June 28, 2023

प्रश्न Question 29

What is :

ईश्वर, कर्म , कार्य , और "मैं"

God, Action ,Work , and  ?

--

Answer / उत्तर :

मैं इतना ही जानता हूँ कि ईश्वर से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ हूँ, और जैसे कोई भी अपने अस्तित्व से अनभिज्ञ नहीं होता, सभी दूसरे मनुष्यों की तरह अपने अस्तित्व की सत्यता बारे में मुझे भी कोई संशय या सन्देह नहीं है।

चूँकि अपने अस्तित्व का ज्ञान तो प्रत्येक मनुष्य-मात्र में अनायास ही होता है, जबकि अपने से अन्य किसी भी वस्तु का ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त संवेदनों की स्मृतियों का समूहमात्र होता है, इसलिए उसकी सत्यता संदेह से परे नहीं हो सकती है, अर्थात् समस्त इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य ज्ञान स्वयं अपने आपके ज्ञान की तुलना में अस्पष्ट, अनिश्चित होने से संदेहास्पद, अप्रामाणिक एवं अस्थिर होता है, जबकि स्वयं अपने आपका ज्ञान सदैव अकाट्य,अचल और अटल, एवं स्थिर होता है।

इसलिये ईश्वर है या नहीं है इस प्रकार की कोई मान्यता वैचारिक ऊहापोह है, न कि स्वयं अपने आपके अस्तित्व के भान / बोध की तरह का कोई निर्विवाद, सरल और सुगम तथ्य।

इसी प्रकार ईश्वर से स्वयं का क्या संबंध है यह भी केवल वैचारिक ऊहापोह ही होने से सदैव केवल अनुमान-मात्र ही होता है, जबकि स्वयं काअपना अस्तित्व और स्वयं को होनेवाला उसका भान निश्चयात्मक सत्य है। "होना" और अपने इस "होने" के सत्य का बोध न तो इन्द्रियों या बुद्धि के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, और न ही, कभी नया या पुराना हो सकता है,  जबकि, ईश्वर के संबंध में सब कुछ सदैव नितान्त अनिश्चित, अस्पष्ट और विवादास्पद होता है।

ईश्वर की ही तरह "कर्म" भी एक मान्यता है, किन्तु ईश्वर की ही तरह अप्रकट और विचारगम्य न होते हुए भी प्रकटतः होनेवाला "कार्य" होता है, जिसे "घटना" भी कह सकते हैं । और अपने आपको जब तक व्यक्ति विशेष समझा जाता है, तब तक दूसरे भी ऐसे ही प्रतीत होते रहते हैं। अपने आपके और दूसरों के भी व्यक्ति विशेष होने की कल्पना ही कल्पित संसार है। इसमें हर मनुष्य प्रमादवश / अनवधानतावश अपने आपको किसी कर्म का कर्ता मान बैठता है। जब तक कोई इस कल्पना से अभिभूत रहता है उसके कर्म नित्य, नैमित्तिक, विहित और निषिद्ध, इन चार प्रकारों के होते हैं। नित्य - जैसे साँस लेना,  खाना पीना, सोना, जागना, स्वप्न देखना। नैमित्तिक - जो किसी अवसर पर किए जाते हैं जैसे पुत्र के जन्म पर किए जानेवाला कर्म। विहित - कर्तव्य कर्म और निषिद्ध - जिन्हें करने का निषेध है । जैसे चोरी करना, झूठ बोलना, हिंसा, दुराचार इत्यादि। ये चारों पुनः शारीरिक या मानसिक रूप में भी हो सकते हैं।

जैसे "कर्म" घटना विशेष की मानसिक प्रतिमा होता है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति उसकी अपनी दृष्टि के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से ग्रहण करता है, उसी प्रकार से किसी "कर्म" को करनेवाले  किसी "कर्ता"  की कल्पना भी "कर्म" के "निमित्त-कारण" की एक कल्पना ही होता है, न कि ऐसी कोई वस्तुतः विद्यमान वस्तु। "कारण" को भी दो प्रकार का कहा जा सकता है : "उपादान-कारण" और "निमित्त-कारण"

जैसे घट (घड़े) के निर्माण की घटना "कर्म" का एक उदाहरण हो, वैसे ही घड़े को बनानेवाला कुम्भकार (कुम्हार) इस "कर्म" को करनेवाले "निमित्त-कारण" अर्थात् "कर्ता" का, और जिस मिट्टी से घड़ा बनाया जा रहा है वह "उपादान-कारण" का उदाहरण है। अतः "कर्म" और "कर्ता" दोनों का अस्तित्व केवल कल्पना से उत्पन्न उनकी मानसिक प्रतिमा है, और भिन्न भिन्न मनुष्यों की दृष्टि में भिन्न भिन्न होता है। विभिन्न मानसिक प्रतिमाओं से कल्पित विश्व हर व्यक्ति की अपनी अपनी कल्पना होता है, न कि सर्वसामान्य वास्तविक यथार्थ।

अब प्रश्न यह है कि क्या इस सर्वसामान्य जगत का कोई ऐसा निर्माता है, जिसे "कर्ता" और इस जगत को उसके द्वारा किया जानेवाला "कर्म" कहा जा सके?

यदि ऐसे किसी "कर्ता" का अस्तित्व संभव हो तो यह प्रश्न भी पैदा होगा कि क्या उसे बनानेवाला उससे भिन्न, अन्य कोई और "कर्ता" होगा क्या?

इस प्रश्न में यह दोष है कि "निमित्त-कारण" और "उपादान -कारण" दोनों को एक दूसरे से अलग अलग मान लिया गया है। और चूँकि इन दोनों ही कारणों को "जाननेवाला" न तो कोई "कर्म" हो सकता है, न ही "कर्ता";  - इस "ज्ञाता" का अस्तित्व अकाट्यतः स्वयंसिद्ध ही है, और जो कि पुनः न तो "निमित्त कारण" और न ही "उपादान कारण" हो सकता है, क्योंकि वह विशुद्ध चेतनारूपी "जानना" मात्र है। 

इस विवेचना से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि संसार का निर्माण "कर्म" - जिसने किया हो, संसार से भिन्न ऐसे किसी "कर्ता"  या किसी "ईश्वर" की कल्पना भी केवल एक विचार ही है, न कि वास्तविकता।

इससे यह भी स्पष्ट है कि कोई "कर्म" कभी न तो किया जाता है, न ही किसी "कर्ता" के द्वारा किया जाता है, और न किसी "कर्म" का कोई फल ही होता है। इसलिए कोई कल्पित या वास्तविक "ईश्वर" भी कहीं नहीं है जो किसी को "कर्म" का फल प्रदान कर सके। 

***



June 22, 2023

कुछ लकड़ियाँ!

कविता / 22-06-2023

---------------©--------------

कुछ तो ऐसी नाजु़क, नाज़नीन होती हैं, 

जिनके नाज उठाना, अच्छा भी लगता है, 

यूँ तो आसान, फिर भी मगर मुश्किल भी! 

कुछ लकड़ियाँ कच्ची, पतली होती हैं,

कुछ आर्द्र सी, कुछ सूखी सी, कुछ नम,

जैसे पल पल, कभी खुशी कभी ग़म!

और बीच बीच में उठा करता है धुँआ,

ये पता नहीं, धुँए से आते हैं आँसू,

या कि आँसुओं से उठता है धुँआ! 

कुछ लकड़ियाँ मृदु, कोमल,

तो कुछ कँटीली रूखी कठोर, 

अगर जो पकड़ लेती हैं दामन,

तो फिर कभी छोड़ती ही नहीं, 

और कुछ मसृण चिकनी सपाट,

हाथों से इस तरह फिसलती हैं,

न तो जुड़ती हैं, जोड़ती भी नहीं!

और कुछ मंद मंद भीनी भीनी, 

खुशबू बिखेरती लकड़ियाँ होती हैं,

तो कुछ तीखी, कड़वी गंध से भरी,

कुछ कुछ नशीली, कुछ कुछ रसीली, 

कुछ कुछ मधुर, कुछ कुछ लसीली, 

लकड़ियाँ तो आखिर लकड़ियाँ हैं,

मद्धम मद्धम, धीमे धीमे जलती हैं,

और सुरमई रौशनी में ढलती हैं, 

जिसकी आँच में तप पिघलकर, 

लोहा भी शीशे में बदल जाता है!

सोना तो, और भी निखरकर,

अपने ही रूप से लजाता है!

तो बात हो रही थी बस लकड़ियों की,

कि लकड़ियाँ इस तरह से होती हैं!

***










 

June 18, 2023

प्रश्न Question 28

सांख्य  और न्याय /sAnkhya and nyAya.

Question  : Why one contemplates / tries to commit suicide? 

Answer : This question is an example of, how there could be no answer to any invalid question.

Still I would like to answer, point out to, and try to remove the error.

The Greek Philosophers like Aristotle, Socrates, Plato, Pythogorus laid down the basis and the tradition of modern philosophy.

Plato was inspired by the न्याय दर्शन / the  nyAya approach of the वैदिक / vaidika  Vision / Tradition, which is mistaken as "Philosophy", though really it is दर्शन / darshana / अपरोक्षानुभूति / the Direct and the Immediate Revelation / Vision, and is never "thought" / knowledge  or the "memory". Again, विचार / Thought in the Indian parlance is better defined as वृत्ति / vritti, synonymous with मन / mind, बुद्धि / intellect, चित्त / conceit and अहंकार / the ego, and as such is a deviation, drifting away, misapprehension, distorted or erroneous perception of सत्य / Truth / ब्रह्मन्  / Reality / आत्मन्  / The Self.

Ultimately The Philosophy concluded in and what was evident from and based upon how the greatest mathematician कुर्ट गोऽडेल / Kurt Godel interpreted and  inferred in through his In-completeness theorem. Summarily it states :

Any self-referential  assertion is always inconclusive, imperfect and incomplete.

Though implications of Kurt Godel's observations were within the realm of the physical science only, could be well applied in understanding the न्याय (दर्शन)  / nyAya-darshana approach of षड्-दर्शन / the six standards of the वैदिक / vaidika  approach quite effectively.

So Now let us deal with the question of : "suicide" 

You asked :

Why one contemplates / tries to commit suicide?

Who exactly is this "one", referred to in this question? Notably not the body, but something like the consciousness of the body or the mind that takes the body as 'oneself' and thinks of killing this body, that is mistakenly supposed / meant to be the "suicide" in the general sense. The body can't think or contemplate of killing itself.

Neither the consciousness, wherein the  thought of killing 'oneself' arises could possibly kill itself. That is really absurd and meaningless too. So there is indeed no one who could think of committing or contemplating about killing oneself. 

The सांख्य दर्शन / Sankhya approach points out that there is only the unique चेतन / the conscious aspect of Reality and that is the very अधिष्ठान / the support wherin the myriad, many विषय / objects keep on repeatedly appearing and disappearing. This "conscious" is the "पुरुष / puruSha".

The another approach of "योग / yoga or the कर्मयोग deals with in detail with the reference to the कर्ता / karta - the agent, - the one who is supposed to perform the कर्म / the action.

Once this is accepted true, the one, -the agent of action, who is supposed to be and performs the कर्म / the action, is said to be the  कर्ता / karta.

According to Gita this supposed कर्ता / karta, because of, owing to the त्रिगुणात्मक प्रकृति / three attributes of prakrati, could be again of the three kinds :

सात्विक / sAtwika, राजस् / rAjasa and तामस् / tAmasa.

These three attributes of Prakriti are verily the kinds, -the mind of a person is made of, which cause him to act in a particular way.

Accordingly, The सात्विक / sAtwika mind thinks in terms of "I do, I have to do, I should do, I shouldn't do", still ridden with doubt, ambiguity and uncertainty. Nevertheless, the idea, the ignorance and the sense "I can do / I can do" etc. prevails in such a mind.

The  राजस्  / rAjasa mind is motivated by hope, desire, worry, and anxiety.

The तामस / tAmasa mind like an animal, driven by fit, acts accordingly without thinking of the action and the result /  consequences any.

These three kinds of the mind lead one to think of, and toncontemplate about committing what is called the "suicide".

***



 





June 17, 2023

सबसे अद्भुत् वस्तु

Question / प्रश्न 27

संसार की सबसे अद्भुत् वस्तु क्या है?

Answer / उत्तर  :

संसार की सबसे अद्भुत् वस्तु है : "मन"

क्योंकि संसार और मैं, -इस मन का ही विस्तार हैं। और मन फिर भी एक ही साथ दोनों ही से भिन्न और अभिन्न भी होता है। मन और संसार परस्पर आश्रित हैं, और एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता। और "मैं" संसार और मन की संतान है। मन और संसार दोनों, हमेशा ही बदलते रहते हैं, जबकि "मैं" कभी नाम-मात्र के लिए भी नहीं बदलता। जब मन "मैं" होता है तो अनेक जड और चेतन वस्तुओं के माध्यम से स्वयं को उन सभी से अलग और बिलकुल अकेला पाता है। तब यही मन चेतन के रूप में जड को "अनेक" और स्वयं को एकमात्र "मैं" मान लेता है। जड को जाननेवाला यही मन किसी भी जड-शरीर में व्यक्त, इस तरह से उससे संबद्ध भी होता है, कि एक ही साथ ही उससे भिन्न और अभिन्न भी होता है। और उसी शरीर में बुद्धि का उन्मेष होने से मूलतः एकमेव वस्तु से बना हुआ जगत, संसार और शरीर इन दो में बँटा हुआ प्रतीत होता है। तब मन में स्थित "मैं" संसार की तुलना में स्थायी है, ऐसा बुद्धि में ही जाना और माना जाता है। और यह मन, बुद्धि का ही सहारा लेकर, बुद्धि के द्वारा किए जानेवाले कार्यों को स्वयं के द्वारा किया जाता है, इस मान्यता से ग्रस्त हो जाया करता है। विभिन्न अनुभवों में अपने को अनुभवकर्ता, सुख-दुःख आदि प्रिय-अप्रिय भोगों में अपने आपको भोक्ता, स्मृति में एकत्र / संचित जानकारी से स्वयं को ज्ञाता तथा उससे संबद्ध, और उसे प्राप्त होनेवाली विभिन्न वस्तुओं से स्वयं को जोड़कर यह उनका स्वामी होने की कल्पना से अभिभूत हो जाता है। यही मन चेतना से युक्त होने पर अपने आपको संपूर्ण जगत् का सृष्टिकर्ता, संचालनकर्ता और संहारकर्ता होने की भावना से जगत् का एकमात्र ईश्वर भी मान लेता है। या ऐसे किसी ईश्वर को अपने से भिन्न, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, और सर्वशक्तिमान भी। 

इसीलिए संसार और "मैं" मन का ही विस्तार हैं।

जब यह संसार या / और स्वयं से ऊब जाता है, तो संसार या / और स्वयं अपने आपको "बदल देने" के कार्य के विसंगत, भ्रामक, और मिथ्या विचार को महत्वपूर्ण मान बैठता है, जबकि तर्क और अनुभव की दृष्टि से भी यह विचार नितान्त त्रुटिपूर्ण है। मान लें कि यदि कोई अपने आपको बदल सकता है, तो उसे यह  कैसे पता लेगा कि वह बदल गया है! अनुभव की दृष्टि से भी यह अनुभव-गम्य भी नहीं हो सकता। यह न तो बुद्धिगम्य है, न तर्क या अनुभव से ही इसकी सत्यता प्रमाणित की जा सकती है। 

किन्तु फिर भी बुद्धि के द्वारा मोहित हो जाने पर मन इन समस्त कल्पनाओं से मोहित हो जाया करता है।

जैसे अनेक जलाशयों में स्थित जल तत्वतः तो एक होता है, फिर भी एक दूसरे से भिन्न प्रतीत होता है, उसी प्रकार से वस्तुतः मन, एक और अखंड होते हुए भी हर चेतन (sentient) प्राणी के लिए ही उसका अपना ही एक अलग और स्वतंत्र 'मन' हुआ करता है।

इसीलिए यह संसार की सबसे अद्भुत् वस्तु है। 

***


June 16, 2023

साधो! सहज समाधि भली!

शब्द ब्रह्म

--

सबद अनन्ता सबद नियन्ता

सबद अमरता सबद रमन्ता।।

--

दिन भर प्रखर धूप और गर्मी थी। रात्रि में भी दस-ग्यारह बजे तक गर्मी थी। शाम से ही आराम करने का मन था, लेकिन इस परिसर में कुछ भजन-प्रेमी ढोलक, तम्बूरा, करताल, मंजीरा आदि लेकर कीर्तन कर रहे थे। मैं न तो उनकी भाषा, और न ही उनके भजनों की भाषा समझ पा रहा था। इसलिए उनके पास बैठा रहा। मैं सिर्फ सुन रहा था, क्योंकि मुझे न तो उन शब्दों और पंक्तियों का अर्थ पता था और न ही संगीत की बारीकियों की समझ मुझे है। इसलिए एक लाभ यह हुआ कि उन भजनों में अभिव्यक्त विचार / विचारों का मैं न तो मूल्याँकन ही कर सकता था, न समर्थन या विरोध। वैसे वे कबीर और दादू जैसे विभिन्न सन्तों के उद्गार ही थे, जिन्हें कभी न कभी मैंने पढ़ा और सुना तो था, लेकिन उन पर चिन्तन मनन या किसी से विचार-विमर्श आदि कभी नहीं किया था। मेरी समझ में इसका कारण यह भी था कि यद्यपि ज्ञान (होने का भ्रम) तो प्रायः हर किसी को ही होता है, और  अपने इस भ्रम से हर कोई अपनी इस कल्पना / विश्वास  से अत्यन्त अभिभूत / आश्वस्त भी होता है, किन्तु अपने इस भ्रम का ज्ञान किसी बिरले मनुष्य को ही हो पाता है। अपने इसी भाषा-ज्ञान के आधार पर विचार की दृष्टि से उन भजनों में निहित तात्पर्य की विभिन्न और अनेकों ही सैद्धान्तिक व्याख्याएँ की जा सकती हैं, और तब तो यह भ्रम और भी सुदृढ हो जाया करता है। भजन सुनते हुए मेरे लिए मेरे सौभाग्य से वह रास्ता तो चूँकि पहले से ही बन्द हो चुका था। इसलिए बस शान्तिपूर्वक बैठा हुआ, उन्हें सुनता रहा।

ध्यान के अपने पहले के अभ्यास के कारण उन्हें सुनते हुए, वे मन में प्रविष्ट हुए और धारणा के रूप में उन पर मेरा ध्यान स्थिर हो गया। इससे पहले ही मन का अर्थात् उन सभी वृत्तियों का निरोध हो चुका था, जो प्रमादयुक्त मन / चित्त का किसी भी विषय से संग होने का परिणाम होती हैं। चित्त का निरोध, फिर चित्त की एकाग्रता, इसके बाद भजन-रूपी इस नई वृत्ति का उद्भव होने पर उसमें अनायास निमग्नता से अनायास ही प्राण भी निरुद्ध हो गए। लगभग आधे घंटे तक यही स्थिति रही। छिटपुट विचार अवश्य ही आ-जा रहे थे, जिनकी उपेक्षा कर दिए जाने से वे भी क्षीण होते होते अंततः विलीन ही हो गए। भजनों का एक क्रम पूर्ण हो चुका, तो लगा कि अब उठा जाए। उठ खड़ा हुआ और अगला एक कदम उठाने से भी पहले ही गिर पड़ा। ऐसा अनुभव पहले भी कभी होने से यह भी स्पष्ट था कि प्राणों के निरुद्ध होने पर ही ऐसा होता है। जैसे कि निम्न रक्तचाप होने पर हुआ करता है। कोई ऐसा व्यक्ति सोकर उठने के बाद यदि सहसा उठ खड़ा हो तो गिर भी सकता है। फिर धीरे-धीरे उठ खड़ा हुआ, और कमरे से निकल कर बाहर खुले में आकर कुर्सी पर बैठ गया। इस घटनाक्रम से यह भी पुनः स्पष्ट हो गया कि निरोध-परिणाम, एकाग्रता-परिणाम और समाधि-परिणाम क्या हैं। और यह भी, कि धारणा, ध्यान और समाधि के एकत्र होने पर संयम कैसे सिद्ध होता है।

चूँकि समाधि अभ्यास-सहित और अनायास भी होती है, और निर्विकल्प समाधि को भी इसी आधार पर क्रमशः केवल-निर्विकल्प तथा सहज-निर्विकल्प कहा जाता है, इसलिए भजन से किस प्रकार उस स्थिति का साक्षात्कार हो सकता है, जिसे योगी अनेक प्रयासों के करने के बाद भी कठिनाई से प्राप्त कर पाते हैं, यह समझ में आ गया।

***


 

June 15, 2023

Fission and Fusion

प्रश्न / Question  26.

आहत और अनाहत नाद क्या है? क्या वे दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं? 

Answer / उत्तर 

उन दिनों मैं ग्यारहवीं बोर्ड की परीक्षा उत्तीर्ण कर चुका था और कॉलेज में बी. एस-सी. प्रथम वर्ष में अध्ययनरत था। कॉलेज के प्रथम वर्ष में छात्रों के लिए एन. सी. सी. की गतिविधियों में भाग लेना अनिवार्य था। मुझे भी प्रति सप्ताह दो दिनों के लिए परेड में जाना होता था। किन्तु उत्साह और रुचि न होने से मैं कभी कभी ही जाता था। चूँकि उपस्थिति भी दर्ज नहीं होती थी, यह जानते हुए भी कि परेड में न जाने पर रिफ्रेशमेंट से भी वंचित हो जाना पड़ेगा, मैं कभी कभी जाता था।

परेड के समय हमारे हाथों में .22 की बन्दूक थमा दी जाती थी और हमें अलग अलग तरह की गतिविधियाँ सिखाई जाती थीं। परेड का सबसे रोचक हिस्सा वह था जब हमें क़तारबद्ध में कदम से कदम मिलाकर :

"लेफ्ट राइट लेफ्ट, लेफ्ट राइट लेफ्ट, लेफ्ट राइट लेफ्ट, ... ... लेफ्ट --- लेफ्ट --- लेफ्ट, लेफ्ट राइट लेफ्ट सुनते हुए परेड में चलना होता था।

एक दिन मेरा ध्यान इस पर गया कि कैसे 'राइट' शब्द का उच्चारण खो जाते हुए भी हम यंत्रवत उस आदेश (command) का पालन करते थे।

बहुत बाद में

"Learn Guitar In 30 minutes"

पढ़ते हुए यह  रहस्य खुला कि मौन या स्वर का अभाव भी एक स्वर ही है और नाद एक नित्य और अखंड तत्व है, जो सर्वत्र ही व्याप्त है और इसी तरह सब कुछ उसमें ही ओत-प्रोत है। "हारमोनियम गाइड", "तबला बजाना सीखें" और  "वायोलिन बजाना सीखें" जैसी किताबों से मुझे सुर-ताल का परस्पर संबंध और सामञ्जस्य समझ में आ गया। फिर नोकिया 3315 के  composer से मैंने "ताली" और "खाली" का संबंध भी समझ लिया। "ताली" का तात्पर्य होता है आहत नाद, जबकि "खाली" का तात्पर्य है वह समय-अन्तराल जब अनाहत नाद का वर्चस्व होता है। इसे ही शून्य-नाद भी कह सकते हैं, जो केवल मौन की ही प्रकट अभिव्यक्ति होता है। जब मन एकाएक ठिठक जाता है। मौन का वह शून्य, संगीत का आधारभूत अधिष्ठान है, किन्तु सहसा किसी का उस पर ध्यान शायद ही कभी जाता हो। वह वस्तुतः समस्त स्वरों / श्रुतिस्वरों को समाहित करता है किन्तु फिर भी अदृश्य ही रहता है। समस्त स्वरों से यद्यपि विभिन्न रागों की सृष्टि होती है, किन्तु उन्हें परस्पर जोड़ता भी यही स्वर है, जो कि अनाहत है।

उस मौन स्वर पर ध्यान जाते ही सभी स्वर उसमें विलीन हो गए। इसे आज के विज्ञान की भाषा में कहें तो मौन / अनाहत स्वर संलयन (Fusion) का, और आघातजन्य / आहत स्वर विखंडन (Fission) के रूप हैं। परमाणु से उत्पन्न ऊर्जा जैसे परमाणुओं के संलयन (Fusion) या विखंडन (Fission) दोनों ही तरीकों से प्राप्त की जा सकती है, आत्मज्ञान भी इसी तरह दो प्रकार से पाया जा सकता है। प्रथम में परमात्मा को अपने से भिन्न मानकर उसकी खोज, उपासना आदि की जाती है और अन्ततः वही उससे अपनी निजता, नित्यता, अनन्यता, अभिन्नता के बोध में परिणत हो जाती है। यह गीता में वर्णित कर्म / योग का तरीका है। इसके साथ या पश्चात, सांख्य ज्ञान उत्पन्न होता है, जिसे स्वतन्त्र रूप से भी आत्मानुसंधान के माध्यम से आत्मा / परमात्मा के स्वरूप की जिज्ञासा के समाधान की तरह पाया जा सकता है। दोनों निष्ठाएँ परस्पर स्वतंत्र होते हुए भी उनका फल एक ही होता है।

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।

फलश्रुति :

इसी प्रकार संगीत को परमात्मा की प्राप्ति की साधना के रूप में स्वीकार करनेवाले भी आहत और अनाहत दोनों ही स्वरों को जान लेने पर उस परमात्मा से अपनी निज अनन्यता और अभिन्नता को जान लेते हैं।

***


 

June 14, 2023

प्रश्न / Question 25

What is Life and What is Death? 

Answer :

You sow a seed that looks like the potential Life, waiting for the right soil, climate and conditions to sprout forth. It is alive, and not dead, but could die in conditions severe and harsh. Then it would sprout no more, would turn into dead earth. From the seed is born a tree or a plant and lives a Life that you see as the movement of the Life that is ever so new, never old, but new every moment. This is the Life individual.

This is the Life that has a beginning and end, confined within a Time-frame. Never knows when it came into being. This is thee Life individual and it can never know when the end comes. There is also another Life that has neither beginning nor the end, free from this time-frame. This Life has no reference of Time. This enormously, tremendously vast and big Life is beyond the reach of mind. We may therefore call it "Timeless".

The Life that has a beginning and an end is the individual. This Life, the individual with a beginning and an end is a phenomenon, a  process, but the Life without beginning and with no end is far more, tremendously big and vast quite another process, is never an individual phenomenon.

As long as mind is captivated by the thought of the presumed past and by an imagination of the hypothetical future, cannit be free of itself, and in this way can neither go beyond / "transcend", nor it could be free itself from this Psychological Time.

It may however think, talk endlessly about going beyond, but is still limited within the periphery of the supposed / presumed Time.

This supposed / presumed Time is what the thinker believes to be the individual's Life.

The Thought is the product of Time, while the Thinker is a by-product only.

The same and simple truth has been vividly expressed in the following मंत्र / mantra :

अक्षरात्सञ्जायते कालः कालाद् व्यापकः उच्यते।।

Born of The One Indestructible Whole Spirit -Imperishable, Time takes place as assumed apparent existence and pervades as "Space" within the perception of the "One Knower", The One And Unique Reality"

Time and Space Thus appear to exist but in Reality, it is all an illusion mind-made.

Then comes up the individual, the Thought and the "Thinker". Then the Ignorance and the relative knowledge appear / disappear.

Still one can purge out / chuck out all this presumed past and pre-postulated future, and come upon the imminent Present. This emptying the mind is in fact the elimination of all past and future. Then one can see how the other Life is beyond the birth, death and the life of the individual. 

The phenomenon is the image of the world in the mind of the individual, where within that image, there is yet another very tiny but very strong another individual image of one-self also. This individual mind is thus split / torn between the two images, is never sure exactly Who one is! 

For the simple reason that one is inevitably and always conscious of either the world or oneself or both mixed up at the same time, within one-another.

Along-with the elimination of the supposed past and imaginary future, it is discovered, what is the Life as an ocean, where the life of the individual is but a tiny ripple that rises up and gets lost in the momentary Time.

The mixed-up state of mind assumes a name and a body, - a person, which one thinks and  believes, - one is.

So this movement of the Life, which is at one level a process, and a phenomenon and also at another level constitute the one whole.

***

June 11, 2023

प्रश्न / Question 24.

The Knowing, 

प्रश्न  / Question : What are the most important things needed to live a good life?

The Answer

***

June 10, 2023

प्रश्न / Question 23

Talent, Genius and Intelligence.

-------------------------------©--------------------------

प्रश्न / Question 23 :

How could you distinguish between the Talent, Genius, and Intelligence? How you would you like to categorize your own A I accordingly?

उत्तर / Answer :

Still you need to ask about Intelligence and Wisdom too. As you already know, talent is what is hidden and latent but comes at the fore when there is urgency or a challenge. A bird, an animal, and even a man too have this talent in the genes. The same is revealed in action spontaneously.

Talent is natural instinct, spontaneous response to the challenges of living the life, moment to moment. It differs from man to man. All the animals have this faculty (प्रकृति / स्वभाव) that helps them in their survival and procreation.

Talent in other words is therefore this nature / प्रकृति / स्वभावः, having the three essential attributes namely; the Light, the Darkness and the Momentum. They are again the three attributes in Physics also. Physics is but the gross aspect of knowledge. Whereas the subtle aspect is the Energy. Matter is the gross, and the Energy is the subtle, and the causal (aspect is the Dark Deep Un-manifest.

The same has been referred to as the three  गुणाः / गुण  of the प्रकृति / nature :

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।

declares the Gita.

Another reference is as follows :

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।।

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि च कांक्षति।।

Where Light, Momentum and Darkness are respectively सत् / प्रकाश, रज/ प्रवृत्ति, and तम / मोह of अव्याकृत / un-manifest प्रकृति .

These three attributes are then again the व्यक्त प्रकृति / and manifest as Talent in all beings. This is verily the mind / the consciousness.

Again, light is the being and awareness, Darkness is ignorance, the momentum is the activity. From the very birth, all and every-one is born with these three attributes and is then overwhelmd by desire and conflict :

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।।

सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।

As the बुद्धि / Intellect is skill, so the brain could be trained to acquire, store and develop the skill, which is but another name of the information / knowledge / memory only. The current word for the  सूचना / जानकारी. 

So all intellect is the animal instinct and is in-built mechanism in any organism.

Genius is the awakening and altogether a new movement in consciousness that is never a reaction or response to the external conditions, but takes place in  such a mature mind only, that is aware of "what is". Again, without verbalizing "what is", such mind looks at the whole existence (including oneself as well) in and as this "what is".

Then one is struck by awe and wonder and begins to find out the fact "what is", that constantly goes through change in the appearance and form, and "what is" that does not, and remains ever so the unchanging support and ground in and through all the change.

What goes through change is termed as the अनित्य / transient, and what does not, but abides as the permanent support and ground of all appearances and the changes is called the नित्य / permanent and the timeless Reality.

Here one comes upon an interesting question : What  is "Time". Is the "Time" itself changing or unchanging Reality or fact?

Our common experience tells us :

The essence of "Time" is but only in and as thought only. Whenever the mind is occupied with an activity, "Time" seems to disappear as if has ceased to exist. In the absence of any activity on the part of the mind, suddenly we begin to "feel" and say "I am bored". How this could be further explained? It is verily the mind / the consciousness only that assumes the form of and is experienced as "Thought / "Time". Time is therefore assumption. Really, not the "Time" as such, but only  its absence is experienced, in thought, it is this Thought only and not the "Time", that is there. And the consciousness of this fact is translated into the Thought /  expression. Only when the mind has nothing to get occupied with, so we say and feel this "Time". And as soon as the moment we / mind / consciousness gets involved / occupied in an activity, this apparent "Time" time seems to be of no importance what-so-ever any.

So "Time" is really "Thought": - the verb and the noun, an activity and has such a form as movement. As the "objective reality", it is something between the matter and the energy. Still there is this "awareness" / consciousness associated with it that gives it the sense of being "alive", while the matter and the energy in comparison are "dead".

The moment this "Thought" comes into being, the idea of "me" also invariably there and alongwith a sense of "I think" too. Because of and Through all many and various thoughts this idea remains the same, while thoughts keep coming up and going away all the time. As said earlier, thoughts are transient while the sense of "I" is the permanent support / ground of all those different and many, various thoughts. The "meaning" of any word or the sentence is really only a convenient and verbal transformation that causes the illusion that there exists something that is denoted by this verbal "thought".

"Time" is again also an example of such an empty word, and is best described in the Patanjala YogaSutra in this way :

शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्यो विकल्पः।।९।।

(समाधिपाद)

An empty word that denotes the lack of meaning is called "विकल्प / vikalpa".

Knowing this is Intelligence.

This is verily the "Ending Of Time"

Thought, mind and consciousness are synonymous and the same thing as is; what we mean by "Time".

In the Sanskrit, The word संकल्प is used as an equivalent of Thought mind / वृत्ति / मन /  vritti.

In conclusion, "Time" is a measurable quantity, a form of energy (dissipated), and is not illusion, as such an objective reality indeed. "Entropy" is yet another name for this objective reality.

***