August 30, 2023

एक नया क्रम

 उसके 'नोट्स'

(क्रमशः)

प्ररोहण और प्रगण्य से पहचान बढ़ती चली गई। दोनों चाहते थे कि मैं विद्यालय (जिसे 'स्कूल' नहीं, 'पाठशाला' कहा जा सकता था) उस 'पाठशाला' में और उनके घर जाकर उन्हें ट्यूशन भी पढ़ाऊँ। पढ़ाने के लिए अपने घर से कहीं बाहर जाने में मेरी न तो रुचि थी, न ही मेरे पास समय था। इसलिए वे ही मेरे पास सुबह या शाम कभी एक साथ या अलग अलग आने लगे। मैंने यह सोचकर फीस लेने से इनकार कर दिया था कि इस बहाने से उनका मेरे पास आना बन्द हो जाएगा लेकिन फिर भी वे आ जाया करते थे। कभी कभी मैं ही उनके घर चला जाया करता था। उनके पिता से मेरी अच्छी खासी दोस्ती हो गई थी। कभी कभी जब छुट्टी के दिन वे घर पर आए होते तो हम शहर में ही इधर उधर साथ साथ जाया करते थे। अकसर उस बड़े तालाब के पास के शिव मन्दिर पर जहाँ लोग बहुत कम आते थे। उस बड़े मन्दिर में कोई द्वार नहीं था, बस आजू बाजू कुछ खंभों पर टिकी छत और उस पर बना गुम्बज ही था। प्ररोहण और प्रगण्य को उन खंभों के बीच बारी बारी से भीतर और बाहर से निकलते हुए शिवलिंग की प्रदक्षिणा करना अच्छा लगता था। जब मेरा ध्यान इस पर गया तो बोले : इसको 'नाग-प्रदक्षिणा' कहते हैं। मुझे तब तक मालूम नहीं था। इसी तरह कभी कभी वे 'शंख-प्रदक्षिणा' भी किया करते थे जिसमें पहले पूरी प्रदक्षिणा बाहर से की जाती थी, फिर एक खंभा छोड़ दिया जाता था, फिर दो, फिर तीन, फिर चार और इस तरह अंत में सभी खंभों को छोड़ दिया जाता था और शिवलिंग की पूरी प्रदक्षिणा खंभों के भीतर से की जाती थी। मुझे समझ में नहीं आया कि इसका क्या महत्व था। समझने की कभी कोशिश भी नहीं की।

फिर मुझे उनके पिता महेश्वर मिश्र ने बतलाया कि पहले उन्हें भी बच्चों का यह खेल समझ में नहीं आया था। जब एक बार विश्वेश्वर जी, महेश्वर जी और उनके परिवार के सभी लोग उस स्थान पर 'पिकनिक' अर्थात सामूहिक 'वनभोज' के लिए सम्मिलित हुए थे तो विश्वेश्वर जी भी कौतूहलपूर्वक बच्चों को खेल खेल में प्रदक्षिणा करते देखकर चकित हुए। जब प्रदक्षिणा पूरी हो गई तो बोले : यदि ऐसी एक पूरी प्रदक्षिणा करने में ९गुणित८/२ = ३६ छोटी प्रदक्षिणाएँ होती हों तो ऐसी तीन प्रदक्षिणाओं में १०८ हो जाती हैं जिन्हें पूरी धरती पर सभी प्ररोहण और प्रगण्य किया करते हैं। 

शायद शास्त्र ऐसे ही निर्मित हुए होंगे! यह सोचते ही मुझे हँसी आ गई। महेश्वर जी (जिन्हें घर पर लोग महेश भैया कहते थे), ने मुझसे पूछा : "तुम हँस क्यों रहे हो?"

मैंने कोई उत्तर नहीं दिया।

तब दादाजी (विश्वेश्वर जी) बोले : "यह हमारे मिश्र वंश की परंपरा है।"

तब मुझे याद आया कि इन बच्चों के ये नाम इन्होने ही तो तय किए थे।

पता नहीं क्या वास्तव में इसमें कोई गूढ रहस्य है! 

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