August 22, 2018

मीडिया-मसाला

आज की कविता :
मीडिया-मसाला
’कुछ भी’
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हर दर्शक जहाँ ’पात्र’,
हर पात्र जहाँ ’चरित्र’,
’चरित्र’ जहाँ अभिनेता,
अभिनेता, -शत्रु या मित्र,
राजनीति, खेल या चैनल,
महक़ते हैं जैसे इत्र,
निर्देशक, कहानी, कथाकार,
ख़रीदे हुए हों या उधार,
टीवी या मोबाइल पर,
जीवंत रोज़ चलचित्र !
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हरिप्रिया वृन्दा तुलसी...

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वंदे मातरम् !
सुप्रभात!
वैसे तो राक्षस कुल की,
कहते हैं है यह तुलसी,
तप से किसी वरदान से,
पर हरिचरणों में हुलसी,
तन-मन को करती पावन,
धरती को गंगा-जल सी,
साँसों से दिल में घर करती,
हरिप्रिया वृन्दा तुलसी...
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August 20, 2018

आज की कविता : ख़बरनवीस!

आज की कविता : ख़बरनवीस!
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ख़बरनवीस!
ख़बर नफ़ीस दो!
पढ़ते ही दौड़ने लगे,
लहू नसों में तेज़,
चलने लगें साँसे तेज़,
तड़प उठे दिल दर्द से,
किसी की ख़ातिर!
ख़बरनवीस!
ख़बर दो ऐसी,
कि ख़बर लो उन सबकी,
जो ढूँढते हैं,
ख़बरों में शिकारगाह,
जिनकी निगाहों में हैं,
हरे-भरे चरागाह,
जो ढूँढते हैं,
नसों में खुद के लिए,
ख़बरों में वहशी उन्माद,
उन सबकी ख़बर लो!
ख़बरनवीस!
ख़बर नफ़ीस दो!
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(शायद इसे एडिटिंग की ज़रूरत है, 
लेकिन ऐसी ज़ुर्रत करने का इरादा अभी नहीं है। ) 

August 18, 2018

आज की कविता / सहारे

आज की कविता / सहारे
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’कुछ भी ...’
सन्दर्भ बदलते ही ’तथ्य’ बदल जाते हैं,
और सब के अपने ’सत्य’ बदल जाते हैं,
कौन सा तथ्य होगा, कौन सा सत्य होगा,
इसे तय करने के पैमाने भी बदल जाते हैं ...
बदलती दुनिया में सब कुछ बदल जाता है,
संबंध बदल जाते हैं, उसूल बदल जाते हैं,
कौन सा सहारा मिले, किसे ढूँढते हैं हम,
जो सहारे होते हैं, वो सहारे बदल जाते हैं ...
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August 07, 2018

जिसे चाहो उससे ...

गीत
'इबादत' 
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जिसे चाहो उससे कभी कुछ मत चाहो,
उसके अवगुण कभी न देखो, गुण सराहो,
तुमसे भले ही उतर आए दुश्मनी पर,
तुम उससे मुहब्बत का ही रिश्ता निबाहो,
हाँ ये मुश्किल है, बहुत ही है मुश्किल,
न आजमाओ उसे, खुद को आजमाओ !
बना लो अपने को तुम उसका बन्दा,
और उसे तुम खुदा अपना बना लो!
इक यही है सच्ची इबादत का तरीका,
अपनी रूह को तुम उसका मंदिर बना लो !
फिर हो वो बुत या चाहे हो बुतपरस्त,
या भले ही हो, काफ़िर या बुतशिकन,
बा-उसूल, बे-उसूल, या पाबंद मज़हब का,
खुद के मिटने का कोई तरीका निकालो !
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August 03, 2018

आज की कविता 'प्यास'

आज की कविता
 'प्यास'
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डगर बहुत कठिन पनघट की,
प्यास बड़ी गहरी पर घट की,
एक घड़ा मिट्टी का बना,
मन-प्राणों का दूजा बना,
बाहर की प्यास पानी से बुझे,
भीतर की कौन बुझाए, बूझे?
रह रह उठती-बुझती प्यास,
या पानी की झूठी आस,
पानी धरती पर चारों ओर,
जिसका कहीं ओर ना छोर,
भीतर शुष्क हृदय मन गात,
मृत्यु जीवन को देती मात !
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