थे।
आचार्य का पद प्राप्त करना मुझे इसलिए और भी प्रिय था क्योंकि 'स्वामी' नामक विशेषण के प्रति मेरे मन में संशय और पूर्वाग्रह भी थे। मुझे ऐसे बहुत से 'स्वामियों' से मिलने का सौभाग्य या दुर्भाग्य प्राप्त हो चुका था जो अपने नाम के साथ यह उपाधि लगाकर धर्मभीरु और सीधे सादे लोगों का भावनात्मक शोषण किया करते थे। वह कहानी फिर कभी।
उस संस्थान द्वारा संचालित विद्यालय में शिक्षक के पद पर कार्य करने के लिए उपस्थित हुआ। प्राचार्य से मिलने के बाद कक्षा चार, पाँच, छः और सात के छात्र-छात्राओं को पढ़ाने का कार्य मिला।
छठी कक्षा में पढ़नेवाले एक छात्र का नाम था :
"प्ररोहण मिश्र।"
इस विचित्र नाम के रहस्य को जानने की उत्सुकता शान्त होने से पहले ही, जब चौथी कक्षा के एक छात्र का नाम सुना तो मेरे आश्चर्य और उत्सुकता में और अधिक वृद्धि हुई। उसका नाम था :
"प्रगण्य मिश्र।"
कुछ दिनों तक इस बारे में यूँ ही सोचता रहा किन्तु किसी से बात करने का अवसर नहीं मिला।
और कुछ दिन बीते तो पता चला कि दोनों भाई मेरे घर से थोड़ी ही दूर रहते थे और कभी कभी बाजार या और स्थानों पर साथ साथ दिखाई भी देते थे। किसी ऐसे ही एक रविवार के दिन वे अपने पिता के साथ हेयर कटिंग सैलून पर दिखाई दिए।
वे दोनों कटिंग बनवा रहे थे और उनके पिता बेंच पर बैठे उनकी कटिंग पूरी होने तक प्रतीक्षा कर रहे थे। अपनी बारी की प्रतीक्षा करते हुए मैं भी उसी बेंच पर बैठ गया। वहाँ दो तीन अखबार थे, कोई फिल्मी गाना भी सैलून में ऊँची आवाज में बज रहा था।
"मेरे बच्चे हैं।"
उनकी तरह इशारा करते हुए उनके पिता ने मेरी तरफ देखा और हँसते हुए बोले।
दोनों बच्चों ने सिर घुमाकर हम दोनों को देखा।
"मैं महेश्वर मिश्र।"
उन्होंने अपना परिचय दिया। वे किसी सरकारी स्कूल में शिक्षक थे । यहाँ उनका घर था और वे कहीं दूसरे स्थान पर पदस्थ थे।
मैंने भी अपना परिचय दिया। आयु में वे मुझसे दस पंद्रह साल बड़े रहे होंगे।
दोनों बच्चे कटिंग बनवाने के बाद घर लौट गए। फिर हम दोनों शिक्षकों ने कटिंग बनवाई। सैलून से बाहर आए। उनके घर की ओर जानेवाली सड़क का मोड़ आने तक हम बातचीत करते रहे। मैंने उनसे बच्चों के नाम के बारे में जानने की जिज्ञासा की तो हँसकर बोले :
"ये नाम मेरे स्वर्गीय पिता श्री विश्वेश्वर मिश्र की प्रेरणा से रखे गए थे। वे कहते थे कि हमारे मिश्र वंश को ही आज के मिस्र नामक स्थान में प्ररोहण नाम से जाना जाता था, और इजिप्ट "अवज्ञप्ति" का ही अपभ्रंश है। इसी वंश में अन्य कुल भी थे जिन्हें प्रगण या प्रगण्य कहा जाया था, प्ररोहण ही आगे चलकर 'फ़राऊन' कहलाए तथा प्रगण्य ही 'पैगन' कहलाए।"
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