What is :
ईश्वर, कर्म , कार्य , और "मैं"
God, Action ,Work , and I ?
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Answer / उत्तर :
मैं इतना ही जानता हूँ कि ईश्वर से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ हूँ, और जैसे कोई भी अपने अस्तित्व से अनभिज्ञ नहीं होता, सभी दूसरे मनुष्यों की तरह अपने अस्तित्व की सत्यता बारे में मुझे भी कोई संशय या सन्देह नहीं है।
चूँकि अपने अस्तित्व का ज्ञान तो प्रत्येक मनुष्य-मात्र में अनायास ही होता है, जबकि अपने से अन्य किसी भी वस्तु का ज्ञान इन्द्रियों से प्राप्त संवेदनों की स्मृतियों का समूहमात्र होता है, इसलिए उसकी सत्यता संदेह से परे नहीं हो सकती है, अर्थात् समस्त इन्द्रियगम्य, मनोगम्य और बुद्धिगम्य ज्ञान स्वयं अपने आपके ज्ञान की तुलना में अस्पष्ट, अनिश्चित होने से संदेहास्पद, अप्रामाणिक एवं अस्थिर होता है, जबकि स्वयं अपने आपका ज्ञान सदैव अकाट्य,अचल और अटल, एवं स्थिर होता है।
इसलिये ईश्वर है या नहीं है इस प्रकार की कोई मान्यता वैचारिक ऊहापोह है, न कि स्वयं अपने आपके अस्तित्व के भान / बोध की तरह का कोई निर्विवाद, सरल और सुगम तथ्य।
इसी प्रकार ईश्वर से स्वयं का क्या संबंध है यह भी केवल वैचारिक ऊहापोह ही होने से सदैव केवल अनुमान-मात्र ही होता है, जबकि स्वयं काअपना अस्तित्व और स्वयं को होनेवाला उसका भान निश्चयात्मक सत्य है। "होना" और अपने इस "होने" के सत्य का बोध न तो इन्द्रियों या बुद्धि के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है, और न ही, कभी नया या पुराना हो सकता है, जबकि, ईश्वर के संबंध में सब कुछ सदैव नितान्त अनिश्चित, अस्पष्ट और विवादास्पद होता है।
ईश्वर की ही तरह "कर्म" भी एक मान्यता है, किन्तु ईश्वर की ही तरह अप्रकट और विचारगम्य न होते हुए भी प्रकटतः होनेवाला "कार्य" होता है, जिसे "घटना" भी कह सकते हैं । और अपने आपको जब तक व्यक्ति विशेष समझा जाता है, तब तक दूसरे भी ऐसे ही प्रतीत होते रहते हैं। अपने आपके और दूसरों के भी व्यक्ति विशेष होने की कल्पना ही कल्पित संसार है। इसमें हर मनुष्य प्रमादवश / अनवधानतावश अपने आपको किसी कर्म का कर्ता मान बैठता है। जब तक कोई इस कल्पना से अभिभूत रहता है उसके कर्म नित्य, नैमित्तिक, विहित और निषिद्ध, इन चार प्रकारों के होते हैं। नित्य - जैसे साँस लेना, खाना पीना, सोना, जागना, स्वप्न देखना। नैमित्तिक - जो किसी अवसर पर किए जाते हैं जैसे पुत्र के जन्म पर किए जानेवाला कर्म। विहित - कर्तव्य कर्म और निषिद्ध - जिन्हें करने का निषेध है । जैसे चोरी करना, झूठ बोलना, हिंसा, दुराचार इत्यादि। ये चारों पुनः शारीरिक या मानसिक रूप में भी हो सकते हैं।
जैसे "कर्म" घटना विशेष की मानसिक प्रतिमा होता है, जिसे प्रत्येक व्यक्ति उसकी अपनी दृष्टि के अनुसार भिन्न भिन्न प्रकार से ग्रहण करता है, उसी प्रकार से किसी "कर्म" को करनेवाले किसी "कर्ता" की कल्पना भी "कर्म" के "निमित्त-कारण" की एक कल्पना ही होता है, न कि ऐसी कोई वस्तुतः विद्यमान वस्तु। "कारण" को भी दो प्रकार का कहा जा सकता है : "उपादान-कारण" और "निमित्त-कारण"
जैसे घट (घड़े) के निर्माण की घटना "कर्म" का एक उदाहरण हो, वैसे ही घड़े को बनानेवाला कुम्भकार (कुम्हार) इस "कर्म" को करनेवाले "निमित्त-कारण" अर्थात् "कर्ता" का, और जिस मिट्टी से घड़ा बनाया जा रहा है वह "उपादान-कारण" का उदाहरण है। अतः "कर्म" और "कर्ता" दोनों का अस्तित्व केवल कल्पना से उत्पन्न उनकी मानसिक प्रतिमा है, और भिन्न भिन्न मनुष्यों की दृष्टि में भिन्न भिन्न होता है। विभिन्न मानसिक प्रतिमाओं से कल्पित विश्व हर व्यक्ति की अपनी अपनी कल्पना होता है, न कि सर्वसामान्य वास्तविक यथार्थ।
अब प्रश्न यह है कि क्या इस सर्वसामान्य जगत का कोई ऐसा निर्माता है, जिसे "कर्ता" और इस जगत को उसके द्वारा किया जानेवाला "कर्म" कहा जा सके?
यदि ऐसे किसी "कर्ता" का अस्तित्व संभव हो तो यह प्रश्न भी पैदा होगा कि क्या उसे बनानेवाला उससे भिन्न, अन्य कोई और "कर्ता" होगा क्या?
इस प्रश्न में यह दोष है कि "निमित्त-कारण" और "उपादान -कारण" दोनों को एक दूसरे से अलग अलग मान लिया गया है। और चूँकि इन दोनों ही कारणों को "जाननेवाला" न तो कोई "कर्म" हो सकता है, न ही "कर्ता"; - इस "ज्ञाता" का अस्तित्व अकाट्यतः स्वयंसिद्ध ही है, और जो कि पुनः न तो "निमित्त कारण" और न ही "उपादान कारण" हो सकता है, क्योंकि वह विशुद्ध चेतनारूपी "जानना" मात्र है।
इस विवेचना से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि संसार का निर्माण "कर्म" - जिसने किया हो, संसार से भिन्न ऐसे किसी "कर्ता" या किसी "ईश्वर" की कल्पना भी केवल एक विचार ही है, न कि वास्तविकता।
इससे यह भी स्पष्ट है कि कोई "कर्म" कभी न तो किया जाता है, न ही किसी "कर्ता" के द्वारा किया जाता है, और न किसी "कर्म" का कोई फल ही होता है। इसलिए कोई कल्पित या वास्तविक "ईश्वर" भी कहीं नहीं है जो किसी को "कर्म" का फल प्रदान कर सके।
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