September 29, 2016

आज की कविता / बाल-लीला

आज की कविता
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बाल-लीला
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विषधर पयोधर पूतना के,
विष के कलश थे छलक रहे,
भुजदण्ड सर्पिल भुजंगों से,
मिलन के लिए मचल रहे ।
दृष्टि-शर विष-बुझे तीर,
श्याम-शिशु पर जब पड़े,
वात्सल्य की तरंग से,
विष-कलुष सारे धुल गए ।
श्याम के शिशु-स्पर्श से,
विष हुआ तत्क्षण अमिय,
पूतना की मुक्ति का,
उद्धार का बस यह रहस्य ।
हर नारी तब बनी गोपिका,
हर व्रज-ललना राधा हुई,
हर प्रीति ने पाया प्रियतम,
हर प्रेम तब हुआ पवित्र ।
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(देवास, 29-09-2016)

September 26, 2016

अपने-राम

अपने-राम
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कल आकाशवाणी पर एक अद्भुत् वक्तव्य सुना :
वे कह रहे थे :
"... ’धर्म-निरपेक्षता’ की परिभाषा को बहुत तोड़ा-मरोड़ा गया है ।"
अपने-राम वैसे तो राजनीति और धर्म के मामले में दखलन्दाज़ी करने से  बचने की भरसक क़ोशिश करते हैं, किन्तु भारत से प्रेम के चलते कभी-कभी झेलना असह्य हो जाता है । बोल ही पड़े :
"किस सफ़ाई से उन्होंने इस सवाल को उठने ही नहीं दिया कि क्या धर्म की परिभाषा को ही पहले से ही तोड़ा-मरोड़ा नहीं गया था? परंपराओं पर ’धर्म’ का लेबल किसने चिपकाया? कब और क्यों चिपकाया? उन्हें ’समान’ समझे जाने का आग्रह किसका था? परंपराएँ, - जिनके आदर्श, ’विश्वास’, ’मत’, उद्देश्य और आधारभूत सिद्धान्त, प्रवृत्तियाँ परस्पर अत्यन्त अत्यन्त भिन्न, यहाँ तक कि विपरीत और विरोधी हैं, उनके परस्पर समान होने का विचार ही मूलतः क्या एक भ्रामक अवधारणा नहीं है?"
वे कह रहे थे :
’धर्म-निरपेक्षता’ की परिभाषा को बहुत तोड़ा-मरोड़ा गया है ।
"किसने और कब और क्यों तोड़ा?"
यह प्रश्न हमारे मन में उठे, इससे पहले ही वे अपना वक्तव्य पूर्ण कर चुके होते हैं ।
वे कुशल राजनीतिज्ञ हैं इससे इनकार नहीं और कुशल राजनीतिज्ञ की यही पहचान है कि वह मौलिक प्रश्नों को दबा देता है, काल्पनिक (शायद ’आदर्शवादी’) प्रश्न पैदा कर लेता है और मूल प्रश्न से लोगों का ध्यान हटाकर काल्पनिक प्रश्नों और समस्याओं पर केन्द्रित कर लेता है । सभी कुशल राजनीतिज्ञ इस कला में निष्णात होते हैं ।
क्या राजनीतिक या कोरे बुद्धिजीवी, साहित्यकार, ’विद्वान’ तथाकथित ’विचारक’ और समाज में सफल कहे जानेवाले लोग कभी मूल प्रश्नों को सीधे देखने का प्रयास करते हैं?
वे किसी आदर्श, उद्देश्य, विचार / सिद्धान्त रूढ़ि, परंपरा से ही शक्ति प्राप्त करते हैं और उसी आधार पर अपनी ऊर्जा केन्द्रित करते हैं और किसी तरह जैसे-तैसे स्थापित हो जाते हैं । यदि वे ’असफल’ भी रह जाते हैं तो कहा जाता है कि उन्होंने अपना सब-कुछ संपूर्ण जीवन ही उस महान् उद्देश्य के लिए न्यौछावर, बलिदान, होम , कुर्बान कर दिया । 'त्याग' की उनकी मिसाल की राजनीतिक-प्रवृत्ति से प्रेरित कुछ दूसरे लोग फिर उनकी ’मशाल’ को जलाये रखते हैं । इस प्रकार अनेक भिन्न-भिन्न प्रकार की राजनीतिक प्रवृत्तियों की मशालें दिन-रात सतत जलती रहती हैं, और उन्हीं से हमारी दुनिया रौशन है, ... वरना तो हम अंधेरों में भटकते रहते !
अपने-राम सोचते हैं :
इस छोटी सी जिन्दगी में भजन करते हुए उम्र को जैसे-तैसे खींच ले जाएँ तो भी बहुत है ।
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September 17, 2016

हक़ीकत

हक़ीकत
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उम्र भर अंधेरों में ही भटकते रहे,
उम्र भर आँखें हमारी बन्द ही रहीं ।
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September 13, 2016

क्या आक्रामकता ’धर्म’ है ?

क्या आक्रामकता ’धर्म’ है ?
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हमारा देश धर्मप्राण प्रवृत्ति के लोगों से भरा पड़ा है । एक पत्थर किसी भी दिशा में फेंकते ही कोई न कोई ’धर्मप्राण’ उसकी चपेट में आ जाता है । किन्तु खेल-खेल में या परम कर्तव्य समझकर पत्थर उछालना / फेंकना कुछ लोगों के लिए यही धर्म होता है । किंतु चूँकि संस्कृत भाषा के व्याकरण का लचीलापन (वर्सेटाइलिटी / फ़्लेक्सिबिलिटी) हर किसी के अपना अर्थ निकालने की स्वतंत्रता का सम्मान करती है, इसलिए कुछ लोगों के मत में ’धर्मप्राण’ होने का अर्थ है ’धर्म के प्राण लेना’ । फिर यह धर्म अपना हो या पराया इस बारे में उनका अपना मत हो सकता है ।
इन दिनों भारत की विविधता में एकता की परंपरा का उच्च स्वरों में घोष करते हुए विभिन्न ’धार्मिक’-स्थलों पर अनेक आयोजन हो रहे हैं । ऐसे ही कुछ आयोजन मेरे घर के आसपास हो रहे हैं, जिससे मुझे कोई आपत्ति नहीं है किंतु उन उच्चस्वरों में लॉउड-स्पीकर से फ़िल्मी गानों की धुनों पर गाये सुनाए जानेवाले से धर्म के प्राणों की कितनी रक्षा होती है या संगीत और कला, भक्ति के माध्यम से प्राण लेने का उपक्रम किया जाता होगा, मैं नहीं कह सकता ।
मेरी समस्या यह है कि उन ध्वनियों में मेरे अत्यंत ज़रूरी फ़ोन की रिंग-टोन भी मुझे सुनाई नहीं पड़ती, और यदि अटैंड कर भी लूँ तो बात करना / सुनना मुश्किल होता है । ऐसे ही एक आयोजन के कर्ता-धर्ता से मैंने अपनी समस्या का उल्लेख किया तो (आक्रामक होकर) बोले : आप हिंदू हैं या मुसलमान ?
मेरा जन्म जिस परिवार में हुआ, समाज में उसे हिन्दू कहा जाता है । किंतु यदि मेरा जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ होता तो भी क्या मेरी यह समस्या (फ़ोन पर किसी से संपर्क करने में कठिनाई होना) समाप्त हो जाती ? क्या मेरी इस समस्या का संबंध मेरे हिन्दू या मुसलमान होने से है? इसलिए हिन्दू हो या कोई अन्य परंपरा, ’तकनीक’ का उपयोग कहाँ तक उचित है? धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर मनमानी छूट लेकर धर्म को अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए सहारा बनाना क्या धर्म है?
मान लीजिए मैं मुसलमान होता और ऐसे किसी आयोजन के कर्ता-धर्ता से अपनी समस्या कहता और वह इसे हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखता तो वह चाहे हिन्दू होता या मुसलमान, अगर मुझसे "आप हिंदू हैं या मुसलमान ?" यही प्रश्न करता, तो भी मेरी समस्या हल नहीं हो सकती थी ।
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September 07, 2016

रिश्ते !

रिश्ते !
कुछ दर्द दोस्त होते हैं,
कुछ दर्द होते हैं दुश्मन,
कुछ दोस्त दर्द होते हैं,
कुछ दोस्त होते हैं दुश्मन ।
दर्द से दोस्ती का यह,
दोस्त से दुश्मनी का,
दर्द से दुश्मनी का भी,
कितना अजीब नाता है !
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September 04, 2016

वृक्ष की संक्षिप्त आत्मकथा

वृक्ष की संक्षिप्त आत्मकथा
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कहीं भी जाने के लिए मैं हमेशा से ही इतना लालायित था कि एक पैर पर खड़ा तैयार रहता था, लेकिन दूसरा पैर न होने से कभी कहीं न जा सका । तब मैंने ढेरों पंख उगाए, पर तब तक जड़ें धरती में इतनी गहराई तक धँस चुकी थीं कि मैं धरती से उठ तक नहीं सकता था, उड़ना तो बस स्वप्न ही था । तब से बस यहीं हूँ ।
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September 01, 2016

2 छोटी कविताएँ

2 छोटी कविताएँ
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टकराते-टकराते,
टकराहट तक़रार ।
तक़रार से बेक़रारी,
रार, इक़रार, क़रार ।
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दो दिन तेरा-मेरा जीवन,
अनंत असीम पर प्यास,
जैसे क़श्ती, दरिया, सागर,
ढूँढे चंदा धरती आकाश !
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