आतंक का मनोविज्ञान
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आतंकित होना भयभीत होने का लक्षण है।
जैसा प्रायः हर व्यक्ति के बारे में सत्य है, मृत्यु से भयभीत किसी भी व्यक्ति का भय भी पुनः दो प्रकार का हो सकता है :
पहला मृत्यु हो जाने का डर, दूसरा मृत्यु जैसा कष्ट होने का डर।
पुनः दोनों प्रकार के डर तीन कारणों से पैदा हो सकते हैं :
पहला - मृत्यु के विचार मात्र से पैदा होनेवाला डर,
दूसरा - मृत्यु के समय होनेवाले कष्ट के विचार / उसकी कल्पना से पैदा होनेवाला डर,
तीसरा - मृत्यु होने से होनेवाली क्षति से, और मृत्यु के बाद की स्थिति की कल्पना से पैदा होनेवाला डर।
जैसे किसी व्यक्ति को जब डॉक्टर ऑपरेशन किए जाने की ज़रूरत के बारे में बतलाता है, और उसके मन में इस बात से डर पैदा होता है वह इन्हीं तीनों में से एक, दो या तीनों प्रकारों का मिला-जुला डर हो सकता है, उसी तरह आतंक से पैदा होनेवाला डर भी इन तीनों प्रकारों का मिला-जुला डर हो सकता है। यहाँ तक कि कभी-कभी कोई व्यक्ति केवल संभावित लाभ-हानि या बदनामी की कल्पना या संभावना के विचार मात्र से ही इतना सिहर और डर जाता है कि इससे बचने के लिए वह आत्महत्या करने तक के बारे में सोचने लग सकता है, उसी तरह आतंक से ग्रस्त व्यक्ति भी कभी कभी संभावित मृत्यु (की अवश्यम्भाविता) के प्रति इतना लापरवाह भी हो सकता है, कि उसका ध्यान केवल इस पर केंद्रित होकर रह जाता है कि अब उसे क्या करना होगा जिससे मृत्यु होने या न होने की स्थिति में उसे न्यूनतम संभवित कष्ट / हानि और अधिकतम संभावित लाभ की प्राप्ति हो सके। डॉक्टर द्वारा ऑपरेशन की ज़रूरत बतलाए जाने के बाद, यह भी हो सकता है कि ऑपरेशन किए जाने का, या न किए जाने से पैदा होनेवाली हालत का भी एक नया डर पैदा हो जाए ! यही कष्ट / लाभ / हानि उसे किसी आदर्श के लिए प्राण देने जैसे कार्य में भी दिखाई दे सकती है, और स्पष्ट ही है कि यह मूलतः एक भ्रम और brain-washing का ही दुष्परिणाम होता है।
एक कोमल मन-मस्तिष्कवाले, 8 वर्ष की अबोध आयु के अपरिपक्व बच्चे को जब बहला-फ़ुसलाकर suicide-jacket पहनाकर किसी ऐसे 'अभियान' पर भेज दिया जाता है जो उसे सीधे 'अल्लाह' से मिला देगा, तो उसमें यह क्षमता तक विकसित नहीं हुई होती, कि वह इस पर सोच-समझ सके। और यद्यपि वह आतंकग्रस्त नहीं भी होता, फिर भी वह आतंक फ़ैलाने के लिए एक औज़ार बन जाता है। उसे न तो मृत्यु के कष्ट का, न मृत्यु होने की स्थिति की कल्पना का डर होता है। लेकिन वे दूसरे लोग, जिनका धर्म के बहाने brain-wash किया जा चुका होता है, और जो स्वयं शायद मृत्यु के कष्ट या मृत्यु के बाद की स्थिति के प्रति 'मोहित-बुद्धि' होने के कारण इस डर को छोड़ चुके होते हैं, या शायद इसीलिए भी, उसे बलपूर्वक मृत्यु-मुख में धकेल देते हैं। या शायद वे बस मूढ बुद्धि होते हैं जिनकी बुद्धि बुरी तरह कुंठित होती है या कर दी गयी होती है।
और हालाँकि श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ ने यह बात काश्मीर या पाकिस्तान के सन्दर्भ में कही हो, यह बात नाइजीरिया, सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान जैसे देशों में भी देखी जा सकती है।
बच्चे तो ठीक, स्त्रियाँ तक खुशी-खुशी (?) मानव-बम बनने में फ़ख्र महसूस करती हैं जैसा कि श्रीलंका में हाल में हुआ। ऐसे लोग स्वयं भी धर्मभीरु होने से या अपने निजी स्वार्थों / तथाकथित आदर्शों से प्रेरित होकर उन धर्मान्ध कट्टरपंथी धूर्त लोगों के आसान शिकार हो जाते हैं जो अपने सुरक्षित आरामगाहों में रहते हुए ऐशो-आराम में डूबे रहते हैं।
श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के अनुसार इस्लाम, - धर्म नहीं, एक राजनीतिक विचारधारा मात्र है, जिसका सामना इससे अधिक शक्तिशाली, किसी दूसरी ताकतवर विचारधारा से ही किया जा सकता है।
प्रश्न यह है कि क्या इस विचारधारा का जवाब विचारधारा से ही दिया जा सकता है?
क्या यही पर्याप्त और अधिक उचित नहीं होगा कि इस विचारधारा को धर्म कहे बिना ही इसके सभी पक्षों पर सबका ध्यान आकर्षित किया जाए सबको जागरूक किया जाए, ताकि इसकी कट्टरवादी व्याख्या से सब सावधान और सतर्क रहें?
किसी विचारधारा को सीधे नष्ट नहीं किया जा सकता, न ऐसा करना ज़रूरी ही है, बल्कि यह एक खतरनाक विकल्प भी हो सकता है। किसी विचारधारा का विरोध करना भी, उसे और भी ज़्यादा ताकतवर बना सकता है।
किसी भी तथाकथित 'धर्म' (religion) का उसके आरंभ से अब तक का इतिहास जानना इससे अधिक ज़रूरी है।विशेषकर वह धर्म जो राज्यसत्ता या प्रचार के सहारे प्रचलित होता है। जिसका प्रचार किया जाना पड़ता है वह धर्म नहीं व्यापार का एक प्रकार होता है। (सनातन) धर्म किसी पर बलपूर्वक या बहला-फुसलाकर आरोपित नहीं किया जाता। और जिसे बलपूर्वक या बहला-फुसलाकर आरोपित किया जाता हो, वह और कुछ भी हो, 'धर्म' तो क़तई नहीं होता।
धर्म और रिलिजन (religion) के बीच परस्पर लगभग वैसा ही संबंध / भेद देखा जा सकता है, जैसा कि 'वाणी' (voice) और भाषा (Language) के बीच होता है।
संस्कृत भाषा में क्रियापद 'लग्' से अंग्रेज़ी में (शायद लैटिन के रास्ते) जितने सज्ञात cognate बने हैं उनमें से leg, lag, ligature, legate, legacy, legal, legitimate, legion, log, lug का प्रयोग / संबंध 'लगने' या 'जुड़ने' के अर्थ में होता है। 'religion' इसी प्रकार 'परिलग्न' का सज्ञात / सज्ञाति / cognate है । अंग्रेज़ी के जितने शब्दों में 're' उपसर्ग (prefix) से बने हैं प्रायः सभी इसी 'परि' का 're' में परिवर्तन (reversion) है।
इसलिए religion का धर्म से बहुत भिन्न अर्थ है, और क्रिश्चियनिटी, इस्लाम, यहूदी, पारसी यहाँ तक कि जैन, हिन्दू, बौद्ध, सिख आदि परंपराओं में से कोई भी शुद्धतः धर्म न होकर परंपराओं (legacy) का मिश्रण है, जिसमें यद्यपि धर्म के कुछ लक्षण प्राप्त होते हैं किन्तु वास्तविक धर्म उससे बहुत भिन्न है। इन लक्षणों में कुछ तो अधर्मपरक भी हैं और इसका कारण यही है कि वैदिक धर्म अर्थात् सनातन धर्म के अनुसार वर्ण-आश्रम-धर्म ही वह धर्म है जिससे मनुष्य मात्र सच्चे अर्थों में सुखी हो सके। दूसरी ओर जैन तथा बौद्ध धर्म श्रमण और तपस्वियों के लिए हैं। आज की स्थिति में जब वर्ण-आश्रम परंपरा ही लुप्तप्राय हो रही है, तो दुर्भाग्य से धर्म के नाम पर अधर्म को भी धर्म कहा और सिद्ध भी किया जा रहा है, उसका ही प्रचार हो रहा है, लेकिन इसके परिणाम से स्पष्ट है कि भौतिकता पर केंद्रित यह धर्म संसार को विनाश के गर्त में धकेल रहा है।
धर्म तो खोज और अंतःप्रेरणा है। धर्म तो परम स्वातंत्र्य है किन्तु उसकी मर्यादा है। धर्म उच्छृंखल, अमर्यादित आचरण नहीं है। धर्म राजनीति और व्यापार नहीं हो सकता। राजनीति और व्यापार धर्म के आचरण के साथ भी किए जा सकते हैं, जबकि बिना धर्म के वे आरंभ में और अंततः भी सबके लिए अहितकारी और विनाशकारी ही सिद्ध होते हैं।
इसलाम पूरे संसार की दुःखती रग क्यों बन गया है?
क्योंकि हमने ईमानदारी से कभी इस्लाम को समझने की कोशिश ही नहीं की। इसलाम के इतिहास और सिद्धांतों को ध्यान से समझने पर हमें स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों इसकी अनेक व्याख्याएँ हैं और इसके क्या अंतर्विरोध / विसंगतियाँ हैं। सवाल यह भी है कि क्या संसार को इस्लाम की ज़रूरत है? और, क्या इस्लाम को संसार की ज़रूरत है? इन प्रश्नों का उत्तर उस हर व्यक्ति को स्वयं ही खोजना होगा जो इस्लाम के पक्ष या विपक्ष में है। लेकिन राजनीति ऐसा नहीं करने देती। राजनीति तो इस्लाम (या किसी भी दूसरी विचारधारा) के पक्ष में, या विरोध में होती है। इसलिए यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है।
नक्सलवाद, माओवाद इसी प्रकार के आंदोलन हैं, जो हिंसा के माध्यम से राज्य को अपने नियंत्रण में करना चाहते हैं।
संक्षेप में; -कहीं भी, कोई भी मनुष्य आतंक से आतंकित होकर या बिना आतंकित हुए भी, मृत्यु के भय से घबराकर, या बिना घबराए भी इतना विक्षिप्त हो सकता है (या उसे विक्षिप्त किया जा सकता है), कि बेख़ौफ़ और बेहिचक होकर आतंक फैलाने और मरने-मारने पर उतारू हो जाए।
इसलिए आश्चर्य नहीं कि तमाम चिंताओं और प्रयासों के बाद भी आतंक की खेती या उद्योग (फैक्ट्री) पनपती ही जा रही है। आदर्श और लक्ष्य भले ही परस्पर कितने ही विपरीत या विरोधी क्यों न हो कुल परिणाम यही है कि कुछ लोग हमेशा आतंक की बलि चढ़ते रहेंगे जबकि कुछ दूसरे लोग धर्म के नाम पर उनकी बलि देते रहेंगे।
मनुष्य मात्र आतंकित होने से हिंसक हो जाता है और हिंसक होने से आतंकित भी।
कमज़ोर पर हिंसा करते हुए उसमें एक तात्कालिक उन्माद अवश्य पैदा हो जाता है जो उसे स्वयं के शक्तिशाली होने का भरोसा दिलाता है। लेकिन दूसरी ओर उसकी मानवीय-संवेदनशीलता भी उतनी ही अधिक कुंठित और जड होने लगती है इस ओर से वह और भी लापरवाह होने लगता है।
हिंसा का यही उन्माद उसमें ऐसे ही दूसरे उन्मादों से जुड़कर 'राष्ट्रवाद', 'धर्म' या समाज के लिए प्राण तक ले लेने और दे देने का ज़ोश जगाता है।
'धर्म' ही जब युद्ध के लिए उकसाने लगे, तो इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी?
यहाँ इस बात को नज़र-अंदाज़ करना ही सबसे भयानक भूल है कि हमने विभिन्न और परस्पर विरोधी मतों-मतान्तरों, रूढ़ियों और परंपराओं को बिना उनकी सत्यता जाने-समझे 'धर्म' कहा और अब हम यह तक भूल गए हैं कि वास्तविक 'धर्म' तो उन सबमें समान रूप से विद्यमान वह तत्व है जो सभी मनुष्यों में सर्वत्र ही परस्पर विश्वास, सौहार्द्र और प्रेम पैदा करता है। दूसरी ओर बारम्बार यह भी कहा जाता है कि सब धर्म सामान हैं ! क्या यह एक प्रत्यक्ष विरोधाभास नहीं है?
इस विरोधाभास को पहचानने के बाद यह स्वयं ही दूर हो जाता है, और केवल इसी तरह से हम इसे दूर कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए समाज के स्तर पर कार्य कर पाना शायद बहुत मुश्किल काम होगा। अगर कर सकें तो ज़रूर करें ! शुभकामनाएँ !
इसलिए उस स्तर पर तो शायद व्यक्ति लगभग पूरी तरह बेसहारा और असहाय है लेकिन स्वयं अपने भीतर इस बारे में विवेकपूर्वक अपना और संसार का विनाश रोकने के लिए हमेशा और अवश्य ही भरसक कुछ कर सकता है।
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आतंकित होना भयभीत होने का लक्षण है।
जैसा प्रायः हर व्यक्ति के बारे में सत्य है, मृत्यु से भयभीत किसी भी व्यक्ति का भय भी पुनः दो प्रकार का हो सकता है :
पहला मृत्यु हो जाने का डर, दूसरा मृत्यु जैसा कष्ट होने का डर।
पुनः दोनों प्रकार के डर तीन कारणों से पैदा हो सकते हैं :
पहला - मृत्यु के विचार मात्र से पैदा होनेवाला डर,
दूसरा - मृत्यु के समय होनेवाले कष्ट के विचार / उसकी कल्पना से पैदा होनेवाला डर,
तीसरा - मृत्यु होने से होनेवाली क्षति से, और मृत्यु के बाद की स्थिति की कल्पना से पैदा होनेवाला डर।
जैसे किसी व्यक्ति को जब डॉक्टर ऑपरेशन किए जाने की ज़रूरत के बारे में बतलाता है, और उसके मन में इस बात से डर पैदा होता है वह इन्हीं तीनों में से एक, दो या तीनों प्रकारों का मिला-जुला डर हो सकता है, उसी तरह आतंक से पैदा होनेवाला डर भी इन तीनों प्रकारों का मिला-जुला डर हो सकता है। यहाँ तक कि कभी-कभी कोई व्यक्ति केवल संभावित लाभ-हानि या बदनामी की कल्पना या संभावना के विचार मात्र से ही इतना सिहर और डर जाता है कि इससे बचने के लिए वह आत्महत्या करने तक के बारे में सोचने लग सकता है, उसी तरह आतंक से ग्रस्त व्यक्ति भी कभी कभी संभावित मृत्यु (की अवश्यम्भाविता) के प्रति इतना लापरवाह भी हो सकता है, कि उसका ध्यान केवल इस पर केंद्रित होकर रह जाता है कि अब उसे क्या करना होगा जिससे मृत्यु होने या न होने की स्थिति में उसे न्यूनतम संभवित कष्ट / हानि और अधिकतम संभावित लाभ की प्राप्ति हो सके। डॉक्टर द्वारा ऑपरेशन की ज़रूरत बतलाए जाने के बाद, यह भी हो सकता है कि ऑपरेशन किए जाने का, या न किए जाने से पैदा होनेवाली हालत का भी एक नया डर पैदा हो जाए ! यही कष्ट / लाभ / हानि उसे किसी आदर्श के लिए प्राण देने जैसे कार्य में भी दिखाई दे सकती है, और स्पष्ट ही है कि यह मूलतः एक भ्रम और brain-washing का ही दुष्परिणाम होता है।
एक कोमल मन-मस्तिष्कवाले, 8 वर्ष की अबोध आयु के अपरिपक्व बच्चे को जब बहला-फ़ुसलाकर suicide-jacket पहनाकर किसी ऐसे 'अभियान' पर भेज दिया जाता है जो उसे सीधे 'अल्लाह' से मिला देगा, तो उसमें यह क्षमता तक विकसित नहीं हुई होती, कि वह इस पर सोच-समझ सके। और यद्यपि वह आतंकग्रस्त नहीं भी होता, फिर भी वह आतंक फ़ैलाने के लिए एक औज़ार बन जाता है। उसे न तो मृत्यु के कष्ट का, न मृत्यु होने की स्थिति की कल्पना का डर होता है। लेकिन वे दूसरे लोग, जिनका धर्म के बहाने brain-wash किया जा चुका होता है, और जो स्वयं शायद मृत्यु के कष्ट या मृत्यु के बाद की स्थिति के प्रति 'मोहित-बुद्धि' होने के कारण इस डर को छोड़ चुके होते हैं, या शायद इसीलिए भी, उसे बलपूर्वक मृत्यु-मुख में धकेल देते हैं। या शायद वे बस मूढ बुद्धि होते हैं जिनकी बुद्धि बुरी तरह कुंठित होती है या कर दी गयी होती है।
और हालाँकि श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ ने यह बात काश्मीर या पाकिस्तान के सन्दर्भ में कही हो, यह बात नाइजीरिया, सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान जैसे देशों में भी देखी जा सकती है।
बच्चे तो ठीक, स्त्रियाँ तक खुशी-खुशी (?) मानव-बम बनने में फ़ख्र महसूस करती हैं जैसा कि श्रीलंका में हाल में हुआ। ऐसे लोग स्वयं भी धर्मभीरु होने से या अपने निजी स्वार्थों / तथाकथित आदर्शों से प्रेरित होकर उन धर्मान्ध कट्टरपंथी धूर्त लोगों के आसान शिकार हो जाते हैं जो अपने सुरक्षित आरामगाहों में रहते हुए ऐशो-आराम में डूबे रहते हैं।
श्री पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के अनुसार इस्लाम, - धर्म नहीं, एक राजनीतिक विचारधारा मात्र है, जिसका सामना इससे अधिक शक्तिशाली, किसी दूसरी ताकतवर विचारधारा से ही किया जा सकता है।
प्रश्न यह है कि क्या इस विचारधारा का जवाब विचारधारा से ही दिया जा सकता है?
क्या यही पर्याप्त और अधिक उचित नहीं होगा कि इस विचारधारा को धर्म कहे बिना ही इसके सभी पक्षों पर सबका ध्यान आकर्षित किया जाए सबको जागरूक किया जाए, ताकि इसकी कट्टरवादी व्याख्या से सब सावधान और सतर्क रहें?
किसी विचारधारा को सीधे नष्ट नहीं किया जा सकता, न ऐसा करना ज़रूरी ही है, बल्कि यह एक खतरनाक विकल्प भी हो सकता है। किसी विचारधारा का विरोध करना भी, उसे और भी ज़्यादा ताकतवर बना सकता है।
किसी भी तथाकथित 'धर्म' (religion) का उसके आरंभ से अब तक का इतिहास जानना इससे अधिक ज़रूरी है।विशेषकर वह धर्म जो राज्यसत्ता या प्रचार के सहारे प्रचलित होता है। जिसका प्रचार किया जाना पड़ता है वह धर्म नहीं व्यापार का एक प्रकार होता है। (सनातन) धर्म किसी पर बलपूर्वक या बहला-फुसलाकर आरोपित नहीं किया जाता। और जिसे बलपूर्वक या बहला-फुसलाकर आरोपित किया जाता हो, वह और कुछ भी हो, 'धर्म' तो क़तई नहीं होता।
धर्म और रिलिजन (religion) के बीच परस्पर लगभग वैसा ही संबंध / भेद देखा जा सकता है, जैसा कि 'वाणी' (voice) और भाषा (Language) के बीच होता है।
संस्कृत भाषा में क्रियापद 'लग्' से अंग्रेज़ी में (शायद लैटिन के रास्ते) जितने सज्ञात cognate बने हैं उनमें से leg, lag, ligature, legate, legacy, legal, legitimate, legion, log, lug का प्रयोग / संबंध 'लगने' या 'जुड़ने' के अर्थ में होता है। 'religion' इसी प्रकार 'परिलग्न' का सज्ञात / सज्ञाति / cognate है । अंग्रेज़ी के जितने शब्दों में 're' उपसर्ग (prefix) से बने हैं प्रायः सभी इसी 'परि' का 're' में परिवर्तन (reversion) है।
इसलिए religion का धर्म से बहुत भिन्न अर्थ है, और क्रिश्चियनिटी, इस्लाम, यहूदी, पारसी यहाँ तक कि जैन, हिन्दू, बौद्ध, सिख आदि परंपराओं में से कोई भी शुद्धतः धर्म न होकर परंपराओं (legacy) का मिश्रण है, जिसमें यद्यपि धर्म के कुछ लक्षण प्राप्त होते हैं किन्तु वास्तविक धर्म उससे बहुत भिन्न है। इन लक्षणों में कुछ तो अधर्मपरक भी हैं और इसका कारण यही है कि वैदिक धर्म अर्थात् सनातन धर्म के अनुसार वर्ण-आश्रम-धर्म ही वह धर्म है जिससे मनुष्य मात्र सच्चे अर्थों में सुखी हो सके। दूसरी ओर जैन तथा बौद्ध धर्म श्रमण और तपस्वियों के लिए हैं। आज की स्थिति में जब वर्ण-आश्रम परंपरा ही लुप्तप्राय हो रही है, तो दुर्भाग्य से धर्म के नाम पर अधर्म को भी धर्म कहा और सिद्ध भी किया जा रहा है, उसका ही प्रचार हो रहा है, लेकिन इसके परिणाम से स्पष्ट है कि भौतिकता पर केंद्रित यह धर्म संसार को विनाश के गर्त में धकेल रहा है।
धर्म तो खोज और अंतःप्रेरणा है। धर्म तो परम स्वातंत्र्य है किन्तु उसकी मर्यादा है। धर्म उच्छृंखल, अमर्यादित आचरण नहीं है। धर्म राजनीति और व्यापार नहीं हो सकता। राजनीति और व्यापार धर्म के आचरण के साथ भी किए जा सकते हैं, जबकि बिना धर्म के वे आरंभ में और अंततः भी सबके लिए अहितकारी और विनाशकारी ही सिद्ध होते हैं।
इसलाम पूरे संसार की दुःखती रग क्यों बन गया है?
क्योंकि हमने ईमानदारी से कभी इस्लाम को समझने की कोशिश ही नहीं की। इसलाम के इतिहास और सिद्धांतों को ध्यान से समझने पर हमें स्पष्ट हो जाएगा कि क्यों इसकी अनेक व्याख्याएँ हैं और इसके क्या अंतर्विरोध / विसंगतियाँ हैं। सवाल यह भी है कि क्या संसार को इस्लाम की ज़रूरत है? और, क्या इस्लाम को संसार की ज़रूरत है? इन प्रश्नों का उत्तर उस हर व्यक्ति को स्वयं ही खोजना होगा जो इस्लाम के पक्ष या विपक्ष में है। लेकिन राजनीति ऐसा नहीं करने देती। राजनीति तो इस्लाम (या किसी भी दूसरी विचारधारा) के पक्ष में, या विरोध में होती है। इसलिए यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है।
नक्सलवाद, माओवाद इसी प्रकार के आंदोलन हैं, जो हिंसा के माध्यम से राज्य को अपने नियंत्रण में करना चाहते हैं।
संक्षेप में; -कहीं भी, कोई भी मनुष्य आतंक से आतंकित होकर या बिना आतंकित हुए भी, मृत्यु के भय से घबराकर, या बिना घबराए भी इतना विक्षिप्त हो सकता है (या उसे विक्षिप्त किया जा सकता है), कि बेख़ौफ़ और बेहिचक होकर आतंक फैलाने और मरने-मारने पर उतारू हो जाए।
इसलिए आश्चर्य नहीं कि तमाम चिंताओं और प्रयासों के बाद भी आतंक की खेती या उद्योग (फैक्ट्री) पनपती ही जा रही है। आदर्श और लक्ष्य भले ही परस्पर कितने ही विपरीत या विरोधी क्यों न हो कुल परिणाम यही है कि कुछ लोग हमेशा आतंक की बलि चढ़ते रहेंगे जबकि कुछ दूसरे लोग धर्म के नाम पर उनकी बलि देते रहेंगे।
मनुष्य मात्र आतंकित होने से हिंसक हो जाता है और हिंसक होने से आतंकित भी।
कमज़ोर पर हिंसा करते हुए उसमें एक तात्कालिक उन्माद अवश्य पैदा हो जाता है जो उसे स्वयं के शक्तिशाली होने का भरोसा दिलाता है। लेकिन दूसरी ओर उसकी मानवीय-संवेदनशीलता भी उतनी ही अधिक कुंठित और जड होने लगती है इस ओर से वह और भी लापरवाह होने लगता है।
हिंसा का यही उन्माद उसमें ऐसे ही दूसरे उन्मादों से जुड़कर 'राष्ट्रवाद', 'धर्म' या समाज के लिए प्राण तक ले लेने और दे देने का ज़ोश जगाता है।
'धर्म' ही जब युद्ध के लिए उकसाने लगे, तो इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी?
यहाँ इस बात को नज़र-अंदाज़ करना ही सबसे भयानक भूल है कि हमने विभिन्न और परस्पर विरोधी मतों-मतान्तरों, रूढ़ियों और परंपराओं को बिना उनकी सत्यता जाने-समझे 'धर्म' कहा और अब हम यह तक भूल गए हैं कि वास्तविक 'धर्म' तो उन सबमें समान रूप से विद्यमान वह तत्व है जो सभी मनुष्यों में सर्वत्र ही परस्पर विश्वास, सौहार्द्र और प्रेम पैदा करता है। दूसरी ओर बारम्बार यह भी कहा जाता है कि सब धर्म सामान हैं ! क्या यह एक प्रत्यक्ष विरोधाभास नहीं है?
इस विरोधाभास को पहचानने के बाद यह स्वयं ही दूर हो जाता है, और केवल इसी तरह से हम इसे दूर कर सकते हैं। लेकिन इसके लिए समाज के स्तर पर कार्य कर पाना शायद बहुत मुश्किल काम होगा। अगर कर सकें तो ज़रूर करें ! शुभकामनाएँ !
इसलिए उस स्तर पर तो शायद व्यक्ति लगभग पूरी तरह बेसहारा और असहाय है लेकिन स्वयं अपने भीतर इस बारे में विवेकपूर्वक अपना और संसार का विनाश रोकने के लिए हमेशा और अवश्य ही भरसक कुछ कर सकता है।
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